महेश चंद्र
पुनेठा – आप कविता के केंद्र में मनुष्य भाव को मानते हैं.कविता ही मनुष्य भाव की
रक्षा करती है.यह अच्छी कविता का एक आधार बिंदु है. आखिर यह मनुष्य भाव क्या है ? भाव
और मनुष्य भाव में क्या अंतर है? कविता में मनुष्य भाव का
विस्तार कैसे संभव है?
जीवन
सिंह- मनुष्य भाव दरअसल वे भाव हैं जो एक व्यक्ति की मनुष्यता को व्यक्त करते
हैं।लेकिन इस संघर्षशील और वर्ग विभाजित दुनिया में बहुत आसान काम नहीं है।इसे
समझते हुए उन ताकतों को पहचान कर संघर्ष करना पड़ता है जो मनुष्य भावों की विरोधी
होती हैं।इसे आचार्य शुक्ल ने लोकमंगल की साधनावस्था कहा है। पुराने
साहित्यशास्त्रियों ने मनुष्य के मन में नौ स्थायी भाव बतलाए हैं जिनमें प्रेम,क्रोध,
उत्साह, घृणा,करुणा,
भय,हास,आश्चर्य आदि भाव
आते हैं।इन भावों की क्रिया-प्रतिक्रिया में सारा मनुष्य जीवन संचालित होता
है।साहित्य सृजन इसी भाव संसार के भीतर होता है।मनुष्य अच्छाई से प्रेम करता है तो
बुराई से घृणा और क्रोध भी।वह पीडित के प्रति करुण होता है तौ उसके मन में उत्पीडक
के प्रति क्रोधित।वह भयानक से भयभीत होता है तो अचरज की बातों से आश्चर्यचकित।यह
मनुष्य जीवन की भाव प्रक्रिया है।चूंकि मनुष्य एक विचारशील प्राणी भी है इसलिए भाव
प्रक्रिया के साथ विचार प्रक्रिया भी चलती है जो भावों को अनुशासित करते हुए उनको
सही दिशा भी प्रदान करता है। लेकिन यह सब व्यक्ति की अपनी स्थिति से तय होता है।
आधुनिक शब्दावली में मुक्तिबोध ने इसी को
संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना नाम दिया।चूंकि समाज में अनेक तरह के
उत्पीड़क होते हैं जो बिखरे हुए अच्छे लोगों का अपनी ताकत से उत्पीडन करते हैं इसलिए
समाज के भीतर अनेक तरह के संघर्ष चलते रहते हैं।इनकी सही समझ जब तक किसी रचनाकार
को नहीं होती, वह अच्छा और प्रभावी साहित्य नहीं रच सकता।
मनुष्य प्रकृति की संतान है ।इसलिए प्रकृति के
प्रति भी हमारे मन में तरह तरह के भाव उत्पन्न होते रहते हैं।इन सबका प्रभाव मन पर
पड़ता है जो हमारे भावों को उर्वरता प्रदान करता है। कोई भाव तभी मनुष्य भाव बनता
है जब वह अपनी व्यक्तिगत सीमा से बाहर निकल कर सबका भाव बन जाता है अर्थात निजी
भाव का जब साधारणीकरण हो जाता है।दुनिया में हरेक माँ अपने बेटे को प्यार करती है
।अपने परिवार से सबको लगाव होता है।हमारे प्रति जब कोई अन्याय करता है तो हमको
गुस्सा आता है।निजी परेशानियों और मुश्किलों-तकलीफों से निजी स्तर पर सब दुखी होते
हैं।यह भावस्थिति है यहाँ मनुष्य भाव नहीं।मनुष्य भाव वह तब बनता है जब हम सबके
दुख में दुखी होते हैं और यह प्रयास भी करते हैं कि कोई दुखी न रहे।हमारे
स्वाधीनता सेनानियों ने ऐसा किया और अपने स्तर पर मनुष्य भाव का सर्वोच्च प्रदर्शन
किया।ऐसे ही छोटे छोटे स्तरों पर भी लोग करते हैं किन्तु दूसरों को पीड़ित करके जो
लोग सरप्लस धन से दान धर्म का पाखंड करते हैं उसमें ऊपर से हमको मनुष्य भाव लगता
है किन्तु सच में वह होता नहीं।एक कपटपूर्वक किया गया छल ही होता है।
कविता में हम सचाई के साथ सौन्दर्य की रचना करते
हैं।जब भी हम सचाई को दिखाने का प्रयास करेंगे, तभी साधनावस्था वाला
सौन्दर्य रचा जा सकेगा।इसमें ही हमको पता चलेगा कि परोक्षतः ही सही,हम स्वयं भी कहीं न कहीं उस उत्पीड़क और उत्पीड़न की प्रक्रिया में शामिल
हैं ,जिसका प्रत्यक्षतः हम कविता में विरोध कर रहे
हैं।मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में ज्यादातर इसी विषय को अपनी कविता की
अन्तर्वस्तु बनाया है।इस वजह से भी उनकी कविता हमको दुर्बोध लगती है क्योंकि वे
लीक से हटकर चलते हैं। हर युग में कविता की एक लीक बन जाती है।पिछलग्गू कवि ऐसी ही
युग लीकों पर चला करते हैं।लीक छोड़कर चलने वाले को उपेक्षा और प्रहार सहने ही पड़ते
हैं इसीलिए तो कहा गया…. लीक लीक गाड़ी चलै,लीकै चलै कपूत।
लीक छाँडि तीनों चलैं , शायर सिंह सपूत।लेकिन यह बात हर शायर
पर लागू नहीं होती क्योंकि अभी तक का अनुभव यह कहता है कि अधिकांश शायर युगलीक पर
ही चलने वाले होते हैं।
महेश चंद्र
पुनेठा- मुक्त छंद कविता के सन्दर्भ में जानना चाहूँगा कि वह कौनसा तत्व है जो उसे
गद्य से अलगाता है, बहुत सारे पाठक कहते हैं कि इसमें तुक-ताल-छंद
तो कुछ भी नहीं हैं. बस इतना है कि उसे छोटी -बड़ी पंक्तियों में लिख भर दिया
है.क्या किसी अनुच्छेद को छोटी-बड़ी पंक्तियों में लिख दिया जाय तो उसे कविता कहा
जा सकता है? अपनी बात को छोटी-बड़ी पंक्तियों में लिख देने को
कविता मान लेने की मानसिकता के चलते ही हर लिखने वाला आज खुद को कवि कहने लगा
है.यही हाल तुकांतता को कविता मानने वालों का है. वास्तव में वह कौनसा तत्व है जो
किसी रचना को कविता बनाता है?
जीवन
सिंह- पहले इस बात पर सोचने की जरूरत है कि ऐसी कौन सी परिस्थतियां थीं जिनकी वजह
से दुनिया की लगभग सभी भाषाओं की कविताओं में मुक्त छंद को लाना पड़ा।यह जनता की
मुक्ति से जुड़ा हुआ सवाल है।इसको वे ही समझ और सराह सकते हैं जो कविता के साथ-साथ
जीवन के विकास क्रम और उसके इतिहास को भी जानते हैं और जिन्होंने जिन्दगी के दर्पण
में कविता को देखा है।कविता का सारा सौन्दर्य विधान जीवन का सौन्दर्य विधान
है।जीवन में जब लगातार मुक्ति के प्रयास चल रहे हों तब साहित्य उनसे कैसे बच सकता
है।आपने देखा है कि पिछली दो शताब्दियों में ही सभी जीवन क्षेत्रों में
ज्ञान-विज्ञान का कैसा और कितना विस्फोट हुआ है।यह न होता तो दुनिया में आज सभी
जगह राजतंत्र या कबीलाई तंत्र ही होता।जहां की जनता में आधुनिक ग्यान विग्यान की
पँहुच नहीं बन पाई है या ताकत से इस प्रक्रिया को रोककर रखा गया है,वहाँ
आज भी कबीलाई या सामंती अँधेरा मौजूद है।हमारा भिन्नताओं वाला और पुरातनपंथिता का
अभ्यस्त देश ,लोकतंत्र आ जाने के बावजूद पुरातन रूढ़िवाद से
जूझ रहा है।नए ज्ञान-विज्ञान को आज भी लोग विदेशी आयातित ज्ञान कहते और मानते हैं।
ऐसे में भाव,संवेदना के साथ आधुनिक ग्यान और विचार प्रक्रिया
को पुराने बँधे हुए रूपाकारों में व्यक्त कर पाना जब संभव नहीं रह गया तो मुक्त
छंद जैसा नया काव्य रूप आया।जब हमारी जिन्दगी का रूप विन्यास बदल रहा है तो कविता
का क्यों नहीं बदलेगा।हमारी बोली भाषा, वेशभूषा, घर आवास, भोजन और रीति रिवाजों पर आधुनिकता का गहरा
असर हुआ है तब कविता कैसे पुरानी रह सकती है।यदि पुरानी रहेगी तो नई बातें आने से
रह जायेंगी।सागर में विस्तार और गहराई न हो तो उसमें देश की सारी नदियों का पानी
कैसे समा सकता है। यही बात कविता के साथ भी है।डबरे में जितना पानी समा सकता है
उतना ही उसका महत्व है।
कविता में पुराने छंद चाहे न आ रहे हों किन्तु
समझदार कवियों में उन छंदों की लय आज भी बची हुई है।निराला, नागार्जुन
,त्रिलोचन,मुक्तिबोध सभी की कविता में
लय मौजूद है।इन्होंने तो आधुनिक छंदों में भी कविताएं की हैं और नए छंदों का सृजन
भी किया है।साथ ही मुक्त छंद में कविताएं लिखी जा रही हैं।अज्ञेय, रघुवीर सहाय ,सर्वेश्वर ,धूमिल
,कुमारेन्द्र,कुमार विकल ,मानबहादुर सिंह ,विजेन्द्र ,केदारनाथ
सिंह,राजेश जोशी, अरुण कमल ,नरेश सक्सेना, कात्यायनी ,नीलेश
रघुवंशी आदि सभी के मुक्त छंदों में लय का पूरा समायोजन मौजूद है। इनके अलावा और
अनेक नाम छूट गये हैं जिनमें मुक्त छंद की लय मौजूद है। ध्यान रखें मुक्त छंद की
लय।हाँ,आज कई ऐसे कवि भी हैं जो मुक्त छंद की बजाय छंद मुक्त
कविता लिख रहे हैं। सारा गड़बड़घोटाला उन लोगों ने ज्यादा किया है जो भारतीय और
हिन्दी काव्य परम्परा को जाने, समझे बिना सीधे कविता के
मैदान में उतर गये हैं।मुझे तो गद्य कविता जैसी दिखने वाली विष्णु खरे की कविता
में भी नवोन्मेष और जीवन के मर्म तक पँहुचने की गति जैसी संरचना में लय नजर आती
हैं।आप सब पिछली पीढ़ी से सीखकर कविता में लय को बचा रहे हैं।जो अपनी निकटस्थ काव्य
परम्परा तक को नहीं जानते, वे ही सारा गड़बड़झाला कर रहे
हैं।जिन्होंने अपनी बोलियों के लोकगीतों को थोड़ा भी जान लिया है और उनको अपने मानस
में बिठा लिया है वे मुक्त छंद की लय से बाहर नहीं हैं। दूसरे कविता अनेक रूपों
में रची जाती है।हर युग में अच्छी और खराब दोनों तरह की कविताएं कही गई हैं।आज भी
हिंदी कविता में गीत,गजल,दोहों में उस
भावबोध को पूरी लय के साथ ला रहे हैं जो मुक्त छंद की कविता में आने से रह गई
है।आप जानते हैं नवगीतकारों और जनगीतकारों में एक जमाने में रमेश रंजक ने हलचल
पैदा कर दी थी।गजल में जैसे दुष्यंत कुमार, अदम गौंडवी को
कैसे भूला जा सकता है।नवगीतकारों में माहेश्वर तिवारी, राम
सेंगर आदि ने गीतों के माध्यम से लोकयथार्थ की नई जमीन को तोड़ा है।नचिकेता नवगीत
और जनगीत दोनों के एक समर्पित योद्धा रहे हैं।हिंदी में गीतकाव्य की एक सुदृढ़
परम्परा रही है।यह सब भी हमारी काव्य परम्परा का हिस्सा है।
कविता को कविता बनाने वाला कोई एक तत्व नहीं
होता।पुराना समय होता तो मैं कह देता कि रस ही काव्य की आत्मा है।यदि मैं अलंकार
से कविता को जाँचता तो कह देता कि कविता को अलंकार से पहचानो क्योंकि अलंकार ही
काव्य की आत्मा है।इसी तरह किसी ने ध्वनि, किसी ने वक्रोक्ति और किसी
ने इन सभी के औचित्य को कविता कहा:कविता क्या है?इस सवाल का
सटीक उत्तर आज तक नहीं मिला है।कविता दरअसल अपने समय के जीवन के जटिल यथार्थ की
ऐसी रूपाकार अभिव्यक्ति है जो अनेक रूपों में अनेक तरह से मुक्ति का मार्ग इस तरह
से बनाती है कि पढ़ने और सुनने वाले को सुलाए नहीं वरन उसे जगाकर एक ऐसे मनुष्य में
बदलने की सामर्थ्य रखती हो ,जो सम्पूर्ण मानवता का नागरिक बन
जाए।
महेश चंद्र
पुनेठा- आप अच्छी कविता,श्रेष्ठ कविता,बड़ी कविता
और महान कविता जैसे पदबंधों का अक्सर प्रयोग करते रहे हैं . इनमें क्या कोई अंतर
है ? जबकि ऊपर से देखने पर एक दूसरे के पर्याय ही लगते हैं।
जीवन
सिंह- इस तरह का विभाजन टी एस इलियट ने किया है गुड पोएट्री एण्ड ग्रेट पोएट्री। दरअसल जैसा कि सभी को पता है कि कविता एक तरह की नहीं होती।सामान्य और एक ढर्रे
में बँधी कविताएं भी हर युग में लिखी जाती हैं इनमें से ही अच्छी और महान कविता का
जन्म होता है। अच्छी और महान कविता में भी अन्तर होता है।मसलन हमारे यहाँ भक्ति
काल की कविता महानता के सभी स्तरों तक पँहुचती है उसमें कई कवि हैं जो कविता को
महानता के स्तर तक ले जाने का काम करते हैं। …… कबीर, जायसी,सूर ,तुलसी, मीरा, रहीम आदि ने यह काम किया है।इसके बाद आधुनिक काल ही है जिसमें कविता के
सभी स्तरों के उदाहरण मिलते हैं।कुछ कवि ऐसे होते हैं जो जीवन की अधिरचना में ही
ज्यादा विचरण करते हैं उसके आधारभूत सवालों तक उनकी दृष्टि नहीं पँहुच पाती।
महानता आधार और अधिरचना के रिश्ते का सही तौर पर निर्वाह किए बिना नहीं आती।कविता
के विभाव का काम करने वालों में मनुष्य से लगाकर सम्पूर्ण प्रकृति कीट,पतंग आदि कुछ भी हो सकता है लेकिन उसकी बुनियादी बातें अलग होती हैं।मसलन
उपन्यासकार-कहानीकार तो सैकड़ों की संख्या में हैं पर प्रेमचंद का सानी दूसरा
नहीं।इसकी वजह वे जिन्दगी के आधारभूत सवालों को लेकर चलते हैं,जिन पर चल पाना आसान नहीं होता।मैदान पर चलने वाले तो बहुत होते हैं पर
साँसों की शक्ति का पता पहाड़ों की चढ़ाई से चलता है।
महान रचना वहीं है,जहाँ
से जीवन व समाज की महानता पैदा होती है।जीवन की महानता और कविता की महानता में खास
फर्क नहीं है ।एक जीवन व्यवहार के स्तर पर है तो दूसरी शब्द रचना के स्तर पर।इसलिए
अपने लक्ष्य को पाने के लिए रचनाकारों को भी खतरे उठाने पड़े हैं अभिव्यक्ति के
खतरे, सत्ता के प्रतिरोध करने के खतरे जिससे सही ,सच्ची और बुनियादी बात रची जा सके।इसके लिए सुख-सुविधा, यशध्कीर्ति आदि का लोभ त्याग कर जीवन संग्राम में उतरना पड़ता है।जो ऐसा
नहीं कर पाते वे महान रचना से दूर रह जाते हैं।जहाँ तक अच्छी रचना का सवाल है उसे
अनेक प्रतिभाशाली रचनाकार वैसे भी कर लेते हैं।रीतिकाल में अनेक प्रतिभाशाली और
बेहतरीन रचनाकार हैं लेकिन महान नहीं।महानता सूरज की तरह होती है जो हर युग में
प्रकाश देने की क्षमता रखती है।
नई कविता के समय के दो बड़े कवि अज्ञेय और
मुक्तिबोध को ही लें तो जीवन के बुनियादी सवालों को जिस स्तर पर मुक्तिबोध उठाते
हैं अग्येय नहीं उठा पाते।अज्ञेय निस्सन्देह अच्छे कवि हैं लेकिन उनकी कविता आधार
से ज्यादा अधिरचना के सवालों में ही मशगूल रहती है।
महेश चंद्र
पुनेठा- आपने भक्तिकालीन कवियों की कविता को महान कविता की श्रेणी में रखा है.
दलित और स्त्री विमर्श के इस दौर में कबीर की स्त्रीविषयक कविताओं और तुलसी की
जाति-लिंग सम्बन्धी अवधारानाओं को दृष्टि में रखते हुए क्या उन्हें आज भी महान
कविता की श्रेणी में रखना उचित होगा?लोकतान्त्रिक और वैज्ञानिक
दृष्टिकोण से ये कवि कितने प्रासंगिक कहे जा सकते
जीवन
सिंह- महानताओं का आधार ऐतिहासिक होता है और कालबद्ध भी।वह समय के अनुसार
पुनर्व्याख्यायित तो अवश्य होता है जिससे उसके स्वस्थ और प्रासंगिक को स्वीकार कर
अप्रासंगिक को छोड़ते हुए आगे के लिए सीखा जा सके।संसार में पूर्णता नहीं होती,सब
कुछ विकास के क्रम में रहता है ।इस यात्रा के अगले पडावों में पुराने के सु को
अपनाकर कु को छोड़ देने की जरूरत होती है।वर्तमान को ही देख लीजिए, दलित जीवन की त्रासदियों,अमानवीयताओं और यातनाओं पर
जितनी. प्रामाणिकता और तात्विक रूप में दलित लेखक लिख पाए हैं उतना सार्थक और सटीक
सहानुभूति वाले लेखक नहीं ।दलित रचनाकार प्रो तुलसी राम की दो खंडों में प्रकाशित
आत्मकथा–मुर्दहिया और मणिकर्णिका का उल्लेख यहाँ दुबारा करना चाहूँगा,रौंगटे खड़े कर देने वाले अनुभव हैं।प्रेमचंद जैसे महान लेखक ने दलित जीवन
की पीड़ाओं और त्रासदियों पर सबसे अधिक और प्रभावी लेखन किया है किंतु जो बातें
तुलसी राम के यहाँ हैं उनकी जानकारी प्रेमचंद को भी नहीं थी।प्रेमचंद ने दलितों पर
सहानुभूति के आधार पर लिखा जबकि तुलसी राम स्वानुभूतियों के आधार पर लिखते हैं।यही
बात स्त्री लेखन के लिए भी सही है।स्त्रियों में फिर भी दो वर्ग हैं उच्च वर्ग की
स्त्री का अनुभव संसार वह नहीं है जो निम्न मेहनतकश स्त्री का है फिर भी स्त्री जीवन
की कुछ समानताएं ऐसी हैं जो पितृसत्ता की चक्की में समान रूप से पिसती रही हैं। इन
पर पुरुष लेखक उतनी प्रामाणिकता और भावनाओं की गहराई के स्तर तक पँहुच पाने में
उतने सफल नहीं रहे, जितनी स्वयं भुक्तभोगी स्त्रियाँ रही
हैं।
जहाँ तक
लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक दृष्टि का सवाल है। यह माँग वैसी ही है जैसे अशोक और
अकबर महान से कोई लोकतांत्रिक होने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की माँग करे। महानताएं
समय सापेक्ष होती हैं। प्रकृति की तरह तटस्थ और निरपेक्ष नहीं। जब मानव यात्रा
विज्ञान और लोकतंत्र के आधुनिक पड़ाव तक पँहुची ही नहीं थी तब कबीर और तुलसी से
इसकी माँग करना हमारे इतिहासबोध की कमी ही नहीं, इनके प्रति हमारी
ज्यादती भी होगी।
महेश चंद्र
पुनेठा- क्या यह माना जा सकता है कि कबीर और तुलसी की लोकप्रियता का कारण उनके
काव्य की अंतर्वस्तु का धार्मिक और आध्यात्मिक होना है?
जीवन
सिंह- नहीं, यह बात बिल्कुल नहीं है।इनकी बेमिसाल साहित्यिक उत्कृष्टता,अपने समय के जीवन की वास्तविकताओं की इनकी समझदारी और उदात्तता की वजह ही
हैं जो इनको महान कवियों की श्रेणी का कवि बनाती हैं।यह अलग बात है कि धार्मिक
समाज भी इनका अपने तरीके से उपयोग करता है।ऐसा यद्यपि विरल होता है कि एक
साहित्यिक रचना लोकजीवन का धर्म भी बन जाय। हमारा समाज आज तक कभी एकरूप और
एकस्तरीय समाज नहीं रहा है।अभिजात वर्ग का साहित्य हमेशा से अलग रहा है।उसको समझने
के लिए जब तक साहित्य की शास्त्रीय परम्पराओं और उसके प्रवाह की थोड़ी बहुत समझ पाठक
को नहीं होगी तो वह उसको न समझ पायगा और न ही उससे अपनत्व स्थापित करेगा।वैसे भी
जब से हमारा समाज वर्ण व्यवस्था और बाद में जाति व्यवस्था में विभाजित हुआ,
तब से पढ़ने -लिखने का काम एक विशेष वर्ण और जाति का काम बन गया,
तब से हमारे यहाँ शिक्षा जैसे परिवर्तनकारी में तरह तरह के अवरोधक
लगा दिए गए ।यहाँ तक कि समाज के पचास प्रतिशत स्त्री वर्ग तक को शिक्षा से दूर कर
दिया गया।इससे ग्यान-विग्यान के विकास और फैलाव में तीव्र गतिरोध पैदा हुआ।ऐसे में
साहित्य भी विभाजित हुआ ।लोक ने अपने लिए अलग साहित्य रचा, जो
लोकसाहित्य कहलाया ।अभिजन वर्ग ने अपना अलग रचा।क्योंकि दोनों का अनुभव संसार अलग
रहा था।स्त्रियों ने अपने लिए अलग साहित्य रच लिया।यह विभाजन यहाँ तक हुआ कि
मध्यजातियों ,दलितों और आदिवासियों ने अपना साहित्य सबसे अलग
रचा।
हमारे यहाँ मध्यकाल से इस्लाम मतावलम्बी एक
समुदाय रहता है और दूसरे गैरइ्स्लामिक मतावलम्बी भी साथ साथ रहते हैं।इस्लाम
मतावलम्बी समुदाय मेव कहलाता है और उसकी बोली मेवाती कहलाती है जो हिंदी की अनेक
बोलियों में एक है।इस बोली में इस समुदाय ने अपने जीवनानुभवों और समझ के आधार पर
अपना लोकसाहित्य अलग से रच रखा है जिसमें गीत,बात,दूहा-बिरहड़ा
और गाथा साहित्य मौजूद है।
हमारे यहाँ एक समय रहा है जब घर्म को साहित्य का
भी धर्म बना दिया गया ।एक तो धर्म का तात्विक दार्शनिक रूप अलग से विकसित हुआ, उसका
भावात्मक अनुभूतिपरक दूसरा रूप साहित्य के माध्यम से विकसित हुआ।इस वजह से भक्ति काल
का साहित्य धर्म और साहित्य के भेद को मिटा देता है लेकिन वह साहित्य के मामले में
भी उच्च स्तरीय एवं उच्च कोटि का साहित्य है।उसकी भाषा लोक की भाषा होने की वजह से
वह लोक में इतना लोकप्रिय हुआ कि वह सबका साहित्य बन गया।
वैसे उसका दूसरा बड़ा सच यही है कि वह हमारे जीवन
का साहित्य है।धर्म चूंकि जीवन का हिस्सा रहा है इसलिए उसकी अभिव्यक्ति भी उसके
माध्यम से हुई किन्तु वह धार्मिक साहित्य नहीं है।है वह मूलतः साहित्य ही,हमारे
जीवन की वास्तविकताओं को व्यक्त करने वाला साहित्य।मसलन जायसी सरीखे कवियों ने
सूफी सिद्धांतों को अपना कर जीवन में प्रेमानुभूति के महत्व और उसकी भूमिका का
प्रतिपादन किया।उनका प्रयोजन प्रेम है न कि सूफी सिद्धांत ।ऐसे ही कबीर, सूर ,तुलसी, मीरा , रहीम आदि का साहित्य है।वह मनुष्य जीवन का साहित्य है। इनकी लोकप्रियता की वजह इनके द्वारा किया गया
लोकजीवन व उसकी आकांक्षाओं का चित्रण रहा है।
महेश चंद्र
पुनेठा- क्या आपको लगता है कि रामचरितमानस एक धार्मिक ग्रन्थ नहीं होता तो घर-घर
इतना अधिक पढ़ा और सम्मानित होता?
जीवन
सिंह- इस बारे में मेरा यह मानना है कि पहले वह कविता ही है लेकिन उसका अनुभूति
पक्ष और चरित्र कथा कुछ इस तरह की बन गयीं है कि वह धर्म और धर्म-व्यवसायी दोनों
के काम आने लगी।हमारे देश में आप जानते हैं कि कथावाचकों की एक लम्बी और सुदृढ़
परम्परा रही है।इस सम्बंध में पहला बड़ा और राष्ट्रीय स्तर का नाम है बरेली के
राधेश्याम कथावाचक का।वे रामचरितमानस को आधार बनाकर सस्वर संगीतमय और ओजस्वी
मनोरंजक धर्म निर्वाह करने वाली कथा सामान्य जन के सामने कहते थे,जिसका
सम्मोहक प्रभाव जन-मानस पर होता था।कदाचित इस प्रभाव का आकलन करते हुए गीताप्रेस
गोरखपुर ने इस ग्रन्थ को पुराण परम्परा में रखते हुए घर-मन्दिरों में लोकप्रिय बना
दिया और धार्मिक साहित्य के साथ इसको इतने सस्ते मूल्य पर प्रकाशित किया कि यह घर
घर की भक्तिभाव वाली एक धार्मिक कृति बन गयीं।वैसे भी भारत की भाषाओं का सर्वेक्षण
करते हुए जार्ज ग्रियर्सन को इसकी प्रति किसी मन्दिर में ही मिली थी।हिंदी में
साहित्य बोध का संस्कार लम्बे समय तक रीतिवादी रहा है इस वजह से भी भक्ति को जीवन
में रसानुभूति की मान्यता से दूर रखा गया।
हमारे यहाँ
आलोचना-विवेक विलम्ब से विकसित हुआ।जो हुआ उस पर रीतिवादी-सामंतवादी संस्कार हावी
रहे।इस वजह से भक्त कवियों का सही साहित्यिक मूल्यांकन देरी से हुआ और ये धर्म की
वस्तु बने रहे।लेकिन जब जीवन दृष्टि में बदलाव आया और वह आधुनिक हुआ, तब
समझ में आया कि इनमें भक्ति और धार्मिक भावभूमि के अलावा और बहुत कुछ ऐसा है जो
जीवन के विभिन्न पहलुओं और साहित्यिक दृष्टि से भी अत्यंत उच्च कोटि का है।तब
स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल सरीखे आलोचक ने इस युग की
कविता के साथ लगभग एक हजार साल की हिन्दी रचनाशीलता को जब आधुनिक जीवन विवेक से
परखा तथा इसका वस्तुगत आकलन किया ,तब हमारी साहित्यिक दृष्टि
में बहुत बड़ा बदलाव हुआ।प्रगतिशील आन्दोलन ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ,जिससे रामचरितमानस को नए प्रतिमानों के आधार पर द्वन्द्वात्मक नजरिए से
देखा गया।इस मामले में रामचरितमानस की लोकप्रियता अपने स्थान पर आज भी अक्षुण्ण
है। वह धार्मिक भी है और साहित्यिक भी। पहली बात तो यह कि तब यह केवल धार्मिक
ग्रंथ ही होता।यह चूंकि साहित्यशास्त्रीय कसौटी पर रचा गया एक अद्भुत ग्रंथ है
इसलिए इसका बहुविध उपयोग हुआ है।रामलीला जैसे लोकनाट्य रूप ने भी इसको लोकप्रिय
बनाया है। इस ग्रंथ को घर घर में लाने का काम इसके सस्ते संसकरणों ने भी किया और
हमारे लोकजीवन की उन परिस्थितियों ने भी जो व्यक्ति को हमेशा बड़े दुखों और
त्रासदियों के सागर में डुबोकर रखे हुए हैं।कुछ लोग इसके माध्यम से जिंदगी को
सुधारने का लालच भी दिखाते रहे हैं।तो ये अनेक पहलू हैं जो इसे लोकप्रिय बनाते
हैं। तब इसको कथावाचक ही लोकप्रिय बना देते क्योंकि
इसकी लोकभाषा में और लोकानुभवों में वह आन्तरिक ऊर्जा मौजूद है जो इसे लोकप्रिय
बना देती।
महेश चंद्र
पुनेठा- क्या आपको लगता है कि आम पाठक इसका काव्यशास्त्रीय ढंग से आस्वाद लेता है?
जीवन
सिंह- किसी भी साहित्यिक रचना के आस्वादन की कुछ सामान्य शर्तें होती हैं,जिसे
हम साहित्यिक संस्कार या अभिरुचि कह सकते हैं।इसके बिना उसका एक कला कृति के स्तर
पर आस्वादन संभव नहीं है।ऐसा भक्ति भाव के स्तर पर ग्रहण की गई सभी रचनाओं के साथ
होता है। यही कारण रहा है कि भक्ति भाव से ग्रहण किया गया साहित्य उसका ऐतिहासिक
यथार्थ परक आस्वादन नहीं कर पाता।साहित्य का अध्यापन करने वाले अनेक शिक्षक आज भी
ऐसे हैं जो इनका केवल भक्ति परक पाठ ही करते हैं।अन्य पक्षों को वे इन पर आरोपित
मानते हैं।दरअसल अध्यापक ने अपना संस्कार कहाँ बदला है।इसलिए इनके धार्मिक और
भक्ति परक पाठ ही अधिक प्रभावी रहे हैं। जहाँ बदलाव आ गया है वहाँ इनके नए पाठ आ गये
हैं।प्रगतिशील-जनवादी दृष्टिकोण ने बदलाव का बहुत बड़ा काम किया है किंतु वह लोक
स्तरों तक व्यापक नहीं बन पाया है।वह कुछ साहित्यकारों की दुनिया में सिमटकर रह
गया है।यह बहुत बड़ा काम है।और इसके लिए व्यापक स्तर पर दृष्टिकोण में बदलाव की
आवश्यकता है।
महेश चंद्र
पुनेठा- आपका मानना है कि सधे जीवन के कवि बड़ी कविता नहीं लिख सकते हैं.जिन्होंने
जीवन साधा है उनकी कविता कभी बड़ी नहीं हो सकती है. इसका मतलब क्या यह माना जाय कि
कविता रचने के लिए काव्य-कौशल की अपेक्षा जीवनानुभव अधिक जरूरी हैं और एक
मध्यवर्गीय कवि बड़ी कविता नहीं रच सकता है?
जीवन
सिंह- जीवनानुभव ही तो किसी बड़ी रचना का आधार होते हैं।अनुभव ही तो हैं जो अनुभूति
और संवेदना में बदलते हैं।कबीर के पास उनके समय में जो जीवनानुभव थे,वैसे
दूसरों के पास कहाँ हैं? लेकिन रचना केशल अनुभवों से ही संभव
नहीं है वह संस्कार और बुनियादी मेधा भी होना जरूरी है जो अनुभवों को रचना में बदल
सकें।इसके लिए उस ग्यान की आवश्यकता भी है जो किसी कृति को अद्यतन जीवन,समय और उसके विवेक से जोड़ता है।लेकिन बुनियाद जीवनानुभव ही होते हैं। कोई
न कोई अनुभव तो हरेक व्यक्ति के पास होता है उसे वह व्यक्त कर सकता है और सृजन की
प्रतिभा है तो अपने सीमित अनुभवों को सृजनात्मक रूप प्रदान कर सकता है।यही वजह रही
कि जीवनानुभवों के अनुसार साहित्य में भी वर्गीय श्रेणियाँ बन जाती हैं।
सामान्यतया मध्यवर्ग ही होता है जो इस तलह का रचना कम करता है किन्तु बड़ी रचना के
लिए उसे अपनी वर्गीय सीमा का अतिक्रमण करके सम्पूर्ण और जटिल जीवन यथार्थ को समझना
जरूरी होता है और लगातार जड़ीभूत होती सौंदर्याभिरुचि का परिवर्तन एवं परिष्कार
करना आवश्यक होता है अन्यथा जड़ होने का खतरा बना रहता है। वही मध्यवर्गीय कवि बड़ी
रचना कर पाया है जिसने अपने अनुभवों की सीमाओं से आगे जाकर अपना वर्ग विस्तार कर
लिया है। जैसे मुक्तिबोध ने करके दिखला दिया।कथा साहित्य में यह काम प्रेमचंद ने
करके दिखलाया।
महेश चंद्र
पुनेठा- बड़ी कविता लिखने के लिए एक कवि के लिए आप किस तरह की तैयारी जरूरी मानते
हैं? कविता तो अनुभूति का मसला है,उसके लिए अध्ययन की
क्या जरूरत है ? क्या अध्ययन कवि की मौलिकता को प्रभावित
नहीं करता है?
जीवन
सिंह- जैसे व्यक्ति जिंदगी के अन्य क्षेत्रों में महत्ता के लिए साधनारत रहता है
इसीलिए आचार्यों ने कविया रचना कर्म को साधना का दर्जा दिया है। साधना करना भी
पूरा काम है आधा अधूरा नहीं या बैठे ठाले लोगों का मनोरंजन कर्म नहीं है। किसी भी
जीवन क्षेत्र में बड़ा होना आसान नहीं।रीति काव्य इसीलिये तो महानता की कोटि तक
नहीं पहँुच पाया कि कवि में काव्य प्रतिभा होते हुए भी वहाँ जीवन की साधना बहुत
कमजोर है। भक्ति काल में कवियों ने बहुत बड़ी जीवन साधना की है किसी भी तरह की
सत्ता के लोभ लालच को पूरी तरह छोड़कर साहित्य कर्म किया है। आधुनिक काल में
प्रेमचंद,
निराला,नागार्जुन,मुक्तिबोध
इसके उदाहरण मौजूद हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक जगह पर कहा है कि जिनका हृदय
बहुत संकुचित या निम्न कोटि का होता है,कविता उनसे बहुत दूर
की वस्तु होती है,कवि वे भले ही समझे जाते हों।
कवि का यह संकोच उसकी निरंतर जीवन साधना करने से
दूर होता है सिर्फ घर में बैठकर साधना करने से नहीं।जीवन के जितने बड़े और गहन
थपेड़ों का अनुभव कवि को होगा ,उतना ही बड़ा उसका साहित्य कर्म होता
जायगा। अध्ययन या ज्ञान की साधना कम महत्त्व नहीं रखती। आधुनिक समय का आधार ही
ज्ञान है,जिसे हम नवजागरण कहते हैं।ज्ञान और विज्ञान न होते
तो दुनिया आधुनिक नहीं होती। साहित्य कर्म जितना जीवन साधना है उतना ही उसे समझने
के लिए ग्यान साधना भी है।
जैसे-जैसे ज्ञान-विज्ञान बढ़ते और विकसित होते
जायेंगे,
वैसे वैसे कविता या साहित्य कर्म भी नया स्वरूप ग्रहण करता जायगा।यह
नया जीवन यथार्थ ही था जिसको कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए कवियों ने
मुक्त छंद को अपनाया अन्यथा नए छंद. की क्या जरूरत थी ?अनुभूति
तो पुराने छंदों में व्यक्त हो सकती थी।इसका सीधा सा मतलब यह है कि समय के अनुसार
विचार और भावधारा भी बदलती है।इसे नए समय की ज्ञान साधना के बिना समझ पाना संभव
नहीं है। यदि सही दिशा में जाने के लिए अध्ययन सहायक होता
है तो मौलिकता खत्म नहीं होती।कवि की मौलिकता का संबंध उसके अनुभव संसार से रहता
है ।वह जितना गहरा और व्यापक होगा ,उतनी ही उसकी मौलिकता का
स्वरूप भी व्यापक होता जायगा।वैसे अनुभव का रिश्ता भी ज्ञान से होता है जीवन का
जितना ज्यादा अनुभव होता है ज्ञान का फैलाव भी उतना ही होता जाता है।कबीर ने तो
अपने अनुभवों से ही सब कुछ जान लिया था। दूसरी तरफ तुलसी हैं जिनके यहाँ जीवन
साधना की तरह ज्ञान साधना भी है लेकिन कई बार पारम्परिक शास्त्रीय ज्ञान भी कवि को
एक नए किस्म के बंधन में बाँध देता है।जैसे तुलसी की कई धारणाओं में वह दिखाई देता
है।इसी तरह से हर व्यक्ति के अनुभवों की सीमा भी होती है।मसलन स्त्रियों के मामले
में कबीर के साथ हुआ।
महेश चंद्र
पुनेठा- आपने ठीक कहा कि नए जीवन यथार्थ को कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने के
लिए कवियों ने मुक्त छंद को अपनाया पर क्या यह मुक्त छंद कविता की लोकप्रियता की
कमी का कारण नहीं बनता जा रहा है. कविता की अति गद्यात्मकता ने क्या पाठकों को
उससे दूर नहीं कर दिया है? या आपको पाठकों की दूरी का कोई और कारण लगता
है?
जीवन
सिंह- दरअसल , हम छंदों में रची गई जिन पुरानी कविताओं की लोकप्रियता की
बातें अक्सर करते रहते हैं वह वास्तविकता कम,मिथक ज्यादा
है।कविता के रूप में लोकप्रिय होना अलग बात होती है,जिस समाज
में कविता लोकप्रिय हो ,उस समाज की उदारता और नैतिकता का
स्तर बहुत ऊँचा होना चाहिए।उस समाज से संकीर्णताओं और तरह तरह के अंधविश्वासों और
रूढ़यों का अंत होना चाहिए लेकिन हमारे यहाँ तो सब कुछ उलटा पुलटा चल रहा
है।रामचरितमानस की लोकप्रियता का उदाहरण ही यहाँ रखता हूँ जो लोकप्रियता का एक
माणक ग्रंथ है।साहित्यिक दृष्टि से देखें तो उसका सबसे बड़ा संदेश त्याग का है और
एक शैतान की व्यवस्था से. संघर्ष का ।राम उस सोने की बनाई लंका की एक जनविरोधी
व्यवस्था से लड़ते हैं और खुद पारिवारिक सत्ता के लिए संघर्ष से बचते हैं।यह इस
कृति का साहित्यिक संदेश है लेकिन कितने पाठक हैं जो इस संदेश से प्रभावित होते
हैं।यदि रामचरितमानस की लोकप्रियता का कोई साहित्यिक प्रभाव समाज पर होता तो उसकी
सामाजिक -नैतिक संरचना आज दूसरी ही होनी चाहिए थी ।लेकिन समाज तो इसका ठीक उलट है
।लोभ-लालच और स्वार्थों के लिए कितना भयावह संघर्ष आज समाज में चल रहा है ,आप जानते हैं।तह तो मैंने सबसे अधिक लोकप्रिय कृति की बात की है।मैं आपसे
सवाल करता हूँ कि हिंदी पढ़ाने वालों में ही साहित्य के प्रति कितना लगाव है यदि यह
उनकी रोजी-रोटी न हो तो।तो जिसे आप लोकप्रियता कह रहे हैं वह एक मिथक ज्यादा है।
हाँ,कुछ अन्य कारणों से, जो साहित्येतर
ज्यादा हैं एक तबके का साहित्य लोकप्रिय अवश्य है ।ऐसा हर युग में होता है।
हमें यदि सच में कविता से लगाव होता तो घर घर
में कविता की पुस्तकें और हर घर में एक कक्ष निजी पुस्तकालय के लिए होता।कितने लोग
हैं जो घर का नक्शा बनवाते समय आर्किटेट से एक छोटा सा किताब घर बनाने का प्रावधान
रखने के लिए कहते हैं।क्या कविता से प्रेम बिना किसी तरह की अभिरुचि दिखाये बिना
संभव है।कितने श्रोता हैं जो कविता पाठ जैसी गोष्ठियों में आते हैं।कितने लोग हैं
जो आज का गंभीर कथा साहित्य –उपन्यास, कहानी आदि पढ़ते हैं।कथा
साहित्य तो मुक्त छंद में नहीं है फिर भी आपके आसपास समाज में कितने लोग हैं जो
साहित्य के गंभीर पाठक हैं।क्या यह सच नहीं है कि हमारे यहाँ साहित्य बड़े सामाजिक
स्तर पर साहित्य कभी जिन्दगी की प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं ।समाज का निम्न
मेहनतकश वर्ग तो रोटी–रोजी पाने की परेशानियों में ही सारा जीवन गुजार देता
है।मध्य वर्ग के पास अवकाश भी रहता है और खर्चने को धन भी।किन्तु इस वर्ग के कितने
लोग हैं जो अपनी जिन्दगी के केन्द्र में नहीं तो कम से कम हाशिये पर ही रखते
हैं।एक बहुत छोटा सा समुदाय है जो साहित्य सृजन और उसका पठन पाठन करता है।इसमें भी
एक ऐसा वर्ग है जो विशुद्ध मनोरंजनधर्मी कविता को कविता मानता है जिसे गंभीर
साहित्य का कुछ भी अता- पता नहीं होता । इसलिए कविता और उसकी लोकप्रियता का सवाल
है इस धारणा में मिथक की मात्रा बहुत अधिक है।यह बात सही है कि गीत शैली में गाकर
सुनी-सुनाई जाने वाली कविता और गजल की प्रियता मुक्त छंद में लिखी जा रही कविता से
अधिक है।लेकिन उस तरह की कविताओं में क्या वह और अधिक जटिल एवं खुरदुरा ऊबड़खाबड़
यथार्थ आ पाता है,यह सवाल अपनी जगह पर बना रहता है।मुक्तिबोध
ने मुक्त छंद में जो दिया है क्या वह छंदबद्ध कविता में आ पाना संभव था।
इसलिए मेरा मानना यह है कि एक विविध रुचि वाले
समाज के लिए कविता की विविध विधाओं में साहित्य सृजन हो ,जो
बड़े स्तर पर तरह तरह से साहित्यिक संस्कार का निर्माण करें, जिससे
कविता ,समाज की प्राथमिकताओं में अपना स्थान बना सके।जिस रोज
यह होगा, मुक्त छंद की कविता में भी पाठकों का मन रमने
लगेगा। इसलिए गीत,गजल जैसी विधाओं को भी गंभीरता से लेने की
जरूरत है क्योंकि ये साहित्य के संस्कार और उसकी जमीन बनाने का काम करते हैं।
संपर्क- डाॅ0
जीवन सिंह 1/14 अरावली बिहार, अलवर-301001
(राजस्थान)
महेश चंद्र
पुनेठा शिव कालोनी न्यू पियाना पो0डिग्री कालेज जिला-पिथौरागढ़ 262502।