आलोकधन्वा की
कविता “भागी हुई लड़कियां” १९८८ में छपी . यह घटना
हिंदी कविता के इतिहास में एक मील का
पत्थर है . इसके बाद ही हिंदी में
पितृसत्ता को सीधे
निशाने पर लेनी
वाली स्त्रीवादी कविताओं का
सिलसिला शुरू होता
है . कात्यायनी की ‘हॉकी
खेलती लड़कियां’ , गगन
गिल की ‘एक
दिन लौटेगी लड़की’ , सविता सिंह की “मैं
किसकी औरत हूँ’, अनीता
वर्मा की “ चेहरा” , अनामिका
की “प्रथम स्राव” और अनिता
भारती की “जहांगीरपुरी की औरतें”
जैसी विविध रंगों
की बहुत-सी कविताएँ इस
सिलसिले में शामिल हैं. तेजी
ग्रोवर , नीलेश रघुवंशी , निर्मला गर्ग , लीना
मल्होत्रा राव , वंदना ग्रोवर , शुभम श्री समेत अनेक
कवयित्रियों ने इसे
आगे बढाया है . फिर भी इस
बात से शायद
ही कोई इंकार करे कि आलोकधन्वा की इस
प्रसिद्ध कविता ने हिंदी की
स्त्रीवादी कविता के
लिए जमीन और माहौल
बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई . अगले साल आई उनकी
कविता “ब्रूनो की बेटियाँ” ने इस माहौल को और जीवंत कर
दिया .
आलोकधन्वा
की इन
कविताओं को छोड़
दें तो हिंदी में
महादेवी वर्मा के बाद
पितृसत्ता क्ले प्रतिरोध की स्त्री को
सम्बोधित करती कोई बड़ी कविता
दिखाई नहीं देती . हिंदी
कविता के उर्वर
दौर में स्त्री-कविता
का इतना अकाल
क्यों है ? “भागी हुई
लड़कियां” मध्यवर्गीय घरों में
मौजूद पितृसत्ता के उन बद्धमूल ‘कुलीन’ संस्कारों
पर चोट करती हैं , जिन्हें आमतौर पर दबा कर , ढंक कर ,
रखा जाता है . मगर
जब कोई लडकी घर से भाग खडी
होती है तब ये
जंजीरें साफ़ दिखाई देने
लगती हैं.
यह कविता
सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है कि एक
पुरुष स्त्री को कितनी
सहानुभूति दे सकता है
और उसके साथ
कितनी समानुभूति महसूस
कर सकता है . लेकिन
यह उस सीमा
का उदाहरण भी
है , जिसके आगे
पुरुष शायद नहीं जा
सकता .
“…… तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में ! …”
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में ! …”
पत्नी ,
प्रेमिका , वेश्या – पुरुषप्रसंग में स्त्री
की यही तीन
भूमिकाएं समाज ने
तय की हैं . इन
तीनों को ठुकराकर आलोकधन्वा
की स्त्री अपना स्वतंत्र
व्यक्तित्व हासिल करने
के लिए भटकती
है , लेकिन उसके पास
इन्ही तीन भूमिकाओं को
एक में मिला
देने से अधिक
रचनात्मक कोई और उपाय
नहीं है . कवि
उत्पीड़ित स्त्री को
मुक्त तो देखना चाहता
है , लेकिन उसके पास
मुक्त-स्त्री की कोई स्वतंत्र कल्पना नहीं है .
स्त्रीवादी कविता इस
नई मुक्त-स्त्री की परिकल्पना
के साथ
शुरू होती है . चाहे कात्यायनी की
हॉकी खेलती लड़कियां हों या जहांगीरपुरी की मजदूरी के
लिए आती-जाती औरतें, उन्हें
अपने वजूद को
परिभाषित के लिए
किसी पुरुष –सन्दर्भ की न जरूरत
है , न प्रतीक्षा . सविता
सिंह की औरत रेखांकित
करती है कि
वह किसी मर्द की
औरत नहीं है . पुरुष
प्रधान समाज द्वारा
निर्धारित रिश्तों से अलग एक
‘मनुष्य’ और एक ‘स्वतंत्र
व्यक्ति’ के रूप
में खुद को पाने के उत्कट इच्छा यानी आत्म-रेखांकन
इस नई स्त्री की
सबसे पहली पहचान है .
शुभा की कविता
“प्रेम की इच्छा” इस
दोनों आकांक्षाओं को सबसे साफ़
दर्ज़ करती है . ऐसा
इसलिए कि इस कविता में
लड़की प्रथम पुरुष में
बात करती है . अन्य
पुरुष में नहीं .
वह कहीं आती-जाती या खेलती-कूदती
लडकियों को दूर से
देख कर उनकी आज़ादी का a जश्न
नहीं मनाती . वह ख़ुद
अपनी आजादी की घोषणा
करती है .
“…
मैं चाहती हूँ
नोटिस लिया
जाए
इस बात
का
कि मैं
यहाँ हूँ , इस धरती
पर
एक साधारण
लडकी
जिसमें खलबला
रही है
एक
असाधारण लड़की
पक्षी की
तरह डैने फैलाए ..”
वह अपनी
असाधारणता के प्रति सजग है , लेकिन
साधारणता को गंवा नहीं
देना चाहती . परिवार , समाज ,
राज्य और
बाज़ार स्त्री पर
असाधारण होने का
दबाव डालते हैं. स्त्री
अगर विश्व-सुन्दरी या ओलम्पिक –विजेता हो तो
उसका मोल बढ़ जाता
है . एक साधारण लड़की
का कोई मोल
नहीं है . लड़का जनम
लेते ही अनमोल मान
लिया जाता है. एक
साधारण लडकी के
रूप में खुद
को पहचानना स्त्री के
आत्म-रेखांकन की पहली
सीढ़ी है .
साधारण होते
हुए भी हर
व्यक्ति असाधारण होता है ,
क्योंकि कोई किसी और
की जगह नहीं ले
सकता . इस साधारण असाधारणता पर जोर
देना एक अपने स्वतंत्र और
व्यक्तित्व का दावा करना है .
एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप
में ही स्त्री मनुष्यता के इतिहास
की समूची विरासत पर
अपना दावा ठोंक
सकती है और अपने “मनुष्य” होने की घोषणा
कर सकती है . स्वामित्व की भावना
के साथ नहीं ,
बल्कि मनुष्य होने
की तकलीफों और
कुर्बानियों में भागीदार होने की तैयारी
के साथ !
“.. क्या
किसी मनुष्य ने
ठीक यही कोण
बनाया था ,
सूरज के
मुकाबले ,
जो मैं
बना रही हूँ
पृथ्वी बहुत
परिचित लगती है आज
पूर्वजों के पदचाप
से
गूँज रही
हैं शिलाएं
और घने
ऊंचे पेड़
यह धरती
आज लगती है
सचमुच मातृभूमि
भला मनुष्य
बनने की
इच्छा जग
रही है मुझमें
जो ले
जाएगी मुझे मेरे दुखों
और मेरी
कुर्बानियों तक “
***********************************
समकालीन स्त्रीवादी
कविता के अनेक प्रवृत्तियाँ
हैं . इनमें से चार की
शिनाख्त आसानी से
की जा सकती
है . इसे वर्गीकरण या
श्रेणीकरण का प्रयत्न न समझा
जाए . यह केवल शुभा की
रचनाप्रक्रिया को समझने की
सुविधा के लिए
सुझाया जा रहा है
. इन्हें स्त्री कविता
के चार स्वरों की
तरह देखना चाहिए .
पहला
स्वर आंदोलनकारी स्त्री-कविता का है , जिसे
कात्यायनी और शुभमश्री की
कविता में आसानी
से देखा जा सकता
है . स्त्री यहाँ आमतौर
पर समूची स्त्री-जाति
की प्रतिनिधि बनकर आती है
. वह इस
‘पौरुषपूर्ण समय’ में अपनी जेंडर-अस्मिता के
लिए संघर्ष कर रही है
.
दूसरा स्वर गगन गिल , सविता सिंह और अनीता वर्मा के यहाँ देखा
जा सकता है . यह
स्त्री अपनी स्त्री-अस्मिता के प्रति
सचेत है , पुरुषवादी समाज
में अपनी अवस्थिति की
जटिलता और उसके खतरों को
समझती है , और अपने
निजी वज़ूद की
रक्षा के लिए संघर्षरत है . यहाँ पर्सनल ही
पोलिटिकल है. इसे स्त्री कविता
का निजी स्वर कह
सकते हैं . इन कविताओं में
आकांक्षा , स्वप्न , आखेट और कहीं-कहीं अवसाद की
गहरी छायाएं डूबती-उतराती मिलती हैं.
कविता को
शुरुआती आवेग किसी व्यक्तिगत दुख की गहरी
अनुभूति से मिलता है . फिर
वह क्रमशः उसके सामाजिक आशय
, मानवीय सारतत्व और कभी –कभी
आध्यात्मिक संकेतों की ओर
बढने की कोशिश करती
है .
तीसरे स्वर
को स्त्री कविता का
सामाजिक स्वर कह
सकते हैं. यह स्त्री अपनी
स्त्री-अस्मिता के प्रति सचेत है , अपनी निजता
के प्रति सम्वेदनशील
है , लेकिन उसका सामाजिक
दायित्वबोध भी उतना ही मुखर है
. उसके लिए पोलिटिकल ही
पर्सनल है . इन कविताओं में
जेंडर के अलावा दीगर राजनीतिक-सामाजिक प्रश्नों से टकराने का
बराबर उत्साह दिखता
है , जेंडर के परिप्रेक्ष्य
में ढील
दिए बगैर. यह अक्सर
सामाजिक त्रासदी के किसी साक्षात्कार से शुरू होती है
और क्रमशः उसकी व्यक्तिगत अनुगूंजों को सुनने
की कोशिश करती
है अनामिका , शुभा ,निर्मला गर्ग ,
संध्या नवोदिता और लीना
मल्होत्रा राव आदि की
कविताएँ इस सन्दर्भ में
याद की जा
सकती हैं .
चौथा स्वर इसी तीसरे
स्वर का विस्तार है . यह स्त्री
कविता का दलित
स्वर है , जिसका प्रतिनिधित्व रजनी तिलक ,
अनिता वर्मा और रजनी
अनुरागी आदि की कविताओं
में देखा जा
सकता है . यहाँ जेंडर
के साथ जाति-उत्पीड़न
का सवाल प्रमुखता से
जुड़ जाता है .
शुभा की कविताई में तीसरा स्वर प्रमुख
है , लेकिन जो चीज इसे सबसे ख़ास
बनाती है वह है उनकी राजनीतिक चेतना और इतिहासबोध . राजनीतिक
चेतना शक्ति-सम्बन्धों की चेतना है , जिसका स्वरूप
कभी-कभी गैरराजनीतिक भी
हो सकता है . शक्ति-सम्बन्धों
का बदलता हुआ गतिविज्ञान
क्रांति से लेकर प्रेम
तक को प्रभावित करता
है . शुभा की
कविता में विशुद्ध
प्रेम जैसी कोई
चीज नहीं है . न सनातन सत्य
जैसी कोई बात है
. उनकी कविता इतिहास
की बदलती हुई
चाल और उसके
पीछे की राजनीति को ध्यान
से देखती –परखती रहती
है. इसलिए अनुभव में
निहित ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि
को आसानी
से उद्घाटित कर
पाती है . झोलझाल , धुंधलापन ,
दुविधा , रहस्य और अनिश्चय यहाँ कम
से कम मिलेगा , लेकिन कविता
की अर्थ-समृद्धि और सांकेतिकता की
कमी नहीं
मिलेगी .
तीसरे स्वर की
कविताओं की रचना-प्रक्रिया पर लौटें . हमने
निवेदन किया था
कि यहाँ पोलिटिकल ही
पर्सनल है , इसलिए कविता
प्रायः किसी सामाजिक
त्रासदी के साक्षात्कार से शुरू होती
है और क्रमशः उसके व्यक्तिगत
आशयों तक पहुँचती है . यह
इतिहास को अपनी
रगों में महसूस
करने जैसी बात है
. इतिहास की धड़कनों को
अपनी धड़कनों में सुनने जैसी बात . “हमारे समय में” इस
रचना – प्रक्रिया को देखा जा
सकता है .
“हम महसूस करते
रहते हैं
एक दूसरे की असहायता
हमारे समय में यही है
जनतंत्र का स्वरूप
कई तरह की स्वाधीनता
है हमारे पास
एक सूनी जगह है
जहाँ हम अपनी असहमति
व्यक्त कर सकते हैं
या जंगल की ओर निकल सकते हैं
आत्महत्या करते हुए हम
एक नोट भी छोड़ सकते हैं
या एक नरबलि पर चलते
उत्सव में नाक तक डूब सकते हैं
हम उन शब्दों में
एक दूसरे को तसल्ली दे सकते हैं
जिन शब्दों को
हमारा यकीन छोड़ गया है.”
एक दूसरे की असहायता
हमारे समय में यही है
जनतंत्र का स्वरूप
कई तरह की स्वाधीनता
है हमारे पास
एक सूनी जगह है
जहाँ हम अपनी असहमति
व्यक्त कर सकते हैं
या जंगल की ओर निकल सकते हैं
आत्महत्या करते हुए हम
एक नोट भी छोड़ सकते हैं
या एक नरबलि पर चलते
उत्सव में नाक तक डूब सकते हैं
हम उन शब्दों में
एक दूसरे को तसल्ली दे सकते हैं
जिन शब्दों को
हमारा यकीन छोड़ गया है.”
जनतंत्र और
स्वाधीनता आधुनिकता को परिभाषित
करने वाली अवधारणाएं
हैं. आधुनिक युग में
साधारण जन को
शक्तिसम्पन्न करने वाली धारणाएं हैं . लेकिन ठीक अपने समय
में हम इन्हें व्यर्थ
और विफल होता
देख रहे हैं. दुनिया
के अलग अलग
हिस्सों में नब्बे
की बाद जनतंत्र विरोधी फासीवादी शक्तियों का
उभार हुआ है , जबकि सोवियत
संघ के पतन के
बाद यह घोषणा की गई थी
कि यह जनतंत्र के अंतिम विजय
का युग है . भारत में
हम चुनावों को
आते जाते देखते
रहे हैं. इसे दुनिया
की सफल लोकतांत्रिक
व्यवस्थाओं में गिना
जाता है . लेकिन आमजन का
अनुभव यही है कि हर
चुनाव एक और बड़ी निराशा
देकर जाता है . लोकतंत्र
में “असहायता” के
अनेक रूप हैं . एक तो
यह कि लोकतंत्र में बदलाव
की कुंजी जनता के
हाथ में होती
है . वह वोट के जरिए राजनीतिक
बदलाव सम्भव करने
का संतोष पा लेती
है , इसलिए उसका
सम्मिलित असंतोष कभी
भी क्रांतिकारी विस्फोट नहीं बन
पाता. लेकिन ऊपरी तौर पर
चीजें जितनी बदलती
दिखाई देती हैं ,
उतनी ही ज्यों की
त्यों बनी रहती
हैं. दूसरे
जीते-जागते मनुष्य की पहचान
एक वोट में
बदल जाती है . मनुष्य
अपना प्रतिनिधि न
रहकर समूह , समाज , समुदाय , धर्म या जाति
का यानी किसी
न किसी वोटबैंक
का प्रतिनिधि बना दिया जाता
है .
कविता असहायता के
इस अनुभव से जनम लेती
है और स्वाधीनता की उस
विडम्बना में घटित होती
है , जिसमें हर
असहमति और अधिक
सूनेपन या अकेलेपन तक ले जाती
है. असहमति लोकतंत्र की
जान है . अगर वह
जान के जोखिम में
बदल जाए तो लोकतंत्र
की इससे बड़ी विडम्बना
क्या होगी ? असहायता की चरमसीमा
पर पहुँच कर
सिर्फ आत्महत्या करने और
अंतिम नोट लिखने
की स्वाधीनता बची
रह पाती है .
यह कोई कविकल्पना नहीं ,
हक़ीकत है . इसे हम रोज
हज़ारों किसानों और नौजवानों
के साथ घटित होता
देखते हैं. इस तरह
लोकतंत्र सामूहिक हत्याओं
के एक विराट उत्सव
में बदल जाता
है , जिसमें शरीक
होना प्रत्येक नागरिक की विवशता
हो जाती है . इस शरीक
होने में कोई विकल्प
नहीं होता . साँस
लेने की कोई
जगह नहीं होती . शहीद
होने और समर्पण
करने के बीच कोई रास्ता नहीं
होता . यहाँ आकर इस लोकतंत्र
में निहित क्रूरता और असहायता का अनुभव एक निजी
यातना में बदलने लगता
है .इस यातना में साथ
होते हुए भी एक
दूसरे को तसल्ली
देने का कोई उपाय
नहीं रह जाता ,
क्योंकि भरोसेमंद शब्द पहले
ही बेमानी हो
चुके होते हैं. यह भयानक घुटन रोजमर्रे
की ज़िन्दगी का एक ऐसा अनुभव
है , जिससे कोई बचा हुआ
नहीं है . लेकिन शुभा
की कविता से
गुजरते हुए हम इस निजी घुटन के सामाजिक
और राजनीतिक स्रोतों तक
पहुँच जाते हैं . यह
पहुंचना यातना के निजी
दायरे को तोड़
देता है और कविता
मुक्ति की एक
बड़ी सामाजिक रणनीति
का हिस्सा बन जाती
है .
दुख है .
दुख का
कारण है . ऐसा बुद्ध
ने कहा था . उनके
लेखे व्यक्ति का अज्ञान ही
दुख का असली
कारण है . लेकिन
शुभा की कविता कहती
है कि हर
दुख राजनीतिक है . इसलिए
व्यक्तिगत ज्ञान , धीरज और साहस
इसे मिटाने के
लिए काफ़ी नहीं
है . उनकी चर्चित कविता ‘अतिमानवीय दुख’ में निजी
गुस्से और आंसुओं
से इस दुख
को उठाया नहीं
जा सकता . कविता , विचार ,
संगठन और
ऐतिहासिक शक्तियों के बूते इसे
उठाने की कोशिश
की जाती है . कम्युनिस्ट पार्टियां
इसे उठाने की कोशिश
करते बिखरती जाती
हैं. यह भारत में
कम्युनिस्ट आन्दोलन के बिखराव की स्वीकृति है और इस परिणति
के लिए जिम्मेदार
उनके भटकाव की ओर एक
इशारा भी . अगर कविता
इस निराशा के साथ
खत्म हो जाती या फिर
कोई झूठी उम्मीद जगा कर
तब शायद यह एक राजनीतिक
कविता न होती. अंतर्दृष्टि से
खाली आलोचना मध्यवर्गीय अवसाद की
अभिव्यक्ति तो हो
सकती है , प्रगतिशील राजनीतिक
चेतना नहीं . शुभा की ताकत
यही है कि उनकी
कविताओं में भविष्य
का संकेत मौजूद रहता
है . ध्यान से देखने पर
दुख के घटाटोप
के भीतर से वह
दिशा दिखाई दे
जा सकती है , जिधर सकारात्मक परिवर्तन
की सम्भावना मौजूद हो .
“…इसे उठाने
के लिए
कुछ और चाहिये
इन सबके साथ
उठाने का कोई नया ढब..”
कुछ और चाहिये
इन सबके साथ
उठाने का कोई नया ढब..”
अब उठाने
का नया ढब
चाहिए . यानी परिवर्तनकामी शक्तियों
को अपनी समूची
रणनीति और कार्यनीति
पर पुनर्विचार करने
की जरूरत है !
नब्बे के बाद हिंदी कविता में
प्रेम कोई निरापद विषय नहीं रह गया है . स्त्री-कविता के हस्तक्षेप लैंगिक असमानता
से ग्रस्त समाज में प्रेम की हक़ीकत खुलने लगती है . लैंगिक विभाजन वर्गीय विभाजन से
कहीं अधिक पुराना और मूलगामी है . स्त्री- पुरुष का रिश्ता
दास –स्वामी की रिश्ते में इस हद तक संरचित हो चुका है कि
यह प्रेम को तनावग्रस्त कर देने से कुछ अधिक करता है . शमशेर
की कविता “ टूटी हुई, बिखरी हुई”
हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में इसलिए शुमार की जाती है कि
यहाँ प्रेम के भीतर के तनाव , टूटन और बिखराव दिखाई देते हैं.
यहं कम से कम एक ऐसा पुरुष है जो ईमानदारी से प्रेम की शक्ति-संरचना के दबाव में प्रेम
के भीतर होने वाली टूटफूट को दर्ज करता है . पितृसत्ता के अंतर्गत एक सच्चे और संवेदनशील
पुरुष को भी यह टूटा-फूटा प्यार ही मिल सकता है .यह
एक हादसा
तो है ही , लेकिन पुरुष के
लिए यही इस हादसे
की आख़िरी हद है .आख़िर
वह इस समाज
का स्वामी है .
स्त्री दास है ,
इसलिए उसका अनुभव कुछ
और है . उसके
लिए तो प्रेम एक खूबसूरत
धोखा या मीठे ज़हर
के सिवा और
कुछ हो ही
नहीं सकता . पुरुष के वर्चस्व को
बनाए रखने के
निमित्त स्त्री का समर्पित
सहयोग पाने का उपाय ,
ताकि , जहां तक
हो सके , बलप्रयोग न
करना पड़े ! प्रेम
का यह स्त्री-दमनकारी रूप किन्ही ख़ास
वर्गों या जमातों
तक सीमित नहीं है . सबसे
उदार और प्रगतिशील
पुरुष भी इससे मुक्त
नहीं हो सकते .
यह उनके चुनाव
का मामला नहीं
है . सामाजिक संरचना की
परिणति है . जब तक
पुरुष का प्रभुत्व कायम
है , स्त्री के
लिए पुरुष का प्रेम दास
के प्रति स्वामी
के प्रेम से गुणात्मक
रूप से भिन्न
हो ही नहीं
सकता . लालसा हो या
करुणा , स्त्री की लिए
पुरुष का कोई भी
भाव ‘उपभोग’ की दायरे
को पार नहीं
कर सकता . स्वामी सेविका पर
कोड़े बरसाए या उसे फूलों
से सहलाए , दोनों उपभोग के ही
दो अलग अलग
तरीके हैं.
स्त्री-पुरुष के बीच स्वामित्व का रिश्ता केवल
सांस्कृतिक और राजनीतिक
कारणों से नहीं
है . इसका ठोस आर्थिक
आधार है . यह उस आदिम लैंगिक
श्रमविभाजन का परिणाम है , जिसकी
ईज़ाद स्त्री पर
पुरुष का वर्चस्व बनाए रखने
के लिए की
गई थी. श्रमविभाजन का
वह रूप अब भी कायम
है , इसीलिए स्वामित्व भी कायम है . इस रिश्ते
को बदलना इस श्रम-विभाजन
को बदले बिना
नामुमकिन है . “मित्रों की
दुनिया “ में प्रेम
के इस समूचे यथार्थ को देखा
जा सकता है .
“…. मेरी खुदाई के निशान बंज़र ज़मीन पर कम मेरे
हाथों पर ज़्यादा पड़ते थे
मैं
पानी देती थी उनके खेतों में
वे अपनी
फसल लेकर मण्डी में जाते थे
मैं
क्या लेकर जाती मण्डी में पानी के साथ मेरी मेहनत ख़र्च हो चुकी होती थी…”
पुरुष-वर्चस्व की बुनियादी संरचना
भले ही हज़ारों वर्षों से
बहुत न बदली हो , इसका
स्वरूप और इससे उपजने
वाली हिंसा आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे
के बदलने के साथ
बदल जाती है . शुभा की
कविता का इतिहासबोध
इसे बारीकी से
देखता है . हमारे अपने
समय में स्त्री के
खिलाफ़ हिंसा में तेज बढ़ोत्तरी हुई
जान पडती है
.इस बढ़ोत्तरी के पीछे एक
बड़ा कारण स्त्री की
बढती हुई चुनौती है , जो
घर से बाहर तक
पुरुष को मिल रही है .
पुरुषों के एकाधिकार
वाले बहुत से इलाकों
में स्त्रियों ने घुसपैठ
कर ली है . कहीं कहीं
वे सत्ता केन्दों पर भी
काबिज होने लगी
हैं . शिक्षित बारोजगार स्त्री
घर के कामकाज में भी सहयोग मांगने और
लेने लगी है . पुरुष
इस तेज बदलाव
के लिए न तो मानसिक रूप से
तैयार है , न
प्रशिक्षित है . वह कुंठित
और भयभीत है .
यह बढ़ती
हुई सामूहिक कुंठा गैंगरेप की
बढती हुई वारदातों के
पीछे एक कारण
हो सकता है . ‘गैंगरेप ‘ कविता
में यौनहिंसा का यह
सारा समकालीन समाजशास्त्र अपनी समूची
जटिलता के साथ
मौजूद है . लेकिन कविता कुछ
और है . यह
कुछ और न होता
तो कविता एक सामाजिक
दस्तावेज़ हो कर रह
जाती . यह कुछ और है भयोत्कंठित
हिंस्र पुरुष की तुलना
में उसे चुनौती
दे रही स्त्री को
एक उच्चतर और शुभ्रतर प्राणी-प्रजाति के
रूप में परिकल्पित
करना . ‘ गैंगरेप ‘ कविता का अंत इसी
कुछ और पर
होता है .
“…योनि, गर्भाशय अण्डाशय, स्तन, दूध की
ग्रंथियों
और
विवेक सम्मत शरीर के साथ
गुणात्मक
रूप से अलग मनुष्य
जब
नागरिक समाज में प्रवेश करता है
तो वह एक
चुनौती है
लिंग की
आकृति पर मुग्ध
विवेकहीन
लिंगधारी सामूहिक रूप में अपना
डगमगाता
वर्चस्व जमाना चाहता है.”
‘लिंगधारी’
आदमखोर हो चुके
इस कुंठित पुरुष-प्राणी को कविता
द्वारा दिया गया नाम है . यह
एक नाम अकेले
इस कविता को सार्थक करने
की क्षमता रखता
है . लिंगधारी वह व्यक्ति
प्रतीत होता है ,
जिसकी सम्पूर्ण चेतना
लिंग में समाहित
है . लिंग ही उसकी सम्पूर्ण अस्मिता
है , लिंग ही महत्वाकांक्षा .
यह लिंगधारी
आदमखोर मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार कर
सकता है . गैंगरेप में शामिल हो
सकता है . लेकिन इस प्रत्यक्ष हिंसा में शामिल
हुए बिना भी आदमखोर बना
रह सकता है . स्त्री
को सम्पूर्ण मनुष्य
के रूप में
देखने की जगह उसे
अवयवों के एक समुच्चय के रूप
में देखनेवाला हर एक
लिंगधारी उतना ही बड़ा
आदमखोर है .
“आदमखोर”
कविता का
पहला अंश यों है
.
“..
एक स्त्री बात
करने की कोशिश
कर रही है
तुम उसका
चेहरा अलग कर
देते हो धड़ से
तुम उसकी
छातियाँ अलग कर
देते हो
तुम उसकी जांघें
अलग कर देते
हो
एकांत में
करते हो आहार
आदमखोर
तुम इसे
हिंसा नहीं मानते ….”
स्त्री के
खिलाफ़ पुरुष की हिंसा
इस से भी
अधिक सूक्ष्म और छलनामय हो सकती
है .
वह करुणा
का भेष बना कर
भी आ सकती
है . रेप की विस्तृत
कहानियाँ छापने वाले अखबार , उनके नाट्य-रूपांतरित दृश्य दिखानेवाले
टीवीचैनल , उन पर बननेवाली सुपरहिट फीचर
फ़िल्में अपनी करुणा
जताने और दर्शकों की
करुणा जगाने के लिए
अक्सर किसी लुटी-पिटी , शर्मसार , रोटी-बिलखती लड़की की
तस्वीरें दिखाते हैं .रेप
करनेवाले शर्मसार या बेशर्म
लिंगधारी नहीं दिखाए
जाते . दिखाने पर दर्शक
का आक्रोश जाग सकता
है . लेकिन रेप के खिलाफ़ आक्रोश
नहीं जगाना , सर्वाइवर को शर्मसार
करना है . फिर
उसकी तस्वीरें दिखा कर हर
लडकी को खुद ‘भावी
शिकार’ के रूप में
देखने और शर्मसार
होने के लिए मजबूर
करना है . उत्पीड़ित
अपमानित लड़की की यह छवि
लिंगधारी की करुणा का सहज
उपादान बन जाती
है , क्योंकि यह उसे आश्वस्त
करती है . बताती है
कि उसका लिंग सुरक्षित
है . उस लिंग की घातक
क्षमता सुरक्षित है . उसका
वर्चस्व सुरक्षित है . करुणा
इस आदमखोर लिंग को
कवच प्रदान करती
है .
‘गौरवमयी संस्कृति’ कविता की
अंतिम पंक्ति यों है –
“स्त्रियों
के आंसू
हमें उसी तरह
प्रिय हैं
जैसे अपनी
वीरता और अपना
पौरुष “
शुभा की
कविता में आदमखोर
लिंगधारी की शिनाख्त पुरुष
मात्र को हिंस्र
प्राणी के रूप में
प्रदर्शित करने के
लिए नहीं है . अगर
ऐसा होता तो दोस्त , प्रेमी , साथी और
पिता के रूप
में पुरुषों को
इतनी शिद्दत और
उम्मीद से याद
न किया जाता . आदमखोर
है वह पुरुष-सत्ता , जो स्त्री
के साथ
साथ पुरुष को
भी अपना शिकार बना
रही है . “पिताओं के
बारे में’’ कविता में आए पिता लोग लगभग
माताओं की तरह ही
असहाय और वेध्य
हैं . ऐसे ही “हमेशा
रहने वाले” कविता के प्रेमी
लड़के हैं, जो खदेड़े
जा रहे हैं ,
अपमानित किए जा
रहे हैं , पारिवारिक हत्याओं के
शिकार हो रहे
हैं , आत्महत्या की तरफ
धकेले जा रहे
हैं , लेकिन प्रेम करना
नहीं छोड़ते . जीवन और मृत्यु
में प्रेमी लड़कियों के साथ खड़े होते हैं. शुभा
की कविता कहीं
एक स्वर में पुरुष-निंदा नहीं करती .
शुभा की
सामाजिक चेतना देख लेती
है कि जहां जेंडर
और वर्ग की
सत्ताओं का गंठबंधन होता है और वय की प्रौढ़ता
भी उससे जुड़
जाती हैं , वहाँ खतरा सबसे
अधिक होता है , उम्मीद
सब से कम .
“सवर्ण प्रौढ़
प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
मानवीय सार पर बात करना ऐसा ही है
जैसे मुजरा करना
इससे कहीं अच्छा है
जंगल में रहना पत्तियाँ खाना
और गिरगिटों से बातें करना।“
मानवीय सार पर बात करना ऐसा ही है
जैसे मुजरा करना
इससे कहीं अच्छा है
जंगल में रहना पत्तियाँ खाना
और गिरगिटों से बातें करना।“
वहीं
“मैं हूँ
एक स्त्री” कविता में वह एकलव्य
और शम्बूक से
ईर्ष्या करती नज़र आती है , क्योंकि
स्त्री को तो एकांत-साधना करने
तक का अधिकार प्राप्त नहीं
है . अपना अंगूठा काट
कर किसी द्रोणाचार्य को
देदेने का हक़ भी
उसे हासिल नहीं है ,
क्योंकि उसके अंगूठे पर भी
पति का अधिकार है !
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( हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘पक्षधर’ के नए अंक में छपे इस लेख को श्री आशुतोष कुमार ने हमें उपलब्ध कराया, इसके लिए अनुनाद उनका आभारी है।)
( हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘पक्षधर’ के नए अंक में छपे इस लेख को श्री आशुतोष कुमार ने हमें उपलब्ध कराया, इसके लिए अनुनाद उनका आभारी है।)
lekh aur kavitaayen smaaj soch stri purush vicharo ke uthalputahl ke beeech gatimaan hotee dharnaaon ke beech apna akaash talashti hee nahi apna akaash banaati hui nadi kee dhaar see apne paksh ko le kar har kinaaro se takraati aage badti hai… umda lekh