नवल अल सादवी |
स्त्री-संतति के प्रति यौन दुराचार
सभी बच्चे जो सामान्य और स्वस्थ पैदा होते हैं खुद को
सम्पूर्ण मनुष्य के रूप में महसूसते हैं. पर, स्त्री संतान के साथ ऐसा नहीं है. जिस वक़्त से वह पैदा और कुछ बोल सकने में सक्षम होने
को होती है, आस-पास की आँखों का भाव और उनका लहजा यह दर्शाने लगता है कि वह कुछ
‘अधूरी’ या फिर ‘कुछ कमी के साथ’ पैदा हुई है. पैदा होने के दिन से लेकर मौत के
समय तक एक सवाल लगातार उसका पीछा करता है कि क्यों? उसके भाई को हमेशा तरजीह मिलती
है इसके बावजूद कि वे बराबर हैं, यहाँ तक कि बहुत सारे मामलों में वह उससे बेहतर
हो सकती है या फिर कम से कम कुछ पहलुओं में तो निश्चित ही ?
पहला आघात जो स्त्री-संतान महसूस करती है वह यह भाव
है कि लोग उसके दुनिया में आने से खुश नहीं हैं, उसका स्वागत नहीं करते. कुछ
परिवारों में और ख़ास तौर पर ग्रामीण इलाकों में यह ‘ठंडापन’ थोड़ा और आगे बढ़ सकता
है और मातम तथा अवसाद के माहौल तक पहुँच जाता है; यहाँ तक कि माँ की सज़ा अपमान,
मार-पीट या फिर तलाक तक पहुँच सकती है. जब मैं बच्ची थी तो मैंने अपनी एक चाची को
गाल पर थप्पड़ खाते देखा क्योंकि उसने तीसरी बार लड़के के बजाय लड़की को जन्म दिया
था. संयोगवश उनके पति को यह धमकी देते हुए भी सुना कि अगर उसने अगली बार लड़के के
बजाय फिर लड़की जनी तो वह उसे तलाक दे देगा.[1] पिताको
अपनी इस नवजात बच्ची से इस हद तक घृणा थी कि वह तब भी अपनी पत्नी को सताया करता था
जब वह उसकी देखभाल करती थी या उसे दूध पिलाया करती थी. बच्ची अपनी ज़िन्दगी के
चालीस दिन पूरा करने के पहले ही मर गई. मुझे नहीं पता कि उसे उपेक्षा ने मार डाला
या फिर माँ ने ही गला दबाकर – ‘शांत रहो और शान्ति दो’ की हमारे मुल्क की कहन के
आधार पर.
ग्रामीण इलाकों में शिशु मृत्यु-दर बहुत ऊंची है. कुल
मिलाकर अरबी देशों में, रहन-सहन और शिक्षा के निम्न स्तर के परिणामस्वरुप यह
अनुपात स्त्री-संतान के लिए, पुरुष-संतान से कहीं अधिक है. और अक्सर यह उपेक्षा के
कारण होता है हालांकि यह स्थिति बेहतर आर्थिक और शैक्षणिक मानदंडों के फलस्वरूप
बेहतर हो रही है[2]
और स्त्री तथा पुरुषों के बीच शिशु मृत्यु- दर का अंतर गायब हो रहा है.
एक स्त्री-संतान अगर वह शहर में एक शिक्षित अरब
परिवार में पैदा हुई है ज़्यादा से ज़्यादा मानवीय अहसासों और कम से कम निराशाजनक
माहौल को पाती है. इसके बावजूद उस पल से जब वह घुटनों के बल चलना या अपने दो पैरों
पर खड़ा होना शुरू करती है, उसे सिखाया जाने लगता है कि उसका यौन अंग ‘डर’ का सबब
है और बड़ी सावधानी के साथ उसकी संभाल उसे करनी है; विशेषतः वह हिस्सा जिसे जीवन के
बहुत बाद में वह योनिच्छद (Hymen) के नाम से जानने लगती है.
स्त्री-संतानें, इसीलिये एक ऐसे माहौल में पाली-पोसी
जाती हैं जो उनके यौन-अंगों के प्रदर्शन और स्पर्श के आगाहों और डरों से जुड़ा है.
जैसे ही किसी स्त्री-संतान का हाथ अपने यौन-अंग को टटोलने की मुद्रा में पहुंचता
है जोकि सभी बच्चों के लिए बड़ा सामान्य और स्वाभाविक ज़रिया है अपने शरीर की जानकारी
का, तुरंत माँ की निगरानी भरी अँगुलियों या हाथों के ज़रिये चपत या घूंसों के
द्वारा उसे सबक सिखाया जाता है, कभी-कभी पिता के द्वारा भी. किसी भी बच्चे को अचानक
कभी भी थप्पड़ जदा जा सकता है; पर ज़्यादा सावधान और तार्किक अभिभावक अविलम्ब
चेतावनी या कड़े शब्दों में घुड़ककर इस काम को अंजाम दे सकते हैं.
अरब समाज में स्त्री-संतान को मिलने वाली शिक्षा,
निरंतर चेतावनियों की श्रृंखला है उन चीज़ों के बारे में जिन्हें धर्म द्वारा
हानिकारक, निषेधयोग्य, निंदनीय अथवा गैर-कानूनी माना जाता है. बच्चे को अपनी इच्छा
को दबाने के लिए, खुद से जुड़ी हुई असल, मौलिक चाहनाओं और इच्छाओं से खाली करने के
लिए और उस खालीपन को दूसरों की कामनाओं के अनुसार भरने के लिए सब कुछ करना पड़ता है.
स्त्री-संतान की शिक्षा इसलिए, एक धीमे विध्वंस की प्रक्रिया में रूपांतरित हो
जाती है- उसके व्यक्तित्व और मस्तिष्क के क्रमिक मरण के तौर पर जहां सिर्फ उसका
बाहरी खोल चिपका रह जाता है. शरीर, हड्डियों, मांसपेशियों और खून का जीवन-रहित
साँचा जो एक तनावपूर्ण रबर की गुड़िया में
दौड़ रहा है.
एक लड़की जिसका कोई व्यक्तित्व नहीं रह गया है. आज़ाद
होकर सोचने की ताकत और दिमाग का इस्तेमाल भी वह नहीं कर सकती, वह वही करेगी जो
दूसरे उससे करने के लिए कहेंगे. इसी तरह से वह उनके हाथों का खिलौना और उनके
फैसलों का शिकार बनती जाती है.
फिर वे दूसरे कौन हैं जिनके बारे में हम बात कर रहे
हैं? ये परिवार के या कभी-कभी परिवार से बाहर के पुरुष हैं जो जीवन के अलग-अलग
मौकों पर उससे संबधित होते रहते हैं. ये पुरुष जो अलग-अलग उम्र के होते हैं और
बच्चे से लेकर बूढ़े तक फैले होते हैं. सब अलग-अलग पृष्ठभूमियों से होते हैं. पर
सबमें एक बात सामान्य होती है कि वे खुद उस समाज के शिकार होते हैं जो लिंगों को
बांटता है, और यौनाचार को पाप तथा निंदनीय मानता है और जिसे सिर्फ आधिकारिक विवाह-अनुबंध
के दायरे में ही मंजूरी मिली होती है. यौन संबंधों के इस अनुमतिपूर्ण मार्ग के
अलावा समाज किशोरों और युवा पुरुषों को किसी भी रूप में यौनाचार से मना करता है
सिवाय स्वप्न-दोष के. मिस्री माध्यमिक विद्यालयों में किशोरों को ‘ रिवाज़ और
परम्पराएं’[3] नामक
पाठ के अंतर्गत ऐसा शब्द दर शब्द पढ़ाया जाता है. यह भी वर्णित है कि हस्तमैथुन
वर्जित है क्योंकि यह नुकसानदेह है और उतना ही खतरनाक है जितना किसी वेश्या से यौन
सम्बन्ध बनाना.[4]
इसलिए जवान पुरुषों के पास तब तक इंतज़ार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता जब तक
अल्लाह और पैगम्बर के निर्देशानुसार शादी के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे न इकट्ठे
हो जाएँ.
राशि चाहे छोटी हो या बड़ी, काम-काज और शिक्षा में
खर्च होते-होते, खासतौर पर शहर में, जवान पुरुष को सालों लग जाते हैं. इसलिए
ग्रामीण इलाकों के मुकाबले शहरी युवक की शादी की उम्र अनुपात में बढ़ जाती है. अधिक
दौलतमंद वर्ग के बेटों और बेटियों की शादी बहुत जल्दी हो सकती है लेकिन ऐसा बड़ा कम
होता है. दूसरों के लिए शिक्षा और रोज़गार के अलावा शादी में अटकाव वाला मामला –
रहन-सहन की कीमत में ज़बरदस्त उछाल, घरों का बहुत मंहगा होना और हद से ज़्यादा
किराया है. तो परिणामस्वरूप ऐसे जवान लड़कों की तादाद बढ़ती जाती है जो आर्थिक वजहों
से शादी करने में अक्षम हो जाते हैं और लगातार बढ़ता हुआ अंतराल जहां एक ओर जैविक
प्रौढ़ता और यौन आवश्यकताओं के बीच पैदा होता है वहीं आर्थिक सम्पन्नता और शादी के
अवसर के बीच भी पैदा होता है. यह अंतराल औसतन, दस साल से कम की अवधि का नहीं होता.
इसीलिये एक सवाल उठता है कि कैसे एक युवा अपनी स्वाभाविक यौन ज़रूरतों को इस अवधि
के दौरान संतुष्ट करे, एक ऐसे समाज में जो हस्तमैथुन के ख़िलाफ़ है उसके शारीरिक और
मानसिक रूप से हानिकारक होने के कारण और जो वेश्याओं के साथ, स्वास्थ्य के खतरे को
देखते हुए, यौन संबंधों को बनाने की अनुमति भी नहीं देता. यौन रोगों के द्रुत
प्रसार की वजह से वेश्यावृत्ति को बहुत सारे अरब देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया
है. इसके साथ ही वेश्या के साथ समय बिताने की कीमत भी बड़ी संख्या में जवान पुरुषों
के लिए अब संभव नहीं रह गयी है. शादी के बाहर यौन-सम्बन्ध और समलैंगिकता दोनों
पूरी तरह से समाज द्वारा प्रतिबंधित हैं.जवान पुरुष बिना किसी समाधान के असहाय छोड़
दिए गए हैं.
तो ऐसे
हालातों में, एक मात्र स्त्री, जो एक जवान लड़का या पुरुष आसानी से अपनी पहुँच में
पा सकता है वह उसकी छोटी बहन है. बहुतेरे घरों में वह साथ लगे बिस्तर पर सो रही
होती है या फिर एक ही बिस्तर पर एक किनारे . वह सो रही हो या जगी हो उसके हाथ उसे
छूना शुरू करते हैं. किसी भी मामले में अधिक फर्क नहीं पड़ता वह जगी भी हो तो अपने
बड़े भाई के खिलाफ़ उसकी हैसियत के कारण नहीं जा सकती जो रिवाजों और क़ानून के द्वारा
उसे दी जाती हैं. अथवा परिवार के भय के कारण या फिर अपराध-बोध के बहुत गहरे जमे
हुए अहसास की वजह से जो इस तथ्य से पैदा होता है कि वह भी उसके छूने से आनंद का
अनुभव करती है या फिर बहुत छोटी होने के कारण जो यह समझने में असमर्थ है कि उसके
साथ क्या हो रहा है?
बहुत सारी स्त्री-सन्ततियां ऐसी घटनाओं से जूझती रहती
हैं. परिस्थितियों के अनुसार वे समान या अलग हो सकती हैं. इस मामले में पुरुष
कोई भी हो सकता है- भाई, चचेरा भाई, चाचा, मामा,दादा यहाँ तक कि
पिता.यदि परिवार का सदस्य नहीं तो घर का चौकीदार, संरक्षक, अध्यापक, पड़ोसी का लड़का
या कोई भी दूसरा पुरुष.
इस किस्म के यौन हमले बिना किसी ताकत के इस्तेमाल के
घटित होते हैं. यदि लड़की बढ़ती उम्र की है और विरोध करती है तो फिर हमलावर कोमलता
और चालाकी के मिश्रण के ज़रिये अथवा शारीरिक ताकत के ज़रिये उस पर काबू पाता है.
अधिकाँश मामलों में लड़की समर्पण कर देती है और किसी से भी शिकायत करने में डरती
है. और अगर किसी तरह की कोई सज़ा मिलनी भी होती है तो वह लड़की पर आकर ही ख़त्म होती
है. वह अकेली है जो अपनी इज्ज़त और कुंवारेपन को खोती है. पुरुष का कुछ नहीं
बिगड़ता-खोता, जो कड़े से कड़ा दंड उसे मिल सकता है (अगर वह परिवार का सदस्य नहीं है
तो) वह यह है कि वह लड़की से शादी कर उस पर अहसान कर दे.
बहुत लोग ऐसा सोचते हैं कि ऐसी घटनाएं इक्का-दुक्का
हैं, गिनी-चुनी हैं. पर इस मामले की असलियत यह है कि यह सब कुछ बहुत आम है और छुपा
रहता है- बच्ची के अस्तित्व की रहस्यात्मक खोह के भीतर. न वह किसी को बताने का
दुस्साहस करती है कि उसके साथ क्या हुआ और न ही पुरुष कभी यह स्वीकार करता है कि
उसने क्या किया.
बच्चों अथवा जवान लड़कियों के साथ घटने वाले ये सभी
यौन दुराचरण, शैशव-स्मृति विस्मरण(infantile amnesia) की प्रक्रिया के
द्वारा भुला दिए जाते हैं. मानवीय स्मृति के पास एक प्राकृतिक क्षमता होती है कि
जो बात वह भूल जाना चाहे वह भूल सके, खासतौर पर तब जब वह दर्दनाक घटनाओं, क्षोभ और
अपराध-बोध की भावना से सम्बंधित हो. यह उन तयशुदा घटनाओं का एक बड़ा सत्य है जो
बचपन में घटित हुई होती हैं और जिसकी जानकारी किसी को भी नहीं है; पर यह विस्मरण
बहुत सारे मामलों में कभी पूरा नहीं होता क्योंकि इसका कुछ हिस्सा अवचेतन में दबा
रह रह जाता है और वह सतह पर किसी भी मानसिक और नैतिक संकटग्रस्तता के समय उभर के
ऊपर आ सकता है.
अनगिनत मामले जो मैंने अपनी क्लीनिक में देखे,
उन्होंने मुझे अपने जीवन के एक बड़े हिस्से को, समाज के दोगले चेहरे को उजागर करने
में समर्पित कर देने के लिए प्रेरित किया, जिसमें हम रहते हैं –एक समाज जो खुले
में मूल्यों और नैतिकता के उपदेश देता है पर चोरी-छिपे बिलकुल भिन्न आचरण करता है.
एक चिकित्सक होने के नाते मेरा काम मरीज़ की परीक्षा
करने के पहले, यदि बीमारी शारीरिक है तो उसे निर्वस्त्र करना था और यदि बीमारी
मानसिक है तो उन मुखौटों को हटाना था जिसमें लोग अपना स्वत्व, अपनी आत्मा ढंके
रहते हैं.
दोनों स्थितियों में, जब शरीर नग्न होता है अथवा
स्वत्व नकाबहीन तो सम्बंधित व्यक्ति, भयंकर यातना और भय के कब्ज़े में होता है. यही
कारण है कि बहुत सारे लोग शारीरिक या मानसिक रूप से खुद को आवरणहीन करने से इनकार
कर देते हैं और तेजी से बिस्तर की चादरों को खींचकर अपना शरीर ढंकने लगते हैं या
फिर अपना सार्वजनिक मुखौटा व्यवस्थित करने लगते हैं; और यह सब करके वे लोगों को वह
देखने से रोकने की कोशिश करते हैं जो असल में वे हैं और अपनी असलियत, निजता और स्व
को अपने अचेतन की गहरी भूल-भुलैया से भरे खोह में छिपाए रहते हैं. क्योंकि सच
कितना भी गहरा दफ़ना दिया जाय वो हमेशा जीवित रहता है. जब तक मनुष्य जीवित है और
सांस ले रहा वह छिपा सच भी सांस ले रहा होता है. जैसे धरती के अन्दर गहरा दबा कीड़ा
अचानक बाहर निकल आता है वैसे ही सत्य भी मनुष्य के दिमाग से उस वक़्त बाहर आ जाता
है जब उस पर किसी भी किस्म की चौकसी या पहरा नहीं रह जाता. मनुष्य भले ही कितना भी
सजग रहे वह ज़्यादातर बिना पहरे के ही होता है – गुस्से, वासना और डर के मौकों पर.
ऐसे मौकों पर वे जल्दबाजी में अपने मुखौटे को पहनना भूल जाते हैं और समझदार आँखें
आसानी से ताड़ लेती हैं कि अन्दर क्या-कुछ भरा पड़ा है.
खासतौर पर ऐसे समय में यह अधिक घटित होता है जब
व्यक्ति बीमार होता है. क्योंकि तब वह मुखौटे को अपनी जगह पर बनाए रखने में अक्षम
हो जाता है. यह गिर जाता है और शरीर तथा आत्मा नग्न हो जाती है. कपड़ों, मुखौटों,
नकाब, शर्म छिपाने की आड़ के गिरने से आत्मा और शरीर की नग्नता, अब बीमारी के खतरे
के बनिस्बत कहीं कम भयोत्पादक होती है, क्योंकि स्वास्थ्य और जीवन को किसी भी कीमत
पर बचाया जाना चाहिए.
ऐसे मामलों में मुझे आज भी वह शरारती, गहरी आँखों
वाली एक लम्बी सी लड़की याद आती है. वह बहुत सारी दिमागी और शारीरिक तकलीफों की
शिकायत कर रही थी. मैं उसकी बीमारी के ब्यौरों में नहीं जाऊंगी लेकिन उसकी कहानी
मेरी स्मृति में आज भी ताज़ा है. जाड़े की एक सर्द रात, मेरी बैठक में हीटर चल रहा
था और जब हम शटर गिरा कर बैठे हुए थे, उसने मुझे बताया ‘मुझे याद है कि मैं पांच साल की थी जब मेरी माँ मुझे
अपने मायके साथ ले जाया करती थी. उनका परिवार एक बड़े से घर में Helislopolis
(काहिरा) के नज़दीक Zeitoun
जिले में रहता था.मेरी माँ अपनी माँ और बहनों से हंसती बतियाती रहती थी
जबकि मैं परिवार के बच्चों के साथ खेलती रहती थी. घर खुशदिल आवाजों से चहकता रहता
था, जब तक कि दरवाज़े की घंटी नहीं बजती थी. यह मेरे नाना के आने की खबर होती थी.
तुरंत ही सारी आवाज़ें दब जाती थीं. मेरी माँ बहुत धीमी आवाज़ में बात करने लगतीं और
बच्चे सामने से गायब हो जाते. मेरी नानी दबे पाँव दादा के कमरे में जातीं जहां
उन्हें नाना के कपड़े और जूते उतारने में मदद करनी होती थी, उनके सामने चुपचाप सर
झुकाए हुए खड़े होकर. बाकी परिवार की तरह बड़े हों या बच्चे, मैं भी अपने
नाना से डरती थी और कभी भी उनकी मौजूदगी में खेलती- हंसती नहीं थी. पर, दोपहर के
खाने के बाद जब घर के और बुज़ुर्ग आराम कर रहे होते तब वह मुझे थोड़ी कम कठोर आवाज़
में बुलाते – ‘ आओ, बगीचे से कुछ फूल चुन लेते हैं.’
जब हम बगीचे के एक कोने में पहुँच जाते तो उनकी आवाज़
मेरी नानी की तरह कोमल हो जाती और वह मुझे अपने बगल में लकड़ी की बेंच पर बैठने के
लिए कहते जिसके सामने गुलाबों की क्यारी थी. वह मुझे कुछ लाल और पीले फूल पकड़ा
देते और जब मैं उन रंगों और पंखुड़ियों में डूब जाती तो वे मुझे अपनी गोद में बिठाकर
दुलराने और गाने लगते जब तक कि मैं आँखें बंद कर सोने की हालत में न पहुँच जाऊं.
लेकिन मैं कभी सोती नहीं थी क्योंकि मैं हर वक़्त उनके हाथ को महसूस कर सकती थी जो
बड़े चुपके से मेरे कपड़ों के अन्दर रेंगता था और उनकी उंगली मेरे निक्कर के अंदरूनी
हिस्सों में चली जाती.
मैं केवल पांच साल की थी लेकिन जाने कैसे मुझे यह पता
था की नाना जो कर रहे हैं वह गलत और अनैतिक था. और अगर मेरी माँ को यह पता चला तो
वह मुझ पर ही गुस्सा होंगी और फटकारेंगी. मैंने सोचा कि मुझे अपने नाना की गोद से
उतर जाना चाहिए और अब जब वह मुझे बुलाएं तो उनके साथ बगीचे में आने से इनकार कर
देना चाहिए. पर कुछ दूसरी बातें भी साथ में ही चल रही थीं. सिर्फ
पांच साल का होने के बावजूद मुझे यह महसूस हुआ कि मैं अच्छी बची नहीं हूँ क्योंकि
मैं नाना की गोद से उतरने के बजाय वहीं बैठी रही. और उससे भी अधिक ग्लानि इस बात
की थी की उनके हाथों की हरकत से मुझे भी अच्छा लग रहा था. और इसी बीच जब वह मेरी माँ को मेरा नाम पुकारते सुनते तो झट
अपना हाथ वापस खींच लेते. मुझे हिलाते जैसे वह मुझे नींद से जगा रहे हों और कहते,
‘तुम्हारी माँ बुला रही है’. मैं अपनी आँखें ऐसे खोलती जैसे नींद से जगी हों और
सपाट सा चेहरा लिए माँ की ओर भागती जो किसी पांच साल के बच्चे का नहीं हो सकता था.
वह मुझसे पूछतीं, ‘कहाँ थीं तुम?’ और मैं बड़ी मासूमियत भरी आवाज़ में उन्हें कहती,
‘ बगीचे में नाना जी के साथ’.
यह जानकार कि मैं बगीचे में नाना के साथ हूँ वह बड़े
सुकून और सुरक्षा का अनुभव करतीं. वह
हमेशा मुझे बगीचे में अकेले आने के लिए आगाह किया करतीं और ‘उस आदमी’ माली के बारे
में अपनी चेतावनी को दोहराना कभी नहीं भूलती थीं जो चिकना सा लबादा पहने रहता था
और फूलों पर पानी का छिड़काव किया करता था. ऐसे में मुझे केवल माली से ही नहीं
बल्कि पाइप से निकलने वाली पानी की बूंदों से भी डर लगता था. फिर जब-जब नाना घर की सीढियां चढ़ते, अपने रुआब के साथ
जिससे सब डरते थे, तस्बीह उनके हाथों में चलती रहती थी. मैं यह सोचने लगी थी कि
नाना जो मुझे बगीचे में दुलराते-सहलाते हैं वो वह नाना नहीं हैं जो अपनी मेज पर
बैठते हैं और जिनसे मैं डरती थी. कभी-कभी मुझे लगता था कि मेरे दो नाना हैं.
सुबोध शुक्ल |
जब मैं दस साल की हुई नाना गुज़र गए. मैं उनकी मौत से
दुखी नहीं थी. इसके उलट एक अजब सी धुंधली खुशी का अहसास था और मैं बच्चों के साथ
हंसती खेलती कूद-भाग रही थी. लेकिन माँ ने मुझे फटकार लगाई और यह कहकर घर में बंद
कर दिया कि क्या तुम्हें पता नहीं की नाना नहीं रहे? ज़रा भी सलीका नहीं है
तुम्हें?
मैं उनसे पूछने को हुई, क्या नाना को पता था कि सलीका
किसे कहते हैं? पर यह पूछ सकने का मेरे पास साहस नहीं था सो मैं चुप रही और यह बात
मेरे दिल में ही रही. यह पहला मौक़ा है डॉक्टर जब मैं किसी को अपनी आपबीती सूना रही
हूँ.’
मैंने वह पूरा ब्यौरा नहीं दिया है जो उस महिला ने कई
साल पहले उस रात मुझे बताया था. उसने तभी अपना दिल मेरे सामने खोला जब उसे यकीन हो
गया कि मैं उसके बारे में कोई नैतिक निर्णय कायम नहीं करूंगी. बहुत सारी लड़कियां
और औरतें जो मेरी क्लीनिक में आती थीं, अपने दिल के अन्दर छिपे हुए रहस्यों को
उघाड़ने में बड़ी हिचक से भरी होती थीं. पर एक बार आत्मविश्वास और भरोसा कायम हो
जाने पर वे कितनी ही दर्दनाक बातों को साझा करने लगती थीं जो वे सालों से ढोती आ
रही थीं.
[2] मिस्र के स्वास्थ्य मंत्रालय की
रिपोर्ट, १९७१. १९५२ में हज़ार जन्म पर १२७ की शिशु मृत्यु-दर जो १९७७ में ११५ हो
गयी.
[3] शिक्षा-मंत्रालय, तीसरे वर्ष के छात्रों के लिए मनोविज्ञान की पाठ्य-पुस्तक (
माध्यमिक स्तर, कला एवं साहित्य) लेखक डॉ. अब्दुल अज़ीज़ अल कूज़ी और डॉ. सैयद गौनेम,
काहिरा १९७६.
उफ़्फ़ 😟😢