‘आक्रोश को अपना यू.एस.पी.
नहीं बनाना चाहिए.’
–
– वीरेन डंगवाल
यह
कथन वीरेन डंगवाल की स्मृति में पहल से आयी पंकज चतुर्वेदी की पुस्तक में दर्ज़ है।
आदित्य शुक्ल की कविताएं पढ़ता हूं तो यह वाक्य याद आता है। आक्रोश यहां, अंडरकरेंट की तरह है, वह इन कविताओं का यू.एस.पी. नहीं है। ऐसा
भी हुआ है कि आदित्य ने अपनी कविताओं पर कुछ कहने की जगह दिवंगत कवि-साथी प्रकाश को
आत्मकथ्य में याद किया है। मेरा इस प्रसंग में ज़्यादा कुछ कहना इसकी सांद्रता को नष्ट
करना होगा, इसलिए इन कविताओं और प्रकाश पर
इस टिप्पणी के लिए मैं आदित्य को शुक्रिया भर कहूंगा।
————
प्रकाश
– आना से लौटना तक: आत्मन के नृत्य.
जीवन
के प्रति एक उत्सुकता है। जीवन में एक उदासी है। उदासी में एक दृष्टि है। दृष्टि
में एक कल्पना है। कल्पना में एक जीवन है। यही चक्र है।
*वह
जीवित, मृत्यु नाम की जगह पर
बार-बार
जाता था
और
हर बार अपनी जगह पर
चुपचाप
लौट आता था
उसके
हाथ में एक खंजड़ी थी
वह
गाता-बजाता जाता था
और
वैसा ही वापस आता था
लेकिन
आश्चर्य कि आत्मन् कहता था
कि
वह कभी कहीं गया ही नहीं!
आत्मन
ने अपना भविष्य देख लिया था। या यूं कहें कि उसने अपना एक भविष्य तैयार कर लिया
था। उसका जीवन संछिप्त था। उसने संछिप्त को अपना लिया था। वह संछिप्त में उतना ही
सुखी था जितना कि जीवन ने उसे दुःख दिया था। उसके हाथ में एक खँजड़ी थी। उसे वह
गाता बजाता था। वह जीवन को समूचा जी लेना चाहता था पर यह कहता नहीं था। उसने
संछिप्त से जीवन में जीवन पूरा जी लिया। वह अपने जीने की जगह पर पूरा केंद्रित था।
उसने जीवन को समझ लिया। उसने जीवन की गुत्थी अपने लिए खोल दी और उसमें कूद पड़ा।
वहां बहुत अन्धकार था। वह उसमें विलीन हो गया। वहां से उसकी प्रतिध्वनि आती रही।
उसने मानवता के एक छोटे से समूह को जीवन के बारे में प्रेरणा देने के लिए अपना
जीवन कुर्बान कर दिया। उसने दुःख को पकाकर सुन्दर कर दिया। उसके यहां दुःख में
निराशा की एक अंतर्धारा थी लेकिन वह उसे प्रकट नहीं होने देता। बड़ी चालाकी से वह
उसे छिपा ले जाता और चुपचाप सब देखता सुनता और गुनता। वह बहुत कुछ कहना चाहता था,
उसकी उत्सुकता उससे बहुत कुछ खोज लेने और कहने के बारे में कहती थी लेकिन वह विवश
था। वह जानता था इस दुनिया में कहने का कोई मोल नहीं। वह उदास मन से कहने को इच्छा
पर ही रुका हुआ था। वह करुणा की दृष्टि से इस विश्व को देखता था और मन ही मन
पहेलियों को सुलझाता रहता था।
*आत्मन्
खाता था और रो पड़ता था
वस्तुतः
वह ख़ुद, ख़ुद से खाया जाता था
वह
हैरत से ख़ुद को खाया जाता देखता था
उसकी
आँख फटी रह जाती थी
कि
वह रोज़-रोज़ थोड़ा कम होता जाता था !
उसको
एक उपाय सूझता था
वह
रो-रोकर आँसुओं से
ख़ुद
को थोड़ा अधिक कर लेना चाहता था
पर
रोते-रोते एक दिन
वह
नहीं की गुफ़ा में चला गया!
भारत
भूषण अग्रवाल पुरस्कार के लिए अनुसंशित कवि प्रकाश की कविता-श्रृंखला ‘आत्मन के
गाए कुछ गीत’ हिंदी कविता की थाती हैं। कवि प्रकाश हिंदी की उपलब्धि हैं। आज उनके
बहाने मैं एक लगभग अप्रासंगिक हो चुके मुद्दे को उठा रहा हूँ – कविता की रोमांटिक
शैली। अशोक बाजपेयी और उनके बाद के तमाम कवियों पर यह आरोप लगता रहता है कि
उन्होंने अपनी ही शैली के कवियों को बढ़ावा दिया। हो सकता है यह आरोप सच हो पर हमें
उससे क्या। कवियों और कविताओं की अपनी तय नियति होती है। हम उसे चुपचाप स्वीकार कर
रहे हैं। इस क्रम में इस अल्पायु प्राप्त विलक्षण कवि की बात की जानी जरूरी है।
प्रकाश एक द्रष्टा कवि हैं। उनमें करुणा फूट-फूट कर भरी है। वे विश्व को देखते
हैं, अपने प्रति हुए अत्याचारों को देखते हैं और सिर्फ करुणा के शब्द कहते हैं।
कहीं कोई बनावट नहीं, कहीं कोई धोखा नहीं, कहीं कोई शिकायत नहीं। हलांकि यह विदित
है कि उनकी मृत्यु हिंदी साहित्य में कितनी दुखद घटना है। यह हिंदी साहित्य का
दुर्भाग्य है। लेकिन उनकी मृत्यु के लिए सिर्फ हिंदी साहित्य को दोष देना भी
अनुचित है। यह एक समूचे समाज की असफलता है। यह हमारे देश-काल की विद्रूपता है।
कवि
प्रकाश ने कहन की नई शैली भले ही विकसित न की हो लेकिन वे जिस परम्परा के तहत
लिखते हैं, उसी में एक नए धरातल की पड़ताल करते हैं, यह अलग बात है कि उनका
अनुसंधान पूरा नहीं हो सका। ‘आत्मन के गाए कुछ गीत’ श्रृंखला की कविताएं देखिए-
करुणा के गहनतम धरातल पर उतरकर वे समूचे विश्व की मानवता की विद्रूपता रचते हैं।
उनकी इन कविताओं में अनावश्यक महत्वकांक्षा नहीं है। वे विद्रूपता को देखते हैं और
उसे रिकॉर्ड करते हैं और एक कवि इससे अधिक कर क्या सकता है। उनके यहां तो संतो
जैसी असंपृक्तता है। आखिर बिचारा मनुष्य करे तो क्या? सत्तासीन मनुष्य विनाश करता
है और निर्बल मनुष्य रोता है, यही मानव सभ्यता की नियति है।
*आत्मन्
अपनी छड़ी फेंक देता था
अस्त-व्यस्त
कपड़ों को भूल
बेतरतीब
नाचता था
भीड़
खड़ी पूछती थी– हुआ क्या ?
आत्मन्
कहता था– देखो और जानो!
आज
जबकि भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के संदर्भ में हिंदी साहित्य में अनावश्यक बवेला
मचा हुआ है, अपने इस अग्रज कवि को याद करते हुए नमन करने की जरूरत है। इस कवि को
हमेशा याद रखने की जरूरत है। इस कवि की कविताओं को पढ़ने और गुनने की जरूरत है। हम
कितनी जल्दी एक से आगे बढ़कर दूसरे पर पहुँच जाते हैं जबकि एक का भी सम्पूर्ण
निरक्षण ही न हुआ हो?!
*सभी
कविताएं कवि प्रकाश की कविता श्रृंखला ‘आत्मन के गाए कुछ गीत से’।
**********
आदित्य शुक्ल की कविताएं
मुझे,ये चींटियाँ.
अंधेरे की एक कोई दीवार
चौकोर,
चार तीखे कोनों वाली
और ये चींटियां
बारिश रिसी दीवारों पर।
ये चींटियां,
अंधेरा तोड़ तोड़ ले आती हैं
उनमें अपने घर बनाती
गहरे, बहुत गहरे सुराख कर
दो दुनिया के रास्ते तय कर लेतीं
ये चींटियां छोटी छोटी।
मुझे ये
मेरे चारों तरफ घेर लेतीं
किसी रात के उजाले में
रखे होते जहां अंधेरे अनाज के टुकड़े,
मुझे ये चींटियां मरी हुई लाश समझकर
कभी कभी मुझ पर उजाले उगल देतीं।
मुझे ये चींटियां
कभी कभी
महीने-साल का राशन दे जातीं,
अंधेरी जमीन को खोद
कहीं उस पार
अगली बारिश तक के लिए चलीं जातीं।
***
मेरे गाँव की क़ब्र.
मेरे गांव में एक भी क़ब्र नहीं है,
मेरे गांव में एक भी क़ब्र नहीं है
लेकिन खूब खुली-खुली जगहें हैं,
घास है,
ईंट/पत्थर/सीमेंट/कामगार हैं।
लोग-बाग मरते भी हैं बहुधा
मेरे गांव,
फूल के बागीचे हैं।
मेरे अपने बागीचे,
मेरे अपने फूल के पौधे।
काश, मेरी अपनी एक क़ब्र भी होती
खुले आसमान के नीचे,
कहीं भी,
जिसपर अंकित होता मेरा परिचय, मेरे शब्द,
मेरे स्वप्न,
मेरी असफलताएँ;
एक-एक कर,
अपने सारे ये फूल मैं उस क़ब्र पर चढ़ा
आता,
यूं,
फूलों का बोझ मेरे सर से उतर जाता।
***
बस स्टैंड पर
बस-स्टैंड पर लोग-बाग बातें कर रहे
हैं
और हो रही है बारिश.
हवाएं उड़ा लाईं हैं कुछ हरे पत्ते
कागज के टुकड़े
जो ठिठक गए हैं आकर पोल के पायताने
जमे पानी में
लोग-बाग बाते कर रहें हैं
उनकी बातों में हैं तमाम बातें
बस की अब नहीं है उन्हें कोई चिंता
बस आएगी अपने नियत समय पर
बादल गरजेंगे
बारिश होगी
रास्ते में लग जाएगा जाम
पोल के पायताने जमा रहेगा पानी.
दूर रेडियो पर बजती रहेगी जानी-पहचानी
धुन
बादल गरजते रहेंगे.
लोग-बाग बातें करते रहेंगे
बस-स्टैंड एक दृश्य बनकर लटक जाएगा
सड़क किनारे.
लोगों की बातों में इन बातों का नहीं
होगा कोई जिक्र
नहीं होगा कोई जिक्र कि कैसे कौन
हवाएं उन्हें यहां लाकर ठिठका देती हैं
और फिर यकायक उड़ा भी ले जातीं हैं
वे तो जानते तक नहीं
अपना रुकना, ठहरना, दृश्य बन जाना
बस के आने तक होगा दृश्य
टूट जाएगा फिर
लोग हंसते-मुस्कुराते इधर उधर चले
जाएंगे
अपनी अपनी छतरियां खोले
फिर कहीं और ठिठक जाने के लिए.
***
नींद ही है कि सच है
अधखुली आँखों से नींद टपकता,
बिस्तर रेशमी होता जाता है। तुम्हे
आधा देखते और आधा छूते मैं पूछता हूँ
देखो तो सुबह हो आई है क्या, यह झुटपुटा सा क्यों है, सूरज लाल है क्या क्षितिज पर देखो तो।
मानसून की पहली बारिश है, हो रही। सड़कें भीग गयी है। कोई दो
प्रेमी इस मिट्टी के रस्ते से गुजरे हैं
बारिश हो रही है। आँखों से टपकती है
नींद बिस्तर रेशमी होता जाता है तुम कहती हो
चलो कहीं चले चलते है।
दूर।
तो क्या तुम मेरे साथ गाँव चलोगी, वहां हम खेतों में काम करेंगे और
गन्ने और मक्के उगाएंगे
गाँव के लोगों ने कामचोरी में आकर ऐसी
खेती करनी बन्द कर दी है या शायद वे उम्मीद करते करते ऊब गए हैं अब कुछ और नहीं, अब ईश्वर ही उनका एकमात्र सहारा है।
वे अब मंदिरों और प्रार्थनाओं में अधिक मान्यताएं रखने लगे है। बजाए इसके कि वे खेती
करते।
गाँव चलोगी क्या
या अगर मन बदल जाए तो मैं तुम्हारे
साथ गाँव को जाने के लिए बैठे ट्रक पर से अचानक उतरकर कहूँ
कि नहीं, नहीं। चलो पहाड़ों पर चलते हैं जहाँ
हमें कोई भी जानता नहीं। तो फिर भी तुम चलोगी क्या?
तुम मौन हो स्वप्न में मौन हो। पर
तुम्हारी आँखें खुली हैं। पूरी की पूरी। तुम्हारी आँखों में दृश्य चल रहा होगा।
दृश्य हमें मौन कर देते हैं फिर तुम कहती हो:
हाँ, चलो न। चलो कहीं भी। कहीं से उतर कर
कहीं भी चले चलेंगे। मैं थोडा बहुत जितना भी जीना चाहती हूं वो बस तुम्हारे साथ।
अगर हम पहाड़ों पर चले तो वहां एक स्कूल चलाएंगे। अब मुझे कभी-कभी बच्चों को पढ़ाने
का मन करता है।
यह कहकर अकस्मात् तुम्हारी आँखों से
नींद टपकती है बिस्तर किसी विशाल समुद्र में तब्दील हो जाता है।
मानसून की पहली बारिश है अलसुबह, अखबार बेचने वाला पुराने रेनकोट में
आधा भीगते और चिल्लाते हुए कहीं से आ रहा है और कहीं को ओर चला गया। अखबारों में
पता नहीं कैसी-कैसी ख़बरें हैं। कोई अच्छी खबर होती तो वह मेरे घर की बालकनी में भी
अखबार फेंक जाता या पिछले महीने का बकाया मांगने आ जाता जब मैं या तुम अधखुली नींद
में एक घण्टे बाद आने को कह देते।
नींद ऐसी टपकती है कि सब कुछ रेशम हो
जाता है शहतूत के पौधे पर लगे फल मीठे हो जाते हैं और हम तोड़ते बीनते खाते जाते
हैं। नींद टपकती आँखों के सामने न जाने किस फूल के पौधे पर तितलियाँ मंडरा रही हैं
तितलियाँ ही हैं कि न जाने कुछ और और स्वप्न में नींद का ऐसा खुमार है कि तितलियाँ
जान पड़ती हैं वे।
***
किसी अदृश्य में तुम.
एक अदृश्य में तुम्हारी
प्रतिछाया मिली
एक अदृश्य के साथ
शहर के हर रेस्तरां में गया
हर अनबैठे कुर्सियों पर बैठने
हर अनकही बात बताने के लिए
हर अनखाया व्यंजन खाने के लिए।
सारा अनहुआ, हुआ हो गया।
पृथ्वी पर कोई जगह नहीं बची
जहाँ हमारे पदचिन्ह न हों।
सारा अनकिया घटित हुआ
– जिस अदृश्य में तुम्हारी प्रतिछाया
थी।
***
एक अदद बंदूक की जरूरत.
मैं इतना अच्छा आदमी हूँ कि सनक गया
हूं
अँधेरे में मुझे आता देख एक साठ साला
औरत अपने आँचल सम्भालती है
ये शर्म की बात उससे अधिक मेरे लिए
मैं अपने सौ से भी ज़्यादा टुकड़े कर
सकता हूं
मेरे मस्तक में कीड़ों का साम्राज्य उग
आया है
उनकी टांगें मेरे सिर पर छोटे छोटे
सिंग जैसे बढ़ रहे हैं
आप मुझे कुछ भी ऑफर कर सकते हैं
बीड़ी, गांजा या बन्दूक।
***
बहुत बढ़िया….और पढ़ना है….।
बहुत सुन्दर