अनुनाद

ये दु:ख की नदियॉं हैं क्‍योंकि किसानों की नदियॉं हैं – कुमार मंगलम की कविताऍं

युवा कवि कुमार मंगलम की कुछ कविताऍं अनुनाद को मिली हैं।ये कविताऍं नदियों के बारे में हैं, जैसे भाषा की नदी में सचमुच की नदी के प्रवाह की प्राचीन एक इच्‍छा। कविता में अनगढ़- सी एक धारा – कभी मंथर, कभी जल्‍दी से भरी बहुत तेज़। कहीं बहुत संकरी, कहीं बहुत चौड़ा पाट। कवि ने ही इनका यह सार दिया है कि ये दु:ख की नदियॉं हैं क्‍योंकि किसानों की नदियॉं हैं। कुमार की कविताऍं पहली बार अनुनाद पर छप रही हैं, उनका स्‍वागत। अनुनाद के पाठकों से अनुरोध है कि इन कविताओं को कवि के लिए अपनी प्रतिक्रियाओं से प्रकाशित करें।
  
 
 

 

कर्मनाशा 

1.

कहते
हैं कि

राजा
हरिश्चंद्र के पूर्वज त्रिशंकु ने

सशरीर
स्वर्ग जाने की जिद की थी

और
राजर्षि विश्वामित्र ने

चुनौती
दे दी थी इन्द्रादि देवताओं को

और
इस तरह से त्रिशंकु बढ़ने लगे थे स्वर्ग की ओर

देव
सभा स्तब्ध थी

कि
यह कैसी चुनौती है

और
फिर रचा जाने लगा षड़यंत्र

मानवों
के विरुद्ध

एक
भीषण षड़यंत्र

 
और
त्रिशंकु लटक गए अधर में

त्रिशंकु
के लार से बनी एक नदी

जिसे
कर्मनाशा कहते हैं

और
यूँ नदी लां
छित हुई
और
शापित भी

उसे
स्पर्श करने मात्र से

सभी
पुण्यों का नाश हो जाता है

क्या
कभी कोई नदी शापित हो सकती है

अथवा
क्या
कभी कोई स्त्री लांक्षित

यह
देवताओं का षड़यंत्र था मनुष्यों के विरुद्ध

मैं
इसी कर्मनाशा नदी के किनारे रहने वाला

एक
अदना कवि हूँ

 
तुलसी
बहुत दूर थे तुमसे हे कर्मनाशा

तुम्हें
जान नहीं पाए

नहीं
तो क्योंकर लिखते

काशी
मग सुरसरि क्रमनाशा

 
उनके
आराध्य की आराध्या तो गंगा ही थीं

लेकिन
मैं जानता हूँ

इसी
नदी का पानी पीकर

मेरे
पूर्वजों ने अपनी प्यास बुझाई है।

और
इसी नदी के पानी से

हमारी
फसलें लहलहाई हैं।

जिन्हें
खाकर मेरी ही नहीं

कई
शहरों की भूख मिटी है।

तो
अब बताएं हे देव
?
कर्मनाशा
कैसे शापित हुई

क्योंकि
उसके पानी से उपजे अन्न का

प्रसाद
तो आपने भी खाया है।

आज
मैं नदी को शाप-मुक्त करता हूँ

और
देवताओं के षड़यंत्र को धत्ता बताते हुए

कर्मनाशा
के पानी से उपजे अन्न को खाने के जुर्म में

आपको
अपराधी पाता हूँ

यह
एक नदी से ही सम्भव है

कि
वह
आपसे आपका देवत्व छीन ले।


2

कर्मनाशा
जो एक नदी है

नदियों
में श्राप

दुःख
की नदी

मेरे
पूर्वज!

कभी
समझ नहीं पाए

क्यों
यह नदी है दुःख की

अपने
बच्चों को बताना चाहता हूँ

कि
सुरसरि से अधिक पवित्र

है
यह नदी

इस
नदी का पानी पीकर

मेरे
बच्चे
,
तुम
बलिष्ठ हुए हो।

यह
एक
स्त्री नदी है

जो
तुम्हारी माँ हो सकती है

बहन
हो सकती है

प्रेमिका
भी हो सकती है

तमसा, कर्मनाशा, असी,
आमी, दुर्गावती
और
भी अन्य

और
भी कई

नदियाँ

ये
दुःख की नदियाँ
हैं
क्योंकि
किसानों की न
दियॉं हैं

बारिश
के वैभव की ये नदियाँ

पंडितों
के व्यापार की नदी नहीं

कर्मशीलों
के पसीनों की सहचरी है।

***

सुवरा*

कैसी
नदी हो तुम सुवरा

कहते
हैं यह महादेश नदियों का देश है

और
नदियाँ यहाँ की देवियां हैं

तो
कैसे पड़ा तुम्हारा नाम सुवरा हे नदी!

कर्मनाशा
की पड़ोस की बहिन नदी

दुर्गावती
भी तुम्हारी सखी ही होगी

 
कैसा
हतभाग्य है

कि
विंध्याचल का बाँह कहा जाने वाला कैमूर

है
तुम्हारा भाई

 
और
तुम्हारे परिजन अलक्षित और अपवित्र

तुम्हारा
जल भी

कर्मनाशा
और दुर्गावती की तरह

किसी
अनुष्ठान का हिस्सा नहीं

तुम्हारे
किनारे तो कभी

नहीं
रहे कोई असुर

बल्कि
देवी मुंडेश्वरी तुम्हारी पड़ोसी हैं

कहते
हैं गुप्तकालीन अष्टफलकीय मंदिर

का
अनोखा स्थापत्य लिए हुए

 
बिहार
का प्राचीनतम देवी तीर्थ तुम्हारे पड़ोस में बसा है

फिर
भी तुम अलक्षित रह गयी

तुम
तो जीवनदायिनी-फलदायिनी नदी हो

तुम्हारे
ही जल से सिंचित हो

लहलहाते
हैं फसल धान के

 
किसान
के सीने गर्व से फूलते हैं

जब
लहलहाती बारिश में बढ़ी चली आती हो

और
जब गर्मी में सिकुड़ने लगती हो तो

पनुआ
उगा
,
किसान
गर्मी से राहत पाते हैं और धन भी।

पशु, वन्य जीव
भी तुम्हारे जल से अपनी प्यास मिटाते हैं।

सुवरा!
तुम शास्त्रों में और लोकजीवन में भले ही अलक्षित हो

भले
ही तुमसे किसी राजा ने विवाह नहीं किया

तुम
विष्णुपद से नहीं निकली

तुम
ब्रह्मा के कमंडल में नहीं रही कभी

तुम्हें
शिव ने नहीं किया अपने जटाजूट में धारण

तुम
उतनी ही पवित्र हो सुवरा

जितनी
गंगा

सुवरा!
कैसे
तुम स्वर्णा से सुवरा हुई

तुम
तो सुवर्णा थी

 
कथा
कहो नदी सुवर्णे!

किसी
समय जब मैं स्वर्णा थी

मेरे
तली में सोन की तरह मिलते थे स्वर्ण कण

सुंदर
वर्णों सी चमकती

कोई
अन्य नहीं था

सोन
तो मेरा दूर का रिश्तेदार ही था

दूर
का भाई

लोगों
की भूख बढ़ती गयी

और
मेरे रेत से बहुमंजिला इमारत बनती गईं

धीरे
धीरे सभी मेरा सब स्वर्ण

मनुष्य
के असमाप्त भूख ने
,
लोभ
ने
,
लालच
ने निकाल लिया मेरे गर्भ से

अब
जो बचा मुझमें वह

सिर्फ
बजबजाता पानी था

 
लोककथाओं
में मेरी उपस्थिति थी ही नहीं

बाण
और वात्स्यायन जो मेरे किनारे के रहवासी थे

उन्होंने
दर्ज नहीं किया अपनी किसी कथा में मुझे

शास्त्र
से पहले ही बेदखल थी

यह
लोभ-लाभ का कुटुंब है मनुष्य

जब
उसके लालच की पूर्ति ना कर सकी

स्वर्णा
से होती गयी सुवरा

कोई
आश्चर्य नहीं कि

कल
सुवरा भी नहीं होगी

जैसे
नहीं बची स्वर्णा

सुवरा
भी नहीं बचेगी

मनुष्य
के असमाप्त लोभ से

 
यह नदियों को देवी मानने का महादेश
नदियों
को अपनी भोग्या मानता है

नदियाँ
इनके असमाप्त लोभ की सदानीरा है।

*कैमूर
जिले की एक नदी
,
जिसके
किनारे कैमूर जिला मुख्यालय भभुआ अवस्थित है। सुवरा जो कभी स्वर्णा नदी थी
, लेकिन अब
बजबजाती नाली में तब्दील सड़ती हुई एक अभिशापित और विषैली नदी है।

***

नदी, पानी और
रेत

1
पानी
को
आदमी के आदनी होने का

पता
होता है

जब
आदमियत

मरने
लगती है

आंखों
का पानी सूखने लगता है।

2
खून
उतर
आता है आंखों में

जब
आँख की पानी सूख जाती है

नदी
जब रेत हो जाए

आदमियत
मर जाती है।

3
गाली
भरने
लगता है दिमाग में

जब
आदमियत पर अवसाद

हावी
होने लगता है

ऐंठता
हुआ आदमी

अवसाद
और बौखलाहट में

हत्याएं
करता है।

***

गंगा
किनारे सूर्यास्त

1
गंगा
के गर्भ से निकल कर

शहर
में बढ़ते हुए

जवान
हुआ सूर्य

शहर
में दफ़्न हो रहा है

आहिस्ता-आहिस्ता
2.
पहले
हल्की ललाई लिए हुए

फिर
धीरे-धीरे काला होता जाता है

जैसे
गर्म लोहा

आहिस्ता-आहिस्ता
ठंडा
हो रहा हो

3.
मेरी
पीठ ने इसे दर्ज किया

रैक्व
की खुजली को

अपने
पीठ पर महसूसता हूँ

जब
डूबते सूर्य की ओर पीठ कर

गंगा
घाट पर बैठे

इंतज़ार
करता रहा

कि
किसी गली से

निकल
कर अनायास ही

दिख
जाओगी

घाटों
पर उतरते

4.
जिस
शहर से आया हूँ

वहाँ
शामें देर तक ठहरती है

रातें
अधिक चहलकदमी करती है

दिन
चुपचाप गुजर जाता है।

5.
यहाँ  सबकुछ
अचानक
के लय में घटित होता है

सूर्योदय
भी सूर्यास्त भी

जैसे
मैं उगा

और
ढ़ल भी गया

स्वार्थों
के सान पर।

***

परिचय

लोगों
को 

शहरों के नाम से नहीं जाना जा सकता
नहीं
जाना जा सकता उन्हें 

उनके गाँव के नाम पर
 
नदियों
से जाना जा सकता है

या
तालाबों से

या
झीलों से

नदियों, तालाबों
या झीलों

को
जाना जा सकता है

डोंगी
से

नावों
से

बजरों
से

डोंगी
को

नावों
को

बजरों
को

जाना
जा सकता

लकड़ियों
से

कीलों
से

रंगों
से

लकड़ियों
को

कीलों
को

रंगों
को

जाना
जा सकता है जंगलों से

मनुष्यों
को जानना हो

तो
जानो

कि
वह किस नदी का है

झील
का है

तालाब
या पोखरे का है

उसके
यहाँ की नावें कैसी हैं

उसके
जंगल कैसे हैं

उसके
खेतों में क्या उपजता है

उसके
यहां
कितने हैं पहाड़

मनुष्यों
को जानना हो

वह
कितना है आदमी

कितना
है शहर या गाँव

तो
जानो कि

कितना
पानी है उसके भीतर या कितना
सूख गया है
उस
देश का जलस्तर।

***

0 thoughts on “ये दु:ख की नदियॉं हैं क्‍योंकि किसानों की नदियॉं हैं – कुमार मंगलम की कविताऍं”

  1. सभी कविताएं बहुत अच्छी हैं।कर्मनाशा का नदीपन छीन लेना असल में एक स्त्री के सतीत्व को छीनने जैसा ही बड़ा व भयानक अपराध है।मंगलम को बधाई।

  2. अच्छी कविताएँ। अनाम नदियों पर कौन लिख रहा है? मंगलम् ने इन नदियों को याद किया है। लोग गंगा को याद करते हैं। जितनी गंगा महत्त्वपूर्ण हैं उससे कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं ये बजबजाती/काली नदियाँ।

    मंगलम् को बधाई!

  3. मंगलम ने नदियों की धार्मिकता के बीच से मनुष्यों की नदी, कर्मशीलों और किसानों की नदी पर लिखा है। यह कविताएँ पढ़ना सुखकर है। यह भी एक अच्छी बात है कि इसमें 'पर्यटक कवि' नहीं है जो शहर से जाकर आह गंगा-वाह गंगा करता है बल्कि कवि मंगलम नदी के कछार से , उसकी खाली की हुई धरती पर खड़ा होकर बोल रहा है।

  4. Devesh Path Sariya

    नदियों पर अच्छी कविताएं। पहली कविता बहुत अच्छी लगी।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top