सोनी पाण्डेय ने पिछले कुछ वर्षों में कविता के पाठकों में
सम्मान अर्जित किया है। वे आम हिन्दुस्तानी स्त्री के संसार की ऐसी कवि के रूप
में पहचानी गई हैं, जो विमर्श की जटिलता को सामने न रखते
हुए जीवन के संघर्ष को लिखने में विश्वास रखती हैं। कविता में वे उस साधारण की प्रस्तोता हैं, जो विमर्श के भीतर अपनी संरचना में विशिष्ट और बहुत महत्वपूर्ण है।
सोनी अनुनाद पर छपती रही हैं, उनकी इन कविताओं का स्वागत।
अपने सबसे डरे समय में…..
इन दिनों याद करती हूँ तुमको ऐसे
जैसे याद करती हैं लड़कियाँ सावन के गीत..
तुम्हें याद करती हूँ ऐसे
जैसे फागुन का रंग…
तुम याद करती हूँ ऐसे
जैसे माँ का स्पर्श…
इस तरह बचाए चल रही हूँ इन दिनों
गीतों को
श्रृतुओं को
माँ की ममता के दम पर बचाती हूँ खुद को
और तुम्हें याद करते हुए
लिखती हूँ रोज एक कविता तुम्हारे नाम
अपने सबसे डरे समय में
ये कविता ही है जो बार -बार निकालती है मुझे भय और
अवसाद से…..
तुम्हारा प्रेम…
चुटकी भर नमक सा तुम्हारा प्रेम
मैंने पकाया जतन से
भूख के हर एक कतरे में रख
फटकती, पछोरती ,बीनती,बनाती
अदहन सी आँच पा खदबदाती
एक दिन भाप बन मिलूँगी तुमसे
इन्तजार करना बारिशों के मौसम का
बरखा की हर एक बूँद में समाई मैं
मिलूँगी तुमसे
तुम्हारे माथे को चूम कर लौट आऊँगी
बस इतनी ही चाहत है मिलने की
तुमसे प्रेम करते हुए….
*
खोलती हूँ बचपन की गठरी
कुछ रंगबिरंगी काँच की चूड़ियाँ
रंगीन पत्थरों के टुकड़े
पेंसिल के छिलके
मोर का पंख
एक सूखा गुलाब डायरी में
कुछ पुराने गीत
बारिशों का मौसम
छत पर भीगना
लजा कर लौट आना घर में
बस इतना ही है प्रेम मेरे लिए
तुमसे प्रेम करते हुए….
**
बादलों के घिरते
तुम्हारे आने की आहट पा
कूकती है कोयल
पड़ जाता है नीम पर झूला
छेड़ देती हैं सखियाँ कजरी की तान
तुम्हारा लौटना बरखा में
धरती का बिहस कर खिलना हो जैसे
सब हरा भरा हो जाता है
भर जाते हैं ताल -तलैया
हरी भरी चूड़ियों सी खनकती
हँसती ,इठलाती
गाती,मुस्कुराती
मैं लौटती हूँ सोख कर सारी जलन धरती की
तुमसे प्रेम करते हुए….
***
मैं कहाँ हूँ….
अक्सर सोचती हूँ
कि इस दुनिया में कितनी जगह है मेरे लिए?
कितनी गुंजाइश है इस दुनिया में मेरे लिए अपनी बात
कहने की?
मैं सोचती हूँ और सोचती चली जाती हूँ…
चल रही हूँ
रेतीले मैदान में
कहीं किसी पैर के निशान नहीं
एक स्थिर दुनिया की तलाश में
पर्वत.. पठार …मैदानों से होते
उफनती नदी की तरह चली थी
आज मेरे दोनों किनारे उनका कूड़ादान
मेरी छाती तक उनका पीकदान
वह कहीं से
कभी भी
कुछ भी
कह -सुन सकते हैं
कुछ भी उठाकर फेंकते उन्हें संकोच नहीं
उनकी आस्था के मुरझाए फूलों
धूल-गर्द -कूड़ा-कचरा झेलती
मैं सफर में हूँ और लौट जाना चाहती हूँ वापस वहीं
जहाँ से इठलाते चली थी
अब समुद्र से मिलने की इच्छा शेष नहीं…..
रूठती नहीं हैं औरतें….
उलाहनों,शिकायतों,गालियों को पति से मिले तमगे की तरह सहेजती
हैं औरतें
रूठती नहीं हैं ….
हर बार सुनती हैं कि नाक न हो तो
विष्टा खांए और चुपचाप अपनी कोख में उन्हें सेती,जनती,पालती ,पोसती
तैयार करती हैं जतन से
और एक दिन सुनती हैं बेटों से कि चुप रहो ! समझ कितनी
है आपको?
बाहर की दुनिया कितनी देखी है?
आप क्या जानें दुनिया का हाल?
गाल बजाना अनुभव का झुनझुना हो जैसे
बजते हुए बेटों को निहारतीं हैं औरतें
रूठती नहीं हैं…..
वह प्रेम करते हुए पुरुष की आँखों में खोजती हैं
प्रेम
प्रणय आवेग के उतरते
बगल में लेटे उस आदमी को देखती हैं
जो सुबह स्वामी होगा और वह दासी
हर हाल में झूकी औरतें
अपनी पीठ की उस हड्डी को सीधा करना चाहती हैं जतन से
पूछती हैं अपने किसी गीत में सवाल कि
“इ वेदना हमें ना सहाए,पिया के लाल कइसे कहइहें?”
उनके इन अनुत्तरित प्रश्नों को सदियों से अपने पैरों
के नीचे दबाए वह मुस्कुराकर निकल जाते हैं
बार -बार दुहराते हैं कि यह घर तुम्हारे बाप का नहीं
आत्मा पर लगे इस अग्नि बाण को सहती
अपना सबकुछ हार कर जीत जाती हैं औरतें
तुम्हे बार-बार जन्म देकर
रूठती नहीं हैं…..
लिखती हुई औरतें
इन दिनों झुण्ड में बैठकर
जंतसार गाते हुए
तुम्हारे पोथी – पतरा ,वेद-,पुराण को धता बताकर
धर्म की चौखट लांघ
लिख रही हैं औरतें….
वह लिखती हैं प्रेम
वह लिखती हैं विरह
वह लिखतीं हैं तुम्हारा दोहरापर कि कब ,कैसे निकल आता है तुम्हारे भीतर का मर्द
वक्त बे वक्त…..
वह लिखतीं हैं प्रेम और बताती हैं दुनिया से कि सीख
लिया है प्रेम करना हमने
थोड़ा खुद से
एक कविता लिख वह सजा रही हैं कोहबर में
जहाँ राम -सीता के स्वयंवर का चित्र है
मैं तुमसे हर बार एक सवाल करूंगी अबसे
कि तुमसे प्रेम करते हुए कितनी बार होगा मेरा
परित्याग?
वह मेले-ठेले से लेकर मन्दिर तक की यात्रा में
पूछने लगी हैं सवाल
उनके सवाल इतने बेधक हैं कि तुम नकारते हो उसे कविता
कह..
इन दिनों सारे सवाल मुझे मिलते हैं कविता में
जिसे लिख रही हैं औरतें झुण्ड में
रख कर एक – दूसरे के कांधे पर सिर
चूम कर माथा
लग कर गले
वह लिख रही हैं सवाल और मुस्कुरालेती हैं तुम्हें देख
कर
तुम मानों न मानों
इन औरतों ने गढ़ ली है भाषा
सवाल पूछने की
तुम्हारे तर्जनी के नोक से नहीं डरतीं हैं ये औरतें…..
एक गांछ उम्मीद की
काट कर छोड़े गए पेड़ की बची हुई जड़ में
पनपती मैं उम्मीद की एक गांछ हूँ
कटती रही निरन्तर
कभी माँ के गर्भ से
कभी जन्मभूमि से
सखियों से
अपनों से
उनसे भी जिन्हें चाहे -अनचाहे देखा जी भर
काट दी गयी
काट कर भेजते कहा सबने,विदा हुई
विदा मेरे शब्दकोश में
कटने की सबसे क्रूर क्रिया रही
मैं कटती रही..विदा होती रही
पनपती रही पिता की देहरी पर
हर साल
उम्मीद की हरियर गांछ बन
जरा सा
रिश्तों की गरमाहट पा…..
***
सोनी पांडेय जी की यहां प्रस्तुत कविताएँ एक अनुभवसम्पन्न स्त्री के साधारण जीवनचर्या को बारीकी से हमारे सामने बिना किसी अतिरिक्त सजगता के हमारे सामने रखती है।अनुनाद और सोनी जी को बधाई।
सोनी जी कविता रचते हुए भी ग्रामीण यथार्थ को बड़ी जीवन्तता के साथ प्रस्तुत करती हैं जबकि इनकी कहानियों में तो आँचलिक भाषा की बहुलता तो है ही।
हर कविता एक नया आयाम रचती हुई मन मस्तिक में टंक गयी..
बधाई व शुभकामनाएं।
धन्यवाद अनुनाद ब्लॉग 🙏
एक स्त्री का भोगा हुआ सच तर्जनी और अंगूठे के मेल से प्रकट हुआ है।जो अपनी ओर उठी तर्जनी के विरोध में पैदा हुआ है। समाज का यथार्थबोध कराती इन रचनाओं में एक स्त्री की पीड़ा है,उसकी वेदना है।प्रणाम कवयित्री को अनुनाद को आभार।
बहुत ही उम्दा कविताएँ सोनी पांडेय जी की ! स्त्री के समस्त अंधेरे इतिहास को प्रकाशित करती हुई ।
सोनी पांडेय की कविताएं पाठक को खुद की ही या खुद के ही आस पास के परिवेश की कविताएं लगती हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पाठक प्रेम के हर रूप का साक्षत्कार करता चलता है। लोक से रस लेकर कविता को वो पाठक के सामने किसी नई फसल की तरह उपस्थित करती हैं जिसमें जीवनदायिनी सुगंध होती है। कवि को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
सोनी पांडेय की प्रस्तुत कविताओं में प्रेम है, स्त्री है, स्त्री का मन है और उसकी दशा है। इन सबके बीच वह छन्नी से छनी चाय की तरह जीवन के कप में भावों को उड़ेल रही हैं।
इन कविताओं में ओढ़े गए बिम्ब, उपमान और प्रतीक नही हैं, जो हैं, सहज हैं, सहज जीवन के हैं। अंतिम दो कविताएँ विडम्बनाओं के बावजूद सकारात्मक और समर्थ रूप में आती हैं और इसी की जरूरत भी है। यही भाव बिरवे को पानी देता रहेगा और बचा रहेगा वह जो जरूरी है और सुंदर है।
उम्दा कविताएँ।
सोनी जी कविताओं में सोंधी मिट्टी की खुशबू है,देशज गीतों की मिठास है।बेहद सुंदर कविताएँ
सहज स्नेह से लबालब भरे,किन्तु उपेक्षित स्त्री सत्य को पूरे आत्म विश्वास के साथ व्यक्त करती हुई कविताएं।
डॉ सोनी पांडेय की कविता एक आम स्त्री के मन की बात, मन की पीड़ा, मन का भेद उसी की भाषा में हुबहु प्रस्तुत कर देती है, भाषा सहज ही मन को मोह लेती है। अनुनाद और सोनी पांडेय को बहुत बधाई।
सुन्दर प्रस्तुति
बहुत अच्छी कविताएं। इनकी सबसे बड़ी ख़ूबी सहजता और पारदर्शिता है। जब किसी कवयित्री का तरल जीवन, उसकी कविता को आच्छादित करता है, तो कविता की धरती जितनी हरी होती है, उतनी ही नम। सोनी पाण्डेय को इन कविताओं के लिए बधाई। अनुनाद को, दूसरी अच्छी पारी के लिए शुभकामनाएं।
इन कविताओं का सबसे बड़ा सौन्दर्य है संपूर्ण परिवेश को यथावत सामने रख देना बिना किसी कांट-छांट के।स्त्री मन की सूक्ष्मता से पड़ताल करती सोनी जी को बधाई और अनुनाद को भी।
स्त्री जीवन को चित्रित करती सहज कविताएं