मनोज शर्मा हिन्दी के सुपरिचित कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। जम्मू में उनका रचनात्मक
रहवास शुरूआती तौर पर कविता में एक स्थनीयता के चित्र बनाता हुआ सा भले लगता हो, पर उसमें पीड़ा और वेदना
के कहीं बड़े कैनवास मौजूद हैं, जैसे कि गुएर्निका में वह एक क़स्बा भर नहीं है।
इन कविताओं के कवि का आभार और स्वागत।
***
जब फूल खिलते हैं
ढलान पर
दूर कोई बांसुरी बजा
रहा है
और चल रहा हूं
मैं
कांधे पर लटका थैला
पुस्तकों से भरा है
सामने सूनी है सड़क
चल रहा हूं मैं
रात ने जब ख़ामोशी
पहनी
मैं
अपने कुछ और करीब हो
गया
ऐसा कुछ घट रहा था उस
वक़्त
जिसका पता कतई नहीं
चल रहा था
चलते-चलते लगा
अकारण नहीं रहा
दांडी-मार्च
ऐसा भी लगा
हो नहीं सकते हैं
क्या
सत्य के और भी प्रयोग
या फिर ऐसी पसरी बर्फ़
को तोड़ते हैं
गोली दागते पोस्टर ही
पृष्ठ पलटते जाते हैं
स्वत:
रातें आती-जाती हैं
स्वत:
आँखें बहती जाती हैं
स्वत:
चलते रहने के भी कई
पड़ाव होते हैं
जैसे उम्र की ढलान पर
बहती नदी में
बची रहती है केवल रेत
ही
जैसे सांसों में बचा
रहता है धुआँ
जैसे अपनों का दबा
गुस्सा अचानक फूटने लगता है
जैसे आप सिकुड़ना शुरू
कर जाते हैं
दूर,पहाड़ी के
उस ओर से
इस बीच आहट आती है
सरसराता है कांधे
लटका थैला
माथे पर सजाए
सूरज
काँख में दबाए
निबंधों का पुलिंदा
वह ऐसे आता है कि
जीवन पर फैन्की तमाम
लानतों को
दरकिनार कर जाता है
असहायों,अनपढ़ों,असंगतों
के लिए
दर्जनों सुनहरे सपनों
संग वह आता है
और दुख की घुप्पा
कोठरियों की
खुलने लगतीं हैं
सांकलें
लानतों के कबाड़ के
लिए नहीं बचती
धरती
जैसे ही
उतारता है अपनी हैट
ढलानों पर फूल खिल
जाते हैं
रात की दरारों से
दाखिल होती है
ऊष्णता
फिर से बांसुरी की
धुन में खो जाता हूं
मैं
एक पूरी कल्पना है
यहाँ
एक ठेठ समाज है
यहाँ भरा-पूरा स्वराज
है.
दृश्य विधान
उस शाम
अपनी खिड़की से उसने
ऐसे देखा कि जैसे
मैं कोई दृश्य हूँ
जो थोड़ी देर बाद ओझल
हो जाएगा…
इस काल में स्मृतियाँ
अपनी तरलता भूल चुकीं हैं
कल्पनाएँ नहीं बचीं
हैं देदीप्यमान
सच पेशेवर हो लिया है
तथा
प्रत्येक रास्ता बस
सफलता के लिए जन्मा है
मैं
दृश्य से कुछ अधिक
हूँ
ऐसा कहना चाह रहा हूँ
मुझ पर है समय का आब
माथे पर धूप खिलती है
मेरे
मेरे नथुनों में
महकते हैं गुलाब
उसने फिर लटें हटायीं
जैसे किसी भी दृश्य
की झलक पर करती ही है
उसने फिर असंतोष की
ली सांस
जैसे हर सन्दर्भ पर भरती
ही है
खिड़की से बाहर,आम की
डाल पर
एक चिर-जागरूक कौवा
पुतली मटका रहा था
कैसी उत्पत्ति है यह
जिसमें पतित हो चुकीं
हैं तमाम भावनाएं
अब अकारण कुछ नहीं
होता घटित
बस संधान होते हैं
जिनके केंद्र में ही
हैं सामूहिकताएं
मैं
अपने अंतस में उतरता
हूँ
प्रत्येक रहस्य किसी
नग सा दमकता है
अथाह अनिश्चितताएं
मिलतीं हैं बल खातीं
अगिन संवेदनाएं
मुसकातीं
पलक खोलते ही पाता
हूँ
कटे-फटे जीवन पर बंधी
उम्मीद
किसी पुरानी
टाट-पट्टी सी उघडती जा रही है
दुःख
घडुप-घडुप की ध्वनी
निकालता
शाश्वत एकांत को
तोड़ता जाता है
असफलता के डर ने ढक
लिया है समग्र दृश्य-विधान
दृष्टि टिकती नहीं कि
पृष्ठ पलट जाता है
मन के भरोसे कुछ नहीं
भावुकता कभी भी भयानक
हाहाकार में बदल सकती है
खिड़की से झांकती
आँखों का सतत सूखापन
यूं समझ में आता है
दृश्य बदले-न-बदले
रूझान बदल जाता है.
रोज़नामचा
हवा में नमी नहीं है
फिर भी खिल गए हैं
सभी फूल
धधकते सूरज के इस
कालखंड में
एक चित्रकार
रंग रहा है फफोले भरे
पैर
और सड़कें शर्मिंदा
हैं
दूर से आ रही हैं
आवाज़ें
सुनायी पड़ता है
महासागरों का नाद
सपनों तक में
धरती की सारी माताएँ
दुआएं मांगती नज़र आती
हैं
देवता तक नहीं बन रहे
महान
लेकिन बिलबिला रहा है
राजा
जैसे कुछ बुदबुदा रहा
है
तैरती आवाज़ों के
सामने लेकिन
उसकी आत्ममुग्धता
सीटी सी भी नहीं बज
रही है
बुजुर्ग सुना रहे हैं
कहानियाँ
जहां पुरातन से भी
पुराना काल है
संगीतकार
चिर-परिचित उम्मीद
संग
छेड़ रहा है राग
जैसे फूल खिल गए हैं
जैसे अभी-अभी बरसा है
मींह
और इसी कालखंड में
अपने घर लौटा
मनुष्य
बिना किसी
आत्ममुग्धता
घर की दहलीज़ पर
टेक रहा है
माथा !
बोल ही दूंगा
बोल नहीं सकता
यह मेरी सबसे बड़ी
मजबूरी है
सूंघ सकता हूं बेशक
सुन तो रहा ही हूं,क्या से
क्या
पर,बोल नहीं
सकता
यह कुछ इसी तरह से है
जैसे बगीचे में
पसंदीदा पौधे नहीं
रोंप सकता
रसोई में जैसे
मर्ज़ी का खाना नहीं
पका सकता
चाहूं–न–चाहूं
अखबार की उन खबरों को
पढ़ना ही है
जो दरहकीकत झूठी हैं
चाहूं–न–चाहूं
किसी अघोषित आदेश के
तहत
थाली पर बजानी ही है
कड़छी
चाहूं–न–चाहूं
धकेला ही जाऊंगा
एक अनाम सत्य की ओर
जिसके पूर्व में कभी
नहीं उगता
सूरज
मेरी संतानें सपने
नहीं ले सकतीं
नहीं डांट सकती पत्नी
मेरी बेहूदगियाँ…
किताबों पर चलाया जा
रहा है मुक़द्दमा
घर की दीवारों पर
कोई और तस्वीरें लगा
जाता है
और बोल नहीं सकता
क्या इसके लिए है कोई
दवा
कोई काढ़ा ही
होम्योपैथी की मीठी
गोली
सारे आसन,प्राणायाम,यम–नियम
वगैरह करने के लिए
नाभी तक झुका हुआ हूं
जहां जुडते हैं तालु
व कंठ
वहाँ बस आवाज़ खुल जाए
एकबार
अगर पाऊं बोल
तो इतना ही कहूंगा
ऐसा ऊल-जुलूल रचने
वालो
आपको कतई नहीं जानता
हूं
भाड़ में जाओ आप सभी !
मीलपत्थर बुला रहा है
सबसे पहले
फूलों से सुगंध गायब
हुई
फिर गायब हुए तमाम
हुनर
फिर धीरे-धीरे दोस्तियां
चली गयीं
हम एक ऐसे समय में
हैं
जहां हमारे उगाए
पेड़-पौधे
झाड़-झंखार में तब्दील
हो चुके हैं
जो हमारे सबसे प्यारे
गीत रहे
उनकी धुनें बिगाड़ दी
गयीं
वे कांटे हमने नहीं
बोए थे
जो हमारे तलबों में
धँसे
आजकल
आम के दरख्तों में
अंबियाँ नहीं फूटतीं
घौंसले नहीं बनाती
चिड़ियाँ
हवाएँ मुकर गयीं हैं
मज़ा देखें कि यह कोई
राजनीति नहीं है
वह जो मील का पत्थर
है
मैं उसे छूना चाहता
था
मैं तय करना चाहता था
दूरियाँ
और ये सभी एक ही आकाश
के नीचे घटित हो रहा था
मीलपत्थर
किस्सों-कहानियों से
परे होते हैं
आसमान में जो एक
ध्रुवतारा है
दरअसल वह कई राहगीरों
का शत्रु भी है
मुझे देर से पता चला
कि हर राही को अपना
अलग ध्रुवतारा खोजना पड़ता है
इस भरे-भरे देश में
बहुत कुछ अधूरा है
इस समझे-समझे माहौल
में
आकंठ लिपटी पीड़ा है
मैं
चलता गया मीलपत्थर की
ओर
इस बीच बाल पक गए
विचारधाराएँ उलझ गयीं
धरती का पानी सूखने
लगा
बच्चे जवान हो गए
चलते-चलते
एक रात यूं लगा
चाँद बूढ़ा होने लगा
है
सारे योद्धा लौट आए
हैं
कैलेंडर फड़कना भूल गए
हैं
क्या कभी पेड़ अपनी
जड़ों से नाराज़ होते हैं
क्या वापिस आ रूठे
दोस्त मनाए जा सकते हैं
क्या लौटती हैं छूटी
रेलगाड़ियां
इस शापित दौर में
पृथ्वी को घूमना ही
था
जितना भी धकेलो
इच्छाओं को
उन्हें आना ही
था
इन सब के बावजूद
मुझे निरंतर आवाज़ दे
रहा है
मीलपत्थर
कह रहा है
इस समग्र ब्रह्मांड
में
एक मैं हूँ, जो सपने
बुनता है
तुम आओ
मेरे लोक में आओ
तुम्हारे तमाम रहस्य,तमाम गोपनियताएँ
यहाँ सुरक्षित रहेंगे
यहाँ गहन अंधकार में
भी
हरेक के पास अपने
जुगनू हैं
यहाँ साक्षात समय
आपसे संवाद करता है
तथा सुरक्षित हैं
समस्त वनस्पतियाँ
आओ न यार
मैं तुम्हें ताज़ा
बुने गीत दूंगा
और दूंगा आँखें नम
करते सुच्चे किस्से
मैं तुम्हें अनारदाने
की चटनी सी ख्वाहिशें दूंगा
खुले आकाश में
मंडराती पतंगें
गहरी रात में महकती
सोच दूंगा
और जैसी उमंग लिए
खिला है
अमलतास
वैसी ही ललक भी दूंगा
.
(भाई
देश निर्मोही को समर्पित )
परिचय
जन्म व शिक्षा पंजाब
में .नौकरी के दौरान जम्मू में ‘संस्कृति मंच’,की
स्थापना. नुक्कड़ नाटकों और पोस्टर कविताओं से युवा-वर्ग को जोड़ा.यहीं प्रथम हिंदी
दैनिक निकालने में सक्रिय भूमिका व उसमें कई वर्ष सांस्कृतिक स्तंभ (फिलहाल) लिखा.
अनेक पत्र-पत्रिकाओं में भी निरंतर स्तंभ लेखन. पंजाबी से हिंदी व हिंदी से पंजाबी
में शीर्ष लेखकों की रचनाओं का अनुवाद,जिनमें “भगत सिंह” पर
लिखी पंजाबी कविताओं का अनुवाद (हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली / उद्भावना
)चर्चित रहा. ‘पल–प्रतिपल’ के भीष्म
साहनी,गुरदयाल
सिंह व भगत सिंह एवं पाश पर एकाग्र विशेषांकों में सक्रिय सहयोग. ‘उद्भावना’ के
कश्मीर अंक व महमूद दरवेश पर केन्द्रित विशेषांकों में भी भागीदारी.रंगमंच,रेडियो व
दूरदर्शन से भी जुड़ाव रहा है.मुंबई प्रवास के दौरान ‘जन
संस्कृति मंच’,के मुंबई
चैप्टर की स्थापना.
कविता–संग्रह ‘यथार्थ के
घेरे में’(
जम्मू-कश्मीर कला,संस्कृति व भाषा अकादमी),’यकीन मानो
मैं आऊँगा’ (युवा हिंदी लेखक संघ,जम्मू ),’बीटा
लौटता है’ (आधार
प्रकाशन,पंचकूला
/पुरस्कृत) तथा ’ऐसे समय में’
(यूनिस्टार ,मोहाली )
प्रकाशित.
लगभग सभी प्रमुख
पत्र-पत्रिकाओं में आलेख,अनुवाद व कविताएं प्रकाशित.कविताओं का
डोगरी,पंजाबी,उर्दू,मराठी व
अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है.
पता: नाबार्ड,नाबार्ड
टावर,नजदीक
सरस्वती धाम,रेल
हैडकाम्पलैक्स,रेलवे रोड,जम्मू-180012
मोबाइल: 7889474880
सुन्दर प्रस्तुति
मनोज जी को पढ़ना हर बार अलग अनुभव है। मेरे अग्रज को दिल से शुभकामनाएं। अनुनाद का आभार।
प्रिय अनुनाद, ग़ज़ब प्रस्तुति। आभार।
उम्दा कविताएँ।
मनोज शर्मा जी पिछली सदी के अंतिम दशक से हिन्दी कविता के हाशिए पर ईमानदारी से सक्रिय हैं। वे उन कवियों में से हैं जिनकी कविताओं पर मात्र त्वरित टिप्पणियाँ अपेक्षित नहीं हैं। उन पर ढंग से बात होनी चाहिए।
उनका नियमित पाठक हूँ। इसी नाते उनकी कविताओं पर सामर्थ्यभर छोटी-छोटी टिप्पणियाँ करता रहा हूँ।
इनका मील पत्थर मुक्तिबोध कृत दूर तारा कविता याद दिलाता है। मुक्तिबोध के शब्दों में- जिस का पथ विराट-
वह छिपा प्रत्येक उर में।
क्या कभी पेड़ अपनी जड़ों से नाराज़ होते हैं? अमलतास की ललक लेने वालों के कारण ही यह कभी नाराज़ नहीं होते।
यह सामूहिक सपनों के सनातन लोक की कविताएँ हैं।
यह किसी के बताए हुए ध्रुव तारे को नहीं देखतीं। इनके यहाँ दिशाभ्रम नहीं है। जब ज़्यादातर लोग Pied piper of hamelin के पीछे जाते चूहों की तरह नदी में कूद रहे हैं, तब यह पुल बनाने में लगे हैं।
मनोज जी की कविताएँ पेड़ पर घोंसले में बैठी चिड़िया का इच्छा-गीत हैं। मुट्ठी बाँधे खुले दिन, दोस्त, धुन और रेल लौटे… यह परम्परा को पहचानने का विवेक, साहस और प्रेरणा देती हैं।
यह कविताएँ दृष्टि,भाषा,लय,विचार,भाव और कहन में पूरी कविताएँ हैं। इधर छिड़ी बहसों के अँधेरों में ऐसी कविताएँ संवाद की लौ जला सकती हैं।
-कमल जीत चौधरी
साम्बा, जम्मू-कश्मीर
बहुत बढ़िया और जरूरी कविताएं। अवसाद में डूबी होने के बाद भी उम्मीद की एक फांक को थामें हुए हैं।हम उल्टे लटके हैं आग के अलाव पर और नम आंखों से सुच्चे किस्से अपलक ताक रहे हैं। मनोज को मुबारकबाद।
धीरेंद्र अस्थाना
बहुत खूब.
बढ़िया और जरूरी कविताएं जो अवसाद में डूबी होने के बावजूद उम्मीद की एक बारीक सी फांक थामें हुए हैं।हम उल्टे लटके हैं आग के अलाव पर और नम आंखों से देख रहे हैं सुच्चे किस्से।कवि को बधाई
बढ़िया और जरूरी कविताएं जो अवसाद में डूबी होने के बावजूद उम्मीद की एक बारीक सी फांक थामें हुए हैं।हम उल्टे लटके हैं आग के अलाव पर और नम आंखों से देख रहे हैं सुच्चे किस्से।कवि को बधाई
आप बार प्रभावित करते हैं।
मनोक
Amazing poems , very touching and in fact based on today’s reallity. Keep it up. God bless you