अनुनाद

अनुनाद

पृथ्वी की तमाम ऊर्जा अकेले कैसे चुरा सकता हूँ – अरुण शीतांश की कविताऍं

अरुण शीतांश जाने-पहचाने कवि हैं। उनके महत्‍वपूर्ण रचनात्‍मक और आलोचनात्‍मक हस्‍तक्षेप हिन्‍दी संसार में संवाद की शिनाख्‍़त की तरह देखे गए हैं। अनुनाद पर ये कविताऍं प्रस्‍तुत करते हुए कवि को शुभकामनाऍं और पाठकों से यह अनुरोध कि संवाद मुमकिन करते रहें। आपकी प्रतिक्रिया ही हमारी प्रेरणा है।
एक छोटे किसान का पहिरोपनाबारिश हो रही है

कोरोना काल में 
और वैसा मौसम भी है
यह कविता बड़े खेतों के मालिक के लिए नहीं है
नहीं है होटलों में रहने वालों के लिए
एक किसान 
किसान और मजदूर के बारे में सोचता है
बीज से निकलते अंकुर के बारे में बोलता है
खेत, बधार और बीज के बारे में सोचता है
बाल बच्चों और पत्नी के बारे में चिंतित रहता है
झुंड में गीत नहीं गाए जा रहें हैं
मोबाइल बज रहा है
फ़ूहड़ गीत के साथ
वहां पीपल का वृक्ष भी नहीं है
जहां नाश्ता ले जाता था 
दस बजे
और कौए पीछा करते हुए 
ठोकरें मारते थे 
सर पर
शायद इसीलिए बाल भी झड़ गए
खेत बाल बनने जैसे हो जाते थे
केवाल,दोमट्ट,ललकीऔर
बलूआही माटी से सने हाथ पैर और कपड़े से सोंधी खुशबू आज भी है पास
बिल्कुल पास
अब भी जाता हूं खेत 
लाठी लेकर नहीं
कोई हथियार के साथ
सांप, चूहे और काले कीड़े दिखाई नहीं देते
और देते भी हैं तो बहुत कम
बहुत कम दिखाई देते हैं 
कुत्ते 
गांव में कम हो गए हैं
और नहीं दिखाई देती है
किसी की डोली
या कोई कन्या 
लाल – लाल साड़ी ब्लाउज पहने गिरती- भहराती आ रही नईहर 
बड़े कगार पर पांव रखती
दूर से ही सुनाती थी पायल की आवाज़
और दिखाई देता था अलत्ता
और अंगुठे के पास एक बिंदु बड़ा – सा
अलत्ता लगे सांवले पांव कहां गए
कहां गई मेरे देश की बेटी 
हो सकता है-
बाप को साइकिल से ला रही हो कहीं दूर से ढो़कर।
भारत भी कोरोना का घर हो गया है न बहन!
ओह,खेतों के पास पाम्ही वाले लड़के भी नहीं
दिखाई दे रहें हैं
खेतों का पानी आरी(मेंड़) के पास जब आ जाता तो लगता 
धान भर गया कोठी में
बहुत जिरह करने के बाद
उस समय कोटा से किरासन मिलता था
किरासनवाला अपने को जिलाधिकारी समझता था
चश्मा लगाकर
रौब में बातें करता था
हम वहां दुबके हुए डर से जाते किरासन तेल लेने 
बाबूजी हमीं को भेज देते थे वहां
बाबूजी चावल बेच मरकीन का कुरता खरीद लाते 
परासी बाजार से
अब तीस – पैंतीस साल बाद
बिंदी तक नहीं आती 
मां की
न नया लूगा‌ 
मेरी तबीयत अच्छी नहीं है
जैसे खेत की तबीयत
किसान और मजदूर की तबीयत बिगड़ रही है 
तो देश की तबीयत कैसी होगी
हे राम ?…..

***

टप टप टप
बारिश
हर नदी को
देखती
है
सोखती
नहीं
बारिश
मुझे
अन्दर तक भींगो रही है
सख्त
चेहरे को बारिश नहीं चाहती

देखो!
आम के
पेड़ को तर कर रही है बारिश
किसी
खराब कविता को धोती हुई
भला
बारिश में कौन चुप रहना चाहेगा
मेरी
कविता भी नहीं
 
पापियों!
तुम
सब बारिश में रेगिस्तान पढ़ो
***
 
रोटी
हवा सब
जगह बह रही है
यह बात
वैज्ञानिक से पूछने की जरुरत नहीं है
जरुरत
है कि
आज
रोटी किसने नहीं खायी या बनाई
इतनी
सारी पुस्तकें हैं दुनिया में
 
जिनमें
विचारों के खजाने हैं
रोटी
कैसे नही बन रही है घरों में
यह भी
प्रश्न उन तक पहुँच रहा होगा

प्रिये! तुम रात को फूल तोड़कर मत दो

रोटी
तोड़कर दो ताकि
दिल्ली
दरबार में गरज कर या चाकू के बल पर
या
तलवार की नोक पर टाँग दूँ तिरंगे की तरह
मुझे
अपने तमाम बच्चों ओर सैनिकों के लिए चिन्ता हो रही है
 
बजाय
पुस्तक संग्रह देखने
, बनवाने और दिखाने के
पुस्तकें दुनिया की ढेर में बडे़ आराम से शामिल हो जाएँगी
और नीम का पेड़ पास में कट रहा होगा।
मृतात्माओं
से जाकर क्या कहूँगा कि छल हो रहा है
मनुष्य
के सामने और सरकार के ठीक नाक के नीचे
इतनी
ठंड और इतनी धूप के बीच
आसमान
के नीले आँगन में एक खिड़की खुल जाती हमारी तो क्या दिक्कत थी
पृथ्वी
की तमाम ऊर्जा अकेले कैसे चुरा सकता हूँ
जब
रोटी का स्वाद कंठ तक नहीं आ रहा
थूक
कितनी बार घोटूँ
और सो
जाऊँ
रात को
खर्च नहीं करना चाहता
 
दिन  तो रोटी की तलाश के लिए है
 रोटी जो किसी मंत्री के तसले में बू मार रही है
मेरी
रोटी घर में है
जिसे
बाबा ने छोड़ रखा है कुछ कठ्ठे खेतों में
वहाँ
आलू कबर रहा है
रोटी
नहीं
अब
पृथ्वी को रोटी बनानी पडे़गी
और
आकाश को पानी…..
***
साइकिल 
घर में  साइकिल है 
पहले
दुकानदार ने रखा था
आज
मेरे पास है
 
पैसे
वैसे की बात छोङ दीजिए
 
साइकिल
है मेरे पास
 
रोज़
साफ करता हूँ
 
उस पर
हाथ बराबर रखता हूँ
 
सुबहोशाम
निहारता हूँ
 
साइकिल
को धोता हूँ
 
चलाता
नहीं हूँ
 
रोज़
उस पर स्कूल-बैग टंगा रहता था
बाजार
से लौटती थी बेटी
तो घर
लौट आता था जैसे
अब
नहीं जाती
एक
सब्जी भी लाने
टिफ़िन
के रस नहीं लगते चक्के में
 
वह
चुपचाप खङी है
 
उसे
गाँव नहीं जाना
हवा –
सी चलती
और
उङती साइकिल
 

हवा से ही बातें करती 
साइकिल  की पिछली सीट पर एक कागज की खड़खड़ाहट
सुनाई देती है
उसमें
लिखा है- पापा !इस साइकिल को बचाकर रखना
किसी
को देना नहीं।
 
साइकिल
को बारह बजे रात को भी देखता हूँ
 
कल डॅव
सैम्पू से नहलाऊँगा
साइकिल
कम बेटी ज्यादा याद आयेगी
 
देखकर
आया हूँ- आपके पास से।
थोङी
देर हो चुकी है
 
एक
खिलौना को रखने में
 
वह
खिलौना नही जीवन है
जीवन
की साइकिल है ..
l
***
परिचय
जन्म  02.11.1972
अरवल
जिला के विष्णुपुरा गाँव में
 
शिक्षा
-एम ए ( भूगोल व हिन्दी)
, एम लिब सांईस, एल
एल बी
 , पी एच डी 
कविता
संग्रह
: एक ऐसी
दुनिया की तलाश में
 (वाणी प्र न दिल्ली), हर मिनट एक घटना है (बोधि प्र जयपुर), पत्थरबाज़(साहित्य
भंडार
, इलाहाबाद)
आलोचना : शब्द
साक्षी हैं (यश पब्लि
  न दिल्ली)
संपादन
:
पंचदीप
(बोधि प्र
,जयपुर), युवा
कविता का जनतंत्र
( साहित्य संस्थान  गाजियाबाद ), बादल का वस्त्र- केदारनाथ
अग्रवाल पर केन्द्रित(ज्योति प्रकाशन , सोनपत,हरियाणा), विकल्प है कविता (ज्योति
प्रकाशन
,सोनपत, हरियाणा)
सम्मान
शिवपूजन
सहाय सम्मान
, युवा शिखर साहित्य सम्मान
पत्रिका
देशज
नामक पत्रिका का संपादन
 
संप्रति 
शिक्षण
संस्थान में कार्यरत
संपर्क
मणि
भवन
 , संकट मोचन नगर, आरा भोजपुर, 802301
मो ० –
09431685589

8 thoughts on “पृथ्वी की तमाम ऊर्जा अकेले कैसे चुरा सकता हूँ – अरुण शीतांश की कविताऍं”

  1. एक छोटे किसान का पहिरोपना
    __________________________
    अरुण शीतांश

    बारिश हो रही है
    कोरोना काल में
    और वैसा मौसम भी है

    यह कविता बड़े खेतों के मालिक के लिए नहीं है
    नहीं है होटलों में रहने वालों के लिए

    एक किसान
    किसान और मजदूर के बारे में सोचता है
    बीज से निकलते अंकुर के बारे में बोलता है
    खेत, बधार और बीज के बारे में सोचता है
    बाल बच्चों और पत्नी के बारे में चिंतित रहता है

    झुंड में गीत नहीं गाए जा रहें हैं
    मोबाइल बज रहा है
    फ़ूहड़ गीत के साथ
    वहां पीपल का वृक्ष भी नहीं है
    जहां नाश्ता ले जाता था
    दस बजे
    और कौए पीछा करते हुए
    ठोकरें मारते थे
    सर पर
    शायद इसीलिए बाल भी झड़ गए

    खेत बाल बनने जैसे हो जाते थे
    केवाल,दोमट्ट,ललकीऔर बलूआही माटी से सने हाथ पैर और कपड़े से सोंधी खुशबू आज भी है पास
    बिल्कुल पास

    अब भी जाता हूं खेत
    लाठी लेकर नहीं
    कोई हथियार के साथ

    सांप, चूहे और काले कीड़े दिखाई नहीं देते
    और देते भी हैं तो बहुत कम

    बहुत कम दिखाई देते हैं
    कुत्ते
    गांव में कम हो गए हैं

    और नहीं दिखाई देती है
    किसी की डोली
    या कोई कन्या
    लाल – लाल साड़ी ब्लाउज पहने गिरती- भहराती आ रही नईहर
    बड़े कगार पर पांव रखती
    दूर से ही सुनाती थी पायल की आवाज़
    और दिखाई देता था अलत्ता
    और अंगुठे के पास एक बिंदु बड़ा – सा
    अलत्ता लगे सांवले पांव कहां गए
    कहां गई मेरे देश की बेटी
    हो सकता है-
    बाप को साइकिल से ला रही हो कहीं दूर से ढो़कर।
    भारत भी कोरोना का घर हो गया है न बहन!

    ओह,खेतों के पास पाम्ही वाले लड़के भी नहीं दिखाई दे रहें हैं

    खेतों का पानी आरी(मेंड़) के पास जब आ जाता तो लगता
    धान भर गया कोठी में

    बहुत जिरह करने के बाद
    उस समय कोटा से किरासन मिलता था
    किरासनवाला अपने को जिलाधिकारी समझता था
    चश्मा लगाकर
    रौब में बातें करता था
    हम वहां दुबके हुए डर से जाते किरासन तेल लेने
    बाबूजी हमीं को भेज देते थे वहां

    बाबूजी चावल बेच मरकीन का कुरता खरीद लाते
    परासी बाजार से

    अब तीस – पैंतीस साल बाद
    बिंदी तक नहीं आती
    मां की
    न नया लूगा‌

    मेरी तबीयत अच्छी नहीं है
    जैसे खेत की तबीयत
    किसान और मजदूर की तबीयत बिगड़ रही है
    तो देश की तबीयत कैसी होगी

    हे राम ?…..

    इस कविता को ऐसे पढ़ें ��

  2. अरूण शीतांशजी की कविताएँ पहले भी कहीं पढीं हैं|आज फिर से पढने को मिलीं|सभी कविताएँ मिट्टी से जुड़ी हुईं भावप्रण कविताएँ हैं|अरूणजी को शुभकामनाएँ|अनुनादका आभार|

  3. बेहतरीन कविताएं।
    समकालीन कविता में आने वाला शब्द "पृथ्वी" अरुण सर की कविता में भी अलग ढंग से प्रयुक्त हुआ है।अष्टभुजा शुक्ल आदि किसान से जुड़े कवियों की पंक्ति में अरुण सर भी हैं थोड़ा अलग ढंग से।

  4. पीड़ितों के पक्ष में एक संवेदनशील कवि की उल्लेखनीय रचना। आपकी लेखनी ने वर्तमान की इस विडम्बना पर उत्तम अभिव्यक्ति दी है।
    आप , आप की लेखनी और आप की संवेदना को हृदय से आभार

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