कुशाग्र अद्वैत
बाईस बरस के नौजवान हैं, जिनके पास कुछ विशिष्ट जीवनानुभव हैं,
जैसे हर नौउम्र इंसान के पास होते हैं। कुशाग्र जीवन की सांद्रता को
कुछ सजग हो और कुछ चौंकते हुए-से देख और ऑंक रहे हैं। उनकी कविता में हताशा और आशा
के बीच गॅूंजती एक युवक की जो आवाज़ है, वह दरअसल उनके जैसे अनगिन
युवकों की आवाज हैं। बिना मोह में फँसे वे स्मृतियों के साथ रह लेते हैं और अपने उस
रहवास से कुछ चकित-से प्रश्न पूछते हैं। एक नया संसार, एक नयी-सी लगन और किसी अमूर्त ठोस को पिघला कर आकार में बदलता हुआ एक विकल मानवीय शिल्प इन कविताओं
में हैं।
उसकी कविताओं के माध्यम से/ईश्वर
को बसन्त के आगमन की/ आधिकारिक घोषणा
करनी थी – इस घोषणा का अनुनाद स्वागत करता है।
कवि का कथन
यह एक
थके-हारे आदमी की कविता है। जो कभी इस्केपिस्ट-सा रवैया अख़्तियार करता है और कहीं
दूर भाग जाना चाहता है। प्रेम भी उसके लिए इस कुरूप यथार्थ से बचने का प्रयास है, एक खोह है या कहिए एक किस्म का इस्केपिस्म ही है। यह सब करने के बावजूद वह
जैसा जीवन ख़ुद जी रहा है, दूसरे के लिए वैसा जीवन नहीं
चाहता। वह अपने सिवा हर किसी को भगौड़ेपन, उदासी और हताशा के
इस गहरे-अँधेरे-असीम कूप में गिरने से, गिरते रहने से बचाने
की बेकार कोशिश करता है, कोशिश क्या करता है― बस सवाल पूछता
है। बेहद मासूम-सा सवाल। जिसका अमूमन किसी के पास कोई जवाब नहीं होता।
फिर यहाँ
स्मृतियों का एक जाल है। पुरानी-सुंदर स्मृतियाँ; घेरेदार।
पुरातनता अपने साथ एक अलग किस्म की सुंदरता लाती है। वह मक़बरे-सी, कला वीथिकाओं-सी सजीली सुंदरता भी हो सकती है। वह नॉस्टेल्जिया-सी जीवित
सुंदरता भी हो सकती है। यह ज़रूरी भी नहीं कि नॉस्टेल्जिया हर किसी के लिए और हर
बार सुंदर ही हो। वह असुंदर भी हो सकती है। यह भी हो सकता है कि कल जो असुंदर था,
वह आज सुंदर लगे। मसलन, गरीबी में जीते बखत
किसी को आनन्द नहीं आता, लेकिन जब वह दौर बीत जाता है तब
उसके बखान नहीं चुकते। फिर हाल(वर्तमान) है। दुनिया है― विस्मृति को
गले लगाती हुई, सबकुछ भूल आगे बढ़ती हुई, अतीत से, परम्परा से पीछा छुड़ाती हुई-सी।
मेरी कविता
इन दोनों अतियों के बीच कहीं सम्भव होती है। बुद्ध के मध्यममार्ग के अपने अर्थ थे।
मैं उस मध्यममार्ग को जीवन में उनसे अलग और कत्तई निजी अर्थों में लेता हूँ। किसी
एक धारा के साथ बह सकने के लिए अपनी sanity नहीं तज
सकता। गलत को सही और सही को गलत नहीं ठहरा सकता। किसी को पूरम-पूर सही भी नहीं मान
सकता। इन अर्थों में यह एक मध्यममार्गी की कविता है। स्मृति-विस्मृति के बीच कहीं
सम्भव होती है। ऐसी ही और दूसरी चीज़ों के बीच कहीं सम्भव होती है। दोस्त, बाज़ दफ़ा यह समझ लेते हैं कि यह मध्यम मार्ग न्यूट्रेलिटी है, एक किस्म की तटस्थता है। लेकिन, ऐसा है नहीं। यह सच
और सौंदर्य के पक्ष में लिखी हुई कविता है। सच और सौंदर्य के की वक़ालत में लिखी
हुई कविता है
– कुशाग्र अद्वैत
सोलह बरस के लड़के की कविताएँ
एक सोलह बरस के लड़के की कविताओं
के बिम्ब
इतने कुरूप क्यों हैं?
यहाँ
मगरमच्छ क्यों हैं,
रंग-बिरंगी मछलियाँ क्यों नहीं?
कोई पूछता भी नहीं
सोलह बरस के कवि से
कि यहाँ तो सोता होना था
फिर इतनी प्यास क्यों हैं?
हरदम महकती रहनी थी यह जगह
इत्र होते या कुछ और
फिर, चिमनियों का-सा धुआँ क्यों हैं?
रंग-बिरंगी तितलियाँ क्यों नहीं?
सोलह बरस के लड़के को तो
शुतुरमुर्गी चुम्बन में डूब जाना था,
या कोई अश्लील किताब ले
बिस्तर में ही लुका जाना था
इतने कुरूप क्यों हैं?
यहाँ
मगरमच्छ क्यों हैं,
रंग-बिरंगी मछलियाँ क्यों नहीं?
कोई पूछता भी नहीं
सोलह बरस के कवि से
कि यहाँ तो सोता होना था
फिर इतनी प्यास क्यों हैं?
हरदम महकती रहनी थी यह जगह
इत्र होते या कुछ और
फिर, चिमनियों का-सा धुआँ क्यों हैं?
रंग-बिरंगी तितलियाँ क्यों नहीं?
सोलह बरस के लड़के को तो
शुतुरमुर्गी चुम्बन में डूब जाना था,
या कोई अश्लील किताब ले
बिस्तर में ही लुका जाना था
उसकी पथरीली आँखों को
किसी की सजीली आँखों के आगे
सहसा ही झुक जाना था,
दो कदम आगे आना था
तीन कदम पीछे,
फिर असमंजस में
बीच में ही कहीं रुक जाना था।
उसकी कविताओं के माध्यम से
ईश्वर को बसन्त के आगमन की
आधिकारिक घोषणा करनी थी।
उसकी कविताओं में हुई
नुक़्तों की गलतियाँ
आलोचकों को
आकाश से छिटके तारों-सी लगनी थी।
उसकी कविताओं के आकाश को नीला
और धरती को असामान्य रूप से हरा होना था।
उसकी कविताओं में
मधुमक्खियों को छत्ता लगाना था,
कोयलों को घोंसला बनाना था।
उसकी कविताओं के आसपास
होना चाहिए था―
एक अद्भुत प्रकाश
किसी लैम्पपोस्ट की तरह
कीट-पतंगों को जहाँ डेरा जमाना था।
उसकी कविताओं में
उपासना,
विपासना,
सपना
लड़कियों के नाम होने थे।
और, वासना?
वासना―किसी ऋतु की!
लेकिन,
उसकी कविताओं के बिम्ब
इतने कुरूप हैं
और,
कोई पूछता भी नहीं
कि यहाँ तो सोता होना था
फिर इतनी प्यास क्यों हैं?
2018
कोई नदी सदा नदी न थी
कोई गीत
उतरते ही
न आया था
तरन्नुम में
कोई पत्थर
सदा
पत्थर न था
न कोई पत्थर
सदा
उतरते ही
न आया था
तरन्नुम में
कोई पत्थर
सदा
पत्थर न था
न कोई पत्थर
सदा
ईश्वर था
कोई नदी
सदा
नदी न थी
कोई मरुथल
सदा तो
मरुथल न था!
न मैं सदा मैं था
न तुम सदा तुम
फिर हम कैसे
हो गए
इतने हम!
31 दिसम्बर
कोई नदी
सदा
नदी न थी
कोई मरुथल
सदा तो
मरुथल न था!
न मैं सदा मैं था
न तुम सदा तुम
फिर हम कैसे
हो गए
इतने हम!
31 दिसम्बर
उसके पूर्वप्रेमी के लिए
मौसम में शारदीय नवरात्र के
पहले वाली खुनकी है,
एक नन्ही पीली पत्ती
पाँव के नीचे आ दुबकी है
ऐसे ख़ुशनुमा मौसम में भी
वो बेचारा
बेचैन हो रहा है
तुम्हारी बाट जोह रहा है
कर लो उस से बात
ग़र पूछे, बता देना―
तबियत ठीक रहती है,
दवा टाइम पर लेती हो,
ज़्यादातर, खुश ही रहती हो
ग़र रोने लगे ज़ार-ज़ार
कह देना―
तुम भी करती हो उसको याद
…..कभी-कभार।
कोई समझे न समझे,
एक प्रेमी को समझना चाहिए
दूजे प्रेमी का दुःख।
मौसम में शारदीय नवरात्र के
पहले वाली खुनकी है,
एक नन्ही पीली पत्ती
पाँव के नीचे आ दुबकी है
ऐसे ख़ुशनुमा मौसम में भी
वो बेचारा
बेचैन हो रहा है
तुम्हारी बाट जोह रहा है
कर लो उस से बात
ग़र पूछे, बता देना―
तबियत ठीक रहती है,
दवा टाइम पर लेती हो,
ज़्यादातर, खुश ही रहती हो
ग़र रोने लगे ज़ार-ज़ार
कह देना―
तुम भी करती हो उसको याद
…..कभी-कभार।
कोई समझे न समझे,
एक प्रेमी को समझना चाहिए
दूजे प्रेमी का दुःख।
हम साथ मिलकर
हम साथ मिलकर
पकड़ेंगे तितलियाँ*
और उड़ा देंगे
देखेंगे
बहुतेरे सपने―
कुछ को करेंगे पूरा,
कुछ को
भुला देंगे
इतवारों को लगाएँगे पुराने गाने,
साथ धोएँगे मटमैले कपड़े
और झाग से खेलेंगे
देर तलक
तरतीब से
घर बुहारेंगे
एक-दो नहीं
पाँच-पाँच बिल्लियाँ पालेंगे
हम साथ मिलकर
बिलकुल अर्थहीन-सी लगती
या बिलकुल अर्थहीन हो गई
या कहो बिलकुल अर्थहीन
कर दी गईं चीज़ों को
बिलकुल नए अर्थ सौंपेंगे
घर के किसी
वीरान पड़े कोने में
नए नक्षत्र गढ़तीं
चींटियों के लिए
मुट्ठी भर आटा डालेंगे
हम साथ मिलकर
अपने डरों के
कपड़े उतारेंगे
फिर रोएँगे
या खिलखिलाएँगे
साझा करेंगे
बचपन की अच्छी-बुरी स्मृतियाँ
फिर बच्चों-से हो जाएँगे
हम साथ मिलकर
आकाश की तरफ़,
मेघों की तरफ़,
पेड़ों की तरफ़,
और-और लोगों की तरफ़
बेहिचक, दोस्ती का हाथ बढ़ाएँगे
अलसुबह, नाश्ते की मेज़ पर
जो गीत किसी एक के मुँह पर चढ़ा होगा
उसको हफ़्ते-दो हफ़्ते
दफ़्तर की अकबक उबासियों में गुनगुनाएँगे
और, शाम गए
जब कहीं मिलेंगे
उदासियों-उबासियों को
रक्तिम सेब समझ
दो-दो फाँक बाँटेंगे
और, काट खाएँगे।
* व्लादिमीर नबोकोव और उनकी संगिनी वेरा, जो उनकी लिपिकार, अनुवादक, सम्पादक, प्रथम पाठक और प्रवाद तो यहाँ तक है कि उनकी अंगरक्षक भी थीं, जिनके साथ मिलकर वे तितलियाँ पकड़ते थे, के स्नेहिल सम्बन्धों को याद करते हुए।
पकड़ेंगे तितलियाँ*
और उड़ा देंगे
देखेंगे
बहुतेरे सपने―
कुछ को करेंगे पूरा,
कुछ को
भुला देंगे
इतवारों को लगाएँगे पुराने गाने,
साथ धोएँगे मटमैले कपड़े
और झाग से खेलेंगे
देर तलक
तरतीब से
घर बुहारेंगे
एक-दो नहीं
पाँच-पाँच बिल्लियाँ पालेंगे
हम साथ मिलकर
बिलकुल अर्थहीन-सी लगती
या बिलकुल अर्थहीन हो गई
या कहो बिलकुल अर्थहीन
कर दी गईं चीज़ों को
बिलकुल नए अर्थ सौंपेंगे
घर के किसी
वीरान पड़े कोने में
नए नक्षत्र गढ़तीं
चींटियों के लिए
मुट्ठी भर आटा डालेंगे
हम साथ मिलकर
अपने डरों के
कपड़े उतारेंगे
फिर रोएँगे
या खिलखिलाएँगे
साझा करेंगे
बचपन की अच्छी-बुरी स्मृतियाँ
फिर बच्चों-से हो जाएँगे
हम साथ मिलकर
आकाश की तरफ़,
मेघों की तरफ़,
पेड़ों की तरफ़,
और-और लोगों की तरफ़
बेहिचक, दोस्ती का हाथ बढ़ाएँगे
अलसुबह, नाश्ते की मेज़ पर
जो गीत किसी एक के मुँह पर चढ़ा होगा
उसको हफ़्ते-दो हफ़्ते
दफ़्तर की अकबक उबासियों में गुनगुनाएँगे
और, शाम गए
जब कहीं मिलेंगे
उदासियों-उबासियों को
रक्तिम सेब समझ
दो-दो फाँक बाँटेंगे
और, काट खाएँगे।
* व्लादिमीर नबोकोव और उनकी संगिनी वेरा, जो उनकी लिपिकार, अनुवादक, सम्पादक, प्रथम पाठक और प्रवाद तो यहाँ तक है कि उनकी अंगरक्षक भी थीं, जिनके साथ मिलकर वे तितलियाँ पकड़ते थे, के स्नेहिल सम्बन्धों को याद करते हुए।
तुम्हारे होंठ मेरे लिए बिल्कुल नए हैं
इन्हें कैसे स्पर्श किया जाए
मेरी उँगलियों के पास
वह कला नहीं है
तुम्हारे होंठ मेरे लिए
बिल्कुल नए हैं
जैसे नई है
यह ऋतु बासन्ती,
जैसे पिछले शरद के पहले
नए थे
नीलकुरिंजी के फूल
तुम्हें चूमने के बाद से ही
मैं नव्यता से ओतप्रोत हूँ
मेरे होंठ
बार-बार रस्ता भटक जाते हैं,
तुम्हारे दाँत
साबित कर देते हैं
उन पर अपना प्रभुत्व
और वो बेचारे
सकुचा कर
कर देते हैं समर्पण
कि जैसे उन्हें यही आता हो
तुम्हारे होंठ मेरे लिए नए हैं,
हर नई शै
मुझे तुम तक खींच लाती है,
हर नई शै
जिज्ञासा को जन्म देती है
जिज्ञासा खोज को
जैसे धरती वाले मंगल पर
जीवन खोज रहे हैं
मेरी जिह्वा तुम्हारे होंठों के पार,
मुख के भीतर
अपने लिए
सिर्फ अपने लिए
जीवन खोजती है
22 फरवरी
अ-पकी सुंदर चीज़ों के लिए/ बुआ
की याद
उसकी रसोईं की देहरी पर खड़ा हूँ
चाहता हॉल में बैठता, हवा खाता
पलटता मैगज़ीन, बदलता चैनल
या उसके बच्चे से कुछ बतियाता
वह भी यही चाहती है
तब ही कहती है―
“तुम वहीं बैठो आराम से,
कब का निकले होगे!,
थक चुके होगे,
बस बनने को है,
फिर आती हूँ।”
कलछुल हिलाते-डुलाते
जाने क्या पकाते-वकाते
कुछ-कुछ गुनगुनाती है
जिसकी बहुत मद्धम आँच
मुझ तक आती है
उस से कहूँगा यदि
कि तुम्हारे लिए नहीं
इस गीत के लिए खड़ा हूँ
वह सचेत हो सकती है
गाना रोक भी सकती है
मेरी पसंदगी का इक नाज़ुक सिरा
जुड़ा है ऐसी अपकी सुंदर चीज़ों से
जिसे करते हैं लोगबाग़ बेध्यानी में
या यूँ ही, कभी-कभार, शौक़िया
जैसे नाचती थी मेरी छोटी बुआ
कभी बेध्यानी में तो कभी शौक़िया
बिजुली गुल होने पर तो अक्सरहाँ
हर नए गाने पर ख़ुद को आज़माती
कभी बजता गाना, कभी ख़ुद गाती
दूर से जाती रेल की आवाज़ आती
कभी पकड़ती मेरी छोटी ऊँगली
गोल-गोल घूमती, मुझे भी नचाती
क़मीज़ में पचरंगी दुपट्टा लपेट लेती
कमरे की तरफ़ किसको आने देती
कभी ऐश्वर्या, कभी माधुरी
कभी वो श्रीदेवी होती
नाचते-नाचते हँसने लगती
नाचते-नाचते नदियाँ रोती।
जुलाई 2020
चाहता हॉल में बैठता, हवा खाता
पलटता मैगज़ीन, बदलता चैनल
या उसके बच्चे से कुछ बतियाता
वह भी यही चाहती है
तब ही कहती है―
“तुम वहीं बैठो आराम से,
कब का निकले होगे!,
थक चुके होगे,
बस बनने को है,
फिर आती हूँ।”
कलछुल हिलाते-डुलाते
जाने क्या पकाते-वकाते
कुछ-कुछ गुनगुनाती है
जिसकी बहुत मद्धम आँच
मुझ तक आती है
उस से कहूँगा यदि
कि तुम्हारे लिए नहीं
इस गीत के लिए खड़ा हूँ
वह सचेत हो सकती है
गाना रोक भी सकती है
मेरी पसंदगी का इक नाज़ुक सिरा
जुड़ा है ऐसी अपकी सुंदर चीज़ों से
जिसे करते हैं लोगबाग़ बेध्यानी में
या यूँ ही, कभी-कभार, शौक़िया
जैसे नाचती थी मेरी छोटी बुआ
कभी बेध्यानी में तो कभी शौक़िया
बिजुली गुल होने पर तो अक्सरहाँ
हर नए गाने पर ख़ुद को आज़माती
कभी बजता गाना, कभी ख़ुद गाती
दूर से जाती रेल की आवाज़ आती
कभी पकड़ती मेरी छोटी ऊँगली
गोल-गोल घूमती, मुझे भी नचाती
क़मीज़ में पचरंगी दुपट्टा लपेट लेती
कमरे की तरफ़ किसको आने देती
कभी ऐश्वर्या, कभी माधुरी
कभी वो श्रीदेवी होती
नाचते-नाचते हँसने लगती
नाचते-नाचते नदियाँ रोती।
जुलाई 2020
***
सुन्दर कविताएँ
बहुत इत्मीनान से बैठ कर पढ़ना चाहिए ये सब कविताएं अगर ज़रा भी जल्दबाज़ी की चूक जाएंगे आप किसी न किसी बिम्ब से जो लेखक कहना चाह रहा है।। बाक़ी इस 22 साल के लड़के को अग्रिम बधाई कि उसने 16 साल के लड़कों के लिए कविता लिखी है।
वाह! कितनी सुंदर कविताएँ।
कितनी बड़ी बात कही है― कोई समझे न समझे/ एक प्रेमी को समझना चाहिए/ दूजे प्रेमी का दुःख