आशंकाओं के बीच आशा
विवेक निराला की ये कविताएं हाल ही में अमेरिका में
सार्वजनिक स्थल पर हुई अश्वेत अमेरिकन की हत्या और वैश्विकरण महामारी के समय
दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से पलायन करते प्रवासी की ओर से सत्ताओं को लिखी गयी
शिकायती चिट्ठी हैं। जब हुकूमत मदारी के किरदार में आवाम को जमूरा बनाती है तो अपना
आखिरी बयान दर्ज कराने से पहले कवि को अपना धर्म निभाना ही है। ‘यह दृश्य
महान नहीं था‘
के
खाली हाथ और भूखे पेट का दर्द वही है, जो विवेक निराला की एक अन्य कविता
“मरण” में आजीविका के लिए गांव से शहर आते व्यक्ति का था। ‘स्वगत’ कविता में रहनुमा होने से पहले का सफ़र है, वह सफ़र जिसमें
हर एक के दुख दर्द को आगे बढ़कर संभालना है, हर अभाव में
सान्त्वना देना है, सत्य और असत्य के हर द्वंद्व में सत्य के साथ
खड़ा होना है, हर एक को
समझना है। ‘संधि’ दो मन की बिना कहे होती हुई बात है। चुप रहने से बड़ी कोई
और अभिव्यक्ति नहीं होती और मुक्त कर देने से अधिक प्रबल कोई इच्छा नहीं हो सकती।
किसी संबंध के भीतर दोनों उच्चतम मानवीय गुण हैं। ये सभी कविताऍं सवालों के
पिरामिड खड़े करती हैं। राष्ट्रगान और संविधान पर यक़ीन करता हुआ एक आम आदमी ‘शायद’ की ड्योढ़ी
पर खड़ा नए रास्ते के इंतज़ार में है, क्योंकि ‘शायद‘ के सहारे रहना कितनी भी
आशंकाओं के बीच आशा को जिलाए रखना है।
–पूनम ठाकुर
यह दृश्य महान नहीं था
यह दृश्य महान तो नहीं था
यहाँ हर कोई उदासी से लिपटा और परेशान था।
महानगरों से मज़दूर अपने घर लौट रहे थे।
उनकी आत्मा में खलबली मची थी
और जेब में सिर्फ़ भूख बची थी।
जबकि थम गया था काल-चक्र
स्थगित हो चुके थे सारे के सारे पहिये
राजाज्ञा थी कि ‘जहाँ हैं,
वहीं बने रहिये।‘
मगर, अपनी सारी मुश्किलों के बावजूद
चींटियों की कतार की तरह
वे बस चले जा रहे थे और
छले जा रहे थे।
उनका जाना शहर का विरोध नहीं था
न किसी उच्च सदन से बहिर्गमन
कल्याणकारी राज्य के पतन से ऊब कर
वे अब अपनी इच्छाओं का दमन करना सीख चुके थे।
वे इसे भी राष्ट्र के लिए बलिदान मानते थे
अपने हाथ पर भरोसे को और पुख़्ता करते हुए
वे अपनी क़ीमत जानते थे।
अपने पहचान-पत्रों में वे बेहद अकेले मनुष्य भर थे
जिनकी नागरिकता अभी प्रमाणित होनी थी
जिनकी झुलसी हुई त्वचा और छिली हुई आत्मा में
कितनी ही तरह के डर थे
वे जब अपने घर के भीतर भी थे
तो सुखी लोगों की गणना से बाहर थे।
***
मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ
तुम्हारे सफेद धुएँ ने ढक दिया है
हमारे साँवले आसमान को
आदिम काले पहाड़
सफेद बर्फ की चादर ओढ़े खड़े हैं।
हमारे बहुत पुराने घावों पर
तुमने सफेद पट्टियाँ बाँधीं भी तो
चुटकी भर नमक छिड़कते हुए
काला पड़ चुका खून
जिनसे अब भी रिसता है।
सफेदी की इस चमकती दुनिया में
मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ।
हमारी नदियों के श्यामल जल पर
सफेदी के बाँध बने हैं
हमारी काली मिट्टी पर खड़ी हैं
ऊँची सफेद इमारतें।
तुम तो अपने घर को भी ‘व्हाइट हाउस‘ कहते हो न!
जिन पाँवों के नीचे दबी हुई हो गर्दन
उसे सहलाए जाने की
कूटनीतिक कहावत जानते हुए भी
मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ।
कोलतार की काली और चिकनी सड़क की
ज़ेब्रा क्रासिंग पर
इससे पहले कि मैं मार दिया जाऊँ
मेरा आखिरी बयान दर्ज़ किया जाय
कि-‘श्वेत नफरतों की इस दुनिया में
मैं अपनी काली काया के साथ
अब साँस भी नहीं ले पा रहा हूँ।‘
***
शायद
रामदास को पता था
कि उसकी हत्या होगी।
शायद उसे न पता रहा हो
शायद हत्यारे को पता रहा हो
शायद रघुवीर सहाय को पता रहा हो
या प्रधानमंत्री को।
शायद तुम्हें पता हो
कि अभी यहाँ से जाने के बाद
तुम्हारे साथ क्या होगा
हमारे साथ क्या होगा
शायद सभाध्यक्ष को पता हो
या संचालक को।
शायद आप में से किसी को पता हो
शायद रक्षामंत्री को
शायद गृहमंत्री को
अब मुख्यमंत्री को तो ज़रूर पता होगा
उनके सूबे की बात जो ठहरी!
यह जो शायद है
इसमें थोड़ा सा यक़ीन है
सन्देह है, अनुमान है
एक राष्ट्रगान और एक संविधान है
मगर,
रामदास को पता था
कि उसकी हत्या होगी।
शायद उसे न पता रहा हो
शायद हत्यारे को पता रहा हो
शायद रघुवीर सहाय को पता रहा हो
या प्रधानमंत्री को।
शायद तुम्हें पता हो
कि अभी यहाँ से जाने के बाद
तुम्हारे साथ क्या होगा
हमारे साथ क्या होगा
शायद सभाध्यक्ष को पता हो
या संचालक को।
शायद आप में से किसी को पता हो
शायद रक्षामंत्री को
शायद गृहमंत्री को
अब मुख्यमंत्री को तो ज़रूर पता होगा
उनके सूबे की बात जो ठहरी!
यह जो शायद है
इसमें थोड़ा सा यक़ीन है
सन्देह है, अनुमान है
एक राष्ट्रगान और एक संविधान है
मगर,
कवि की अब भी ख़तरे में जान है।
***
तथ्य
एक आदमी अपने चार बीघा
खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत
के बाद हासिल कर्ज़ अपने झोले में
सहेजे आत्मघात की तरफ
चला जा रहा है।
एक औरत अपने लम्बे
विश्वास से बाहर
लुटती-पिटती लौट रही है
भीतर के दुःखों को सम्हालती।
एक बच्चा जो
कूड़े में खेल रहा था
बम फटने से मारा जाता है
जेब में तीन चिकने पत्थर लिए।
एक लड़की जो
दुनिया में आने की सज़ा
पाती है और नीले निशान
अपनी फिरोजी फ्रॉक से छिपाती फिरती है।
क्या फर्क पड़ता है–
हमारे समय का बीज वाक्य है
यह हमारे समय का
अन्तिम सत्य।
मगर, सोचो तमाम गाजे-बाजे, विज्ञापन और
इक्कीस तोपों की सलामी से
कब तक बचेगा
तुम्हारा चौड़ा सीना
तुम्हारा बेशर्म आधिपत्य।
***
***
तथ्य
एक आदमी अपने चार बीघा
खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत
के बाद हासिल कर्ज़ अपने झोले में
सहेजे आत्मघात की तरफ
चला जा रहा है।
एक औरत अपने लम्बे
विश्वास से बाहर
लुटती-पिटती लौट रही है
भीतर के दुःखों को सम्हालती।
एक बच्चा जो
कूड़े में खेल रहा था
बम फटने से मारा जाता है
जेब में तीन चिकने पत्थर लिए।
एक लड़की जो
दुनिया में आने की सज़ा
पाती है और नीले निशान
अपनी फिरोजी फ्रॉक से छिपाती फिरती है।
क्या फर्क पड़ता है–
हमारे समय का बीज वाक्य है
यह हमारे समय का
अन्तिम सत्य।
मगर, सोचो तमाम गाजे-बाजे, विज्ञापन और
इक्कीस तोपों की सलामी से
कब तक बचेगा
तुम्हारा चौड़ा सीना
तुम्हारा बेशर्म आधिपत्य।
***
हमारे समय के हत्यारों ने
हमारे समय के हत्यारों ने
एकल को सामूहिक किया
और हत्यारों के समूह का विकास हुआ।
उन्होंने हत्या को
कला में बदल दिया
और कला को हत्या में
बदल देने के तरीके बताए।
हथियारों को मशीन में
और मशीनों को बन्दूकों में
बदलते हुए उन्होंने हत्या को
और भी ज़्यादा वैज्ञानिक बनाया।
फिर, वे शास्त्र लेकर आये
उन्होंने हत्या की पूरी परम्परा की
आधुनिक व्याख्या की
हिंसा की दार्शनिक दलीलें दीं
बर्बरता को सांस्कृतिक कर्म बताया।
इस तरह,
हमारे समय के हत्यारों ने
अपने लिए हत्या को वैधता दी।
***
सन्धि
मेरे मन की एक पतली डोर
जो तुम तक पहुँचती है
उसी से मकड़ी
अपना जाल बुनती है।
तेरी देह-गंध भी तो चुरा ले गईं मंजरियाँ
तुझे पता भी न चला!
मुझसे हवाओं ने मुखबिरी की।
तेरे हास से
चिटक उठीं कलियाँ,
चरणों को देख
चमक उठा चन्द्रमा।
मेरी आँख के तिनके
तुम्हारे स्वप्न-पंछी का बसा आवास
और आँसुओं में
मेरी भुजाओं की मछलियाँ तैरती हैं।
तुम्हारी कल्पना में
मेरी मूकता है और
मेरी इच्छाओं में
तुम्हारी मुक्ति।
यह तो
तुम्हारे निरपराध जीवन से
मेरी निर्दोष मृत्यु की सन्धि है।
मेरे मन की एक पतली डोर
जो तुम तक पहुँचती है
उसी से मकड़ी
अपना जाल बुनती है।
तेरी देह-गंध भी तो चुरा ले गईं मंजरियाँ
तुझे पता भी न चला!
मुझसे हवाओं ने मुखबिरी की।
तेरे हास से
चिटक उठीं कलियाँ,
चरणों को देख
चमक उठा चन्द्रमा।
मेरी आँख के तिनके
तुम्हारे स्वप्न-पंछी का बसा आवास
और आँसुओं में
मेरी भुजाओं की मछलियाँ तैरती हैं।
तुम्हारी कल्पना में
मेरी मूकता है और
मेरी इच्छाओं में
तुम्हारी मुक्ति।
यह तो
तुम्हारे निरपराध जीवन से
मेरी निर्दोष मृत्यु की सन्धि है।
***
इंतज़ार
कितना भटकता रहा
अकेला मन
कोई मिले
परिचय की गाँठ लगाये।
नींद ने मुझसे
बरसों कोई बात तक न की
सपनों के चेहरों पर
काले धब्बे उभर आये।
बेहोशी में बार-बार
बड़बड़ाता रहा
कितना कुछ
कि कोई आये, मुझे बताये।
मृत्यु की कोई शक़्ल
अब तक नहीं बना पाया
उसे जब-जब देखा
अपने चेहरे को छिपाये।
इस सब के लिए
मैंने कितना इंतज़ार किया
कितने ही जीवन गंवाये।
कितना भटकता रहा
अकेला मन
कोई मिले
परिचय की गाँठ लगाये।
नींद ने मुझसे
बरसों कोई बात तक न की
सपनों के चेहरों पर
काले धब्बे उभर आये।
बेहोशी में बार-बार
बड़बड़ाता रहा
कितना कुछ
कि कोई आये, मुझे बताये।
मृत्यु की कोई शक़्ल
अब तक नहीं बना पाया
उसे जब-जब देखा
अपने चेहरे को छिपाये।
इस सब के लिए
मैंने कितना इंतज़ार किया
कितने ही जीवन गंवाये।
***
स्वगत
नींद में भी समाधि की यह
गन्ध कितनी मादक है
और मृत्यु का स्पर्श इतना उत्तेजक।
अपने ही भीतर के
कक्षों में सुरक्षित बसने से पहले
दूसरों की कन्दराओं में प्रवेश करो।
आत्मा का भी अपना लावण्य होता है
तुम किसी की आत्मा तक
पहुँचो तो सही।
किसी की आत्मा के नमक को
अपनी पलकों से उठाओ
उसकी चमक के बूते
अपने अँधेरों से जूझो और
अपने आधे-अधूरे सत्य की धमक के आगे
सम्पूर्ण सत्य की मद्धिम धुनों को सुनो।
चुनो! अपना एक पक्ष तो चुनो।
अपनी आँखों में पड़ी
दूसरे के दुख की झांइयों को पढ़ो
अपनी ही आदिम परछाइयों से लड़ो।
अपने भीतर झाँकना ही काफी नहीं
उसकी कायदे से तलाशी होनी चाहिए
चोर जेबों को उलटकर
टटोल लेने चाहिए सारे अँधेरे कोने।
वरना,अपने ही गड्ढों में गिरोगे
कोई नहीं आएगा तुम पर रोने।
विवेक प्यारे!
तब, रहनुमाई का दम भरो
और पूरे इत्मीनान से मरो।
नींद में भी समाधि की यह
गन्ध कितनी मादक है
और मृत्यु का स्पर्श इतना उत्तेजक।
अपने ही भीतर के
कक्षों में सुरक्षित बसने से पहले
दूसरों की कन्दराओं में प्रवेश करो।
आत्मा का भी अपना लावण्य होता है
तुम किसी की आत्मा तक
पहुँचो तो सही।
किसी की आत्मा के नमक को
अपनी पलकों से उठाओ
उसकी चमक के बूते
अपने अँधेरों से जूझो और
अपने आधे-अधूरे सत्य की धमक के आगे
सम्पूर्ण सत्य की मद्धिम धुनों को सुनो।
चुनो! अपना एक पक्ष तो चुनो।
अपनी आँखों में पड़ी
दूसरे के दुख की झांइयों को पढ़ो
अपनी ही आदिम परछाइयों से लड़ो।
अपने भीतर झाँकना ही काफी नहीं
उसकी कायदे से तलाशी होनी चाहिए
चोर जेबों को उलटकर
टटोल लेने चाहिए सारे अँधेरे कोने।
वरना,अपने ही गड्ढों में गिरोगे
कोई नहीं आएगा तुम पर रोने।
विवेक प्यारे!
तब, रहनुमाई का दम भरो
और पूरे इत्मीनान से मरो।
***
आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
मैंने खनकते कलदार
सिक्कों के बारे में सोचा जो छुपे थे
जिन्हें खोटेपन ने चलन से
बाहर कर दिया था।
मैंने तारों सहित उलट गए
आकाश के बारे में सोचा
मैंने सोचा चमगादड़ों की तरह लटके
सूर्य और चन्द्रमा के बारे में।
आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
मैंने फूलों और तितलियों के बारे में सोचा
मैंने सोचा सूखे से दरकते खेतों के बारे में।
मैंने जलते हुए जंगलों और विस्थापित लोगों
पूँजी और मशीनों और उद्योगों के बारे में सोचा
मैंने अपनी दो कौड़ी की नौकरी
और चार पैसे की मध्यवर्गीय
चतुर चुप्पी के बारे में सोचा।
मैंने अपने हृदय की आग जलाये रखने के लिए
महँगे किरोसीन और
सस्ती-सी कुप्पी के बारे में सोचा।
अपने घर-परिवार से लेकर
सारे संसार के बारे में सोचते हुए
मैंने एक चिड़िया के बारे में सोचा।
आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
मैंने खूब सोचा चिड़िया की उड़ान के बारे में
मगर अन्त में पाया-
उम्मीद एक मरी हुई चिड़िया का नाम है।
आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
मैंने खनकते कलदार
सिक्कों के बारे में सोचा जो छुपे थे
जिन्हें खोटेपन ने चलन से
बाहर कर दिया था।
मैंने तारों सहित उलट गए
आकाश के बारे में सोचा
मैंने सोचा चमगादड़ों की तरह लटके
सूर्य और चन्द्रमा के बारे में।
आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
मैंने फूलों और तितलियों के बारे में सोचा
मैंने सोचा सूखे से दरकते खेतों के बारे में।
मैंने जलते हुए जंगलों और विस्थापित लोगों
पूँजी और मशीनों और उद्योगों के बारे में सोचा
मैंने अपनी दो कौड़ी की नौकरी
और चार पैसे की मध्यवर्गीय
चतुर चुप्पी के बारे में सोचा।
मैंने अपने हृदय की आग जलाये रखने के लिए
महँगे किरोसीन और
सस्ती-सी कुप्पी के बारे में सोचा।
अपने घर-परिवार से लेकर
सारे संसार के बारे में सोचते हुए
मैंने एक चिड़िया के बारे में सोचा।
आत्महत्या के बारे में सोचते हुए
मैंने खूब सोचा चिड़िया की उड़ान के बारे में
मगर अन्त में पाया-
उम्मीद एक मरी हुई चिड़िया का नाम है।
***
सुन्दर कविताएँ
*वाह अद्भुत चयनित कविताएँ,,,, मैं तो पहली बार विवेक से उन्हीं के स्वर में बाबा का 'तानपूरा' कविता सुनकर ही मुरीद हो गयी थी,,, अक्सर पढ़ती रहती हूँ विवेक की कविताएँ ,,, समसामयिक के साथ संवेदना की कालजयिता कविता को अद्भुत रंग से भर देती है,, सधाव कविता का बिखरने नहीं देता।
इन कविताओं में महज़ भावुक संवेदना नहीं है बल्कि एक ख़ास दीप्ति है जो संवेदना और विचार के विवेकसम्मत गुणनफल से पैदा होती है। कवि की भाषा में वह दीप्ति है, यह कोई चालाकी नहीं है जिससे कविता लिखी गयी है। इसमें संवेदना की विचारशक्ति और उसकी पारदर्श निष्ठा है।
बहुत अच्छी कविताएँ
बहुत अच्छी कविताएँ विवेक भाई की। अनुनाद और कवि दोनों को आभार और बधाई।
बेहतरीन कविताएँ
विवेक निराला की बेहतरीन कविताएँ। खासकर शुरुआती दोनों और हत्यारे लाज़वाब हैं। हत्यारों के देशीय और अंतरराष्ट्रीय चरित्रों की शिनाख्त करती हुई प्रतिरोध के वैश्विक स्वर को तलाशती हुई कविताएँ हैं। पूनम जी की टिप्पणी भी सारगर्भित है। दोनों को बधाई।
बहुत अच्छी कविताएँ। समय और उस समय में व्यक्ति की आत्मालोचना का स्थान भी है तथा हिंसा की सूक्ष्मता की पड़ताल करती हुई।