आत्मकथ्य
खुद को कवि कहने का साहस
और कवि होने की जिम्मेदारी दोनों का खुद के अंदर नितांत अभाव पाता हूँ. कविता
लिखता हूँ यह कहने के बजाए यदि मैं यह कहूँ कि कविता का मैं माध्यम भर हूँ कविता
खुद अपने कवि का चुनाव करती है तो यह बात अधिक सत्य के निकट प्रतीत होगी.
मन में देहात है और
नौकरीपेशा के सिलसिले में शहर में रहता हूँ मगर कुल मिलाकर न ही पूरा भदेस बचा हूँ
और न ही पक्का शहरी हो पाया हूँ, मेरे जैसी एक पूरी पीढ़ी है जो त्रिशंकु की भांति
मध्य में लटकी हुई है खुद को उसी परम्परा का मानता हूँ मैं.
मनोविज्ञान की पढ़ाई की
है और पढ़ाता हिन्दी एवं पत्रकारिता हूँ. गत कथन का विरोधाभास ही जीवन का सच है इसी
तरह से जीवन में विरोधाभासों के मध्य अपनी यात्रा को पाता हूँ. कविता मेरे लिए खुद
से बातचीत करने का एक गहरा अवसर भर है यह एक जीवन में अनेक जीवन जीने के अवसर देती
है इसलिए कविता की दुनिया में मुझे संवेदना के साथ रोमांच भी दिखता है.
नियमित और व्यवस्थित ढंग से न कवि हूँ और न लेखक. खुद को
जानने की यात्रा कविता का निमित्त बनाती है और जग को जानने की इच्छा से मुक्ति
दिलाती है. मेरे लिए इन दो ध्रुवों के मध्य निरुद्देश्य टहलना ही जीवन का एकमात्र
रसपूर्ण कर्म है. बस इतना ही.
–
डॉ. अजित
1
एक कविता लिखी थी तुम्हारे लिए
जिसका पाठ सुनना था तुमसे
कुछ जंगली फूल लाया था तुम्हारे लिए
उन्हें गूंथना था तुम्हारी वेणी में
तुम्हारी एक मौलिक किस्म की गंध थी मेरे पास
जिसे ले जाना चाहता था समन्दर तक
एक कप चाय पीनी थी तुम्हारे साथ
रसोई में खड़े होकर
बिस्तर पर ऐसे बैठना था न पड़े एक भी सिलवट
और बैठा रहूँ ठीक तुम्हारे सामने
कुछ नदी किनारे मिले छोटे पत्थर सौपने थे तुम्हें
ताकि तुम सूंघ कर बता सको उनका द्रव्यमान
एक सूखी जंगली वनस्पति का टुकड़ा देना था तुम्हें
जिसे तुम लगा सकती थी अपने जूड़े में
पूछना था तुमसे
समय का समास
अपेक्षा का तद्भव
प्रेम का विशेषण
रिश्तों का सर्वनाम
बताना था तुम्हें
तरलता का बोझ
पलायन और अनिच्छा में भेद
डर का कायरता से इतर का संस्करण
खेद का मनोविज्ञान
बस, इन्हीं छोटी छोटी ख्वाहिशों से डर के
ईश्वर ने सही वक्त पर मिलने नहीं दिया तुमसें.
जिसका पाठ सुनना था तुमसे
कुछ जंगली फूल लाया था तुम्हारे लिए
उन्हें गूंथना था तुम्हारी वेणी में
तुम्हारी एक मौलिक किस्म की गंध थी मेरे पास
जिसे ले जाना चाहता था समन्दर तक
एक कप चाय पीनी थी तुम्हारे साथ
रसोई में खड़े होकर
बिस्तर पर ऐसे बैठना था न पड़े एक भी सिलवट
और बैठा रहूँ ठीक तुम्हारे सामने
कुछ नदी किनारे मिले छोटे पत्थर सौपने थे तुम्हें
ताकि तुम सूंघ कर बता सको उनका द्रव्यमान
एक सूखी जंगली वनस्पति का टुकड़ा देना था तुम्हें
जिसे तुम लगा सकती थी अपने जूड़े में
पूछना था तुमसे
समय का समास
अपेक्षा का तद्भव
प्रेम का विशेषण
रिश्तों का सर्वनाम
बताना था तुम्हें
तरलता का बोझ
पलायन और अनिच्छा में भेद
डर का कायरता से इतर का संस्करण
खेद का मनोविज्ञान
बस, इन्हीं छोटी छोटी ख्वाहिशों से डर के
ईश्वर ने सही वक्त पर मिलने नहीं दिया तुमसें.
2
जिन दिनों तुम
व्यस्त थी
बहस और विमर्शों में
मैं बना रहा था कागज़ की नाव
बहस और विमर्शों में
मैं बना रहा था कागज़ की नाव
जब तुम तर्क के शिखर पर थी
मैं सहला रहा था आवारा घास के कान
जिन दिनों तुमसे जीतना लगभग असम्भव था
मैं संग्रहित कर रहा था दुनिया भर के सुसाइड नोट्स
जिन दिनों तुम अपरिमेय उड़ान पर थी
मैं बिलांद से नाप रहा था सप्तऋषि तारों की दूरी
जिन दिनों तुमसे दिल की बात कहना मुश्किल था
मैं देख रहा था नदी के छूटे हुए तटबंध
जिन दिनों तुम करीब रहकर भी थी बेहद दूर
मैं लगा रहा था आसमान की आँख पर चश्मा
उन दिनों की बदौलत जान पाया मैं
सपनों के षड्यंत्र और विकल्पों की दुनिया को
प्रभावित होने और रहने की अनिवार्यता को
उन दिनों पढ़ पाया
पेड़ की चोटी पर टंगे आसमान के खत को
धरती के माथे पर लिखी
सबसे सुंदर मगर सबसे छोटी लिपि को
उन दिनों के कारण देख पाया
गलतफहमियों के झरने का नदी होना
धारणाओं के जंगल का हरा होना
उम्मीद के पहाड़ का बड़ा होना
इंतजार के समंदर का खड़ा होना
समझ नहीं आता कैसे रखूँ याद वे दिन
जब स्मृतियों की आयु थी डेढ़ दिन
स्नेह की तिरछी छाया थी आधा दिन
यथार्थ की धूप थी सारा दिन
मेरे पास उन दिनों केवल रात थी
जिसके सहारे मैं रचता था दुनिया की
सबसे आशावादी उपकल्पना
बताता था खुद ही खुद को मतलबी इंसान
रटता था खुशी की लौकिक परिभाषाएं
नींद को मांगता था ईश्वर से जीवन की तरह उधार
सपने कामना के नहीं प्रार्थना की शर्त पर आते थे
उन दिनों मेरे पास
कुछ उलाहने थे
जो तुम्हें आत्मविश्वास के साथ सुनाने थे
तुम्हारी गति अपने साथ उड़ाकर ले जा रही थी
प्रेम का अधिकार
अपनत्व की चादर
और एक दूसरे की जरूरत
जिन दिनों तुम बेहद मजबूत थी
उन दिनों सबसे कमजोर था मैं.
3
नदी किनारे खड़े
हैं कुछ बुद्ध
नदी से रास्ता मांगते हैं
नदी से बिना आज्ञा पार करने की
हिंसा से बचना चाहते हैं वो
करुणा से करते है निवदेन
नदी चाहती है
बुद्ध वहीं ठहर जाएं
इसलिए वो आगे बढ़ जाती है
बुद्ध अब किससे मांगे अनुमति
बहते जल से या ठहरे पल से.
नदी से रास्ता मांगते हैं
नदी से बिना आज्ञा पार करने की
हिंसा से बचना चाहते हैं वो
करुणा से करते है निवदेन
नदी चाहती है
बुद्ध वहीं ठहर जाएं
इसलिए वो आगे बढ़ जाती है
बुद्ध अब किससे मांगे अनुमति
बहते जल से या ठहरे पल से.
4
सोकर उठा तो लगा कि
धरती के सबसे निर्वासित कोने पर
अकेला बैठा हूँ
नींद की थकान के बाद
देख रहा रहा हूँ
जागे हुए चेहरों की उदासी
धरती घूम रही है अपनी गति से
इसका अनुमान लगाने के लिए मैं थम
गया हूँ
मेरी गति अब पुराण की गति के
बराबर है
जिसे दुर्गति, निर्गति, सद्गति
कुछ भी समझा जा सकता है
अपनी-अपनी समझ के हिसाब से
जिस जगह मैं हूँ
वहां से एक रास्ता दुनिया की तरफ
जाता है
एक रास्ता दुनिया की तरफ से आता
है
मगर मैं जिस पगडंडी पर खड़ा हूँ
वहां से दोनों रास्ते अलग नहीं
दिखते है
इसलिए मैं देखने की ऊब से
आसमान की तरफ देखने लगता हूँ
आसमान मुझसे पूछता है
धरती के इस कोने का तापमान
मगर मेरे पास मात्र अनुमान है
इसलिए छूने से डरता हूँ धरती के
कान
जब से सोकर उठा हूँ
मैं नींद को देख रहा हूँ बड़ी
हिकारत से
दोबारा सोने से पहले मेरे कुछ डर हैं
मसलन अगर
इस बार आसमान ने पूछ लिया
मेरा ही द्रव्यमान
तो क्या कहूँगा उसे
फिलहाल जिस कोने पर बैठा हूँ मैं
वहां से कुछ भी नापा जाना सम्भव नहीं
मैंने आसमान की तरफ कर ली है पीठ
और धरती की आंखों में देख रहा हूँ
अपनी नींद में डूबी आंखें
शायद देखते-देखते फिर आ जाए नींद
और मैं सोते हुए बच सकूं सवालों
से
लेकर कुछ अधूरे सपनों की ओट
नींद और जागने के मध्य
मैं तलाश रहा हूँ वो कोना
जहां मैं खुश हूँ ये बताना न पड़े
किसी को
और मैं उदास हूँ छिपाना न पड़े
किसी से.
5
एकदिन थककर स्त्री
वापिस ले लेती है
अपने पूरे सवाल
आधे सन्देह
और एक चौथाई सम्भावना
वो ओढ़ लेती है
एक जीवट मुस्कान
पुरुषार्थ की अधिकांश विजय
ऐसी मुस्कानों पर ही खड़ी होती है
तनकर
स्त्री के पास होता है
बेहद एकांतिक अनुभव
जिसे नहीं बांटती वो किसी अन्य
स्त्री से भी
यही बचाता है उसके अंदर
एकालाप की ऐसी हिम्मत
जिसके भरोसे वो
पुरुषों की दुनिया में बनी रहती
है
एक अबूझ पहेली
प्रेम स्त्री की थकन नहीं नाप
पाता
घृणा स्त्री की अनिच्छा नहीं देख
पाती
दोनों की मदद से
जब पुरुष करता है
किसी की किस्म का कोई दावा
तब स्त्री रोती है अकेले में
ये बात केवल जानता है ईश्वर
मगर वो नहीं बताता
किसी पुरूष का कान पकड़कर
एकांत का यह अन्यथा जीया दुख
और भला बता भी कैसे सकता है
पुरुष ने उसका हाथ चिपका रखा है
हमेशा से खुद के सिर पर
एक स्थाई आशीर्वाद की शक्ल में
स्त्री इसलिए ईश्वर से नहीं करती
कोई शिकायत
वो जानती है ठीक ठीक यह बात
जो सबका है
कम से कम उसका तो
बिल्कुल नहीं हो सकता है.
6
मेरे पिता जी
बाटा का जलसा जूता पहनते थे
बाटा पर उनका यकीन
मुझ पर यकीन से ज्यादा था
गांधी को वो मात्र
खादी भंडार से जानते थे
शहर में जाते तो जरूर जाते गांधी
आश्रम
उन्हें कपड़े की उतनी समझ थी
जितने मुझे आदमी की नहीं है
पिता जी को मोहम्मद रफी पसन्द थे
मुकेश के लिए वो कहते
गाता अच्छा है मगर नाक से गाता है
मैंने उन्हें जब मिलवाया किशोर
कुमार से
उन्होंने कहा
ये नौजवानों का गायक है
ज्वार भाटा और वक्त
उनकी पसंदीदा फ़िल्म थी
नए लोगो में उन्हें अजय देवगन थे
पसन्द
हमनें कई फिल्में साथ देखी
मगर हमारी पसन्द हमेशा रही जुदा
पिता के मरने पर
मैनें उनका जूता नहीं दिया किसी
को
कभी-कभी उसमें पैर डालकर
देखता हूँ अकेले में
आज भी वो ढीला आता है मुझे
जब कभी दुनिया के धक्के और धोखे
खाकर
हो जाता हूँ थोड़ा हैरान थोड़ा
परेशान
जी करता है पिता जी का
वही बाटा जलसा जूता उठाकर
दो चार जड़ लूं
खुद ही खुद के सिर पर
पिछली दफा जब ऐसा करना चाहा मैंने
तो ऐसा करते मुझे देख लिया मेरी
माँ ने
पिता के मरने के बाद
पहले बार वो रोई एक अलग स्वर में
मेरे पास पिता का जूता है
मेरे पास मेरा सिर है
और मेरा पैर है
मगर तीनों में कोई मैत्री नहीं है
तीनों अकेले और असंगत है
जीवन की यह सबसे बड़ी शत्रुता है
मेरे साथ
जिसे मैं अकेला खत्म नहीं कर सकता.
7
ये बातचीत को अन्यथा
लिए जाने का दौर है
आप कहें पूरब
और कोई समझ ले
इसको निर्वासन की दशा
आप कहें मेरा वो मतलब नहीं था
दरअसल
और तब तक मतलब निकल चुका हो हाथ
से
इसलिए
बातचीत करते हुए लगता है डर
और बोल जाता हूँ कुछ ऐसा भी
जिसका ठीक ठीक मतलब नहीं पता होता
मुझे भी.
8
स्मृतियों के एक अक्ष पर
टांग रखा है तुम्हारी अंगड़ाई को
जब भी दिल उदास होता है
तुम्हें देख मुस्करा पड़ता हूँ
उम्मीद और भरोसे के सहारे आजकल
तुम्हारी बातों को ओढ़ता हूँ
बैचेनी और नींद की चादर की तरह एक
साथ
लगता है कहीं तुम भूल तो नहीं गई
मुझे
फिर देता हूँ नसीहत खुद को ही
मान लिया भूल भी गई हो मुझे
मगर कैसे भूल सकती है मेरे पवित्र
स्पर्श को
चाँद आधी रात कराहता है जब
जाग जाता हूँ हड़बड़ाकर
नहीं सुन पाते मेरे कान
तुम्हारी शिकायतों को
बन्द कमरे के बाहर चांदनी
चिपका देती है मेरी कुर्की का
नोटिस
इन दिनों सबसे ज्यादा याद आता है
तुम्हारा गुस्सा
बरस जाना तुम्हारा आवारा बदली की
तरह
मेरा माथा अब गर्म रहता है
बरसात के इंतजार में भूल गया हूँ मैं
हिंदी मास के नाम
सितंबर महीने की सुनता हूँ
मौसम की भविष्यवाणी
इस तरह तुम्हें याद करते हुआ जाता
हूँ अंग्रेज
कृष्ण -शुक्ल पक्ष और नक्षत्र के
फलादेश
बांचता हूँ रोज़
करता हूँ दिशाशूल का विचार
जिस जगह तुम रहती हो
इसी ग्रह पर होने के बावजूद
आसान नहीं है वहां की यात्रा
शुभ अशुभ से परे मैं घड़ी की
सुईयों पर
झूला डाल ऊंघता रहता हूँ दिन में
कई बार
भले ही इस देश का बाशिंदा हूँ
मगर तुम्हारा शहर करता है इनकार
मुझे एक नागरिक मानने से
उसे लगता हूँ मै संदिग्ध
और तुम्हारी बाह्य शान्ति के लिए
एक खतरा
निर्वासन प्राश्रय के लिए
नहीं करता वो स्वीकार मेरी तमाम
अर्जियां
फिर तुम्हारी यादें देती हैं दिलासा
कि तुम कर रही हो इंतजार मेरा
बसन्त सा
साल कोई सा भी हो
मुझे जाना होगा उसी तरह से घुमड़कर
ताकि बह जाए हमारे मध्य की
तमाम गलतफहमियां
हंसी के पतनालों से
उम्मीद के भरोसे हूँ आजकल
तुम पता नहीं किसके भरोसे हो
मेरे तो नहीं हो कम से कम
चलो ! ये भी एक अच्छी ही बात है.
9
सामान्य सी बातचीत में
एक दिन उसने कहा
तुम मिलते तो दिल बहल जाता है
मेरा
मैंने कहा
क्या मैं कोई विदूषक हूँ तुम्हारे
जीवन में
इस पर खीझते हुए उसने कहा
कई बार अफ़सोस होता है तुम्हारी
सोच पर
बात गम्भीर होती देख हंस पड़ा मैं
मगर वो नहीं हंसी
तब मुझे पता चला
उसके जीवन में कम से कम
एक विदूषक नहीं था मैं.
***
प्रेम त्रिकोण को समझने के लिए
कई बार मैं बन जाता अज्ञानी छात्र
और पूछता उससे
त्रिकोण के अंशो का मान
वो दिल की प्रमेय की मदद से बताती
कैसे दो लोगो का वर्गमूल हो जाता
है एक समान
प्रेम की ज्यामिति को समझने के
लिए वो देती
कुछ मौलिक किस्म के सूत्र
तमाम स्पष्टता के बावजूद
हमेशा गलत होते मेरे सवाल
इस बात वो शाबासी देती हमेशा
गलत सवाल पूछने पर
या गलत जवाब निकालने पर
नहीं समझ पाया आज तक.
***
अन्य स्त्रियों की तरह
उसी नहीं था पसन्द मेरा कमजोर
पड़ना
यहां तक वो चाहती थी
न करूं जिक्र मैं सर्दी जुकाम और
खांसी का भी
बीमारी की सूचना पर आजतक नहीं कहा
उसने
टेक केयर
वो चाहती थी मैं अकेले लडूं सारे
युद्ध
सहानुभूति लूटने की आदत के सख्त
खिलाफ थी वो
वो देखना चाहती थी मुझे
हमेशा स्थिर और मजबूत
उसकी वजह से बीमार पड़ना भूल गया
था मैं
इसलिए
बीमारी आती रही वो सबसे ज्यादा
याद.
***
ऐसा अक्सर हुआ
हम असहमत हुए
और बंद हो गई बोलचाल
सम्बन्धों का ये बेहद लौकिक
संस्करण था
जिससे हम गुजरते थे साथ-साथ
इस आदत का हमने कोई सम्पादन नहीं
किया
ना कोई स्पष्टीकरण दिया कभी
नहीं भेजे लम्बे चौड़े माफीनामे
एक अदद स्माइल से चल जाता था काम
हमारे मध्य ईगो नहीं
हमेशा दुनिया के ईगो के मध्य रहें
हम.
कई बरस बाद मिलने पर उसने पूछा
सुना है कवि हो गए हो तुम
मैंने कहा पता नहीं
फिर तो पक्का हो गए हो
कवियों को आदत होती है रहस्य रचने
की
मैंने कहा चलों यूं होगा
फिर अचानक मेरी एक कविता पढ़ने लगी
मोबाइल पर
एक सांस में पढ़ने के बाद बोली
एक बात बताओ किसके लिए लिखी ये
कविता
मैंने कहा पता नहीं
तुम्हें कुछ पता भी है फिर?
मैंने कहा बस उतना पता है
जितना तुम्हें पता है कि
कवि हो गया हूँ मैं.
****
जब भी उसे कहनी होती
कोई कड़वी बात
लेती हमेशा सहारा कोट्स का
मैं दो स्माईली बनाता जवाब में
जिसका अर्थ वो यह लगाती
मैं समझ तो गया हूँ
मगर मानूंगा नहीं
फिर लम्बा चलता मैसेज का
अज्ञातवास
इतना अवरोध हमेशा रहा हमारे ज्ञान
के मध्य.
***
कुछ मामलों में जिद पर उतर आती वो
मसलन सैंडिल मोची के पास छोड़ना नहीं
अपने सामने ही ठीक करवाना है
मैंने कहा इतना अविश्वास क्यों
तब वो कहती मुझे रिपेयर देखना अच्छा
लगता है
बरसों बाद उससे बिछड़कर समझ पाया
क्यों अच्छा लगता था उसे रिपेयर
देखना
दरअसल वो उसकी जिद नहीं
तैयारी थी रफू होती ज़िन्दगी को
जीने की.
***
उन दिनों मैं कुछ प्रतिशत अवसाद
में था
ये बात केवल वो जानती थी मैं नहीं
इसलिए नहीं छोड़ा उसने मुझे अकेला
कम दिए उपदेश
स्वीकार की मेरी बेतुकी दार्शनिक
टीकाएँ
रूचि से पढ़े पलायन के नोट्स
आज अगर मैं जिन्दा हूँ
इसमें बहुत बड़ा प्रतिशत उसका हाथ
है
ये बात भी तभी पता चली
जब छूट गए उसके हाथ.
10
लिखने को इतना कुछ था
आसपास
मगर उसने चुना केवल प्रेम
वो डाकिया था
जिसने चिट्ठियां बांटी सही पतों
पर.
***
प्रेम ने बदल दी थी उसकी दुनिया
वो अब लिखता था
जेठ की दोपहर में
फागुन के गीत
मौसम ने दिया था उसको शाप
उदास रहने का.
***
उसके पास थे
सब किस्से उधार के
जिन्हें उसका समझा गया
और लगाए गए अनुमान
वो एक अच्छा किस्सागो था
और एक खराब प्रेमी
ये बात केवल उसका एकांत जानता था.
***
उसके पास
कुछ नहीं था जताने बताने और
समझाने के लिए
उसकी स्मृतियां
अल्पकालीन निविदाओं पर आश्रित थीं
वो अनुबंधित था
हस्तक्षेप न करने के लिए
इसलिए भी था
उसका हर वादा सरकारी.
परिचय
नाम- डॉ. अजित
पता- सहायक प्रोफेसर, हिन्दी
विभाग
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय,
हरिद्वार
उत्तराखंड-249404
सम्पर्क- 09997019933,9411191982
प्रकाशन-
तुम उदास करते हो कवि ( कविता संग्रह)- बोधि प्रकाशन (2017 )
सुनो
मनोरमा ( गद्य)- श्वेतवर्णा प्रकाशन (2020)
आज अजित जी की इतनी कविताओं को एक साथ पढ़ने का संजोग बना। उनकी कविताएँ पहले भी उनकी फेसबुक वॉल और अन्य ब्लॉगों पर देखता-पढ़ता रहा हूँ।
उनकी कविताओं में स्त्री पुरुष संबंधों की गहरी मनोवैज्ञानिक पड़ताल है। ये सिर्फ़ प्रेम की कविताएँ नहीं हैं। नए दौर ने विशेषतः सोशल मीडिया ने स्त्री पुरुष वार्तालाप को कैसे बदला और प्रभावित किया है उसकी गहरी अन्तर्ध्वनियाँ इन कविताओं में हैं।
पिता के विषय में एक मार्मिक कविता दिल को छू गई।
कहीं कहीं कविताओं में ज़्यादा वर्णन और विश्लेषण उनकी लय को तोड़ देते हैं। एक सामान्य पाठक को इन कविताओं को धैर्य से पढ़ना चाहिए नहीं तो बहुत कुछ छूट जाएगा।
डॉ अजित निःसंदेह एक बेहतरीन किस्सागो-कवि हैं और ख़राब प्रेमी हरगिज़ नहीं।
डा.अजित की कविताएं बहुत ही सहज कविताएं होती है, ये कुछ ऐसा है जैसा कल्पनाएं जमीन पर खडी हों, वे आसमान ताकती जरूर हैं लेकिन अपनी जमीन कभी नही छोडना चाहती, सभी कविताएं बहुत सुन्दर… 👏👏👏