कवि ने कहा
मुझे लगता
है कि जब चोर, संभ्रांत और सिपाही की भाषा बोलने लग जाए या संभ्रांत और सिपाही, चोर
की भाषा बोलने लग जाए। तब दुनिया बिगड़ने लगती है। कोई आदमी बीच सड़क पर किसी को लूट
रहा हो या कर रहा हो अभद्रता की स्थापना। तब दुनिया बिगड़ने लगती है। बस-कॉलेज में बैठी
हुई लड़की, अपनी ओर घूरती आँखों से त्रस्त हो। कोई मांस-मछली के नाम पर दंगे भड़का रहा
हो, तब भी दुनिया बिगड़ने लगती है। ऐसा काम
जो समाज को पीछे ले जाए, उन सबसे दुनिया बिगड़ने लगती है। ऐसी सभी प्रकार की समस्याओं
से लड़ने के लिए एकमात्र हथियार है प्रतिरोध। यह प्रतिरोध, भाषा या मनुष्यों के प्रति
नहीं अपितु गलत कार्यों के प्रति है! अतः मेरी कविताओं का तीसरा मुख्य शब्द है-प्रतिरोध।
व्यक्ति नदी
के पास जाता है तो यह व्यक्ति की संवेदना है। नदी उसे जीभर पानी पिलाकर, नहला-धुलाकर
तर कर देती है, यह नदी की संवेदना है। चिड़िया पेड़ों पर घोसला बनाना चाह रही हैं, यह
चिड़ियों की संवेदना है, और पेड़ भी सहर्ष शाखाएँ प्रदान कर उनका स्वागत कर रहे हैं यह
पेड़ों की संवेदना है। एक व्यक्ति नहीं कहता है कि उसके हाथ खाली हैं या कुछ समस्याग्रस्त
है वह, लेकिन उसकी आँखें सब कुछ स्पष्ट कर देती हैं। यह उसकी आँखों में देखने वाले
व्यक्ति की संवेदना है। इस प्रकार संवेदना व्यक्ति, वस्तु और समाज को जोड़ने का कार्य
करती है, अतः मेरी कविताओं का दूसरा मुख्य शब्द है-संवेदना।
धूप करोड़ों
किलोमीटर की यात्रा करके धरती पर पहुँचती है। वर्तमान में आदमी भी हर जगह पहुँचा हुआ
है। एक आदमी कई वर्षों बाद अचानक जीवित होकर विभिन्न मुद्दों पर बोलने लगता है। तो
दिखता है कि जीवित व्यक्ति ही जीवित संस्कृति का गढ़ और संवाहक होता है, क्योंकि उसके
पास विचार है। मेरी दृष्टि में विचार किसी को आक्रांत नहीं अपितु मजबूत और विकसित करता
है। अतः मेरी कविताओं का पहला मुख्य शब्द है-विचार।
इस प्रकार
विचार, संवेदना और प्रतिरोध की कविताएँ मुझे पसन्द हैं। ये तीनों शब्द लोक और विश्व
इतिहास के मूल हैं। इनके बिना दर्शन, कला, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, राजनीति, आलोचना
और जीवन सब अधूरे और बेकार हैं। इनसे किसी के भी मन की जाँच-पड़ताल की जा सकती है। मानव-प्रकृति
और विज्ञान की तह तक पहुँचा जा सकता है। कहने का आशय है कि इन्हीं में और इन्हीं से
सारे भाव हैं। अतः एक छोटे लिख्वाड़ के रूप में इन मित्र शब्दों के माध्यम से विसंगतियों
व उज्ज्वल पक्षों की जकड़न-पकड़न ही मैं अपना सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्व-कर्म समझता
हूँ। अपनी कविताओं द्वारा शोर-शराबा युक्त नैतिक बोध, दयनीय सीख और उपदेश आदि देकर
मैं नेताओं और धर्मगुरूओं के कार्य छीनना नहीं चाहता। निष्कर्ष रूप में यही कि कविता
मुझे निरन्तर यह अनुभूति कराती है कि मैं चाल-चालाकी
वाला हानिकारक व्यक्ति नहीं अपितु दस-बीस लोग मुझ पर विश्वास कर सके, ऐसा व्यक्ति बनूँ।
कीमतें की
जा सकती थीं
कम
या
कम की जा सकती
थीं
लोगों की जानें
अन्ततः
लोगों की जानें
ही कम हुईं!
पहाड़ पर कब
नहीं
कहर ढाती हैं
प्राकृतिक आपदाएँ
कब नहीं टूटते
हैं मकान
कब नहीं बहते
हैं आशियाना
कब नहीं पहाड़
की स्त्रियाँ डर के वजूद में
भूल जाती हैं
गीत गाना
कब नहीं मरते
हैं बच्चे बूढ़े और जवान
कब नहीं धँसता
है पहाड़,
पहाड़ पर
कब नहीं नदियों
में बहती हुई लाशें
अटक कर दिख
जाती हैं किसी पर्यटक को
या स्थानीय
जन को
कब नहीं रोता
है पहाड़
रोते हैं पहाड़वासी
कब नहीं मिला
है एक हजार करोड़ रूपये
दो हजार करोड़
रूपये
या कब नहीं
मिला है पहाड़ के लिए अरबों-खरबों रूपये
फिर कब नहीं
हुआ पहाड़ की खुशहाली के लिए हवन
और गबन
कब नहीं रोया
है पहाड़
कब नहीं पहाड़
के रोने पर
कर्ता- धर्ताओं
को मिला है अवसर
ब्रेक-फास्ट
लंच और डिनर का
कब नहीं ?
बताओ
लग रहा है
तुम्हें कैसा
पिताजी पूछ
बैठे पिंजरे में बंद चिड़िया से
जबकि पूछना
चाहिए था उनको उनसे
खुले आसमानों
में उड़ते हैं जो
चिड़िया कुछ
देर तक चुप रही
फिर बोली-अपनी
बेटी से पूछ लीजिए
बेटी मुरझाई
हुई थी
पिता जी दौड़
पड़े
खोल दिया तुरन्त
पिंजरा
फिर
इधर चिड़िया
उड़ी आसमान में
और उधर बेटी।
बचाकर रखना
अपना विश्वास
ताकि विश्वास
खोया हुआ आदमी समझ सके
विश्वास खोने
का अर्थ
बचाकर रखना
कुछ उम्मीदें
ताकि दुनिया
को खूबसूरत बनाने की उम्मीदें
कभी खत्म न
हों
बचाकर रखना
अपनी बातें
ताकि बात कर
सको तुम उदास लोगों से
मेरे दोस्त!
विश्वास, उम्मीद
और बात खोने से
खो देता है
आदमी भी
खुद को।
मधुमक्खी
खोज रही थी
उनको
वे फूल बन
गए
पानी
खोज रहा थी
उनको
वे ढलान बन
गए
समतल बन गए
चिट्ठी
खोज रही थी
उनको
वे पता बन
गए
बीज
खोज रहा था
उनको
वे मिट्टी
बन गए
चिड़िया
खोज रही थी
उनको
वे पेड़ बन
गए
आसमान बन गए
शब्द
खोज रहे थे
उनको
वे अर्थ बन
गए
वे नहीं बने
कभी भी
सिर्फ खाने-पीने
सोने और हगने वाले व्यक्ति।
एक जगह हिरणी
बैठी हुई थी
ठीक उसकी बगल
में बैठा हुआ था हिरण भी
दोनों देख
रहे थे दूर कहीं
दूर कहीं
घास के मैदान
में एक बकरी भी मुस्कुरा रही थी
बकरे ने भी
आकर उसका इन्तजार खत्म किया
इन्तजार जब
खत्म हुआ
एक दूसरे को
चूमने लगे बाघ-बाघिन
बनाने लगे
भविष्य की कोई खूबसूरत योजना
खूबसूरत योजना
को अपने दिमाग में रखकर
एक बैल ने
गाय को देखा और कहा-प्रिय
बहुत पसन्द
हो तुम मुझे
क्या मेरे
बछडे़ की माँ बनना स्वीकार करोगी?
स्वीकार करोगी
जरूर तुम
ऐसा सोचते
हुए विनम्रता से नाग ने देखा नागिन को
नागिन ने भी
महसूस किया वे बन सकते हैं सुख-दुख के साथी
फिर लिपटे
रहे न जाने कितने घंटों तक
उस दिन उन
दोनों ने जीभर प्यार किया
जीभर प्यार
करने की इच्छा से सरोबार
मोर ने अपने
नाच से प्रभावित कर दिया मोरनी को
फिर मोर भी
प्रफुल्लित हुआ
उसने जिन्दगी
में आने के लिए मोरनी का आभार व्यक्त किया
आभार व्यक्त
किया चिड़े ने भी चिड़िया का
जब दोनों ने
एक-दूसरे चुना फिर मगन हो गए प्यार करने में
फिर दोनों
ने घोंसला भी बनाया
एक बड़े छायादार
पेड़ पर
एक बड़े छायादार
पेड़ पर दृष्टि जमाए
धरती बिछी
हुई थी आसमान के लिए
आसमान भी निहार
रहा था –
अद्भुत सौन्दर्य
धरती का
इतना सब कुछ
हो रहा था पर
नहीं था किसी
के दिल-दिमाग में
या किसी के
शब्दकोश में ‘बलात्कार’
शब्द।
कहना था केवल
हाँ ही तो
यह कहते ही
बदल गई जिन्दगी भी
बह निकली फिर
पंच अमृत की
धार घर में
देर-सवेर ही
कर लिया था
समझौता उसने
और
नाम आया बच्चों
का कि बच्चों का चेहरा देख
देख बच्चों
की भूख-प्यास और भविष्य की उठा-पटक
देख पत्नी
की आँखों में उगे सपने
और अनन्त आकाश
सा दुःख
जीवन में अब
उसके
बहुत सारे
रंग हैं खुशियों के लेकिन
महसूसता है
वह अभी भी
हर दिशा से
खुद को
हारा हुआ ही।
मेरा विश्वास
अब विश्वास
त्याग चुका है
मेरे व्यवहार
की धुनें अब
कर्णप्रिय
नहीं रहीं
सहयोग
असहयोग में
बदल गया है
भावनाएँ भी
दुर्भावनाओं में
शाम का सूरज
बन-ढलकर अब मैं
निस्तेज हो
गया हूँ
मेरी हँसी-मुस्कान
क्रोध में
परिवर्तित हो गई हैं
जीवन के उद्देश्य
भी
कर चुके हैं
आत्महत्याएँ
मैं नहीं मिलता
किसी से
बस… घर में
बन्द रहते हुए
देता हूँ गाँव
समाज देश को खूब गालियाँ
कोई स्वप्न
भी नहीं है अब मेरी आँखों में
ऐसी कोई भी
खबर कभी
पहुँचे तुम
तक और तुम अलग जाओ मुझसे
इससे पहले
ही पहुँच जाना चाहता हूँ
मैं तुम तक।
परिचय
शिक्षा :
एम0ए0, बी0एड0,
यूजीसी-सेट, यूजीसी नेट-जेआरएफ, और वर्तमान में कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल से पी-एच0
डी0 कार्य अंतिम चरण में।
प्रकाशन:
कहानी, लघुकथा,
उपन्यास, आलोचना, सिनेमा और समसामयिकी विषयों में विशेष रूचि। कथाक्रम, परिकथा, लमही,
बया, कथादेश, पुनर्नवा, पाखी, दैनिक जागरण, वागर्थ, विभोम-स्वर, नया ज्ञानोदय, आधारशिला,
साहित्य अमृत, लघुकथा डॉट कॉम, कविता विहान, आजकल, उत्तरा, युगवाणी, कादम्बिनी, विज्ञान
प्रगति और अक्सर आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
इन दिनों पहले
कविता-संग्रह ‘नई दिल्ली दो सौ बत्तीस किलोमीटर’की तैयारी।
खेमकरण ‘सोमन’
द्वारा श्री
बुलकी साहनी,
प्रथम कुँज,
अम्बिका विहार कॉलोनी, भूरारानी, वार्ड नम्बर-32,
रूद्रपुर,
जिला ऊधम सिंह नगर, उत्तराखण्ड-263153
मोबाइल :
09045022156
ईमेल : khemkaransoman07@gmail.com
शानदार कविताएं हैं। ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी हैं-
मेरे दोस्त!
विश्वास, उम्मीद और बात खोने से
खो देता है आदमी भी
खुद को।
सोमन जी की कविताएं अच्छी लगीं। आपके संग्रह की प्रतीक्षा रहेगी।
अच्छी कविताएं। कवि तथा अनुनाद को शुभकामनाएं।
बेहतरीन प्रस्तुति
सभी कविताएं एक से बढ़कर एक हुईं
आने वाले काव्य संग्रह हेतु अग्रिम बधाई
राई भर बात बताने के लिए
जब पहाड़ भर शब्द खर्च किए जाते हैं
तब महान कवि
उस शिखर से गिरता हुआ प्रतीत होता है।
जब पहाड़ भर बात को
कोई छुटट्ला कवि
चुटकी भर राई के दाने में
व्यक्त कर देता है
वह शिखर की तरफ बढ़ता हुआ दिखाई देता है।
रचना :- गौतम कुमार सागर
खेम भाई की कविताएँ पानी के सोते की तरह होती हैं हमेशा ताजा कर देती हैं। अनुनाद का आभार। 🙏
बहुत सुंदर कविता लिखी हैं
बहुत सुंदर कविता लिखी हैं 🙏🙏