विष्णु खरे की दूसरी पुण्यतिथि है। किसी भी दौर में भाषा और समाज की कविता समग्रता में केवल एक कवि की ऊर्जा से संचालित नहीं होती, वह कई सहयात्रियों की यात्रा है, लेकिन कहना ही होगा कि विष्णु खरे के बिना हमारी हिन्दी का कविता का संसार कुछ बेरंग हुआ है। कहते हैं कविता पूरा जीवन मॉंगती है, विष्णु खरे ने यह उसे दिया। वे लगभग पूरा जीवन हिन्दी की चंद सहज उपलब्ध सहूलियात के विरुद्ध अपनी ही चुनी हुई कुछ अदावतों के इलाक़ों में बसे रहे। उन्होंने सदा ही हिन्दी कविता की भीतरी राजनीति और उठापटक में एक पलीता लगाए रखा, वे जब चाहते विस्फोट कर देते। उनके जाने के बाद से ही उन्हें लेकर हिन्दी में अच्छी-ख़ासी हलचलें हैं। लोग उन्हें अच्छे-बुरे में याद करना नहीं भूलते। अभी युवा कवि और रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल उन पर एक किताब लिख रहे हैं, जिसके कुछ शानदार अंश हमने फेसबुक पर पढ़े हैं। आज वरिष्ठ कवि कुमार अम्बुज ने चंद्रकांत पाटील के सौजन्य से अरुण काले की एक कविता का अनुवाद अनुनाद को सौंपा है। अनुवाद के पीछे एक प्रसंग है, जो विष्णु खरे के स्वभाव के एक दिलचस्प पहलू को खोलता है। जिस जगह, जिस परिस्थिति और जिस कार्यक्रम में जैसी कविता मंच पर एक अनन्त ऊब में बैठे-बैठे उन्होंने अनुवाद के लिए चुनी, उसमें हमारे समाज और कविता के वे खोखल मौजूद हैं, जिनमें मुँह डालकर बोलते हुए विद्वज्जन अकसर ही बहुत अश्लील सुनाई देते हैं।
हम यह प्रसंग और अनुवाद कुमार अम्बुज के प्रति कृतज्ञ होते हुए अपने पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं।
– शिरीष मौर्य
अनुवादक विष्णु खरे
अरुण काले की एक कविता का विष्णु खरे ने, किसी अंतराल में मंचीय ऊब से निजात पाने के लिए, वहीं बैठे-बैठे तत्काल, मराठी से हिंदी में अनुवाद किया और बग़लगीर चंद्रकांत पाटील जी को थमा दिया कि अब तुम्हें इसका जो करना हो करो। यह अनुवाद का काग़ज़ पाटील जी के पास कि़ताबों में दबा रह गया और उन्हें संयोगवश अभी बरामद हुआ। विष्णु खरे की हस्तलिपि में होने से भी इस अनुवाद का अपना एक महत्व है।
आज विष्णु खरे जी की दूसरी पुण्यतिथि पर इसे देखना, पढ़ना उनकी स्मृति के इस रूप को भी ताज़ा कर सकता है।
–कुमार अम्बुज
मैं गया था रिलेशन बनाने
(अरुण काले की कविता : अनुवाद -विष्णु खरे)
स्टेशन पर जीप भिजवाई थी
ड्राइवर हाथ में नामवाला गत्ता लिए खड़ा था
पहचान बतलाते ही लपककर उसने बैग लिया
सफ़र में कोई परेशानी तो नहीं हुई ?
मैंने सिर्फ़ उसका नाम पूछा
वैसी प्रथा ही है
प्रांगण में जगमग सूटबूटधारी कार्यकर्ता
गुलदस्ता देकर मुस्कराते हुए
स्वागत है बोले
फ़ैश हो जाइए! वॉश लीजिए!
मैंने कहा : बाथ ही लिए लेता हॅूं
साबुन, बाथरूम व तौलिए का थोड़ा
ही इस्तेमाल किया
जैसे फोटो खींची जा रही हो, रिस्क
क्यों लेना
चाय आधी बिना पिये ही रख दी
रूम सर्विस को थैंक्स कहा
शक्कर के प्रति अरुचि प्रदर्शित की
चिंतन, मनन और आराम के वक़्त
झपकी लग गई, समय कम पड़
गया
छोटे पॉश हॉल में कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ
एनजीओ की ओर से स्वागत किया गया
आज का कार्यक्रम दलित कवि के लिए निश्चित था
और आपको यह लाभ उपलब्ध हुआ
ज़ोरदार कविताऍं सुनाईं
ग्रेट! ग्रेट! अरे ग्रेट!
कवितापाठ समाप्त हुआ
तालियॉं बजाते हुए रसिकजन उठे
महिलाओं ने मेरी पत्नी के बारे में पूछा
सबने खटाखट गिलास उठाए
मेरे लोग इसीलिए बदनाम हैं
मेरे लिए छोटा ही बनाइएगा, हॉं!
दौर शुरू हुआ बीच-बीच में मेरी ओर ध्यान
फिर अपनी गपशप
अपनी तो लिमिट हो गई, अध्यक्ष ने डिनर का कॉल दिया
सब एकाग्रता से भोजन पर जुट गए
भुक्खड़पना न दिखाते हुए छोटे छोटे चार पीस खाए
नैपकिन से ओंठ पोंछे
बिज़ी शेड्यूल है, सॉरी!
हाथ में लिफ़ाफ़ा देकर आभार माना
खाली पेट रात में नींद आई नहीं
सुबह रूम सर्विस ने कहा, ‘जल्दी करो!’
चैक आउट टाइम नौ बजे का है
चाहिए तो ऑटो रिक्शा लाके देंगे
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(मूल मराठी से विष्णु खरे द्वारा 27 अगस्त 2008 को अनूदित)
बहुत सुन्दर
बहुत अच्छी प्रस्तुति.
अंतिम पंक्तियाँ सारे छद्म का रेशा रेशा उधेड़ती। बहुत सुंदर
अच्छा अनुवाद