अनुनाद पर पहली बार प्रकाशित हो रहे कवि राजीव कुमार इतिहास और हिंदी साहित्य के छात्र रहे। “इंडियाज़ इस्लामिक कंसर्न” पर शोध किया है। पटना और दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र जीवन में अध्ययन और अध्यापन किया। कुछ वर्षों तक (दिल्ली में नवभारत टाइम्स में कार्य किया। कविताओं और आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय उपस्थिति। विभिन्न वेबसाइट्स पर कविताऍं प्रकाशित हुईं। अभी भारत में तुर्कों के आगमन और उसके परिणाम की पृष्ठभूमि में एक ऐतिहासिक उपन्यास का लेखन कर रहे हैं।
रेखांकन : शिरीष मौर्य
स्मृतियां पलों
की
कुछ बेतरतीब बीत गई घटनाओं की
तारीखें याद रह जाती हैं
कुछ पल अंकित रहते हैं स्मृतियों में
कुछ लम्हे भुलाए नहीं भूलते
पल छिन सजीव हो उठते हैं यदा – कदा
घटित अपना पुनरावलोकन लेकर
उपस्थित हो जाता है अचानक
स्मृतियां सहेजना जीना है
बीते लम्हों को लेकर आना
उसकी परिधि और परिप्रेक्ष्य के साथ
औचक ही किसी बात – चीत के मध्य
अतीत के बर्तनों को
वर्तमान में मांजने की कला है।
रुख़सती
तुम जा रहे हो और आंखें मिला नहीं पा रहे
तुम कभी कह सकोगे क्या कि ऐतबार तुम्हें भी था
मैं नसीब को नहीं कोसना चाहती
फैसले मेरे ही गलत थे
हौसलों पर मैं ही हारी
अंदर से यकीन था
तू निकल जाएगा एक दिन
मेरे मन में ऐसा होना नहीं चाहिए था
शक यकीन की शक्ल ले रहा था
और वक़्त उसे मुकम्मल करने में लगा था
मुझे एक यकीन और है
तुम हारकर एक दिन लौट आओगे
लेकिन लमहे नाज़ुक होते हैं
बिखर जाएंगे हम दोनों के हाथ से
दुनियादारी की हवा के झोंके सख्त हैं मेरे राजदार
मुझे भी पुकारते हैं कई रास्ते
मैं किसी और बियाबान का हिस्सा हो जाऊंगी
ठूंठ पेड़ों में उग आई हरीतीमा की झलक में
मेरे निशां यहां नहीं होंगे कल
तुम मुझे ढूंढ नहीं पाओगे
वजह बताकर शर्मिंदा न होना
तुम कुछ और बोलते रहे
चेहरा कुछ और बयान करता रहा
किसी वादे की अब ज़रूरत नहीं।
बदली हुई पहचान
एक कसक सी चुभी रह गई होगी
जब लंबे अरसे बाद आपको
एक दिन अपनी पहचान बदलनी पड़ी
कितना कुछ बिखर गया होगा अचानक
जिन बंधनों को
अभेद्य और दुर्जेय समझा जाता रहा
आपके होने मात्र से जहां आश्वस्ति सी थी
विमुख होते ही संदर्भों से
छद्म सा लगता है सब कुछ।
जीने लगती है एक परंपरा
किसी की सदेह उपस्थिति से
जुड़ जाते हैं समग्रता के सारे मिथक
जब मुश्किलों में बढ़ते हैं अपनों के हाथ।
तकलीफ तो बहुत हुई होगी
पीछे मुड़कर देख नहीं पाता आदमी
घनीभूत स्मृतियां घुमड़ने लगें बेतरह
बौछार के बदले पश्चाताप बरसता है आंखों से
कहा नहीं जा सकता
फैसला भौतिक जरूरतों ने लिया
या कहीं कोई रोशनी दिख नहीं रही थी।
पर जब आप थे
तो बसंत था
नहीं थे आतप
शांत था जंगल
हवाओं ने तहज़ीब छोड़ी नहीं थी उन दिनों।
आपने कुछ पैगाम ज़रूर छोड़ा होगा
आखरी वक़्त के असलहे
मुरादें पूरी नहीं होती, किस्म कोई भी हो
मुकम्मल जहां बना नहीं पाता आदमी।
कुंठा और विषाद की शक्ल में होते हैं
हारे हुए मंसूबे
और हिजरत करते हुए सब ऐसे ही छूट जाता है।
तुम रहोगे समाप्ति पर भी
कुछ उदास पल गिर जाएंगे बेतरतीब गुंथे हुए
असहज दिनों से निकलकर
छलक कर गिर पड़ेगी ढेर सारी उम्मीद
एक दिन सब कुछ ठीक हो जाने की
मृग की आंखों से ढलक जाएंगे कुछ अश्रु – जल
मरीचिका सहेज कर रख लेगी बूंद
तुम्हारी अंजुली से सरसराकर एक दिन
बिखर जाएगा मोह जगत का
छले गए उद्दाम प्रेम के ज्वार से
सरक जाएगी एक निश्छल प्रेमी की निष्ठा
एक दिन तुम थोड़ा सा बाकी रह जाओगे
अंतहीन प्रयाण पर निकलते हुए
छूट गए इन हिस्सों से यहीं आसपास
पटकथा को जीवित रखेंगे कुछ तेजस्वी पात्र।
लिबास और गूंज
देश और काल पर काबिज लोग
अभिनय – कला से करते हैं चमत्कृत
रोज़ रचते हैं एक नई पटकथा
सजता रहता है रंगमंच नए नाटकों के साथ
कभी पात्र वही रहते हैं
कभी दिल दहला देने वाली पार्श्व ध्वनि के बीच
अवतरित होते हैं नए किरदार
मसखरे आस में लगे रहते हैं
जब बोझिल होगा दृश्य – विधान
उनका भी आवाहन होगा
कहानी में दिलचस्प मोड़ सुनियोजित होते हैं
अवाम देखता रहता है आंख फाड़े
हर क्षण परिवर्तित व्यूह रचना निर्देशक की।
कुछ किरदार मरने के बाद लोक प्रिय होते हैं,
कुछ किरदार लोकरूचि में
मरने की कला को अंजाम देते हैं
गश खाकर कटे पेड़ की तरह
मंच से विलुप्त होते हैं किरदार
अलोम हर्षक करतल ध्वनि
दृश्य चलता रहे तो आंखें हटती नहीं,
सियासी दांव पेंच और अर्थनीति
दृष्टि कभी – कभी बाधित भी करती है ।
हम जनतंत्र के आम जन नहीं रह गए
कला मर्मज्ञ होते जा रहे
स्त्री पात्र खड़ी होकर
हमारी कला के निकष को और पुष्पित करती है
एक स्त्री चुनौती देती है
तालियां एक छोर से उठती हैं
गूंज रहती है देर तक दीर्घा में
दूसरी स्त्री लड़ते हुए आहत होती है
दूसरे छोर से क्रंदन धीमा धीमा
रुदन किसी का भी हमें व्यथित नहीं करता
दहाड़ मारती स्त्री में खोजने लगते हैं सौन्दर्य
हमारी नएपन की चाहत ढूंढ लेती है
अनावृत कला और रहस्य मयी मुस्कान
संवेदनाएं धीरे धीरे बदलती गई हैं
रूचि को ही ध्येय बना लिया हमने।
रोज़ बदल जाते हैं पात्र
रोमांच पैदा करने की योग्यता के अनुसार
उनके जन्म स्थान भी अलग अलग होते हैं
गरीब प्रदेश का पात्र हास्य पैदा करता है
मरने पर आह भी
बड़े शहरों के पात्र अपनी वाक पटुता से
दर्शक का मन मोह लेते हैं
कला के पारखी
टूटी फूटी भाषा के पात्रों के
कला सौन्दर्य पर रीझते रहते हैं
अच्छी वेश भूषा और ऊंची आवाज़
कला के उत्कर्ष हैं अब
लिबास और गूंज
लेते जा रहे आदमी की शक्ल।
भीड़ में अपनी रूह टटोलते
बहुत मुश्किल होता है
उन संभावनाओं को खत्म करना
बहुत आंखें जिन पर टिकी होती हैं
एक बियाबान भी जीता है
फूलों और हरीतिमा की आस में।
आसान नहीं उस ज़िन्दगी को खत्म करना
जिसने अभी अभी तक देखे हों
अच्छे समय के सपने
तुमने अचानक खींच भी ली जीवन डोर
वह गिरेगा अधूरी उम्मीदों के साथ
इतना कुछ बिखर जाय अगर
तो बचे हुओं के लिए समेटना आसान नहीं होता।
ये कौन लोग हैं जो
हारे हुए अपने ही युद्ध में
करते हैं निर्जन सड़कों और ट्रामों में सफर
भीड़ में अपनी रूह टटोलते
सपना देखते हैं किसी दफ्तर में काम करने का
जिनकी पगार चुरा लेती है अर्थ व्यवस्था
और जवानी रीत जाने पर भी
बसता नहीं जिनका घर
अंकुरता नहीं कहीं प्रेम
देह बह जाती है पसीने में।
आसान नहीं है इन सपनों को भी खत्म करना
इन सूख गई उम्मीदों को भी
आसान नहीं ज़िन्दगी से खारिज करना
जो वर्गीकृत है हाशिए पर मृतक समान
वह भी संदर्भ में है।
अदला बदली हुई क्या
जब संतप्त थे तुम्हारे पड़ोस में सब
किसी अज्ञात रास्ते पर अंतहीन चलते हुए
देह की अजन्मी प्यास से
जब बर्बरता परोस रही थी भूख
और रोग लील रहा था कीमती समय
कला और खुशबू की पराजय से
जीवन किश्तों में मिलने का दुख लिए
मंदिरों में हाथ उठाए प्रार्थना रत सूखे होंठ
मंत्रोच्चारण की जंगल की मर्मांतक ध्वनि से
अदला बदली हुई क्या
स्पर्श की तृष्णा से
यौवन की मृत्यु से
इतने दुष्परिणाम फिर किन संततियों के थे
चलते रहने को अभिशप्त पीढ़ियां
गायब क्यों होती जा रहीं।
***
राजीव कुमार
बेगूसराय (बिहार)
वर्तमान में भारत सरकार में संयुक्त सचिव के रूप में कार्यरत हैं।
बहुत बढ़िया
बहुत सुंदर
भावनाओं की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
दिनकर की धरती से आपको सलाम! यूँ ही अपना कशमकश भरी उपस्थिति बुलंद करते रहिए! आभार
शुभकामनाएं
बहुत अच्छी कविताये।
लिबास और गूंज लेते जा रहे आदमी की शक्ल….वाह
सभी कवितायें बहुत संवेदनशील।
बधाई
बहुत सुन्दर कविताएँ।