हिन्दी में ब्लॉगिंग के मायने ठीक वही कभी नहीं रहे, जो अंग्रेज़ी में हैं या जो उसके तकनीकी मायने भी हैं। हिन्दी के लोगों ने उसे निजी स्पेस की तरह इस्तेमाल न करके सामूहिक जगहों में बदल दिया है, जहॉं एक बड़ा हिस्सा साहित्य और उससे जुड़ी गतिविधियों का रहा। हिन्दी में ब्लॉग, कोरी ब्लॉगिंग न रह कर ब्लॉगपत्रिका बने। अनुनाद ने भी 2007 में इसी तरह आरम्भ किया था। हिन्दी में साहित्य से जुड़े ब्लॉग्स के इतिहास और संघर्ष पर अब शोध हो सकता है और इस पूरे परिदृश्य में अरुण ने ब्लॉग को साहित्य की बड़ी पत्रिका में बदल देने का चमत्कार दरअसल कर दिखाया है। मुद्रण के निकट संसार से तुलना करूँ तो आज समालोचन की वैसी प्रतिष्ठा है, जैसी पहल, तद्भव आदि की रही है। अरुण की एकाग्रता, समर्पण और सम्पादकीय विवेक से सम्भव हुई इस प्रिय पत्रिका का आज जन्मदिन है। 12 नवम्ब्र 2010 को जन्मा समालोचन दस वर्ष का हो गया है। सुशील कृष्ण गोरे के इस लेख के साथ अनुनाद अपने भाई समालोचन को बधाई देता है।
“कई दफ़ा ख़याल आता है कि इन वर्षों में शायद आप अपने लेखन पर ज़्यादा फ़ोकस कर सकते थे। अपने मन के काम कर सकते थे। (ज़्यादातर लोग यही करते हैं ) लेकिन आपने एक मुश्किल और ज़िम्मेदारियों से भरी राह चुनी…और यह हिंदी बोलने/बरतने वालों के लिए ख़ुशी की बात है कि आपने साहित्य और बौद्धिक विमर्श की यह ज़िम्मेदारी बहुत क़ायदे और नफ़ासत से निभाई है। बाक़ी सब तो उस धूप का आनंद ले रहे हैं जो आपकी मेहनत से उगी है।“
नरेश गोस्वामी
(प्रतिमान : सहायक संपादक)
“समालोचन एक दरवाज़ा है, एक कसौटी और भरोसेमंद दोस्त.”
अनुराधा सिंह (कवयित्री, अनुवादक)
21वीं सदी अभी दसवाँ बसंत देख कर कुछ आगे बढ़ रही थी। यह वह समय था जब आती हुई सदी सहमी-सहमी उन सपनों को तामीर करने की जमीन तलाश रही थी जिन्हें पिछली सदियों ने देखा था। अतिशय जिम्मेदारियां किसी को भी सहम कर चलना सिखा देती हैं। 20वीं सदी के ऊपर भी जिम्मेदारी थी। उसने भी एक देश के भीतर उठते आजादी के ख्वाबों और इरादों को एक संगठित संघर्ष में बदलने की जिम्मेदारी से अपनी यात्रा शुरू की थी। उसके कंधों पर पिछली सदियों की रेनेसां, विज्ञान, तर्क, स्वाधीनता, समता, बंधुत्व, आधुनिक राष्ट्र राज्य, लोकतंत्र, औद्योगिक क्रांति आदि बड़े आख्यान थे और उनका आत्मबोध था।
हमारी सदी के पास दो महायुद्धों का गुजरा हुआ दु:स्वप्न था। शीतयुद्ध की खरोंचे थीं। बँटी हुई दुनिया थी। नाटो, वारसा पैक्ट के गहरे साए थे। परमाणु हथियारों का आजमाया हुआ भयानक डर था लेकिन हमने देखा है कि डर के साथ डर का व्यापार और वाणिज्य भी था। हेंस मार्गेन्थाउ, हेडले बुल एवं केनेथ वाल्ट्ज ने इस परमाणु संस्कृति के बढ़ते प्रभाव को विश्लेषित करते हुए माना है कि परमाणु आयुधों का जखीरा इसलिए बढ़ता जा रहा है कि सभी को लगता है कि वह जरूरत पड़ने पर शत्रु को उसी की भाषा में जवाब दे सकता है। इसे रक्षानीति में शक्ति-संतुलन यानी बैलेंस आफ पॉवर कहा गया। ये सभी चर्चाएं 20वीं सदी के आखिर में आते-आते मुख्य सुर्खियों से बाहर हो गई थीं और उनके स्थान पर पर्यावरण संकट, प्रौद्योगिकी, भूमंडलीकरण आदि से जुड़े नए विमर्श सतह पर आकर दुनिया का ध्यान खींचने लगे थे।
21वीं सदी अपने एजंडे पर कार्यान्वयन शुरू करने जा ही रही थी कि उसकी टक्कर विश्व आर्थिक संकट 2008 से हो गई। भारत की अर्थव्यवस्था उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण के अपने प्रयोगों और परीक्षणों से गुजर रहा था। वह मुक्त बाजार द्वारा संचालित नई अर्थव्यवस्था के नए अनुभवों का समय था। चारों तरफ मार्केट, मॉल, मल्टीप्लेक्स, मनोरंजन की नई धूम थी। 21वीं सदी मार्का एक नए उपभोक्तावाद का जन्म हो रहा था। सब कुछ एक नई ऊर्जा और नई उम्मीद की तरंग पर बढ़ रहा था।
तमाम बदलावों से मुखातिब सदी के इस पहले दशक की अवधारणा एवं संरचना दोनों के स्तरों पर चल रही गहमागहमी के बिल्कुल पार्श्व में समालोचन का भी जन्म होता है। उस समय भारत में इंटरनेट का प्रचलन बढ़ रहा था। कुछ प्रारंभिक हिंदी चिट्ठा उर्फ़ हिंदी ब्लॉग बन भी गए थे। सोशल मीडिया का उभार हो रहा था। अरुण देव का जेएनयू में खरीदा हुआ कंप्यूटर एकदम तैयार था समालोचन का श्रीहरिकोटा बनने के लिए – जहां से डिजिटल आकाश में अपने रंग और अपने ढंग की एक बेजोड़ वेब पत्रिका का 12 नवंबर 2010 को सफल प्रक्षेपण हो सका। इसका श्रेय अरुण देव की हिंदी में ‘हिंदू’ जैसी पत्रिका संपादित करने की दीवानगी और वज़ीफे से खरीदे गए उनके कंप्यूटर दोनों को जाता है।
दीवानगी और जुनून से किसी प्रोजेक्ट का जन्म तो हो सकता है लेकिन उसकी लगातार परवरिश करते रहना, उसे प्रासंगिक बनाए रखना, उसकी विश्वसनीयता की धार बचाए रखते हुए लोकप्रिय भी बनाए रखना कोई सहजसाध्य उपलब्धि नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि हिंदी के मठों, पीठों और गुटों के बीच से बचते हुए पत्रिका को उसके गुटनिरपेक्ष चरित्र में विकसित करना अरूण देव के लिए वाकई बहुत टेढ़ी खीर रही होगी। लेकिन सृजन की यह एक अनिवार्यता है जिसे समालोचन अपनी रचनात्मक नैतिकता के बल पर निभाता रहा है।
वह सृजनशीलता की बहुलता और विविधता में विश्वास करता है – सत्ताओं एवं संहिताओं में नहीं। यही वज़ह है कि यहां केवल हिंदी का शुद्ध साहित्य ही नहीं है, सिनेमा, संगीत, कलाएं, दर्शन, इतिहास, वैचारिकी, सामाजिकी, बहस, चिंतन, यानी पूरे सांस्कृतिक विमर्श की मौजूदगी है।
आप उस समय के राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य के किसी भी कोने में खड़े होकर देखें तो गहरे रूपांतरणों से गुजरते समय में संस्कृति, साहित्य, कला और उससे जुड़े तमाम सह-विमर्शों के आयतन वाला प्रकाशन शुरू करना भी कहीं न कहीं जरूर एक सही समय पर अपने लिए जिम्मेदारी की एक भूमिका तलाशनी रही होगी।
मैं आज समालोचन पलटकर पीछे देखे रहा था। 12 नवंबर 2010 की पहली पोस्ट मानो उसी जिम्मेदारी को समालोचन की फ्लैगशिप थीम के रूप में प्रस्तुत करती है। इस थीम पर ग़ौर करने की जरूरत है। कई बार ऐतिहासिक कृतियों की नक्श एवं इबारतें कृतिकार के हाथों यूं ही लिख जाती हैं, सँवर जाती हैं। मुझे मालूम है 12 नवंबर 2010 की वह थीम भी अरुण के हाथों ऐसे ही लिख गई होगी। इस थीम का नाम था – मैं कहता आँखिन देखी । इस पोस्ट में समालोचन के यशस्वी संपादक अरुण देव ने हिंदी के मूर्द्धन्य चिंतक आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय का इंटरव्यू किया है जिसका उन्होंने शीर्षक दिया था – साहित्य का भविष्य और भविष्य का साहित्य।
आप देख सकते हैं कि समालोचन का लोकार्पण ही कबीरवाणी से होता है। यह सीधे तौर पर स्पष्ट कर देता है कि सच के साथ खड़े रहने की उसकी अंत:प्रेरणा ही उसकी उद्घोषणा है। यह सच चाहे साहित्य का हो, विचारों का हो, अनुषंगी प्रतिबद्धताओं का हो या फिर मूल्यों से टकराव और मूल्यों में बदलाव के लिए जरूरी सच क्यों न हो, इन सभी पर निर्द्वंद्व एवं निष्पक्ष रूप से रचनात्मक हस्तक्षेप का एक महत्वपूर्ण स्पेस है – समालोचन। इस पर सृजन के सभी विधागत नवोन्मेषों की बहुत शालीन और कलात्मक प्रस्तुतियां हैं। अपने स्तरीय आस्वाद एवं चाव से कहीं विचलित न होना समालोचन की सबसे ख़ास पहचान है जिसके पीछे उसी का अपना एक विशिष्ट सृजन-संस्कार और विवेक काम करता है।
समालोचन की लोकप्रियता अलग प्रकार की है। वह ग़ैर-पारंपरिक प्रकार की है। उसने लोकप्रियता के नए प्रतिमान रचे हैं। उसने अपनी सभी प्रस्तुतियों को हर बार अपने बेंचमार्क पर प्रस्तुत किया है। नयापन और निष्पक्षता दो ऐसे बेंचमार्क हैं जिसके कारण आज समालोचन के लिए अपनी कहाँ से शुरू करके कहाँ तक पहुँचने की यात्रा तय कर पाना संभव हो सका है।
यह बात भी नोट करने की है कि समालोचन ने हिंदी में संपादन को भी काफी हद तक पुनर्परिभाषित करने का काम किया है। पहला तो यह कि एक नए प्रकार के वर्च्युअल माध्यम में किसी हिंदी वेब पत्रिका को सफलतापूर्वक प्रतिष्ठित करना ही अपने आप में एक नया प्रयोग है और एक नई चुनौती भी। समालोचन ने इसे बखूबी कर दिखाया है।
इस माध्यम में संपादक ही प्रूफ पढ़ रहा है, वही पेज बना रहा है, वही आलेखन, रेखांकन, चित्रांकन, आर्काइव भी कर रहा है। यानी टेक्ननोलॉजी पर पकड़ भी संपादक की नई अर्हता है। अरुण देव ने अभी हाल ही में किसी साक्षात्कार में कहा है कि वे प्रतिदिन 5-6 घंटा समालोचन को देते हैं। अरुण देव भी गृहस्थ हैं, नौकरी-पेशा और परिवार वाले आदमी हैं, ऐसे में आप अंदाज लगा सकते हैं कि वे किस प्रकार घर-परिवार के साथ-साथ पत्रिका के लिए अपना कितना समय और श्रम लगा रहे होंगे। वे अंतर्द्वन्द्व के एक अन्य स्तर पर भी खुद से जूझ रहे होंगे। यह वे ही जानते होंगे। मैं तो इतना भर जानता हूँ कि केवल और केवल समालोचन के कारण किस प्रकार एक बहुत महत्वपूर्ण कवि अब मुख्यत: एक संपादक के रूप में एक जरूरी समय में अपने हिस्से की जिम्मेदारी पूरी हिकमत से उठा रहा है।
लेकिन, कुछ भी हो अरुण देव के संपादक और उसकी दीवानगी ने पत्रिका को अपनी एक वज़ूद तो दे ही दी है।हैप्पी बर्थ-डे समालोचन !
सुशील कृष्ण गोरे
लेखक, अनुवादक
sushil.krishna24@gmail.com
हमेशा की तरह ही सुशील जी की कलम ने अपना जादू बिखेरा है। साधुवाद।
सुशील जी की कलम जब चलती है तो अपना जादू बिखेरती है। शानदार आलेख। साधुवाद।
गोर जी,हिंदी पत्रिकाओं के विलुप्त होने के बाद ब्लॉग का लेखन अत्यंत पुण्य कार्य है।
शुक्रिया, शिरीष जी। सुशील जी का आलेख सुंदर है।