अग्रज कृष्ण कल्पित ने आज कहीं लिखा है कि युवा कवि विमल कुमार साठ के हो गए। एकबारगी परिहास-सी लगती यह बात दरअसल कविता में विमल कुमार की ऊर्जा की ठीक-ठीक शिनाख़्त करती है। विमल जी को मैंने 1992 में उनके प्रथम संग्रह सपने में एक औरत से बातचीत से जाना। उस बातचीत से लेकर इधर उनकी विकल राजनीतिक कविताओं तक उनका व्यक्तित्व देखें तो पाऍंगे कि उनमें वह आक्रोश और एक्टीविज़्म भरपूर है, जिसे आप किसी युवा कवि में रेखांकित करते हैं, साथ ही उतना ही विकल एक रूमान किंवा अतीव भावयोग प्रेम के प्रति उनमें सदा जीवन्त दिखाई देता है। बिलकुल अलग आस्वाद की इन कविताओं के प्रकाशन के साथ अनुनाद उनके जन्मदिन पर उन्हें सादर-सप्रेम बधाई देता है।
देह की कातर प्रार्थनाएं
उसने मुझे भी बहुत परेशान किया है
कई बार मैं सीढ़ियों से गिरते गिरते बचा हूँ
कई बार फिसला भी हूँ
गुसलखाने की काई से
कई बार लगा कि मैं जंगल में भटक जाऊंगा
कई बार तो लगा बाघ मुझे जिन्दा नही छोड़ेगा
किसी सुरंग में अटक जाऊंगा
उसने मुझे गहरे अँधेरे में रखा है
वह इस तरह मुझे पुकारती रही
बेचैन करती हुई रात के सन्नाटे में
उसने वाकई मेरा जीना हरम भी किया है
मैंने भी कहा उस से
इस दुनिया में मुझे भी रहना है
आखीर कब तक मैं तुम्हारे किस्से छिपाता रहूँगा
बिस्तरों से बचकर
कब तक यह झूठ बताता रहूँगा
मछलियाँ मेरे नसों में नही मचलती
कोई धुंआ नही उठता नही मेरे भीतर
कोई गंध मुझे नहीं खींचती अपने करीब
लेकिन हर बार वह मुझसे करती रही प्रार्थनाएं
मैंने कहा भी
— यह सुख नहीं है
कितनी बार इसमें अपमान छिपा होता है
कितनी बार झूठ
कितनी बार एक विवशता
कितनी बार यह एक दायित्व भी था
कितनी बार एक रस्म
लेकिन इसने मुझे जीवन भर पुकारा है
कहा है —
मैं तो एक प्यासा कुआं हूँ
जब वह जर्जर हो गयी
खंडहर में बदल गयी
हड्डियों में ज्वर फैला
शरीर में थकान और दर्द
तो उस पर दया भी आयी
उसे दवा भी देनी पडी
चीरे भी लगे उसके भीतर
खून भी बहा
प्लास्टर भी हुआ
वह अब शांत हो गयी है
उसने गुर्राना छोड़ दिया है
लेकिन मैं उसे कैसे भूल सकता हूँ
कि उसने मुझे कितना तबाह किया है
उसे त्याग भी नही सकता था
जब मैं जाऊंगा इस दुनिया से
तब वह भी जायेगी मेरे साथ
आग में भस्म हो जायेगी
जो खुद आग लगाती रही जीवन भर
मेरे भीतर .
और उसकी लपटें बुझाने के लिए भटकता रहा .
उसकी अस्थियों में
उसकी कहानी को नही खोजा जा सकता है
आ रहा हूँ तुमसे मिलने
आ रहा हूँ
तुमसे मिलने आज की शाम
हाथों में टूटे हुए पंख लिए
और पीठ पर कई ज़ख्म लिए
पसीने से लथपथ
और खून से लहूलुहान
पांव में छाले लिए
आ रहा हूँ
पार्क की बेंच पर
तुम्हारे साथ बैठकर
सुस्ताने के लिए
थोड़ी देर
हालाँकि भीतर से
अब कोई इच्छा नहीं रह गयी है
तुमसे मिलने की
वो उमंग और उत्साह भी
अब ख़त्म हो गया है
पर आ रहा हूँ तुमसे मिलने
क्योंकि तुमने मुसीबात में मुझे पुकारा है
ऐसे में आना ही चाहिए
एक इंसान को
किसी के काम
अपने मतभेदों को भुला कर
कोई दर्द है तुम्हारे पास अभी
कोई बेचैनी
कोई छटपटाहट
कोई चीख सीने के भीतर
मैं उनसब आवाजों को सुनकर आ रहा हूँ तुम्हारे पास
अब कुछ भी नहीं है उम्मीद तुमसे
उम्मीद के कारण ही दुःख है
इसलिए बिना किसी उम्मीद के आ रहा हूँ
कोई रौशनी मिल जाये तो ठीक है
वर्ना अँधेरे में ही चला लूँगा अपना काम
कोई धूप खिल जाये तो उत्तम
कोई फूल खिल जाये तो ठीक
नहीं तो उसके बगैर भी ये ज़िन्दगी गुजर लूँगा अब
आक्सीजन न हो
न हो पानी
न हो बादल
न हो आसमान
तो कोई फर्क नहीं पड़ता
खुद को अब समझ लिया है मैंने
इसलिए तुमसे मिलने आ रहा हूँ
कल शाम पांच बजे का समय दिया है तुमको
मिलेंगे तो एक कप पीयेंगे चाय तुम्हारे साथ
उसी दूकान पर उसी नुक्कड़ पर
जहाँ से हर बार एक जूलूस निकलता रहा
कुछ गप्पे भी करेंगे
याद करेंगे अपने कुछ बीते हुए पल
मैं आ रहा हूँ तुमसे मिलने
हर हालत में
जबकी घायल हो गया हूँ इनदिनों
मेरी आवाज़ भी लगभग चली सी गयी है
चला नहीं जाता मुझसे घुटने के दर्द के कारण
पैन किलर खा कर जी रहा हूँ आजकल
फिर भी मैं आ रहा हूँ
क्योंकि नहीं आया तुमसे मिलने
तो तुम्हे तकलीफ होगी
तुमने भी मेरी मदद की है
मेरे गाढे दिनों में
मैं नहीं चाहता कि तुम्हे कोई दुख हो
जब पहले से ही इतना दुख है तुम्हारे पास
मैं आ रहा हूँ तुमसे तुम्हारा हाल लेने
बच्चे कैसे हैं तुम्हारे
उन्हें नौकरी मिली या नहीं
तुम्हारे भाई के मुक़दमे का क्या हुआ
तुम्हारी बहनों की शादी हो गयी
तुम्हारी मा के आपरेशन का क्या हुआ
मैं आ रहा हूँ तुमसे मिलने
कि जान सकूँ थोडा अपने समय का इतिहास
तुमसे मिलकर जान सकूँ
अपने शहर की नदी को
देख सकूं कोई घड़ी
जो अभी भी टिक टिक कर रही है
आ रहा हूँ
तुम उसी जगह इंतज़ार करना
जहाँ तुमने पहली बार इंतज़ार किया था
ठीक से सड़क पार करना
क्योंकि अब भीड़ बहुत हो गयी है शहर में
और बाज़ार भी खुल गएँ है
कई शोपिंग माल
हत्याएं भी होने लगी हैं दिन रात
और बलात्कार कीइतनी घटनाये
महंगाई पहले से अधिक
आ रहा हूँ तुमसे मिलने
अपनी मृत्यु से कुछ साल पहले
एक बार फिर अपने वक़्त से लड़ने के लिए
आखीर अकेले कब तक निहत्थे
कोई लड़ सकता है
इस दुनिया कोई लडाई
संकट में था जीवन, प्रेम में कोई द्रव्य नहीं था
1
सीढ़ियां थीं
तालाब के
भीतर ही भीतर
फूल सारे कमल के प्यासे थे
2
बस किसी की पुकार थी
जलकुंभियों में
नसों में दौड़ती बिजलियाँ
छटपटाती हुई
बिस्तर पर न जाने कब से
मछलियां
अपने कहानी सुनाती हुई
3
रेत की आंधी थी
प्रेम था
या नहीं
भाषा
संकेत
मौन
बचा था
कुछ भी तरल नहीं था
पिघलता हुआ
कुछ भी रिस नहीं रहा था
पोरों में
दर्द बहुत था
जोड़ों में
4
यह जीवन भी
किसी मृग मरीचिका से कम नही था
पूरी कर ली जीवन यात्रा
तुम्हारे प्रेम से वंचित रहने का अब
कोई दुःख नहीं था
5
नहीं कह सकता था
जो मुझे कहना चाहिए था
नहीं लिख सकता था
जो मुझे लिखना चाहिए था
नहीं देख सकता था
जो मुझे देखना चाहिए था
फिर कैसे कह सकता था
कि करता हूँ प्रेम तुमसे
बिना कहे बिना लिखे
बिना सुने
बीत गए सारे पल
निकट अब मृत्यु के
सिर्फ एक छाया बची है
अंधेरे में
जीवन उसी में
एक कठपुतली सा
कभी कभी हिलता डुलता है
6
नहीं नहीं बिल्कुल नहीं
दिखता नहीं प्रेम कहीं
वीरानी सी कोई वीरानी है
किस पत्थर पर बची निशानी है
तुमने कभी नहीं लिखी
मेरे जीवन मे
अपनी कहानी है
7
नही कर सका स्पर्श
तुम्हारी देह का मानचित्र
नही जा सका किसी गुफा में
जंगल के बाहर खड़ा हूँ
पत्तों पर लिखा हूँ
अतृप्त कामनाएं
छोड़ आया हूँ दूर
बहुत दूर
अपनी वासनाएं
8
इतनी आपा धापी में बीता जीवन
कहीं कोई द्रव्य नही है
बहता
दुख इतना मैं अपने शरीर मे सहता
शोर भरे घर में
अब कुछ भी श्रव्य नहीं है
9
इतनी चीख पुकार में
चारों तरफ खींची तलवार में
क्या बचा प्यार में
जीवन बीता
व्यर्थ अभिमान में
अहंकार में
10
रोशनी के पीछे
भागते हुए लोग थे
चाँद को
जुगनुओं को
तितलियों को
पकड़ने के लिए
दौड़ते
रोज यश इधर उधर
बटोरते
आत्मनिर्लिप्त
दरवाजों पर
आत्म मुग्ध
खिड़कियों पर
प्यार लिखा नही होता है
11
किस सुख की तलाश में था मैं
कभी वृक्ष की ओट में
कभी घास में था मैं
जीवन भर
एक अजीब प्यास में था मैं
प्रेम की उजास में था मैं
या तिरस्कार में था मैं
12
छूट गयी नौकरियां थीं
टूट गयी सारी खिड़कियां थी
चीख रही झोपड़ियां थीं
बिलबिला रहे थे लोग
चिल्ला रहे थे लोग
एक दूसरे पर झल्ला रहे थे लोग
जीवन में जीवन होता
फिर कोई द्रव्य होता
तब कोई पास होता
तब कोई हंसता
तब कोई रोता
पास बिस्तर पर कोई सोता
13
उन्नत वक्ष पड़ गए थे ढीले
नाभि प्रदेश में पीड़ा थी
कटि द्वार पर उदास लकीरें
न कोई जलती मोमबत्ती
न कोई तूफान
न कोई स्वर लहरियां
न शंख ध्वनि
जीवन सत्य का कोई संधान नही था
सुख का भी कोई ज्ञान नही था
14
फिर से जीना था
जीवन
फिर से करना था
प्रेम
फिर से करना था अवलोकन
फिर से सीखना था
लिखना
फिर से रियाज करना था
फिर से ढंकना था मुख
अग्नि पुष्प में
फिर से आलिंगनबद्ध होना था
जाड़े की धूप में
फिर से खोजना था प्रेम
जंगल मे
समंदर में
कुछ भी नहीं बचा था
अपनी त्वचा के
अंदर में
15
प्रेम एक दर्पण में
स्मृति का एक चिन्ह है
कांच पर बनावाष्प का बिंब है
एक कल्पना है
जो अमूर्त है
खरगोश को पकड़ना मना है
****
आपका ब्लॉग बहुत ही अच्छा है
आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा, और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिस करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें.
Shabd.in
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बहुत सुंदर कवितायेँ.