हिन्दीसाहित्य,न्यू मीडिया एवं प्रकाशक/प्रकाशन : कुमार अनुपम- (साहित्य अकादमी,दिल्ली)
साक्षात्कार
मेधा नैलवाल – हिन्दी और न्यू मीडिया के संबंध को आप किस तरह देखते हैं?
कुमार अनुपम – मीडिया
ने जब अपना विस्तार किया है न्यू मीडिया के रूप में और इसमें बहुत सारी ऐसी तकनीक
जुड़ गयी है, जिससे हिन्दी का भी विस्तार हो रहा है। किसी भी
प्रकार की सामग्री के लिए हिन्दी सबसे बड़ा स्रोत है, जिससे कोई अछूता नहीं रह पा रहा है,भले ही वह विज्ञापन
हों, फिल्म हों, तमाम धारावाहिक हों, कार्टून चैनल हों और भी ढेर सारी चीजें – इन सबमें हिन्दी का अभी जिस
तरह से विस्तार हुआ है और न्यू मीडिया में जिस तरह से फेसबुक एक बड़े माध्यम के रूप
में उभरा,ब्लॉग्स उभरे और कई पोर्टल्स आ
गए हैं या पॉडकास्ट आ गया है तो इन सब के आने से जो व्यक्ति की अभिव्यक्ति थी, वह ज्यादा लोकतान्त्रिक
हुई है। पहले क्या था कि मीडिया हाउसेस की ही मोनोपॉली हुआ करती थी कि क्या छापना
है,क्या सुनाना है, लेकिन न्यू मीडिया के आने से उसमें एक बड़ा स्पेस निर्मित हो गया है। इसमें
सिर्फ हिन्दी ही नहीं, तमाम भारतीय भाषाओं को
बड़ा विस्तार मिला है। हिन्दी को लेकर मैं इसलिए ज्यादा आशान्वित हूँ, क्योंकि यह दुनिया में
तीसरे स्थान पर बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है और इतने बड़े भाषा वर्ग को जितना
अधिक से अधिक प्लेटफ़ॉर्म मिले वह बेहतर ही है,हिन्दी के लिए अच्छा है। दरअसल
साहित्य ने भी अपने बहुत सारे रूप बदले हैं। अभी साहित्य में भी नयी विधाओं का विस्तार हो
रहा है। पहले कविता,कहानी,उपन्यास,निबंध- इन्ही विधाओं तक साहित्य सीमित था, किन्तु पिछले दो दशकों में तमाम ऐसी विधाएं आई हैं, जो पहले थीं, लेकिन उनका उस तरह से
विकास नहीं हो पाया था । अभी लगातार उस
दिशा में कार्य हो रहा है और पाठकों की इस
ओर रुचि बढ़ी है। जैसे अभी ट्रेवेलॉग खूब
पढ़े जा रहे हैं या डायरी पढ़ी जा रही है।
ये जितने भी अभिव्यक्ति के माध्यम हैं (कि मीडिया तो मूलतः माध्यम ही है) जितने भी माध्यम ऐसे उभरे हैं उसमें संवाद आया
है कि आप इंटरव्यू ले रहे हैं । इंटरव्यू
लेना भी कला और साहित्य का बहुत ही महत्वपूर्ण माध्यम बन गया है। इस पर काफी लोगों द्वारा काम भी हो रहा
है। अभी एक पुस्तक आई है ललित कला अकादमी से व्योमेश शुक्ल की, उसमें राय
कृष्णदास का इंटरव्यू किया गया है या अखिलेश पर किताब आई । इनमें एक दूसरे से
संवाद था और उसमें से प्रश्न हटा कर उसे
जिस तरह से किताब का रूप दिया गया है, उससे चीज़े बदल रही हैं, उनका विस्तार हो रहा है और मेरे हिसाब से यह एक अच्छी
स्थिति है।
मेधा नैलवाल – सोशल मीडिया पर लेखकों की उपस्थिति से पाठकों की संख्या पर क्या
फर्क पड़ा है?
कुमार अनुपम- लेखकों
की पोस्ट पर फौरी तौर पर लोग अपनी प्रतिक्रिया तो दे ही देते हैं। अब मूल बात ये
है कि जो तमाम पत्रिकाएं थीं, जहां पर साहित्य छपता या प्रसारित होता था, वहाँ पर एक
संस्था संपादक जैसा काम करती थी और संपादक
का काम सिर्फ यही नहीं था कि चीज़े उसके
पास इकट्ठा हो गयी हों और वह उसको प्रकाशित कर दे। उसमें वह एक स्वरूप बनाता था। मान
लीजिए एक अंक निकालना है तो उस अंक का क्या स्वरूप होना चाहिए, उस विषय के कितने आयाम
हैं, वो आयाम कैसे-कैसे उसमें हर तरह से समायोजित
किए जाएं – यह सब परिकल्पनाएं होती थी उसके तहत वह रचनाओं का चयन करता था। कई बार
रचनाओं में संशोधन भी करवाता था और बेहतर कराता
था। एक पक्ष तो यह है कि संपादित होकर
चीज़े आती थीं । कोई जरूरी नहीं कि वह संपादित करवाता ही रहा हो, कई बार वह
उस रचना से पूरी तरह संतुष्ट हो जाता था और उसे छापता था। उससे पत्रिका का
प्रत्येक अंक अपना विशेष महत्व रखता था । फेसबुक के आने से लोगों को खुद को
अभिव्यक्त करने में ज्यादा आसानी हो गयी है। पहले हम लोग पत्रिकाओं में रचनाएं भेजते थे, कभी वह चुनी जाती थीं –
कभी नहीं चुनी जाती थीं, बहुत दिनों तक इंतजार करना पड़ता था, सालों इंतजार करना
पड़ता था अब वह चीज खत्म हो गयी। लोग खुद को तुरंत अभिव्यक्त कर पा रहे हैं। ये
माध्यम अच्छा है, लेकिन इसका अच्छा उपयोग भी होना चाहिए । एक पक्ष तो यह है कि एक तरीके से इसे
ये भी कहा जाए – जो संपादक थे, उनकी, जो दूसरा वर्ग कहता है कि
एक तानाशाही थी या सोच थी कि उसी के अनुकूल जब रचनाएं आती थीं, तभी वह प्रकाशित करता था
। बहुत हद तक इस बात से इन्कार भी नहीं किया जा सकता है। उसके पीछे कई विचारधाराएं
थीं, उनका अपना सौंदर्यबोध था,
यदि वह कवि हैं तो कविता की ओर उनका झुकाव होता था,कहानीकार हैं तो उस ओर,ये सब
बातें थीं। न्यू मीडिया के आने से उनकी तानाशाही खत्म हुई और हम स्वयं को
अभिव्यक्त कर पा रहे हैं, लेकिन इसके साथ यह भी हुआ है कि जो एक प्रबंध था एक विषय को
सारे आयामों के साथ प्रस्तुत करने का, वह छिन्न-भिन्न हुआ है। इसीलिए, यदि हम देखें तो इधर बीच पत्रिकाओं का कोई स्वरूप नहीं दिख
पा रहा है, उसका प्रभाव सिर्फ यहीं
पर नहीं आया है, पत्रिकाओं पर भी उल्टा पड़ा है तो फेकबुक पर चीज़े आ रही हैं – अच्छा है, उसे हम तुरंत पढ़ते हैं, अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं, लेकिन वो कितनी गम्भीर प्रतिक्रिया है उस पर भी बात होनी
चाहिए। गंभीरता ना होने के कारण ही शायद हिन्दी आलोचना पर भी सवाल उठने लगे हैं। इंडिया
टुडे की अभी जो वार्षिकी आई है, उसे पलटते हुए मैं
देख रहा था, उसमें मौजूदा हिन्दी आलोचना पर बहुत अच्छी बातचीत हुई है, तमाम प्रश्न इसी मुद्दे
को लेकर उठाए गए हैं। निश्चित तौर पर इसका पक्ष-विपक्ष दोनों है । माध्यम कोई भी
बुरा नहीं होता है, उसका अच्छे तरीके से इस्तेमाल कैसे किया जाए यह बहुत महत्वपूर्ण है।
मेधा नैलवाल – प्रचार एवं बिक्री के नए मंच न्यू मीडिया ने तैयार किए हैं, इस पर आपके क्या अनुभव हैं ?
कुमार अनुपम – किताबें
आम जनता तक पहुँच रही हैं, लेकिन अभी भी हमारी जो मूल चिंताएं हैं, वे आधारभूत सुविधाओं की
हैं। जिस व्यक्ति को रोटी,कपड़ा,मकान,इलाज,शिक्षा जैसी आधारभूत सुविधाएं नहीं मिल
पा रही हैं, ऐसे में
कल्पना करना कि उसके पास न्यू मीडिया से जुडने का कोई माध्यम उपलब्ध होगा, कितना अश्लील
लगता है। यदि उसके पास न्यू मीडिया तक पहुँचने का माध्यम उपलब्ध भी हो, तो क्या अशिक्षा के कारण
वह उसे सही तरीके से इस्तेमाल कर पाएगा ? ऐसी ढेर सारी चीज़े हैं। मुझे लगता है आज
के समय में भी एक बड़ा वर्ग इन सब चीजों से बहुत दूर है, लेकिन ऐसा भी है कि तमाम कंपनियों ने बड़े सस्ते दामों में
चीज़े उपलब्ध कराई हैं, जिनका लोग
इस्तेमाल कर रहे हैं और उस माध्यम से चीज़े उन तक पहुँच भी रही हैं। न्यू मीडिया से
प्रकाशित रचनाओं पर असर पड़ता है और मैं कहता हूँ कि जो लोग इन माध्यमों पर हैं, उन्हे अच्छे तरीके से
प्रशिक्षण दिए जाने की भी जरूरत है। बहुत अच्छा पेज बना लिया, बहुत अच्छा पोर्टल
बना लिया, लेकिन उसका लोगों तक
प्रसार नहीं कर पा रहे हैं और उनका जो लक्ष्य है- पाठक, श्रोता और दर्शक – पढ़,देख,
सुन नहीं पा रहे हैं, तब तक समस्या है। यदि इन समस्याओं का हल हो जाए तो इस माध्यम का और अच्छा
इस्तेमाल हो पाएगा ।
मेधा नैलवाल – लेखक,प्रकाशक और पाठक – किताब की इस आधारभूत संरचना में न्यू मीडिया ने
नया क्या जोड़ा है?
कुमार अनुपम – न्यू
मीडिया के आने के बाद या इससे पहले भी, साहित्य के लिए स्पेस कम
था। न्यू मीडिया के आने से स्पेस और भी घटा है, आप जितने भी माध्यम देख रहे हैं , पहले भी अखबारों में जो
जगहें हुआ करती थीं साहित्य को लेकर, वो लगातार सिकुड़ रही हैं । कई पेज बंद हो गए हैं। ऐसा नहीं
है कि न्यू मीडिया ने आकर उस ओर ध्यान दिया है, ये बड़ी चिंता कि बात है, ध्यान दिया जाना चाहिए । कई खिड़कियां उन्होंने जरूर खोली हैं, जिनमें अन्य मुद्दों, संस्कृति,राजनीति,सामाजिक मुद्दों इत्यादि पर
तो चर्चा हो रही है, लेकिन साहित्य को केंद्र में लेकर
जिस तरीके से बात की जानी चाहिए थी, वह बहुत कम है। उस
पर थोड़ा और गंभीर होने की आवश्यकता है। दरअसल कोई भी मीडिया तात्कालिकता को सबसे
ज्यादा महत्व देता है और तात्कालिकता कभी भी साहित्य का मूलभूत केंद्र नहीं रहा है, यह उसकी इच्छा
में ही नहीं है। हो सकता है वह तुरंत की घटना को देख कर प्रस्तुत कर रहा हो, किन्तु वह मीडिया के लिए
उतना सनसनीखेज नहीं है । जो कुछ भी सनसनीखेज तात्कालिक रूप से प्रभावी है, उसको न्यू मीडिया ज्यादा महत्व देता है, बनिस्पत साहित्य
के।
मेधा नैलवाल – क्या न्यू मीडिया ने पुस्तकों के कॉपीराइट पर कोई प्रभाव डाला है ? सोशल मीडिया और ब्लॉग पर कॉपीराइट अधीन साहित्य बिना पूर्वानुमति या पारिश्रमिक के छपता है, इससे प्रकाशन के हितों पर क्या प्रभाव पड़ा है?
कुमार अनुपम – बिल्कुल, प्रभाव तो पड़ रहा है । एक
तो लेखक का ही नुकसान हो रहा है कि वो बड़ी मेहनत करके, न जाने कितनी रातों की नींद लगाके,खोज करके उस विषय को
लिखता है । अभी जो तमाम यू ट्यूबर्स आए हैं, जब हम उनकी भाषा और विषय प्रस्तुतीकरण देख रहे होते हैं, तो बड़ी निराशा होती है कि
80 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो यूँ ही चले आए हैं। उन्होंने यू ट्यूब चैनल्स बना दिए हैं, तो वो कितने
समझदार हैं, ये भी बहुत महत्व रखता है
– और जैसा कॉपीराइट का आपने जिक्र किया,
हमारे यहाँ का जो कॉपीराइट नियम है, उसके बारे में हमारे लेखकों को भी ठीक से पता नहीं है। सबसे
पहले तो कॉपीराइट नियमों के बारे में हमारे लेखकों को प्रशिक्षित किए जाने की
जरूरत है । तमाम पत्रिकाओं को चाहिए कि कॉपीराइट नियम क्या हैं, इस पर परिचर्चाएं चलाएं ।
पिछले दिनों एक बहुत बड़े प्रकाशक और बहुत बड़े लेखक के बीच कॉपीराइट के मुद्दे को
लेकर बाद विवाद हुआ। हमारे यहाँ साहित्य अकादमी
साहित्योत्सव होता है, उसमें भी यह चर्चा का विषय बना रहा । तमाम प्लेटफ़ॉर्म पर बात हुई। बात लेखकों के शोषण
की बहुत दिनों से हो रही है, लेकिन इस पर एकजुट
होकर कोई काम लेखकों की ओर से नहीं हो रहा है। कोई कोऑपरेटिव चीज ऐसी नहीं बन रही है, जिससे लेखकों के हितों का
ध्यान रखा जा सके। इस समय सबसे बेसहारा यदि कोई है, तो वह लेखक है । मुझे लगता है कि कॉपीराइट वाले मुद्दे पर
इन सभी माध्यमों में चर्चा होनी चाहिए, क्योंकि लेखकों का लगातार
शोषण हो रहा है ।
मेधा नैलवाल – ई- पुस्तकों के प्रकाशन का आपका अनुभव कैसा है। इन पुस्तकों को
कितने पाठक मिलते हैं, इनका भविष्य क्या है ?
कुमार अनुपम – यह नई
पहल अच्छी है । प्रिन्ट माध्यम में कौन सी चीज पाठकों को बहुत पसंद आ रही है, यह सेलेक्टिव मामला हुआ
करता था। हम सोचते हैं, अगर कविता की किताब है, कम पढ़ने वाले हैं, तो 600 छाप देते हैं अधिकतम । उपन्यास ज्यादा पढे
जा रहे हैं, तो इसे 1100 छाप देते हैं
। प्रकाशक ये अपने दिमाग से तय कर लेता था । आज के समय में पाठकों की इतनी रुचियाँ
हैं और तमाम सर्च इंजन हैं, कि वो पाठकों को उनकी रुचि तक पहुंचा दे रहे हैं । ई-बुक्स
के आने से पाठक अपने आप वहाँ तक पहुँच जाएगा, क्योंकि ज्यादातर माध्यम पर आजकल ये जरूरी है कि हम जितना ज्यादा कंप्यूटर
फ़्रेंडली या सर्वर फ़्रेंडली होंगे, लेखक को निश्चित
फायदा होगा। हमारे पास बड़ा उदाहरण है उदय प्रकाश के रूप में । उदय प्रकाश हिन्दी
के पहले लेखक हैं, जो सबसे पहले इंटरनेट और विश्व की साहित्यिक दुनिया में जिस तरीके से उसका इस्तेमाल किया जाना था, उन्होंने सबसे पहले सीखा और उसका प्रयोग किया । आज भी वो
इन माध्यमों से सबसे ज्यादा अर्न करने वाले लोगों में हैं। मुझे लगता है कि ये
लेखक के लिए फायदेमंद है।
मेधा नैलवाल – ऑडियो बुक्स की शुरुआत भी इधर हिन्दी में हुई है। इस क्षेत्र
में आपका अनुभव और राय क्या है ?
कुमार अनुपम – जो ऑडिओ बुक्स मैंने अभी तक सुनी हैं, कुछेक किताबें सुनी हैं, एक- दो के लिए मैंने आवाज भी दी है तो मुझे तो अब तक अच्छी प्रतिक्रिया मिली है। लोगों की अच्छी प्रतिक्रिया मिली है, उन्हें लगता है कि लेखक ही उन्हें सुना रहा है। ऑडिओ बुक्स के लिए जो कम्पनियाँ काम कर रही हैं, वो कोशिश करती हैं कि जो मूल लेखक था अगर उसकी आवाज से मिलती जुलती आवाज को ढूंढा जाता है – और जब वो सुनाते हैं, शुरू में थोड़ी ट्रेनिंग भी दी जाती है कि आपको कहाँ रुकना है,कितने आरोह और अवरोह के साथ अदा करना है, इसका भाव क्या है, तो इन चीजों का लगातार विकास हो रहा है । मुझे लगता है कि आने वाले दिनों में इसका बहुत सुंदर रूप देखने को मिलेगा । इसका एक बढ़िया स्वरूप कार्टून चैनल्स पर देखा जा सकता है । बच्चों के लिए आज के समय में कहानियों का एक बड़ा संसार खुल गया है। बच्चे नए तरीके से वैज्ञानिक कहानियाँ सीख रहे हैं, उनको लिखने वाले लेखक तो यही हैं, इन्हीं के बीच से लेखक गए हैं। मुझे लगता है कि ये सारे माध्यम लेखकों के क्षितिज को और बड़ा करेंगे। अभी हमारे कई लेखक फिल्मों के लिए महत्वपूर्ण पटकथाएं लिख रहे हैं । चाहे विमलचंद्र पांडे हों, गौरव सोलंकी हों – ढेर सारे नाम हैं, ये सभी सिनेमा में अभी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, लगातार लिख रहे हैं तो ये सारे माध्यमों से लेखकों का ही फायदा होगा।
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आमोद माहेश्वरी-(राजकमल प्रकाशन,दिल्ली) साक्षात्कार
मेधा नैलवाल – हिन्दी और न्यू मीडिया के संबंध को आप किस तरह देखते हैं।
आमोद माहेश्वरी – मेरे विचार में न्यू मीडिया में सोशल मीडिया मुख्य भूमिका निभाता है। हिन्दी में लिखना अब न्यू मीडिया में शुरू हो गया है। पहले सभी रोमन में लिखते थे अब यूनिकोड के आने से देवनागरी में लिखने लगे हैं। हिन्दी और सोशल मीडिया के साथ में जुड़ने से हिन्दी का बहुत बड़ा विस्तार हुआ है, उसका क्षेत्र बहुत बढ़ गया है। अब हर कोई सीधा जुड़ सकता है, अपनी बात सीधे लिख सकता है, इससे हिन्दी को भी मजबूती मिली है, व्यापकता बढ़ी है ।
मेधा नैलवाल – सोशल मीडिया पर लेखकों की उपस्थिति से पाठकों की संख्या पर क्या फर्क पड़ा है।
आमोद माहेश्वरी – बिल्कुल फर्क पड़ा है। जब तक सोशल मीडिया नहीं था, तब तक हमारे पास अख़बार और पत्रिकाएं ही माध्यम थे, अपनी जानकारी वहाँ तक पँहुचाने के लिए । जब से सोशल मीडिया आया है, तब से प्रकाशक भी सीधे लेखकों से जुड़ गया है और पाठक भी सीधे लेखकों और प्रकाशकों से जुड़ गया है। इससे अपनी बात पँहुचाना और उनकी बात समझना,क्या पाठक चाहता है, क्या समाज में चल रहा है, इसे देखने समझने का एक नजरिया साफ हुआ है। कोई भी जानकारी जहाँ तक पहुँचने में 15-20 दिन लगते थे आज 15-20 सेकेंड में वहाँ तक पहुँचा जा सकता है।
मेधा नैलवाल – प्रचार एवं बिक्री के नए मंच न्यू मीडिया ने तैयार किए हैं, इस पर आपके क्या अनुभव हैं ?
आमोद माहेश्वरी – मैं इस बात को सभी के लिए सकारात्मक रूप में लेता हूँ। प्रकाशक, लेखक, पाठक सबके पास यही एक मंच है जो सबको जोड़ता है। सभी जानकारियाँ इसी से मिल रही हैं। आजकल किताब खरीदने के लिए लिंक भी न्यू मीडिया में मिल जाते हैं, जिनसे आप सीधा किताब खरीदने की साइट पर पहुँचते हैं। बहुत सारे लेख, आलोचनात्मक किताब के बारे में तरह-तरह की जानकारियाँ आपको सोशल मीडिया से मिल जाती हैं । आप अपनी पसंद तय कर सकते हैं। आप समझ सकते हैं कि आपकी रुचि की ये किताब है तो ही आप इसे खरीदें। बहुत तरीके से लाभ हुआ है। अभी भी हमारे सीनियर पाठक मेलों में अखबारों की कटिंग लेकर आते हैं कि ये समीक्षा छपी थी, हमको ये किताब पसंद है, क्या हम इसे देख लें, लेकिन अब उतना लंबा इंतजार करने की जरूरत नहीं है । कोई भी पाठक अब न्यू मीडिया से उसे जान सकता है और उस किताब को घर बैठे खरीद सकता है। ये सब लाभ हुआ है, इससे समय बचता है और जो आपको चाहिए, तुरंत आपके सामने हाजिर है।
मेधा नैलवाल – लेखक,प्रकाशक और पाठक किताब की इस आधारभूत संरचना में न्यू मीडिया ने नया क्या जोड़ा है?
आमोद माहेश्वरी- इसमें दोनों चीज़े हैं। पहले लेखक को अपने पाठक या अपना समुदाय बनाने में बहुत लंबा समय लगता था, अब सोशल मीडिया के माध्यम से उसका समुदाय अपने आप विकसित हो जाता है। उसके जानने वाले लोग हैं, जगह-जगह पर उससे सबका अपना एक क्षेत्र बनता जाता है। तो ये अच्छा भी है, लेकिन इसमें ये बुराई भी है – हर कोई इतनी जल्दीबाज़ी में है कि पूरी बात सोचे समझे अपनी कुछ भी प्रतिक्रिया तुरंत वहाँ लिख देता है। किसी को भी उसमें जोड़ देता है, यानी जल्दबाज़ी बहुत है। जो धैर्य से, समझदारी से इस माध्यम का प्रयोग कर रहे हैं, उनके लिए बहुत अच्छा है।
मेधा नैलवाल – क्या न्यू मीडिया ने पुस्तकों के कॉपीराइट पर कोई प्रभाव डाला है ? सोशल मीडिया और ब्लॉग पर कॉपीराइट अधीन साहित्य बिना पूर्वानुमति या पारिश्रमिक के छपता है,इससे प्रकाशन के हितों पर क्या प्रभाव पड़ा है।
आमोद माहेश्वरी – कॉपीराइट पर फ़र्क़ पड़ा है, लेकिन ये है कि जैसे जैसे उनको जानकारी हो रही है या प्रकाशक के तौर से ऐसे कॉपीराइट का उल्लंघन करने वालों पर कार्यवाही की जा रही है तो आगे के लिए वो लोग सावधानी भी रख रहे हैं । बहुत लोग ऐसे हैं, जिनको एक बार यहाँ से नोटिस गया या बताया गया तो उन्होंने उसके आगे काम करने के लिए पहले परमीशन मांगी और बहुत लोग हैं, जिन्होंने नहीं मानी तो उनके वो चैनल बंद करवाए या उनका जहां भी उल्लंघन है, उसको हटाया गया किसी तरह से । प्रकाशक पर प्रभाव तो पड़ा है, लेकिन उसका एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि जो लोग अनुमति लेकर उसपर काम कर रहे हैं, उससे किताब की बिक्री बढ़ी है । इसके लिए उदाहरण के तौर पर बहुत सारे कविता संग्रह हैं । जैसे साए में धूप है, संसद से सड़क तक है,रश्मिरथी है, इन सबकी कविताएं जगह जगह बोली जाती हैं, उद्धृत की जाती हैं तो लोग जब पढ़ते-सुनते हैं तो किताब भी खरीदते हैं।
मेधा नैलवाल – ई- पुस्तकों के प्रकाशन का आपका अनुभव कैसा है। इन पुस्तकों को कितने पाठक मिलते हैं? इनका भविष्य क्या है?
आमोद माहेश्वरी – ई-पुस्तकों का बाजार बिल्कुल अलग है । जो किताबें छप रही हैं और जो किताबें ई-बुक के माध्यम से बिक रही हैं, दोनों के लगभग 80% पाठक अलग अलग हैं । जो किताबें हमारी ई-बुक में आ रही हैं, वो दुनिया में कभी-भी कहीं-भी कोई भी पढ़ सकता है और मुद्रित किताबों की एक सीमा है, इनकी उपलब्धता हर पाठक तक हर समय में नहीं हो सकती । ख़रीद के तौर पर ई-बुक ज्यादा सस्ती है । ई-बुक प्रिन्ट मीडिया का एक एक्सटेंशन है, वही तैयारी है, जो प्रिन्ट के लिए करते हैं, बस फ़र्क़ इतना है कि एक कागज़ पर छपती है और एक डिजिटली छपती है, लेकिन दोनों एक ही प्रोसेस से गुजरती हैं । पाठकों की संख्या एक लेखक के लिए और एक प्रकाशक के लिए जोड़े तो बढ़ी है। ई-बुक का पाठक उसमें जुड़ कर वृद्धि करता है। एक नया क्षेत्र और पाठक हैं जिन्हें ई-बुक ने जोड़ा है हमारे साथ ।
मेधा नैलवाल – ऑडियो बुक्स की शुरुआत भी इधर हिन्दी में हुई है। इस क्षेत्र में आपका अनुभव और राय क्या है ?
आमोद माहेश्वरी – ऑडिओ बुक्स भी अच्छा है। ऑडिओ बुक्स और ई-बुक्स का पाठक एक जैसा हो सकता है । जो डिजिटली फ़्रेंडली ज्यादा हैं, वो लोग इस माध्यम का ज्यादा लाभ ले सकते हैं। एक अच्छी ऑडिओ को बनाना महंगा प्रोसेस है । वो तीनों माध्यमों में सबसे महंगा है, जिसमें ऑडियो बुक पढ़ना, कन्वर्ट करना, सुनना सब महंगा है ।
–
मेधा नैलवाल
अतिथि व्याख्याता – हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग
डी.एस.बी.परिसर, कु.वि.वि. नैनीताल
बहुत बहुत शुभकानाएं मेधा 🙏