हिन्दी कविता में इधर सामने आयी संभावनाओं में राही डूमरचीर ने तेज़ी से अपनी पहचान बनाई है। देश के उपेक्षित इलाक़ों, नागरिकता और अस्मिताओं की बहुत स्पष्ट उपस्थिति अब कविताओं में हैं। राही ऐसी ही कविताओं के मुखर कवि हैं, जो किसी दायरे में नहीं बंधतीं, अपने मूल स्वर के साथ एक अधिक विस्तृत धरती की यात्रा करती हैं। राही डूमरचीर पहली बार अनुनाद पर हैं, हम कवि का यहॉं स्वागत करते हैं।
– अनुनाद
बच्चे
(एक)
आधी रात को
आ रही गाड़ियों की तीखी आवाज़ से
जाग जाते हैं बच्चे
दूर देशों से आतीं ये आवाज़ें हमें सुनाई
नहीं देतीं
हम सिमट चुके होते हैं
एक देश, एक जाति, एक परिवार
और आख़िरकार अपने आप में
इसलिए हम डूबते सूरज को देख
दुनिया के लिए उसे रात मान लेते हैं
जब तक कि न्यूयार्क-लंदन का समय बताने
वाली घड़ी
हमारे घरों में सामने टंगी नहीं होती
दुनिया जागती रहती है का सामान्य ज्ञान
हम सुविधानुसार अर्जित करते हैं
बच्चे जाग जाते हैं
दूर देशों से आ रही
गाड़ियों की तीख़ी आवाज़ों से
रोने लगते हैं रोते हुए लोगों की बाढ़ देख
हँसते हैं उन्हीं रोतों का उत्साह देख
पहाड़ियों से आती हवाओं से झपकी आने लगती
है उन्हें
समंदर गर्म होने से पहले अपने दोलने पर जी
भर सुलाता है उन्हें
बच्चे बड़े होते जाते हैं
दुनिया से कटते जाते हैं
अपनों को ठीक से पहचानते
अपनों में गुम हो जाते हैं
सदियों से जो अपने हैं उनसे दूर हो जाते
हैं
(दो)
बच्चे अक्सर पहन लेते हैं
उल्टी चप्पलें
पास ही कोई बुज़ुर्ग
चप्पलों को सीधा पहनने की
हिदायत देता मौजूद होता है उसी क्षण
साथ ही
बताया जाता है पूरे तजुर्बे से-
गिर सकते हो, चोट लग सकती है गहरी
बच्चे नहीं छोड़ते
चप्पलें उल्टी पहनना
उन्हें फ़िक्र नहीं होती गिरने की
चप्पल के दायें
या जूता के बाएं हो जाने की
धीरे-धीरे बड़े होते हैं बच्चे
छोड़ देते हैं चप्पलें उल्टी पहनना
वे भी सीखते हैं बात-बेबात नसीहतें देना
डपटकर अपनी बात कहना
बड़े हो गए बच्चे
फिर कभी नहीं पहनते चप्पलें उल्टी
चप्पलों की अदला-बदली से
पाँव नहीं उलझते कभी
इस वजह से गिरते भी नहीं कभी
वे गिरते हैं
सीधे पहने जूतों के बावजूद
बच्चे गिर-गिर कर
चलना सीखते रहते हैं
बड़े क़रीने से
गिरना सीख जाते हैं
***
दुखों का मौसम नहीं है पतझड़
हाड़ाम बा कहने
लगे–
तुम हमेशा अधूरी बात सुनते हो
पतझड़ को तुमने भी अपनी कविता में
दुःख लिख दिया है
पतझड़ दुखों का मौसम नहीं है
मुरझाए हुए मन का प्रतीक तो बिल्कुल नहीं
दिन रात चलते रहने वाले
अनवरत संगीत के इस मौसम में
अपना जीवन जी चुके पत्ते
‘नयों को भेजो दुनिया देखने
हम तुम्हारी नींव में समाते हैं’– गाते हुए
अपनी धरती से मिलने आते हैं
पतझड़ में पेड़
दुःख नहीं मनाते
न ही दुःख में डूबते-गलते
डालों से टूटकर गिरते हैं पत्ते
वे तो सोहराय* में नाचते-गाते
अपने लोगों से बाहा परब** में मिलने आते
हैं
इसी से है
हमारे बार-बार वापस लौटने का रिवाज
भूत नहीं बनते हमारे लोग
इस दुनिया से जाकर
वे साथ होते हैं हर मौक़े पर
हँड़िया का पहला दोना भी पुरखे ही चखते हैं
पेड़ और पत्तों
की रज़ामन्दी से आता है पतझड़
वरना लू की लहक भी हरे पत्तों को कहाँ
झुलसा पाती है
बढ़ती धूप के साथ और हरे होते जाते हैं
पत्ते
***
*सोहराय-संताल आदिवासियों का त्यौहार जो मकर संक्रांति के आस-पास शुरू होता है और लगभग एक महीने तक अलग-अलग गाँव इसे अपनी सुविधा के अनुसार मनाते हैं
**बाहा परब – बसंत में होली के आस-पास मनाया जाने वाला त्यौहार
मूल नाम :राही डूमरचीर
जन्म :24 अप्रैल 1986 | दुमका, झारखंड
उत्कृष्ट रचनाएँ।