गौरव सिंह की कविताऍं महानगरों, अजनबीपन, व्यर्थताओं और ऐसे ही कई-कई बार कहे-लिखे गए प्रसंगों को अपने भावबोध के सहारे अलग और नए तरीक़े से लिखती हैं। बिलकुल नई पीढ़ी के पास बीसवीं सदी के ये प्रसंग और इन्हें कहने की कला है तो आधुनिकता का वह महान विचार भी है, जिस पर मनुष्यता टिकी रही। महामारी के सर्वथा नए प्रश्न को भी कवि उसी विचार की ज़मीन से देखता है।
अनुनाद पर यह कवि प्रथम प्रकाशन है, हम उनका स्वागत करते हैं।
– अनुनाद
गूगल छवि से साभार |
महानगर
खेत की मेंड़ पर
सुस्ताते किसानों की अधकची नींद में
तमाम महानगर
खौलते तेजाब की तरह
बूँद-बूँद कर गिरते गए….
(या संभवतः गिराए गए…?)
मुझे याद है..
बम्बई पहले-पहल गाँव के
एक नाई की दुकान में
अर्धनग्न नायिकाओं की शक्ल में
दीवार से चिपकी हुई मिली थी…
(गाँव के लड़के बाल कटाते हुए
उसे चोर निगाहों से घण्टों ताका करते…)
दुबई एक रंगीन सिगरेट की डिब्बी की शक्ल में मिली
जिसके ऊपर अरबी अक्षरों में कुछ लिखा हुआ था…
दिल्ली चूँकि बेहद करीब थी
इसीलिए मेरे गाँव से बार-बार टकराती रही
कभी अखबारों के मुख्य पृष्ठ की तरह
कभी जीन्स की किसी पैंट की शक्ल में
कभी दातून पर तंज कसते मंजन की शक्ल में
तो कभी अजीब ढंग से कटे-फटे बालों की सूरत में.. !
मेरे गाँव के पुरुषों को
ये महानगर
जाँघों से लिपटे गुलाबी तौलियों की शक्ल में मिले
औरतों को ये शहर
कभी कम्बलों की शक्ल में मिले
तो कभी आठ खाने वाली मसालदानी की सूरत में..!
मुझे यह भी याद है..
अजीब ढंग से कटे बालों
और
ब्लेड से चीथी हुई पतलूनों का
मेरे गाँव ने पहले-पहल मजाक उड़ाया था
वो अब मेरे गाँव की खोपड़ी
और टाँगों पर
स्थायी निवास बना चुके हैं…
इन दोनों घटनाओं के बीच
एक इतिहास है..
जिसके मटमैले पन्नों पर
मेरे गाँव के खून के छींटे बिखरे हैं..!
***
और विकल्प ही क्या है..?
यह जानते हुए कि-
महामारी और दुर्भिक्षों के
अनुभवों से लबरेज
हर पिछली सदी से मिलीं
तमाम उम्मीदें और आश्वासन
अगली सदी में झूठी साबित हुईं हैं. ..
(कि पीड़ा का ये अंतिम पड़ाव है
या अगली सदी इससे सुंदर होगी..)
अपने बस्तों में
बचाव के सामान रखकर
महामारी से भरी इस सदी में
बेहतर वक्त की दिशा में
हम दूरी के नियमों का
पालन करते हुए चले जा रहे हैं…
किसी सार्वजनिक सतह पर
अनजाने में हाथ छू जाने के डर के साथ!
नन्हे शिशु को देख
मन में उमड़ रहे वात्सल्य को
शत्रु के भय से अंदर ही दबाते हुए!
महामारी के बाहर होने का अंदेशा लिए
अपनी खिड़की से दुनिया को निहारते हुए!
और हर सुंदरता के ओट में
शत्रु के छिपे होने की आशंका लिए..
हम काँपते कदमों के साथ बढ़ रहे हैं
इस सदी से उस सदी की ओर…!
कोई उनसे नहीं पूछ रहा यह प्रश्न
कि आखिर कब तक जिएँगे हम
इतनी महामारियों के बीच?
मेरे लोगों के पास
हर प्रश्न का एक ही उत्तर है-
” और विकल्प ही क्या है..?”
***
'महानगर' कविता बहुत अच्छी लगी। कवि ने अपनी बारीक, मार्मिक और धैर्यवान दृष्टि से अवचेतन में दबे कितने ही दृश्य बिंबों को उघाड़ दिया है। हमने ऐसे ही जाना था शहर को पहले-पहल। कवि ने लोकस्मृति के संरक्षण को एक कलारूप निर्मित किया है। कवि को बधाई। शहर से पहला परिचय धूमिल हो गया था। इस स्मृति का लौटना जरूरी सा लग रहा है, अब जबकि यह कुछ लौट आई है। शायद भीतर चल रहा देहाती-शहरी द्वंद्व कुछ सुलझे, इससे। या बहुत संभव है कि कवि आगे भी कुछ राह दिखाएं। शुभकामनाओं सहित, और अच्छी कविताएं पढ़ने की आशा करते हुए, धन्यवाद कवि।
बेहतरीन कविताएं हैं