– अनुनाद
स्थायी पतापता नहीं
किस द्वीप से आए होंगे पूर्वज !
पिछले ही कुछ वर्षों में
चार राज्यों के चौदह शहरों में
अपने ठिकाने बदले
कहां जन्मभूमि? कहां कर्मभूमि?
और अब तो नौकरी भी कच्ची !
गनीमत कि पिंजड़े में नहीं हूं
कभी इस डाल पर,कभी उस पात पर
चिड़िये की तरह फुदकता – फुदकता
कभी चला जाऊंगा जम्बूद्वीप से
कहां, कुछ भी नहीं मालूम !
जब भी कोई स्थायी पता पूछता है
मैं मुस्कुरा देता हूं।
***
बात जब भी की जाए, अंतिम बात की जाए
जब भी मिला जाए, अंतिम बार मिला जाए
‘फिर मिलेंगे’- यह उम्मीद भरा एक अधूरा
वाक्य है
मैं कल की बात नहीं करना चाहता
मैं हर पल की बात करना चाहता हूं
अंतिम का अर्थ अंत नहीं होता–
यह तो पूर्ण होना है
जीने का मज़ा तब है जब
अंतिम को अनन्तिम नहीं समझा जाए।
***
वह मां के सतत स्पर्श की आकांक्षा में
धरती की अतल गहराइयों में उतरता जाता है
उतरता ही जाता है
वह मां को धूप – आतप से बचाने के शुभ
संकल्प में
अंबर को घेर लेना चाहता है
वह जीवन-रक्षा के लिए जो कुछ ग्रहण करता
है
उसे भी लौटा देता है प्राण – वायु के रूप
में
पूरे जीवनकाल वह अपनी जन्म-धरती से हिलता
नहीं है
उसे किसी से कोई उम्मीद नहीं
और किसी से कोई शिक़ायत भी नहीं
वह जीता है निर्विकार तपस्वी का जीवन
समस्त जगत में कोई नहीं स्वार्थ से परे
मगर एक वही है जो नि:स्वार्थ जीता है
कभी फूल,कभी फल की भेंट देता रहता है अनवरत
शीर्ष पर, टहनियों पर देता है जीवों को आश्रय
जब लगभग प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से
विलुप्त होती जा रही है मातृभाषा
वह
पेड़ ही है जो मौन भाव से सुनता है, समझता है
मातृभाषा
जन्मता है जिस मां की कोख से
उसी
मां की गोद में सदा – सदा के लिए सो जाता है
***
टुकड़ों में जीता है
टुकड़े – टुकड़े होकर
टुकुर -टुकुर देखता है
जब लोग बोलते हैं
चुपचाप सुनता है
केवल मुंह देखता है
पता नहीं कि वह दिन काटता है
या दिन ही उसे आरी की तरह काटता है
न कुछ खाने,न कुछ खोने,न कुछ पाने
न कुछ बोलने,न कुछ बतियाने
न कहीं आने,न कहीं जाने
कुछ देखने की इच्छा भी शेष नहीं
इस तरह आदमी मृत्यु को जीता है
कौन कहता है कि अपनी इच्छा से मरना इच्छा-मृत्यु
है
इच्छाओं का मर जाना ही इच्छा-मृत्यु है ।
***
दुःख का पहाड़ा
मास्टर साहब !
दुःख का जोड़ होता है
दुःख का गुणा होता है
मगर दुःख का घटाव नहीं होता
और भाग तो कतई संभव नहीं
हां,
दुःख के पहाड़े जरुर होते हैं
आदमी दुख के पहरे में
पढ़ता रहता है दुख का पहाड़ा
मास्टर साहब!
कब भेजोगे अगले क्लास में
बताओ न!
कब तक हम पढ़ें दुःख के पहाड़े ?
***
आदमी
सहते-सहते
बोलने लगता है
आदमी
सुनते- सुनते
बोलने लगता है
सुनने – सहने की क्षमता
जब समाप्त हो जाती है
तब आदमी की आंखें पथरा जाती हैं
और उसकी चुप्पी शोर मचाने लगती है।
***
मैं कहता हूँ माँ !
माँ
समझ जाती है भूख
मैं कहता हूं माँ
माँ
समझ जाती है पानी
मैं कहता हूं माँ
माँ समझ जाती है नींद
सब कहते हैं–
मेरी माँ पढ़ी- लिखी नहीं है
फिर माँ कैसे निकाल लेती है
एक शब्द के अनेक अर्थ
माँ जब कहती है – बेटा !
तब तमाम डिग्रियों के बावजूद
मैं उसका अर्थ क्यों नहीं समझ पाता ?
***
आँखों की एक सीमा है
बीस- तीस गज तक
पहाड़, पेड़ तो दूर से भी दिखाई देते हैं
मगर छोटी चीजों का क्या?
और छोटे लोगों को शामिल करें ?
कर ही लेते हैं,ये छुटे हुए लोग हैं
सदियों से छूटते, टूटते रहे हैं
इन्हें पढ़ा जाना चाहिए नजदीक से
छोटे अक्षरों की तरह
जैसे दवा की शीशियों पर
सेवन करने की विधियाँ अंकित होती हैं
इन्हें बरता जाना चाहिए बिल्कुल इसी तरह
एक जरुरी चेतावनी यह भी कि
चश्मा एक बार जरूर साफ कर लें
इन्हें पढ़ने के पहले
इनके चेहरे पर अंकित कोई भी
कौमा, विसर्ग या विस्मयादिबोधक चिह्न छूट न
जाए
इन्हें पढ़िए , इन्हें सुनिए और कोई नसीहत
देने के पहले
इन्हें निर्बाध रूप से बोलने भी दीजिए पूर्ण विराम तक।
***
मैं भी काम की तरह हूं
ज़रूरी काम की तरह
इसी तरह लोग निबटते हैं मुझसे
खुसर- फुसर सुन ही लेता हूं
कि हूं काम का आदमी
गंभीरता से सोचता हूं –
जिस दिन काम का नहीं रह पाऊंगा
गैर जरूरी काम की तरह भुला दिया जाऊंगा
आदमी भी नहीं रह जाऊंगा।
***
देखते-देखते कितना कुछ बदल जाता है
एक साल में ही छ:-छ: ऋतुएं
और चौबीस घंटे में समय चार बार
अर्थात सुबह,दोपहर,शाम
और रात
पेड़, पौधे,घर द्वार,गांव, मोहल्ले
सब कुछ इतनी तेजी से बदलते नजर आते हैं
मानो जैसे पीछे छुपे जा रहे हों
ट्रेन के सफर में पटरियों के किनारे के पेड़
इतने बदलावों के बीच
तुम्हारा नहीं बदलना महज इत्तेफाक है
यहां तो लोग एक कप चाय में बदल जाते हैं।
***
नदी का गीत
नदी ने मुझे बताया था-
बहने और बहते जाने में सुख है
ठोस होकर कौन जमना चाहेगा
नदी ने कहा –
मैं बहती हूं इसीलिए
हरदम गाती रहती हूं
तुम सुन सकते हो अहर्निश मेरा संगीत
लोग झूठ कहते हैं कि मैं समंदर से मिलना
चाहती हूँ
मैं कभी समंदर से मिलना नहीं चाहती
अपनी मिठास को खारेपन में क्यों बदलूं
मुझे उस मिलन की कोई आकांक्षा नहीं
जो कर दे मेरा अस्तित्व समाप्त
सुनो! मैं रुकना नहीं जानती
बहना धर्म है मेरा
मैं किसी के लिए नहीं रूकती
सुन सको तो सुनो संगीत
यह मिलन का गीत नहीं है ।
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विश्वास
इतने सारे पत्ते
एक दरख़्त पर !
हवा के साथ अठखेलियां करते
धूप – आतप सब कुछ सहते
जी लेते हैं पूरी उमर
पांच ऋतुओं को
कर लेते पार
कितनी सहजता से
इतनी मजबूत पकड़ होती है दरख़्त पर
इसीलिए वे शायद नहीं सोचते पतझड़ के बारे
में
आना है तो आए पतझड़
लौट आयेंगे बसंत में ये पत्ते
फिर से उसी दरख़्त पर
दरख़्त वहीं खड़ा करता रहता है इंतजार
पतझड़ में भी अपनी बांहे फैलाए
उसकी रगों में बहते हुए रस
उसे सूखने नहीं देते
यह कहते रहते हैं-
विश्वास करने वाले शिरोधार्य होते हैं
वही बसंत लाते हैं ।
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परिचय —
जन्म- मुजफ्फरपुर (बिहार)
प्रश्नकाल का दौर नाम से व्यंग्य संकलन प्रकाशित।
साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में सौ से अधिक कविताएं एवं व्यंग्य प्रकाशित।
पहला कविता संकलन शीघ्र प्रकाश्य ।
संप्रति- भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से सम्बद्ध एवं स्वतंत्र लेखन।
संपर्क- 9431582801
lalancsb@gmail.com