एक पियानोवादक की मृत्यु
दूसरे जब जंग छेड़ रहे थे
अथवा कर रहे थे अनुनय अमन
के लिये, या जब
पड़े हुए थे दवाख़ानों व
छावनियों की
तंग शय्या पर, कई-कई दिनों तक
तब उसने किया अभ्यास
बीथोवेन की धुनों का
और तुच्छ, छरहरी उंगलियों से
ऐसी महान निधि को छुआ
जो उसकी थी भी नहीं।
***
विद्वानों का कमरा
अतिथि विद्वानों के कमरे
में होती है एक अलमारी
दर्जन भर उबाऊ उपन्यासों
से भरी अलग-अलग भाषाओं में
जो आपके ख़ानदान में कोई
नहीं बोलता, एक निद्राग्रस्त बुद्ध,
एक मौन टेलीविजन, एक टूटा-पुराना तवा जिसपर
शनिवार की रात को तली गयी
अंडे की भुर्जी के बचे हुए दाग निराश कर देने वाले हैं।
एक धूसर रंग की केतली जो
हर बोली में बस सीटी ही बजा पाती है।
आप ख़ुद को इसमें ढालने का
प्रयास करते हुए कभी-कभी सोच में भी पड़ जाते हैं।
आप पढ़ते हैं माइस्टर एखहार्ट
को दूरी और अलगाव के बारे में
एक फ्रांसपरस्त अंग्रेज़
की कविताओं को और
एक अंग्रेज़परस्त फ्रांसीसी के गद्य को।
और इन सुथरे बसेरों में
बसने की आदत के लिए
कई दिनों के संघर्ष के
बाद,
इस मोहतरम मानव जाति के
सराय पर ठहरने के बाद,
आपको विस्मय से भरा एहसास
होता है कि
यहाँ तो कोई रहता ही नहीं,
पृथ्वी पर कोई जीवन ही नहीं।
***
आहिस्ता बोलो
आहिस्ते बोलो! तुम्हारी
उम्र जो इतने लंबे समय से चली आ रही थी, अब उससे अधिक है,
तुम स्वयं से भी बड़े हो
और अब तक यह नहीं जान
पाये कि
वियोग, काव्य और सम्पत्ति के क्या मायने हैं।
कभी गलियों को बहा ले
जाता गन्दला पानी; कभी त्वरित आँधी
झकझोर देती है इस उदासीन, सुस्त शहर को।
रुख़सत होती हुई हर एक
आँधी, छोड़ जाती है हमारे ऊपर मंडराते फ़ोटोग्राफ़रों को,
जो हमारे भय और संत्रास
को एक चमक दिखाकर क़ैद करते रहते हैं।
क्या तुम जानते हो क्या
होता है क्रंदन, इतनी विकराल हताशा
जो हृदय की लय का गला
घोंट दे और आगामी समय का भी।
तुम रोए होगे अजनबियों के
बीच , एक आधुनिक दुकान में
जहाँ छल से बटोरे जाते
हैं सिक्के।
तुमने देखा होगा वेनिस और
सिएना, और तस्वीरों में
उदास तरुण युवतियों को, जो चाहती हैं
जश्न में सड़कों पर नाचना
किसी आम लड़की की तरह।
तुमने छोटे शहर भी देखें
हों शायद, कुछ खास सुंदर नहीं,
वहाँ के बूढ़े लोग भी, पीड़ा और समय की मार से थके हुए।
फिर भी आँखे ऐसी, मूर्ति के बीचोंबीच जगमगाती,
धूप में झुलसे हुए
साधक-सी आँखे, जंगली जानवर की सी चमकती आँखे।
तुमने ला गैलेयर के
समुद्र तट से सूखे कंकड़ उठाये
और अचानक तुम उनके शौकीन
हो गए
— उनके और पतले चीड़ के
पत्तों के,
औरवहाँ पर बाकी हर किसी
के, और उस समंदर के
जो इतना शक्तिशाली है, फिर भी कितना अकेला—
जैसे कि मानो हम सब यतीम
हों
एक ही घर से, बिछड़े हों हित के लिए
और वर्तमान के इस
विषादपूर्ण कारागार में
क्षणिक मुलाक़ातों के लिए
अनुमत हों।
आहिस्ते बोलो: तुम अब
युवा नहीं रहे,
हफ़्तों के उपवास के साथ
हुए ज्ञान से शांति अवश्य होनी चाहिए,
तुम्हें चुनना चाहिए, आत्मसमर्पण करना चाहिए, समय के लिए रुकना चाहिए,
थाम कर रखनी चाहिए लम्बी
बातें रूखे-सूखे मुल्कों के दूतों से
और फटे हुए होठों के साथ, तुम्हें इंतजार करना चाहिए,
पत्र लिखने चाहिए, पाँच सौ पृष्ठों की किताब पढ़नी चाहिए।
आहिस्ते बोलो। कविता की उम्मीद
मत छोड़ो।
***
03 अप्रैल 2003 में जन्मी अंजलि नैलवाल को अनुवादक के रूप में जानना सुखद आश्चर्य से भरा एक प्रसंग है। अल्मोड़ा जिले के एक दूरस्थ और कठिन इलाक़े सल्ट में उनका छोटा-सा गांव है। रामनगर बद्रीनाथ मार्ग पर भतरौजखान नामक एक छोटा-सा बाज़ार है, वहॉं स्थित सरकारी इंटर कालेज से इंटर करने के बाद अंजलि हिन्दी, अंग्रेज़ी और इतिहास विषयों के साथ राजकीय महाविद्यालय रामनगर से बी.ए. कर रही हैं। कुछ दिन पूर्व अनुवाद-कर्म और प्रक्रिया पर युवा आलोचक सुबोध शुक्ल और मैंने अंजलि से बात की, वे आजकल काफ़्का को पढ़ रही हैं और उनकी डायरीका अनुवाद भी। वे साहित्य की गम्भीर अध्येता है। अनुवाद को पुनर्रचना मानती हैं।अनुनाद के लिए एडम ज़गायेव्स्की की तीन कविताऍं उन्होंने अनुवाद कर के हमें दी हैं।इन कविताओं के लिए अनुनाद अंजलि का आभारी है। उनके अनुवादों का यह प्रथम प्रकाशन है।
उनका बहुत-बहुत स्वागत और शुभकामनाऍं।
-शिरीष मौर्य
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