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उम्र में तीस के बाद
वह एक अरसे से सोच रहा है,
उम्र में तीस के बाद ज़िंदगी एक समतल मैदान बन जाती,
जिस पर चलना, दौड़ना, रेंगना सब एक साथ किया जा सकता ।
बस एक नौकरी होती ।
महीने में एक बार आने वाली तनख्वाह होती,
अपने दिनों को कुछ पैसों में तब्दील कर पाता तो क्या बात होती ।
यह शादी और बच्चों से बहुत पहले एक नौकरी का लग जाना है ।
सबकी नज़र में यह अपनी मुकम्मल दुनिया बनाकर उसमें रहने के दिन हैं ।
मैंने भी कभी सोचा था,
यहाँ तक आते–आते लहरें रेत
को छूने लगेंगी
और मेरा जीवन भी पानी की तरह बहने लगेगा ।
इसी में हर शाम दफ़्तर से घर लौटता ।
घर लौटकर तुम्हारी पीठ पर इत्मीनान से हाथ फेरता ।
ऐसा करते हुए कभी बच्चों के दिख जाने पर
तुम्हारे नहीं उनके गाल चूमते हुए बिलकुल नहीं खीजता ।
इसी उम्र में रिश्तेदारों से बहुत दूर बैठे बेटे, भाई, चाचा, दामाद, फूफा
होते हुए लंबी–चौड़ी बहसो के
बाद झगड़े अपने आप ख़त्म कर देता ।
यह गर्मियों की छुट्टियों में गाँव न जाकर बीवी और बच्चों को पहाड़ों पर भेज कर
माता–पिता के साथ
सुदूर दक्षिण में कहीं जाने की इच्छा में यहीं दिल्ली में रुक जाना था ।
कमोबेश यही दो–तीन इच्छाएं रही
होंगी सबकी ज़िंदगी में,
इसलिए भी अक्सर जो लोग मिलते हैं, वह उम्र पूछते हैं ।
जैसे सब पहले से तय हो,
एक नियमित क्रम की तरह सबके जीवन में यह सब घटनाएँ घट रही हों ।
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गर्दन पर ज़ोर डालते हुए
मंचों को इतना भव्य कभी नहीं होना था,
वह होते थोड़े संवेदनशील,
उन रचनाओं की तरह, जो लिखी थी,
उन रचनाओं से बड़े कवि, कहानीकार और
कलम घिसने वालो ने ।
उन्हें अड़ कर खड़ा नहीं होना था, खजूर के पेड़ की तरह ।
उन्हें किसी भाषा में आए
फल और फूल से लदे वृक्ष की तरह झुक जाना था ।
उनका ऐसा होना
इसलिए भी जरूरी था
कि हो सकता है
कभी
कोई बात,
कोई पात्र,
किसी रचना से बाहर निकल आए
और
अपने रचनाकार को देखने की गरज से
इन भव्य मंचों की तरफ ताकने के लिए हिम्मत भी न जुटा पाये ।
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प्लेटफ़ॉर्म की ऊब
किसी खाली सुनसान
स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म की तरह
उस अकेलेपन में
इंतज़ार कर देखना चाहता हूँ,
कैसा हो जाता
होगा कोई, जब वहाँ कोई नहीं होता होगा ।
एक आवाज़ भी नहीं
होती होगी ।
कहीं कोई दिख
नहीं पड़ता होगा ।
बस होती होगी, अंदर तक उतरती खामोशी ।
दूर, घुप्प अँधेरे सा इंतज़ार करता, ऊँघता,
ऊबता
के इस अँधेरे में
सरसराती मालगाड़ी जब सियालदह से चल पड़ेगी,
तब उसके सतहत्तर
घंटे बाद कहीं यहाँ पहली हलचल होगी ।
हफ़्ते में आने
वाली एक ही गाड़ी । पहली और आख़िरी।
वरना, उस सोते हुए स्टेशन मास्टर के पास
इतना वक़्त कहाँ
था कि उन खाली पड़े मालगोदामों में
किराये पर रखे
पौने सात लोगों पर रखी एक स्त्री के साथ संभोग करता
और उसके होने
वाले बच्चे से इस अकेलेपन को कम करने की सोचता ।
ऐसा करने से पहले, पहली बार जब यह विचार उसके मन में आया
तब चुपके से उसने
प्लेटफ़ॉर्म से पूछा था ।
वह मान भी गया था
। उसने भी हाँ भर दी थी । वह भी अकेला रहते–रहते थक गया था ।
अब नहीं सही जाती
थी,
गार्ड के खंखारते
गले से निकलते बलगम की जमीन पर धप्प से गिरने की आवाज़ ।
नहीं सुनना चाहता
था, उस लोकोमोटिव पायलेट की गालियाँ ।
उन जबरदस्ती उठा
लायी गयी लड़कियों की चीख़ ।
उन्हें कराहते
हुए छोड़ भाग जाते लड़कों के कदमों की आवाज़ ।
वह उन कराहती
चीख़ों से डर कर भाग जाते हैं ।
वह नहीं डरेगा, नहीं भागेगा ।
वह सिर्फ़ उस नए जन्मे बच्चे के साथ खेलेगा ।
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माचिस की तिल्लियां
माचिस की तिल्ली भी बता सकती है, भूख को ।
बहुत आसान है,
यह जानना कौन-कौन भूखा है,
किसे भरपेट खाना नहीं मिला है,
किसके शरीर पर कितने पाव मांस लटक रहा है,
किसका पंजर, कितनी हड्डियों से बना है ।
कौन सिर्फ नाम का ही जिंदा है ।
यह काम हाथ में
माचिस की तिल्ली लेने
जितना हल्का और छोटा है ।
जबकि आपने अपने हाथ में
माचिस की तिल्ली ले ही ली है
तो देखिए,
कैसी दिखती है, माचिस की तिल्ली ?
दुबली पतली,
जिसकी खून लाने ले जाने
वाली नसें भी दिख नहीं पा रही ।
वजन हवा से भी हल्का ।
धूप या किसी रौशनी में
परछाईं बनने के लिए अपर्याप्त शरीर ।
केवल शीर्ष पर फास्फोरस का सिर लिए डोलती
हुई ।
ऐसी कई चलती-फिरती आकृतियां गली, कूचों, मोहल्लों
में शहर-शहर माचिस की तिल्लियों सा जीवन व्यतीत कर रही हैं। फिर भी इन्हें कोई
माचिस की तिल्ली नहीं मान रहा ।
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परिचय
जन्म- ०९ जनवरी, १९८५
दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर करने के पश्चात इसी विश्वविद्यालय से बीएड और एमएड । पूर्व में कुछ कविताएँ ‘हंस’, ‘वागर्थ’ और ‘पहल’ तथा ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में प्रकाशित । ‘हंस’ में डायरी के कुछ अंश तथा एक कहानी ‘चुप घर’ का प्रकाशन ।
मेल आई डी– shachinderkidaak@gmail.com
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