डोगरी के कवि ध्यान सिंह की पंक्ति कोंपलें नहीं फूट रहीं , महज कविता की नहीं, सामाजिक जीवन और उसकी दशा-दिशा की भी टीस बनकर खुलती है। युवा कवि कमल जीत चौधरी ने अनुनाद के लिए इन कविताओं के अनुवाद सम्भव किए हैं। अनुनाद भारतीय जनमानस के समकाल में गूंज की तरह शामिल इन कविताओं के लिए कवि और अनुवादक का आभारी है।
एक पहेली
अँधेरी कब्र
जिसमें किसी की लोथ* नहीं,
हो तो; मिट्टी
बन गई हो
बे-चराग़ कब्र
जो गल गयी हो
पोली पड़ गयी हो
कबाड़ का मलबा बन गई हो
जिसे कोई मुफ़्त भी नहीं उठा रहा हो
…
क्या यह मुमकिन नहीं
कि इसके अवशेष में से
कूड़ा बीनते बच्चों को
कुछ किरचें
कुछ कील मिलें
किसी नई कब्र के लिए:
और यह ‘मिलना‘ एक पहेली बन जाए।
००
*लोथ – लाश
रिक्शा चालक
पनघट की पीड़ा,
रुक्ख* उठाए
है
पडुक्ख**
कभी ख़त्म हो यह दुःख।
मानव की आस
जीवन को सीध मिले
होती शरारत नित
यह दुःख और लाचारी है
देता हूँ दुहाई –
‘करूँ जो कमाई
खाता कोई दूसरा‘
रुक्ख उठाए है
पडुक्ख
मन बड़ा भारी है,
भारी है
सवारी भी;
पेड़ को उठाए पेड़
मगर आदमी को आदमी?
००
*रुक्ख– वृक्ष
**पडुक्ख– पेड़ के ऊपर उगने
वाला पेड़
छाया
वृक्ष;
जलस्रोतों के ऊपर
शीतल छाया करते हैं
सीधे खड़े
आग फाँकते;
स्वयं तपते रहते हैं
तपी हुई छायाओं को
पानी; तारी*
नहीं लगाने देता
सतह पर ही नचाता
ज़रा भी विश्राम नहीं करने देता
स्वयं लहरों पर अठखेलियाँ करता
सूरज भी दिन दोपहर
अपनी चाल चलाता रहता
दिन खत्म होता अँधेरे में
उधार लिए जीवन को जब पनघट मिलता
मैं भी जलते-बलते सूरज डूबते
संध्या तले
घर लौटता हूँ।
००
तारी*- डुबकी
जेबें
मेरी जेबों में
अक्सर हवा रहती है
इन्हें टटोलूँ
तो हवा कम लगने लगती है
शायद इनके कोनों में छुप जाती है
मेरे हाथों को शर्मिंदा होकर
खोटे पैसे की तरह वापस लौटना पड़ता है
मेरा अभावग्रस्त
प्यासा मन
बहलाए नहीं बहलता:
मैं उस दर्जी की निंदा करता हूँ
जिसने यह जेबें बनाई हैं।
००
चाँद
घुप्प अँधेरे में चाँद निकला
तो मैंने किसी से पूछा
चाँद देखा है?
कितना सुन्दर
देखो ऊपर,
उसने कहा
मक्की की रोटी जैसा है
मुझे भान हुआ कि वह भूखा है
उसे घर ले जाकर
मैंने झटपट एक रोटी खिलाई
फिर पूछा; चाँद कैसा है?
उसने कहा
आग के गोले जैसा है
उसे ठंडा पानी पिलाकर
मैंने फिर पूछा: चाँद कैसा है?
उसने कहा
एक सपने जैसा है
मैंने उसे बिस्तर दिया…
और कामना की:
‘उसे रोटी और आग मिले।‘
००
छींकें
बजती हैं
सुनाई देती हैं
सिर्फ छींकें ही छींकें
सिर फोड़तीं
कान फाड़तीं
श्वास जलातीं
कृष्ण पक्ष की पैहरेदार छींकें
लोकवादी, जनवादी आस्था पर
तार्किक विचारों पर
हावी हुई छींकें
अभिव्यक्ति पर बनी खतरा
सपनों को टोकतीं
साँसों को दबोचतीं
भविष्य-वाणी करतीं
सत्ता समर्थक
संवेदनहीन छींकें
संचार के
विचार के हर माध्यम में
सुनाई देती हैं
व्यंजित करती हैं
अन्योक्ति
दुःख देने वाली
धूनी लगीं
छींके ही छींकें…
पल्ले पड़ी मनहूस छींकें।
००
कामना
धुंधभरी सड़क पर
कुत्तों के पहरे में
सफेद काली व्याकुल भेड़ें
एक दूसरे से घिरते घिसटते
बूचड़खाने की ओर जा रही हैं
जहाँ दलाल इनका स्वागत करेंगे
इस झुंड की अपनी कोई कीमत नहीं है
इसने अपना अस्तित्व अन्य हाथों में सौंप दिया है
घास फूस चरती
इनकी गर्दनें
ढीली और नीची कब तक रहेंगी?
यह भेड़ें कभी तो मुँह ऊपर उठाएँ
भेड़ियों से भिड़ जाएँ
व्याकुल झुंड
समूह में बदलकर
बूचड़खानों को तबाह कर दें।
००
कोंपले नहीं फूट रहीं
कोंपलें नहीं फूट रहीं
जब कोंपल नहीं तो पत्ता कहाँ
कलियाँ कहाँ; फूल कहाँ
जब फूल नहीं
तो भवरें कहाँ
रंग कहाँ; खुशबू कहाँ
खुशबू नहीं
तो साँसों को चाव कहाँ
स्निग्धता का अन्तरभाव कहाँ
मीठा मीठा स्पर्श कहाँ
कोंपलें नहीं फूट रहीं
आशाएँ नहीं हिलोर रहीं
बादलों से घिरे मौसमों से पूछो कभी
कि अन्दर क्या-क्या दबा है?
००
ध्यान सिंह
ध्यान सिंह का जन्म 2 मार्च 1939 ई. को जम्मू के गाँव घरोटा में हुआ। वे डोगरी के वरिष्ठ कवि-लेखक हैं। इनका लेखन सामाजिक व राजनीतिक चेतना से लैस है। इन्होंने डुग्गर प्रांत में लोक संस्कृति के संरक्षण हेतु पर्याप्त कार्य किया है, वे अभी भी सक्रिय हैं। विभिन्न साहित्यिक विधाओं में इनकी लगभग पचास किताबें प्रकाशित हैं। इन्होंने ‘कल्हण‘ का डोगरी अनुवाद भी किया है। 2009 में इन्हें ‘परछामें दी लो‘ शीर्षक कविता संग्रह पर साहित्य अकादमी और 2014 में बाल साहित्य पुरस्कार मिला है। इनकी कविताओं के कुछ अनुवाद प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिकाओं ‘सदानीरा‘ और ‘पहली बार‘ पर भी पढ़े जा सकते हैं।
सम्पर्क:
गाँव व डाक- बटैहड़ा
तहसील व ज़िला- जम्मू, पिन कोड- 181206
जम्मू-कश्मीर
फोन नम्बर- 919259879
कमल जीत चौधरी
कमल जीत चौधरी की कविताएँ, आलेख और अनुवाद अनेक पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग्स, वेबसाइट्स और सामूहिक संकलनों में प्रकाशित हैं। कुछ कविताएँ मराठी, उड़िया और बंगला में अनूदित व प्रकाशित हैं। ‘हिन्दी का नमक‘, ‘दुनिया का अंतिम घोषणापत्र‘ और ‘समकाल की आवाज़-चयनित कविताएँ‘ नामक तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। जम्मू-कश्मीर के समकालीन कवियों की चुनिंदा कविताओं की किताब ‘मुझे आई. डी. कार्ड दिलाओ‘ का संपादन भी किया है। पहला कविता संग्रह; ‘हिन्दी का नमक‘, ‘अनुनाद सम्मान‘ और ‘पाखी:शब्द साधक सम्मान‘ से सम्मानित है।
सम्पर्क:
गाँव व डाक- काली बड़ी,
तहसील व ज़िला- साम्बा, पिन कोड- 184121
जम्मू-कश्मीर
फोन नम्बर- 9419274404
बहुत सुन्दर
बेहद ज़रूरी कविताएं व बहुत बढ़िया अनुवाद।
अपने सहज अनुवाद के माध्यम से ध्यान सिंह जी की इन महत्वपूर्ण और अन्तस को छूती हुई कविताओं से परिचित करवाने के लिए भाई कमलजीत का आभार और अनुनाद का शुक्रिया ।
Sir, शुक्रिया।
हार्दिक धन्यवाद। 😊
धन्यवाद योगेश जी।