अनुनाद

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काव्य आलोचना के बोधात्मक प्रतिमान -प्रचण्‍ड प्रवीर

पिछले दिनों मेरे किसी मित्र ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर के हवाले से कहा कि गुरुदेव का मत था कि यदि कोई उनसे कविता का अर्थ पूछे तो वे हतप्रभ रह जाते हैं। यह कुछ ऐसा है जैसे किसी पुष्प का अर्थ पूछना, जबकि उसका सौरभ ही वास्तविक आनन्द है। वही अभीष्ट है।

मैंने इस वक्तव्य के मूल स्रोत को ढूँढने की कोशिश की, किन्तु अभी तक सफलता नहीं मिली है। बहरहाल, इसी को आगे बढ़ाते हैं तो हमारे मित्र का कहना है कि कविता में भी अर्थ ढूँढना बेमानी है। इसके विवेचन में उन्होंने प्रसिद्ध फ्रांसिसी चित्रकार मार्सेल ड्यूशैम्प (१८८७-१९६८) की कलाकृति ‘झरना-मूत्रदान’ (https://en.wikipedia.org/wiki/Fountain_(Duchamp)) का उल्लेख किया। सन् १९१७ में एक कला प्रदर्शनी में मार्सेल ड्यूशैम्प ने बना-बनाया मूत्रदान रखा और कहा कि कलाकार दैनिक जीवन में प्रयोग आने वाली वस्तुओं को अपनी चुनाव से कला की गरिमा प्रदान कर सकता है। बाद में यह बनी-बनायी कलाकृति बहुत से कलाकारों के लिए चिन्तन-मनन और प्रेरणा का कारण बनी रही। ऐसे ही प्रयासों के फलस्वरूप कहा जा सकता है कि आज के समय में  कला दृष्टि रखने वाले ‘क्युरेटर’ या संग्रहकर्ता को भी कला सर्जक जितना सम्मान मिलता है।

यहाँ सोचने वाली बात है कि अगर ड्यूशैम्प के बजाय किसी सोलह साल के लड़के ने कला प्रदर्शनी में ऐसा कुछ रखा होता तो क्या उसे भी ऐसा सम्मान मिलता? शायद उसे दण्ड दे कर भगा दिया जाता। अमरीकी कलाकार एण्डी वार्हॉल(१९२८-१९८७) के ब्रिलो बॉक्स ( https://artmuseum.princeton.edu/collections/objects/33816 ) में साधारण पैकेज वाले डब्बे हैं, जो बेहद चर्चित रहें। मैं समझता हूँ कि मार्सेल ड्यूशैम्प और एण्डी वार्होल कला के सौन्दर्य में केवल ‘प्रिय’ की अवधारणा को भी चुनौती देना चाहते थे और साथ ही अनुकरण की सम्यकता व सीमितता को रेखांकित करना चाहते हैं। कुछ इस तरह जैसे कि सत्रहवीं सदी के महान स्पेनी उपन्यास ‘डॉन किशोते’ के दूसरे खण्ड में राज्य के प्रलोभन में डॉन किशोते का साथ देने वाले ‘सैंचो पंजा’ को सचमुच का राज्य मिल तो जाता है पर वह सैंचो पंजा को संतुष्ट नहीं कर पाता। कहने का अर्थ है कि वास्तविकता के अनुकरण के बदले अगर वास्तविकता ही मिल जाए तो क्या बुरा है? बुराई इसमें है कि हमें वह वास्तविकता स्वीकार्य नहीं हो पाती, क्योंकि वह बहुधा उसी रूप में नहीं होती जिस रूप में हमने चाहा था।

भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में अनुकरण और अनुकीर्तन के अंतर का उल्लेख है। जहाँ अनुकरण वास्तविकता की नकल जैसी है, वहीं अनुकीर्तन वास्तविकता को समझ कर फिर से कहना है।

उसके अलावा नाट्यशास्त्र में नृत्त, नृत्य और नाट्य के अन्तर की विवेचना है। नाट्य को मोटे तौर पर नृत्य, गीत और वाद्य का समूह समझा जाता है। हालांकि नाट्यशास्त्र में नाटक की उत्पत्ति के विषय में कथा है कि जिसमें इन्द्र ब्रह्मा से कहते हैं कि वह क्रीड़ा के लिए कुछ ऐसा चाहते हैं जो दृश्य और श्रव्य हो। यही क्रीड़ायोग्य दृश्य-श्रव्य वस्तु ही नाट्य है। नाट्य शब्द नट् धातु से बना है, जिसे नृत्त,नृत्य और नाट्य बनते हैं।

    • नृत्त – नृत्त का अर्थ अंगों को संचालन, जिसे हम आम तौर पर बालीवुड फ़िल्मों में दर्शाये गये नाच में देखते हैं। बहुधा इनमें कोई विशेष अर्थ नहीं होता है।

    • नृत्य – वहीं शास्त्रीय नृत्यों में विभिन्न मुद्राओं से कुछ अर्थ संप्रेषित किए जाते हैं। आपने देखा होगा कि भरतनाट्यम् में नर्तकी हाथों से फूल, राजा और तरह-तरह के अर्थों को अभिनय के माध्यम से बताती है।

    • नाट्य – नट के द्वारा प्रस्तुत अभिनय के प्रभाव से प्रत्यक्ष के समान प्रतीत होने वाला, एकाग्र मन की निश्चलता के कारण अनुभव किए जाने वाला और नाटक एवं काव्यविशेष से प्रकाशित ‘एकघन’ अर्थ ‘नाट्य’ कहा जाता है। नाट्य में अर्थ को रस से संप्रेषित किया जाता है, जिसमें सभी तरह की कलाएँ अंतर्निहित हो जाती हैं।

हम यहाँ रस की विवेचना पर विस्तार से नहीं जाएँगे। हालाँकि यह ध्यान देने योग्य है कि वीभत्स, करुण, भयानक व रौद्र रस जैसे लौकिक रूप से ‘अप्रिय अवधारणाएँ’ भी रस के रूप में भारतीय शास्त्र में प्रतिष्ठित हैं। इस तरह केवल प्रिय ही सौन्दर्य का विषय न हो कर, लौकिक अप्रिय भी कला के अलौकिक संसार में सौन्दर्य का विषय है।

फिलहाल, भारतीय शास्त्रीय विचारों के कई सम्प्रदाय काव्य और कला में अंतर करते हैं। छठी सदी के संस्कृत के कवि दण्डी ने चौंसठ कलाओं का उल्लेख किया है। नौवीं सदी के गुर्जर प्रतिहार शासकों के राजकवि, राजशेखर ने अपनी पुस्तक ‘काव्यमीमांसा‘ में काव्य को विद्या कहा है। वहीं कला को उपविद्या कहा है, जिसे उन्होंने काव्य से भिन्न वस्तु माना है। उपविद्या मानने से कला विज्ञान से अधिक सम्बन्धित हो जाती है। इस तरह कला की रूप-रेखा किसी निश्चित सिद्धान्त तक पहुँचा देती हैं। वास्तुनिर्माण, मूर्तिकला और चित्रकला शास्त्रीय दृष्टि से शिल्प माने जाते हैं।

आचार्य गोविन्द चन्द्र पाण्डे अपनी पुस्तक ‘सौन्दर्य-दर्शन-विमर्श’ में सौन्दर्य को एक विलक्षण अर्थ बताते हुए उससे आनंद के अनुभव की उपलब्धि के तीन स्रोतों की चर्चा करते हैं: – पहला – कलाएँ (संगीत, चित्र आदि), दूसरा – काव्य और तीसरा – प्राकृतिक दृश्य।

उल्लेखनीय है कि बुद्धि का व्यापार निश्चयन है और कृत्रिम बुद्धि यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भी अधिक से अधिक निश्चयन का काम ही कर सकती है। इसलिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से कला जैसे कि चित्र, मूर्तिकला, सङ्गीत, वाद्य आदि सुगमता से बनाए जा रहे हैं और बनाए जा सकेंगे।

भारतीय काव्यशास्त्र के अंतर्गत पारम्परिक साहित्य समालोचना निम्न आठ संप्रदायों में निरूपित हैः 1. रस 2. ध्वनि 3. औचित्य 4. रीति 5. वक्रोक्ति 6. गुण 7. दोष और 8. अलंकार।

यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि काव्य में हम अनुकीर्तन सहज रूप से पाते हैं। हमारा मूलभूत प्रश्न यह है कि कविता में हम अर्थ ढूँढे या ना ढूँढें? अगर हम काव्य और कला दोनों को सौन्दर्य के साधन के अर्थ में लें तथा इस बात पर जोर दें कि जिस तरह ‘नृत्‍त’ (मामूली अंग संचालन) में कोईविशेष अर्थ अभिप्रेत नहीं है, किन्तु यह देखने वाले को अच्छा लगता है उसी तरह गुरुदेव टैगौर का विचार इस तरह समझा रहा है कि कविता में कोई अर्थ नहीं है। यह केवल अच्छा लग रहा है– यह दृष्टि हमारी विवेचना का विषय है।

नृत्त की विवेचना पर हम पाते हैं कि नृत्त भी अंग संचालन के लय और आवृत्तिपर निर्भर है। वह किसी लौकिक कारण से सुख-दुख की अभिव्यक्ति है, हालाँकि नृत्य की तरह उसमें विशेष अर्थ का निगमन नहीं होता जैसे कि युवराज का राज्याभिषेक या पंछी की उड़ान आदि। किन्तु नृत्त केवल अंग संचालन के आंतरिक लय और आवृत्ति से क्यों रुचिकर है? यह विचारणीय है।

हम यह कह सकते हैं कि आधुनिक कला या ‘मॉर्डन आर्ट’ में कई उदाहरण अर्थक्रम में व्यवधान डालते हैं। इसका अर्थ यह लें कि विशिष्ट ‘मार्डन आर्ट’ में अर्थ का व्यवधान ही अर्थ है, तब भी समस्या है। समस्या कला या काव्य के प्रयोजन की परिभाषा या स्वयं उनके स्वरूप को ले कर है। मूलभूत प्रश्न यह उठता है कि क्या कला सम्प्रेषणीय है या नहीं? क्या इसमें कुछ कहा जा रहा है या नहीं? अगर कुछ कहा नहीं जा रहा तो वह शारीरिक विकार की तरह है। कविता में अगर वह कहा जा रहा है तो क्या वह शब्दों का समूह है, जैसे कि ‘गबड़ लबड़ तैतरा फुलान’। अब कहेंगे नहीं-नहीं, अर्थवान् शब्दों का समूह। सहज प्रश्न है कि अर्थ क्या होता है? इस सम्बन्ध में एक प्रश्न उठता है कि सम्बोधन करना अर्थवान है या नहीं? जैसे ‘हे राम’, ‘ऐ नीरज’ आदि सम्बोधन किसी अर्थ को सम्प्रेषित नहीं करते, किन्तु यह दो के बीच सम्बन्ध का प्रबोधन करते हैं या कहें तो जगाते हैं। किन्तु क्या किसी को जगाना, अर्थहीन है?

हम देख सकते हैं कि ‘है राम नहीं उबलती घोड़ा नदी भी बादल बेसुरी चप्पल’जैसे अर्थवान् शब्द समूह कोई अर्थ नहीं प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि यह योजना व्याकरण सम्मत वाक्य नहीं बनाती। जरा नॉम चॉमस्की द्वारा दिए उदाहरणपर विचार करें, जिसमें वह कहते हैं कि अर्थवान शब्दों का व्याकरण सम्मत संयोजन भी वाक्य में अर्थ नहीं पैदा कर सकता जैसे कि – रंगरहित हरित स्वप्न उग्रता से सोते हैं (Colorless green ideas sleep furiously)।

यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि हमारे प्रतिपक्षी की मूल आपत्ति दो तरह की प्रतीत होती है। पहली यह कि कविता या कलाकृति में अर्थ नहीं होता है इसलिए अर्थ ढूँढना बेमानी है। दूसरा यह कि कोई भी परिभाषा सीमित करती है, इस तरह का परिसीमन कुछ न कुछ अवश्य छोड़ देता है, जिसके कारण परिभाषा देना ही अपूर्ण उपक्रम है और वह वास्तविकता को पूरी तरह नहीं प्रकट करता। हम अभी अर्थ वाले पहलू पर गौर करते हैं।

शब्दों की संहिता से अर्थ का निगमित होना, वाक्य की अभिधा के लिए आवश्यक है। किन्तु आनन्दवर्धन के ध्वनि सिद्धान्त से शब्द की तीन शक्तियों को हम विचारें– अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना- तब हम पाएँगे कि कविता में जो शब्द संहिता आती है वह अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना से संचालित होती है किन्तु निरर्थक नहीं है। हमारा कहना है कि यदि कविता निरर्थक है तो वह काव्य नहीं है।

उदाहरण के लिए हम कहते हैं ‘जूही चावला चाँद है’, और इस रूपक को हम इस तरह समझते हैं कि जूही चावला चाँद जैसी है। श्रोता इस के अर्थ की अधिक विवेचना अपनी चेतना में करे तो वह यह समझेगा कि जूही चावला का मुख चाँद जैसा कान्तिमान और प्रिय है। निश्चय ही कवि की कारयित्री प्रतिभा के साथ-साथ निर्मल श्रोता की भावयित्री प्रतिभा ही अर्थ का उन्नयन करती है।

किन्तु कई ऐसी कविताएँ हैं, जहाँ व्यञ्जनाएँ काम आती है। जैसे कि हमने कहा चार बज गए, इसका अर्थ कोई यह लगा सकता है कि दफ्तर से छुट्टी होने वाली है, कोई यह लगाएगा कि बच्चे स्कूल से आने वाले हैं या फिर कोई रेलगाड़ी जो तीन बज कर पचास मिनट पर आने वाली थी अभी तक नहीं आयी। आशय यह है किवक्तव्य की पृष्ठभूमि और कहने की मंशा, दोनों ही स्पष्ट नहीं है तथा वह श्रोता पर समझने के लिए छोड़ दी गयी हैं।

अभिनवगुप्त ने आनन्दवर्धन की ‘ध्वन्यालोक’ की टीका ‘ध्वान्यालोक-लोचन’ में कहा है कि व्यञ्जना शब्दों के अनन्त अर्थों का अनुसंधान है। व्यञ्जना शक्तिमें अर्थ आवश्यक रूप से साझा करने योग्य नहीं है, जिस तरह अभिधा शक्ति आवश्यक रूप से ‘लोक-ग्राह्य’ और साझा करने योग्य है। जिस तरह व्यञ्जना की कई सम्भाव्यता ऐसी हैं किवहाँ अर्थ सम्प्रेषित तो है किन्तु सुस्पष्ट नहीं है, उसी तरह कुछ मित्रों का कहना है कि कविता का आस्वाद निर्विकल्प अनुभूति की ओर इंगित करता है, वहाँ सविकल्प होने की आवश्यकता नहीं। उनका यह भी कहना है कि कुल मिला कर तथाकथित गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की बात भी इसी वाद की ओर इशारा करती है।

निर्विकल्प और सविकल्प शब्दों के विषय में थोड़ा समझ लेते हैं। विकल्प का अर्थ है कल्पना का प्रस्फुटित होना। जैसे आपने मन में शेर के बारे में सोचा या घोड़े के बारे में। उसका निश्चित विचार आपके मन में उदित होता है। जैसे पूछने पर आप बता देंगे कि शेर के चार पैर होते हैं, गरदन पर अयाल होता है, पैने दाँत होते हें आदि, आदि। सविकल्प का अर्थ है कल्पना का निश्चयन। कविता के अर्थ का सविकल्पक होना का मतलब यह है कि उसे अन्य शब्दों से समझ में व्यवस्थित कर लेना। क्योंकि यहाँ ज्ञान का कार्य चेतना में अवधारणा का व्यवस्थापन है। मानसिक विचार जैसे कि लज्जा, क्रोध, स्नेह आदि भी सविकल्पक ही हैं, भले ही वह शेर के बिम्ब की तरह मूर्त न हों।      

फिर निर्विकल्पक विचार क्या होता है?

इसको समझने के लिए हमें बौद्ध प्रमाणशास्त्र की ओर चलना होगा। बौद्ध चिन्तन के केन्द्र में ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ है। प्रतीत्यसमुत्पाद भारतीय शास्त्रीय दर्शन के मौलिक प्रत्यय “कारणकार्यवाद” के विद्रोह में एक वाद है। कारणकार्यवाद वस्तुगत या कहें तो जड़ पदार्थों से उत्पत्ति से सम्बन्धित हैं, जिसमें मिट्टी को घड़ा का कारण, बीज को वृक्ष का कारण, सूत को कपड़े का कारण मानते हैं, वहीं घड़ा, वृक्ष और कपड़ा कार्य माने जाते हैं। वहीं प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है। इसका उदाहरण ऐसा है कि जैसे मेज को थपथपाना और उससे आवाज़ निकलना। प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार मेज थपथपाना, आवाज़ निकलने का कारण नहीं है। यह बहुत से अन्य कारणों के समवेत व्यवहार में कारण सदृश समझ में आता है। इसी सिद्धान्त के फलस्वरूप बौद्ध चिन्तन अनित्य, अनात्म और दु:ख को अस्तित्व की तीन मौलिक अवधारणा मानता है। बौद्धों के अनुसार चूँकि हर कुछ अनित्य है, इसलिए जानने वाला (प्रमाता) भी अनित्य है। फिर किसी भी देखने वाले को प्रत्यक्ष का ज्ञान कैसे होगा? अपने विचारों की संगति में बौद्ध ज्ञान के दो प्रमाण मानते हैं – १. प्रत्यक्ष और २. अनुमान। बौद्धों का कहना है कि जब हम पहली बार पेड़ देखते हैं तो हमारी दृष्टिपटल पर कुछ संवेदना होती है, यही प्रत्यक्ष है जो निर्विकल्प है। फिर बुद्धि से यह निगमित होता है कि हम जो देख रहे हैं वह पेड़ है। यह अनुमान से सविकल्प ज्ञान बनता है। कुछ दार्शनिक सम्प्रदायों में सत् मीमांसा में वस्तु के ज्ञान के तीन स्तर – वस्तु प्रमाण, वस्तु व्यवहार और वस्तु लक्षणबोध –माने जाते हैं। जिसे हम क्रमश: निर्विकल्प ज्ञान, सविकल्प ज्ञान और वस्तुप्रत्यय से समझते हैं। आशय यह है कि वस्तु प्रमाण को निर्विकल्प ज्ञान से समझा जाता है कि फलाना वस्तु है, उसकी संवेदना मात्र।

 इसके उत्तरपक्ष में काश्मीर शैव दर्शन की अपनी प्रमाण चिन्तन योजना है, जहाँ तीन तरह के प्रमाण माने गए हैं: – १. प्रत्यक्ष २. अनुमान तथा३. आगम (शब्द)। काश्मीर शैव दर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण के भेद में इन्द्रिय प्रत्यक्ष (जिसके विषय हैं- रूप, शब्द, स्पर्श, रस और गंध) , मानस प्रत्यक्ष (जिसका विषय मानसिक स्थिति जैसे लज्जा, क्रोध, विस्मय आदि हैं) और योगिप्रत्यक्ष की अवधारणा रखता है।

काश्मीर शैवदर्शन में इन्द्रिय प्रत्यक्ष की अवधारणा द्विदलीय है, जहाँ पहली बार पेड़ देखना निर्विकल्प है और बुद्धि से उसकी पुष्टि सविकल्प मानी जाती है। बुद्धि द्वारा पुष्टि यहाँ अनुमान के अंतर्गत नहीं आती। यहाँ प्रत्यक्ष का विषय ‘एक’ है। शैव दर्शन के मत में मनुष्य ‘एक’ की अवधारणा में पेड़ देखता है, या फिर ‘पेड़ की शाखा’ देखता है या संगीत सुनता है या फिर उस संगीत में ‘तबले की थाप’ सुनता है।

काश्मीर शैवदर्शन भर्तृहरि के सिद्धान्त के अनुसार वाणी के चार स्वरूप को मानती है:- १. परा २. पश्यन्ती ३. मध्यमा और ४. वैखरी। आचार्य अभिनवगुप्त का कहना है कि पश्यन्ती निर्विकल्प है। काश्मीर शैवदर्शन में निर्विकल्पता और सविकल्पता के प्रत्यय सापेक्षिक और गतिशील हैं। संवर्तन और विवर्तन, संवरण और अपावरण के द्वारा यह कहा जाता है कि हर पूर्वावस्था में परवर्ती अवस्था की अपेक्षा प्रमातृभाव (जाननेवाला भाव) संवृत और प्रमेयभाव संवर्तित है और हर परवर्ती अवस्था में प्रमातृभाव अपावृत और प्रमेयभाव विवर्तित है। अत: हर परवर्ती अवस्था अधिक फैली होने के कारण विकल्पात्मकता को धारण करती हुयी अपनी अपेक्षा से पूर्वावस्था का ग्रहण निर्विकल्पक रूप से कराती है। सरल शब्दों में ज्ञानात्मक अवधारणा में हर पूर्ववर्ती निर्विकल्प है और हर परवर्ती सविकल्प।

इसके अच्छे से समझते हैं। मान लीजिए आपकी आँखों पर पट्टी बाँध के एक कमरे में ले जाया गया। वहाँ पट्टी खोलने के बाद आपसे पूछ गया क्या दिख रहा है। आपकी धुँधली आँखें धीरे-धीरे खुलीं और आपने कहा कुछ दिख रहा है। फिर दृष्टि और स्पष्ट हुयी तब आपने कहा कि घड़ा है। और पूछने पर बताया कि पीतल का घड़ा है। अधिक पूछने पर आपने कहा कि उस घड़े पर फूल-पत्तियों की नक्काशी बनी हुयी है। यहाँ आपके ज्ञान का विषय एक ‘घड़ा’ होते हुए भी अपनी विवेचना में सविकल्पक होता गया। स्थूल रूप से हमनिर्विकल्पता को हम संवेदना या क्षणिक अस्पष्ट अनुभूति (अंग्रेजी में – सेंसेशन) से समझ सकते हैं।

नृत्त,नृत्य और नाट्य में भी हम इस तरह अर्थ की स्फुटता और अपावरण को देखते हैं, जो कि उत्तरोत्तर सविकल्पक है।

दिल्ली के जयपुर हाऊस में ‘नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट’ मेंक्यूरेटर नेइसी समस्या से जुड़ा एक दृष्टांत ऐसा दिया कि कि आपने आम खाया है और उसका स्वाद पूछने जाने पर आप क्या कहेंगे? अधिक से अधिक आप यही कह सकते हैं कि मीठा लगा। फिर पूछा जाए कि कैसा मीठा? आप गुड़ जैसा मीठा या लीची जैसा मीठा नहीं कह सकते। ध्यातव्य है कि यहाँ आम के स्वाद की अनुभूति निर्विकल्प नहीं है, क्योंकि ‘मिठास’ है, यह तो कहा ही जा रहा है। यहाँ समस्या केवल उस अनुभूति के संचारण की है, जहाँ आप केवल आम खिला कर ही दूसरे को आम का या आम की प्रजाति विशेष के स्वाद का या आम की विशिष्ट प्रजाति के फल की अवस्था (कच्चा, पक्का या बहुत अधिक पका) के स्वाद के बारे में अपनी अनुभव से अवगत करा सकते हैं। यह दृष्टांत लौकिक जगत के इन्द्रियजनित ज्ञान के अनुभव के अर्थ में है। लेकिन कलागत सौन्दर्य अनुभव और प्राकृतिक सौन्दर्य अनुभव में कुछ तो अन्तर है न! क्यावह अन्तर अर्थ सम्प्रेषण और आत्मानुभव से भिन्न है? क्या यह अन्तर कला या काव्य की परिभाषा की परिधि से बाहर है? यदि हम मान भी लें कि काव्य की अन्तिम परिभाषा नहीं होती, पर कुछ तो विशेषता है जिससे वह काव्य या कला समझी जा रही है।

 यहाँ पर एक सम्बन्धित दार्शनिक प्रश्न है कि जो मीठा हमें लग रहा है, क्या वही मीठा दूसरे को भी लग रहा है। जिसे हम लाल रंग कहते हैं क्या दूसरा भी उसे लाल ही देखता है? आशय यह है कि हो सकता है जो हमें लाल दिखता हो, दूसरे को हमेशा हरा ही दिखता हो और उसका उल्टा कि जो हमें हरा दिखता हो, दूसरे को हमेशा लाल दिखता हो। इस तरह पूरी दुनिया वैसी की वैसी है, लेकिन हमारी मनोदशा संवेद्य-गुण इसकी निश्चित तौर पर नहीं बता सकते कि हमारी अनुभूति और जिसे हम सार्वभौमिक अनुभूति की संज्ञा देते हैं वह एक ही है। इस दार्शनिक समस्या को अंग्रेजी में क्वालिया(qualia)कहते हैं। बहरहाल प्रश्न को ही हम निरुद्धेश्य समझते हैं, क्योंकि व्यवहार में या हमारी समझ में यह कोई भेद उत्पन्न नहीं करती।

लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि शब्द-व्यापार हमारी विभिन्न अनुभूतियों का परिसीमन और तद्पश्चात संप्रेषण हेतुवाहक ही है। जब हम नदी कहते हैं या बादल कहते हैं, तब उसका बिम्ब हमारी पूर्व अनुभूतियों से निर्मित होता है, जो कि प्रेक्षक की प्रतिभा का क्षेत्र है। हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियों में केवल चक्षु और कर्ण ही सौन्दर्य की अवधारणा हेतु हैं, क्योंकि ‘दृश्य’ और ‘श्रव्य’ ही सौन्दर्य का विषय है। स्पर्श, गंध और स्वाद – इन तीनों में इन्द्रियों का बाह्य पदार्थों से स्थूल और सूक्ष्म संयोजन होता है, वहीं रूप और ध्वनि में इन्द्रिय सन्निकर्ष अति सूक्ष्म (तंरगों के तरंग दैर्ध्य के स्तर) पर होता है। अति सूक्ष्मता के कारण इनका ‘अनुकीर्तन’सम्भव है, वहीं स्थूल और सूक्ष्म सन्निकर्ष हेतु वास्तविकता केवल उसी रूप में ही परोसी जा सकती है।

अब आते हैं काव्य की अवधारणा को ले कर। हम वाणी-व्यापार को इस तरह समझते हैं कि वह वक्ता में परा (चेतना की संवेदना का स्तर) से निकल करपश्यन्ती (विवक्षा की स्थिति) से उतर कर मध्यमा (अस्फुट मानसिक विचार) और फिर वैखरी (उच्चारित वाक्य आदि) में बिखर जाती है, उसी तरह वह श्रोता में वैखरी से मध्यमा, फिर मध्यमा से पश्यन्ती में समाहित होते हुए परा में विश्रान्त होती है। इसी तरह काव्य की प्रक्रिया पर विचार करते हैं।

यदि हम कविता को पढ़ रहे हैं या सुन रहे हैं, तब वह बौद्ध दृष्टि से इन्द्रिय प्रत्यक्ष से निर्विकल्प रूप में हम तक पहुँचती है। हालाँकि कला या काव्य का संसार अलौकिक (पारलौकिक नहीं, इस लोक से भिन्न के अर्थ में) है, किन्तु यह प्रक्रिया लौकिक है। निर्विकल्प लिखित या उच्चारित शब्द संहिता को हम बुद्धि से निगमित करते हैं। शब्द की शक्ति – अभिधा (उपमा), लक्षणा (रूपक आदि), व्यञ्जना (वक्रोक्ति, कटाक्ष आदि) से हम उस अर्थ का मध्यमा वाक् में उन्नयन करते हैं। निश्चय ही यह आनन्द सविकल्पक है, क्योंकि न तो शब्द निरर्थक हैं न ही शब्द संहिता। अन्यथा वह उपरोक्त परिभाषा से काव्य ही नहीं। यहाँ सविकल्पता का स्वरूप बिम्ब योजना है, जो मन में स्फुटित होती है। वरना किसी तमिल न समझने वाले के सामने तमिल कविता पढ़ना हो, सुन कर श्रोता यही कहेगा कि कुछ बोला जा रहा है जो समझ नहीं आता।

किन्तु प्रश्न उठेगा कि मध्यमा के उपरान्त चेतना में काव्य की अनुभूति पश्यन्ती में ही तो विश्रान्त होगी, जो कि हमारे अनुसार निर्विकल्पक है। निश्चय ही इस बात से सहमति है कि काव्य की अनुभूति निर्विकल्प हो जाएगी, लेकिन उत्तम काव्य की। वह भी इन अर्थों में कि कविता की स्मृति रह जाएगी कि वह अच्छी कविता थी। न तो तत्काल उसके शब्द याद रहेंगे, इन उस पर तात्क्षणिक मनन हो रहा होगा।

जब हम काव्य आलोचना के ज्ञानात्मक प्रतिमान की बात करते हैं तो एक विचित्र दार्शनिक भँवर में फँसते हैं। ज्ञान का साधारण अर्थ लौकिक अनुभव जगत के सत्य और असत्य की कोटि को तय करने से जुड़ा है, जिसमें जानने वाले को प्रमाता और शुद्ध ज्ञान को प्रमा कहते हैं। काव्य जगत का लोक मानवीय संवेदना के बहुआयामी स्तर को प्रस्तुत करता है, जहाँ के ज्ञानात्मक प्रतिमान की कोटि बदल जाती है यदि उसके लिए भी हम ज्ञान शब्द का प्रयोग करें तो। ऐसा इसलिएक्योंकि काव्य जगत में वाक्य ‘समय भिक्षुक है’– रूपकों का व्यापार हैं जो शब्द की लक्षणा शक्ति से प्रेरित हैं। काव्य जगत में ज्ञान की कोटि लौकिक अनुभव विषय – जैसे ‘देवदत्त मोटा है’ – की तरह ‘सत्य’ व ‘असत्य’ की कोटि में नहीं आती।

काश्मीर शैव दर्शन में यह मानते हैं कि परमप्रमाता के अतिरिक्त सब कुछ ज्ञान का विषय है यानी सभी कुछ ज्ञेय है।काश्मीर शिवाद्वयवादमें ज्ञान का अर्थ चार तरह से लिया जाता है– १. प्रमाता का स्वरूप (प्रमातृत्व व कर्तृत्व का अपोद्धृत रूप) २. शक्ति (ज्ञान-स्मृति-अपोहन) ३. बुद्धिवृत्ति (प्रमाण, संशय आदि) या बोध और ४. अनुभव या प्रत्यक्ष। लेख की सीमा के कारण यहाँ अधिक विस्तार में नहीं जाना श्रेयस्कर होगा। कहना इतना है कि हम संशय, विकल्प, अनुभव – सभी कुछ जानते हैं और उसकी विवेचना हमारा अभीष्ट है, इसके लिए हमें अपनी सीमाओं का विस्तार करना मात्र है।यह विचारणीय है कि व्यञ्जना शक्ति से क्या काव्य का स्वरूप पहेली जैसा बन जाता है। ज्ञान के बुद्धिवृत्ति के अर्थ में देखे तो क्या कविता समझ में आ जाने के प्रक्रिया क्या तुक्का मारने जैसी हो जानी चाहिए? प्रश्न उठता है कि आप काव्य और कला की कुछ परिभाषा मानते हैं या नहीं? क्या काव्य ओर कलाकृति में अर्थ के अनुसंधान का प्रश्न है या अभिव्यक्ति को समझने का प्रयत्न है?यदि प्रतिपक्षी काव्य, कला या इसी तरह सम्बन्धित किसी भी परिभाषा को स्वीकार करने से मना कर देते हैं, फिर भी कुछ लक्षण तो मानेंगे ही। नहीं तो हम कविता करते-करते कभी विज्ञान और कभी भूगोल की बात करने लगेंगे। ऐसा तो उन्हें भी स्वीकार्य नहीं होगा। यह हम भले ही मान सकते  कि  काव्य या कला की परिभाषा अन्तिम नहीं हो सकती, किन्तु यह बोध का विषय अवश्य है, इसे अस्वीकार करना असंगत होगा।

शास्त्रीय विवेचना में रस व्यापार की कोटि दो प्रमुख यौक्तिक सम्बन्ध – कार्यकारण भाव, ज्ञाता-ज्ञेय भाव से भिन्न होती है, इसलिए अलौकिक है। इसको अधिक स्पष्टता से समझते हैं। लौकिक जगत में जड़ वस्तुओं में कारणकार्य भाव (कॉज एण्ड एफेक्ट) से सम्बन्ध निगमित होता है। ज्ञानात्मक सम्बन्ध ज्ञाता और ज्ञेय के सम्बन्ध को बताता है। जहाँ पहले सम्बन्ध में कारण के बाद कार्य निगमित होता है, उससे पहले नहीं, वहीं दूसरे सम्बन्ध में ज्ञान के पूर्व या पश्चात ज्ञेय की स्थिति में परिवर्तन नहीं होता। वहीं रस व्यापार या सौन्दर्यात्मक व्यापार कलाकृति या काव्य के बिना उपपन्न नहीं (ज्ञानात्मक व्यापार से विपरीत), साथ ही वह दोहरायी भी जा सकती है जिससे रस का फलन हो (कारणकार्य भाव से विपरीत – इसलिए कि इस कोटि में काव्य या कलाकृति यदि कारण हैं तो रस या आनन्द उसी प्रकार काउत्पन्न फल नहीं हैं, क्योंकि कारण कार्य में परिणत नहीं होता)। इसलिए कहा जाता है कि रस की उत्पत्ति नहीं, ‘निष्पत्ति’ होती है। इसलिए कहा जा सकता है कि काव्य आनन्द के निष्पत्ति की कोटि बोधात्मक है, किन्तु विशिष्ट है।

सम्भवतया प्रतिपक्षियों का यह कहना हो सकता है कि कला में जिस अर्थ के प्रेषित किया जा रहा है, वह शब्दों से पूरी तरह निरूपित नहीं हो पा रहा है। यहाँ ‘नेशनल गैलरी ऑफ मार्डन आर्ट’ के क्यूरेटर का तर्क सही है कि अगर कलाकृति को शब्दों से ही पुनर्स्थापित कर दें तो कलाकृति की क्या आवश्यकता? साथ ही उसकी विवेचना के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि हम जिस अर्थ को शब्दों से नहीं कह पा रहे हैं, वही किसी तरह आपको अनुभूति के योग्य बना देना चाहते हैं। लेकिन शब्दों की विफलता, या शब्द संहिता के समायोजन की विफलता निर्विकल्पता नहीं है और साथ ही अर्थहीनता भी नहीं। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि उस अर्थ को समझाने के लिए शाब्दिक उपकरण उनके पास मौजूद नहीं हैं। लेकिन किसी विशिष्ट कला या काव्य में किसी तरह के शाब्दिक उपकरण की असंभाव्यता का दावा करना कलाकृति और आलोचना (= आँखें बढ़ा कर देखना) के लिए आत्मघाती है, कम से कम काव्य में निश्चित ही, जहाँ शब्द-व्यापार ही उसका मूल स्वरूप है। काव्य और कला का विभाजन माध्यम की विभिन्नता से ही उत्पन्न है और समझा जा सकता है। हम यह तो मानते ही हैं कि संगीत शब्दमात्र नहीं है, तभी तो संगीत है। उसी तरह मूर्ति शब्द का व्यापार नहीं है, बल्कि रूप के सृजन-आस्वादन का व्यापार है।

अर्थ की बहुलता पर एक महत्त्वपूर्ण दृष्टान्त है बिहारी के दोहे का। लोकश्रुति है कि बिहारी ने अपने किसी दोहे के सोलह अर्थ विचारे थे। किसी शास्त्रीय विवेचना में वहाँ पण्डितों ने उसके सत्ताईस अर्थ विचारे, जो बिहारी ने भी नहीं सोचे थे। जो कवि का अभिप्राय भी न हो, क्या वह अर्थ नहीं हो सकता? इसका उत्तर है, हो सकता है। जिस तरह कवि को रचना करने का स्वातन्त्र्य है, उसी तरह श्रोता को अर्थ समझने का स्वातन्त्र्य है। क्योंकि अर्थ केवल कवि के अभिप्राय से नहीं उत्पन्न होता, बल्कि सामाजिक संरचना, परिस्थिति, शब्दों का ऐतिहासिक प्रयोग जैसे नाना प्रकार के कारणों से बनता है। नाट्य में ‘एकघन’ अर्थ के हृदयंगम होने से रस की उत्पत्ति की बात कही है, जहाँ अभिनय, वाद्य, गीत सब मिल कर ‘एक’ अर्थ बनाते हैं।

अर्थ की बहुस्तरीयता को ले कर सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू तो ग्रहण करने वाले की योग्यता पर है, उसकी दृष्टि पर निर्भर है। किसी अर्थ को अंशत: ग्रहण किया, किसी पूर्णत: ग्रहण किया। कोई अर्थ की नवीनता पर, कोई उसकी प्रस्तुति पर, कोई मर्म पर मर मिटता है। किसकी दृष्टि किस ‘एक’ को विचार कर रही है, यह महत्त्वपूर्ण है। अर्थ की बहुलता और उसके आस्वाद पर संस्कृत सुभाषित के दो श्लोक इस तरह हैं: –

कविः करोति काव्यानि स्वादु जानाति पण्डितः ।

सुन्दर्या अपि लावण्यं पतिर्जानाति नो पिता॥

कवि काव्य की रचना करता है और पण्डित उसका स्वाद लेते हैं। सुन्दरी के लावण्य को पति जानता है उसका पिता नहीं।

कविः करोति पद्यानि लालयत्युत्तमो जनः ।

तरुः प्रसूते पुष्पाणि मरुद्वहति सौरभं॥

कवि सुन्दर भावपूर्ण कविताओं की रचना करते हैं और उन से श्रेष्ठ तथा काव्यानुरागी व्यक्ति आनन्दित होते हैं | इसी प्रकार वृक्षों मे फूल खिलते हैं और वायु द्वारा  उनकी सुगन्ध को प्रसारित करने से सारा वातारण सुगन्धित हो उठता है |

सवाल यह उठता है कि क्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस व्यञ्जना शक्ति का उपयोग कर सकता है? तत्त्व-मीमांसीय दृष्टि से प्रत्ययवादी काश्मीर शिवाद्वयवाद में ‘चेतना=ज्ञान=वाक्’ समीकरण माना गया है। चूँकि ज्ञान चेतना का ही स्वरूप है, इसलिए भारतीय दर्शन में कभी ज्ञान स्वतन्त्र पुरुषार्थ में नहीं गिना जाता, बल्कि वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की चतुष्टयी में अनुस्यूत है। इस प्रश्न परअभिनवगुप्त का तर्क होगा कि अचेतन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस न तो पूरी तरह ज्ञानात्मक हो सकता है, न ही वाक् से संयुक्त। कृत्रिम बुद्धि की वाणी अधिक से अधिक मध्यमा तक पहुँच सकती है। वह पहुँच कर समाप्त हो जाना उसकी नियति है।

हिन्दी काव्य आलोचना का समसामायिक स्वरूप आत्मनिषेधवादी है। जिसका परिणाम उसके कट्टर जातिवादी और सामंतवादी हो जाने में स्पष्ट है। लेकिन हमें यहाँ जातिवाद और सामंतवाद के स्वरूप को अधिक समझना होगा। जब हम राजनैतिक विचारधारा की प्रतिबद्धता की बात करते हैं, स्त्री, दलित, मुसलमानों और तृतीय लिंग विमर्श की बात करते हैं, उस समय हमारी बुद्धि एक जाति के प्रति ही सजग है। यहाँ जातिवाचक संज्ञा के बिना हमारा काम नहीं चल पा रहा। जिस तरह जन्मजात जाति के प्रति विद्वेष हम देखते हैं और उसे अनुचित मानते हैं, उसी तरह हम आलोचना में भाषायी प्रवृत्ति के साथ जुड़े उन्माद तथा असहमति के प्रति विद्वेष को देखते हैं। सामंतवादी आलोचना का प्रसारण हम काव्य आलोचना के व्यक्तिपरक हो जाने में देखते हैं। फलाना साहब कितना बढ़िया लिखते हैं, अलाना देवी ने क्या स्त्रियों का दुख बताया है, आदि आदि। परिणामत: हम व्यक्ति को पूजने या धिक्कारने लगते हैं। किसी की महत्ता को स्वीकार उसे आराध्य बना देने की पद्धति या अन्य को तिरस्कृत करने की पद्धति ही सामन्तवादी है। हम कई बड़े कवियों की खराब कविताओं का भी आदर होते हुए देखते हैं। इस विडम्बना का कारण यह है कि वह कविताओं का आसूत्रण के लिए व्यक्ति को चुनने को या किसी सामूहिक प्रवृत्ति को चुनने को विवश हैं। ऐसी विवशता इसलिए है क्योंकि हम शब्द शक्ति की विविधता-बहुलता और काव्य की अलौकिकता को अपने पारम्परिक व मूल स्वरूप मेंदेखना पसन्द नहीं करते। अभिधा में लोक जीवन ही यदि काव्य और उसकी आलोचना का प्रतिमान बन गया है तो उसकी उपलब्धि हर पाँच साल में होने वाले चुनाव में सत्ता परिवर्तन से अधिक नहीं है।

शाश्वत प्रतिमान तो यह है कि जो कविता देश, काल को नहीं जीत सकती, वह शक्तिहीन है। अपनी-अपनी पसन्द है, किसी को नटों के करतब पसन्द आते हैं किसी को शास्त्रीय नृत्य। अर्थ ग्राह्यता के इस तरह केभिन्न स्तर होने से कविता और उसकी आलोचना बहुस्तरीय संवाद से बच निकलना चाहती है। इस कारण यही है कि हमारी समकालीन काव्य आलोचना के उपकरण, प्रतिमान और विषय लौकिक अनुभव जगत तक सीमित हो चले हैं। यह खेदजनक है।

दिनांक – ३ जून २०२३

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