अनुनाद

वर्तमान समय की विद्रूपता और विसंगतियों का रेखांकन – दीक्षा मेहरा

खेमकरण सोमन’ के कविता संग्रह नई दिल्‍ली दो सौ बत्‍तीस किलोमीटर’ में संकलित सभी कविताएँ भोगे हुए जीवन-यर्थाथ की सहज अभिव्यक्तियां हैं। जीवन से लगाव और मानव मन के सरल निश्छल भावों की अभिव्यक्ति के साथ लगातार चिंतन करता हुआ कवि-मन कविता में एक संवाद क़ायम करता है, जो समकालीन जीवन की अस्थिरता और बेचैनी को व्यक्त करता हुआ समाज की कई समस्याओं को उठाता है। इस संग्रह में संसार के सुंदर रूप के साथ-साथ समाज में व्याप्त विषमताएं और उनसे उत्‍पन्‍न विभिन्‍न विसंगतियों का चित्रण भी समान रूप से अंकित होता चला गया है। काव्य-चेतना की दृष्टि से इन कविताओं में व्यवस्था के प्रति आक्रोश और क्षोभ के भाव भी दिखाई देते हैं। अपने रचना-विन्यास में कवि ने यथार्थ के अनेक लक्षित प्रसंगों को कथ्य के रूप में उठाया भी है। सोमन की कविताएं अपने दौर के अनुभूत सत्‍यों से रची-बसी हैं- जिसमें जीवन के विविध रंग हैं, तमाम अंतर्विरोधों के साथ जटिल खुरदरा यथार्थ है, कुरूप और भयावह परिस्थितियां हैं, लगातार हो रहे नैतिक मूल्‍यों का ह्रास और आदर्शों का खोखलापन भी है। इस संग्रह में समाजिक संघर्षों के साथ ही कवि का आत्‍मसंघर्ष भी है। इनकी कविताओं में एक ओर सामाजिक प्रतिबद्धता है, तो दूरी ओर एक दिन सब कुछ ठीक हो जाने की उम्‍मीद भी है। आज के छल-कपट के माहौल में भी कृतज्ञता में विश्वास  सोमन के सकारात्मक व्यक्तित्व का परिचायक है। इस संग्रह की प्रथम कविता कृतज्ञता की तख्‍ती लेकर’ जिसकी पंक्तियां हैं-

                      नदी बही जा रही है कृतज्ञता से
                       न छल है मन में-
                       न कपट, न चमचागिरी
                       उसका सरल-सुन्दर रूप देखकर,
                       सैकड़ों जीव-जन्तु भी हैं कृतज्ञ
                       उसके प्रति

सोमन की काव्य-संवेदना व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों तरह की है। मानवीय धरातल पर कवि ने जाति-धर्म और वर्ग के ताने-बाने में आदमी के अमानवीय उत्पीड़नशोषण और दमन के अनेक प्रसंगों को उजागर किया है और वह हर जगह संघर्षरत मनुष्य के साथ प्रतिबद्धता से खड़ा दिखाई देता है-

                       उस दिन

                       मजदूर निहार रहे थे अपनी पत्नियों को…..

                       छोटी-जवान होती अपनी लड़कियों को…..

                       दिवंगत माताओं-पिताओं की फोटो….

                       …………………………………………………….

                       उस दिन

                       औद्योगिक इलाके में आठ मंजिला जर्जर इमारत गिरी

                       उस दिन गिर गए

                       सैकड़ों मजदूर भी लाश बनकर।

 सोमन की कविताओं में बार-बार आए ईमान के प्रसंग एक ओर बचपन में पढ़ी पंचपरमेश्‍वर’ कहानी की याद दिलाते हैं तो दूसरी ओर मुक्तिबोध के वह कैद कर लाया गया ईमान’ के लागातार संघर्ष को बयां करते दिखाई देते हैं। कवि इस संग्रह में दिल्ली शहर को अपनी कल्पनाओं के जरिए चित्रित करते हुए उसके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विविधताओं को उजागर करता हुआ उत्‍तराखण्‍ड से दिल्‍ली की प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष दूरी को पर्याय के माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त करता है। नई दिल्‍ली दो सौ बत्‍तीस किलोमीटर’ की ये दूरी सोमन के बाजपुर के निकटवर्ती गाँव से दिल्‍ली की है जिसे वाहनों के माध्‍यम से तो पाटा जा सकता है, लेकिन ये दूरी दूर-दराज़ क्षेत्रों से दिल्‍ली की भी है। इन क्षेत्रों में तमाम संघर्षों के बीच जीवन-यापन करने वाले लोगों की बुनियादी सुविधाओं से यह दूरी आम जनता की सरकार से भी दूरी है। जिसे किसी तरह पाटना संभव नहीं दिखाई देता है।

                      पाँव को मिट्टी में धँसाएँ इन पत्थरों ने
                       कभी किया नहीं अपने आँकड़ों से हेर-फेर
                       कभी डोला नहीं इनका ईमान पढ़े-लिखे आदमी की तरह
                       हालांकि बदलना होता तो बदल भी जाते-
                       बुजुर्ग माता-पिता को त्यागकर कहीं दूर शहरों में

                       अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड
                       या कनाडा आदि देशों में बस चुके बेटों की तरह…….

                       लाला-बनिये, व्‍यापारियों के हिसाब की तरह….

                       या चुनाव के समय भारतीय वोटरों की मन:स्थिति की तरह

                       मात्र दारू-मुर्गा मीट-नमकीन पैसों के लिए

जीवन की तमाम जटिलताओं, भागदौड़, शहरीकरण, वैचारिक-मतभेद आदि के कारण लोग अपने माता-पिता को बोझ समझने लगे हैं और उन्हें वृद्धाश्रमों में रखने लगे हैं, ये आज के समाज का एक कड़वा सच है। संग्रह में कई कविताओं के माध्‍यम से कवि ने वृद्धों की समस्‍या को मार्मिक अभिव्‍यक्त्ति दी है-

                      कहते हैं बेटे- इधर हम खुश हैं।
                       उधर वृद्धाश्रम में पिताजी
                       पिताजी बहुत हँसते रहते हैं
                       मिलते हैं हम सब जब,
                       जब भी

 इसी संग्रह की एक अन्‍य कविता रहने दो उनको भी इसी तरह’ में वे लिखते हैं-

                       हर समय जरूरत नहीं होती
                       फिर भी रखते हैं लोग अपने घरों में गंगाजल
                       रखते हैं चिट्ठियाँ
                       रखते हैं कुर्सियाँ रखते हैं पैसे
                       रखते हैं लोग बहुत सारा सामान
                       जैसे- नए-पुराने कपड़े और किताबें
                       रहने दो उनको भी इसी तरह
                       इस घर में
                       उनको मत भेजो वृद्धाश्रम।

कुछ और भी ऐसे सच हैं, जो हमें सहज स्वीकार्य नहीं हैं, पर हमें उन्‍हें स्वीकारना होगा। लोग अक्सर अपने संघर्षों और समस्याओं के बीच फंसे हुए होते हैं और उन्हें समाधान नहीं मिलता। सोमन अपनी कविताओं में संघर्ष के विभिन्‍न रूपों को चित्रित करके मानव और समाज की संघर्ष चेतना को कविता में प्रस्‍तुत करते हैं-

                       जब भी नया

                       वर्ष लिखना

                       पहला शब्‍द

                       संघर्ष लिखना

 

 एक अन्‍य कविता खून से अब नमक निकल रहा है’ की पंक्तियां है-

 

                       संघर्ष से

                       जिन्‍दगी निकलती है

                       जिंदगी से अब संघर्ष निकल रहा है।

 

सोमन की कविताएं समकालीन समाज की समस्याओं, राजनीतिक विडम्‍बनाओं के प्रति तीव्र आक्रोश को प्रस्‍तुत करती हुई उनके सामान्‍य हो जाने की उम्‍मीद भी करती है- 

   

                       उस दिन एक आदमी बैठा हुआ था बस में

                       उसके पास पैसे नहीं थे

                       बस कंडक्‍टर ने कहा- पैसे नहीं है तो क्‍या हुआ

                       हम तो हैं, बैठिए जहां तक जाना है

                       उस दिन एक पड़ोसी ने दूसरे पड़ोसी से बरसों बाद कहा

                       कि आज रात सपरिवार आइएगा मेरे घर पर

                       आज रात वहीं खाना है

                       सासु मां

                       फिलहाल खेल रही थी अपनी पोती के साथ

                       उस दिन भिरारी वाली की बेटी पहली बार दिखी रोटी के साथ

                       उस दिन झोपड़ी के गरीब बच्‍चे गा रहे थे हाथों में डालकर हाथ

                       उस दिन गाबा लाला नहीं बोले-गन्‍दे पुरबिये नीच जात!

अपने समय और समाज की विसंगतियों की पहचान इस संग्रह की तमाम कविताओं का एक ख़ास गुण है यथार्थ की बेहद खुरदुरी जमीन पर विचरता कवि का बेचैन मन नाना प्रकार के झूठ फ़रेब से सँवरती, बदलती दुनिया में आम आदमी के दु:ख और उसके जीवन की कठिनाइयों को अभिव्यक्त करता है। संग्रह में कुछ लोग इन्‍तज़ार करते हैं’, ‘बुरे सपने’, ‘तब से उदास है राम की माँ’, ‘कभी सुध नहीं ली उन्‍होंने’, ‘तब लानत है मुझ पर’, ‘फिर आग उठी और धुआं’ कई ऐसी कविताएँ हैं-

                       जब छीने जा रहे थे-

                       छीनने वाले नरभक्षियों के द्वारा

                       और जब कोई न था किसी का सहारा

                       पानी के नाम

                       जाति के नाम पर भी बांट दिया गया था समाज

                       उसी समय खुल गया एक राज

                       नरभक्षी एक तरफ-

                       गांव के लोग एकजुट होकर एक तरफ

                       गांव के लोगों की तरफ पानी का कुआं

                       फिर आग उठी और धुआं।

ख़तरनाक नहीं है यह’ शीर्षक कविता एक बार फिर कवि पाश’ की कविता सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’ की याद दिलाती है खेमकरण सोमन ख़तरनाक यह नहीं’ में वे विचारों से ख़ाली हो जाने को सबसे ख़तरनाक बताते हैं। संग्रह की एक अन्‍य कविता जिनकी कोई आवाज नहीं’ में वे एक बार फिर मनुष्‍यता को बचाए रखने की बात करते दिखाई देते हैं-

                      सबके लिए भरपूर सम्‍मान रखना

                       जो जोड़ सके

                       अपने अंदर ऐसा एक इंसान रखना

सोमन का यह पहला कविता-संग्रह है। अभी बहुत संभावनाएं हैं, इनकी कविताओं में समकालीन परिस्थितियों, व्‍यवस्‍थाओं, राजनीतिक विडंबनाओं के प्रति तीव्र आक्रोश तो है, किन्‍तु संग्रह में संकलित कविताएँ पर्याप्‍त रूपकों, बिम्‍बों का निर्माण करती हुई नहीं दिखाई देती। कविता-संग्रह का शीर्षक नई दिल्‍ली दो सौ बत्‍तीस किलोमीटर’ तो एक रूपक बनाता है, किन्‍तु संग्रह की कविताओं में कवि व्‍यक्ति-समाज, राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ, धर्म-जाति, समकालीन समय की कड़वी सच्‍चाईयों के साथ-साथ ईमानदारी, मनुष्‍यता, कृतज्ञता, आदि तमाम विषयों पर सपाटबयानी में मुखर हुआ है। भाव एवं संवेदना के स्‍तर पर कविताएँ अच्‍छी हैं, भावों और विचारों में संतुलन है।

समीक्षित कृति

नई दिल्‍ली दो सौ बत्‍तीस किलोमीटर

खेमकरण सोमन’

समय साक्ष्‍य, देहरादून 

खेमकरण 'सोमन' के कविता संग्रह ‘नई दिल्‍ली दो सौ बत्‍तीस किलोमीटर' में संकलित सभी कविताएँ भोगे हुए जीवन-यर्थाथ की सहज अभिव्यक्तियां हैं। जीवन से लगाव और मानव मन के सरल निश्छल भावों की अभिव्यक्ति के साथ लगातार चिंतन करता हुआ कवि-मन कविता में एक संवाद क़ायम करता है, जो समकालीन जीवन की अस्थिरता और बेचैनी को व्यक्त करता हुआ समाज की कई समस्याओं को उठाता है। इस संग्रह में संसार के सुंदर रूप के साथ-साथ समाज में व्याप्त विषमताएं और उनसे उत्‍पन्‍न विभिन्‍न विसंगतियों का चित्रण भी समान रूप से अंकित होता चला गया है। काव्य-चेतना की दृष्टि से इन कविताओं में व्यवस्था के प्रति आक्रोश और क्षोभ के भाव भी दिखाई देते हैं। अपने रचना-विन्यास में कवि ने यथार्थ के अनेक लक्षित प्रसंगों को कथ्य के रूप में उठाया भी है। सोमन की कविताएं अपने दौर के अनुभूत सत्‍यों से रची-बसी हैं- जिसमें जीवन के विविध रंग हैं, तमाम अंतर्विरोधों के साथ जटिल खुरदरा यथार्थ है, कुरूप और भयावह परिस्थितियां हैं, लगातार हो रहे नैतिक मूल्‍यों का ह्रास और आदर्शों का खोखलापन भी है। इस संग्रह में समाजिक संघर्षों के साथ ही कवि का आत्‍मसंघर्ष भी है। इनकी कविताओं में एक ओर सामाजिक प्रतिबद्धता है, तो दूरी ओर एक दिन सब कुछ ठीक हो जाने की उम्‍मीद भी है। आज के छल-कपट के माहौल में भी कृतज्ञता में विश्वास  सोमन के सकारात्मक व्यक्तित्व का परिचायक है। इस संग्रह की प्रथम कविता 'कृतज्ञता की तख्‍ती लेकर' जिसकी पंक्तियां हैं-
                          नदी बही जा रही है कृतज्ञता से
                       न छल है मन में-
                       न कपट, न चमचागिरी
                       उसका सरल-सुन्दर रूप देखकर,
                       सैकड़ों जीव-जन्तु भी हैं कृतज्ञ
                       उसके प्रति

सोमन की काव्य-संवेदना व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों तरह की है। मानवीय धरातल पर कवि ने जाति-धर्म और वर्ग के ताने-बाने में आदमी के अमानवीय उत्पीड़न-शोषण और दमन के अनेक प्रसंगों को उजागर किया है और वह हर जगह संघर्षरत मनुष्य के साथ प्रतिबद्धता से खड़ा दिखाई देता है-
                          उस दिन
                       मजदूर निहार रहे थे अपनी पत्नियों को.....
                       छोटी-जवान होती अपनी लड़कियों को.....
                       दिवंगत माताओं-पिताओं की फोटो....
                       .............................................................
                       उस दिन
                       औद्योगिक इलाके में आठ मंजिला जर्जर इमारत गिरी
                       उस दिन गिर गए
                       सैकड़ों मजदूर भी लाश बनकर।
 सोमन की कविताओं में बार-बार आए ईमान के प्रसंग एक ओर बचपन में पढ़ी 'पंचपरमेश्‍वर' कहानी की याद दिलाते हैं तो दूसरी ओर मुक्तिबोध के 'वह कैद कर लाया गया ईमान' के लागातार संघर्ष को बयां करते दिखाई देते हैं। कवि इस संग्रह में दिल्ली शहर को अपनी कल्पनाओं के जरिए चित्रित करते हुए उसके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विविधताओं को उजागर करता हुआ उत्‍तराखण्‍ड से दिल्‍ली की प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष दूरी को पर्याय के माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त करता है। 'नई दिल्‍ली दो सौ बत्‍तीस किलोमीटर' की ये दूरी सोमन के बाजपुर के निकटवर्ती गाँव से दिल्‍ली की है जिसे वाहनों के माध्‍यम से तो पाटा जा सकता है, लेकिन ये दूरी दूर-दराज़ क्षेत्रों से दिल्‍ली की भी है। इन क्षेत्रों में तमाम संघर्षों के बीच जीवन-यापन करने वाले लोगों की बुनियादी सुविधाओं से यह दूरी आम जनता की सरकार से भी दूरी है। जिसे किसी तरह पाटना संभव नहीं दिखाई देता है।
                          पाँव को मिट्टी में धँसाएँ इन पत्थरों ने
                       कभी किया नहीं अपने आँकड़ों से हेर-फेर
                       कभी डोला नहीं इनका ईमान पढ़े-लिखे आदमी की तरह
                       हालांकि बदलना होता तो बदल भी जाते-
                       बुजुर्ग माता-पिता को त्यागकर कहीं दूर शहरों में

                       अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड
                       या कनाडा आदि देशों में बस चुके बेटों की तरह.......

                       लाला-बनिये, व्‍यापारियों के हिसाब की तरह....
                       या चुनाव के समय भारतीय वोटरों की मन:स्थिति की तरह
                       मात्र दारू-मुर्गा मीट-नमकीन पैसों के लिए
जीवन की तमाम जटिलताओं, भागदौड़, शहरीकरण, वैचारिक-मतभेद आदि के कारण लोग अपने माता-पिता को बोझ समझने लगे हैं और उन्हें वृद्धाश्रमों में रखने लगे हैं, ये आज के समाज का एक कड़वा सच है। संग्रह में कई कविताओं के माध्‍यम से कवि ने वृद्धों की समस्‍या को मार्मिक अभिव्‍यक्त्ति दी है-
                          कहते हैं बेटे- इधर हम खुश हैं।
                       उधर वृद्धाश्रम में पिताजी
                       पिताजी बहुत हँसते रहते हैं
                       मिलते हैं हम सब जब,
                       जब भी


         इसी संग्रह की एक अन्‍य कविता 'रहने दो उनको भी इसी तरह' में वे लिखते हैं-
                          हर समय जरूरत नहीं होती
                       फिर भी रखते हैं लोग अपने घरों में गंगाजल
                       रखते हैं चिट्ठियाँ
                       रखते हैं कुर्सियाँ रखते हैं पैसे
                       रखते हैं लोग बहुत सारा सामान
                       जैसे- नए-पुराने कपड़े और किताबें
                       रहने दो उनको भी इसी तरह
                       इस घर में
                       उनको मत भेजो वृद्धाश्रम।

         कुछ और भी ऐसे सच हैं, जो हमें सहज स्वीकार्य नहीं हैं, पर हमें उन्‍हें स्वीकारना होगा। लोग अक्सर अपने संघर्षों और समस्याओं के बीच फंसे हुए होते हैं और उन्हें समाधान नहीं मिलता। सोमन अपनी कविताओं में संघर्ष के विभिन्‍न रूपों को चित्रित करके मानव और समाज की संघर्ष चेतना को कविता में प्रस्‍तुत करते हैं-
                          जब भी नया
                          वर्ष लिखना
                       पहला शब्‍द
                       संघर्ष लिखना
 
        एक अन्‍य कविता 'खून से अब नमक निकल रहा है' की पंक्तियां है-
                       संघर्ष से
                       जिन्‍दगी निकलती है
                       जिंदगी से अब संघर्ष निकल रहा है।
 
 सोमन की कविताएं समकालीन समाज की समस्याओं, राजनीतिक विडम्‍बनाओं के प्रति तीव्र आक्रोश को प्रस्‍तुत करती हुई उनके सामान्‍य हो जाने की उम्‍मीद भी करती है-    
                          उस दिन एक आदमी बैठा हुआ था बस में
                       उसके पास पैसे नहीं थे
                       बस कंडक्‍टर ने कहा- पैसे नहीं है तो क्‍या हुआ
                       हम तो हैं, बैठिए जहां तक जाना है
                       उस दिन एक पड़ोसी ने दूसरे पड़ोसी से बरसों बाद कहा
                       कि आज रात सपरिवार आइएगा मेरे घर पर
                       आज रात वहीं खाना है
                       सासु मां
                       फिलहाल खेल रही थी अपनी पोती के साथ
                       उस दिन भिरारी वाली की बेटी पहली बार दिखी रोटी के साथ
                       उस दिन झोपड़ी के गरीब बच्‍चे गा रहे थे हाथों में डालकर हाथ
                       उस दिन गाबा लाला नहीं बोले-गन्‍दे पुरबिये नीच जात!
अपने समय और समाज की विसंगतियों की पहचान इस संग्रह की तमाम कविताओं का एक ख़ास गुण है यथार्थ की बेहद खुरदुरी जमीन पर विचरता कवि का बेचैन मन नाना प्रकार के झूठ फ़रेब से सँवरती, बदलती दुनिया में आम आदमी के दु:ख और उसके जीवन की कठिनाइयों को व्यक्त करता है। संग्रह में 'कुछ लोग इन्‍तज़ार करते हैं', 'बुरे सपने', 'तब से उदास है राम की माँ', 'कभी सुध नहीं ली उन्‍होंने', 'तब लानत है मुझ पर', 'फिर आग उठी और धुआं' कई ऐसी कविताएँ हैं-
                          जब छीने जा रहे थे-
                       छीनने वाले नरभक्षियों के द्वारा
                       और जब कोई न था किसी का सहारा
                       पानी के नाम
                       जाति के नाम पर भी बांट दिया गया था समाज
                       उसी समय खुल गया एक राज
                       नरभक्षी एक तरफ-
                       गांव के लोग एकजुट होकर एक तरफ
                       गांव के लोगों की तरफ पानी का कुआं
                       फिर आग उठी और धुआं।
'ख़तरनाक नहीं है यह' शीर्षक कविता एक बार फिर कवि 'पाश' की कविता 'सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना' की याद दिलाती है खेमकरण सोमन'ख़तरनाक यह नहीं' में वे विचारों से ख़ाली हो जाने को सबसे ख़तरनाक बताते हैं। संग्रह की एक अन्‍य कविता 'जिनकी कोई आवाज नहीं' में वे एक बार फिर मनुष्‍यता को बचाए रखने की बात करते दिखाई देते हैं-
                          सबके लिए भरपूर सम्‍मान रखना
                       जो जोड़ सके
                       अपने अंदर ऐसा एक इंसान रखना
सोमन का यह पहला कविता-संग्रह है। अभी बहुत संभावनाएं हैं, इनकी कविताओं में समकालीन परिस्थितियों, व्‍यवस्‍थाओं, राजनीतिक विडंबनाओं के प्रति तीव्र आक्रोश तो है, किन्‍तु संग्रह में संकलित कविताएँ पर्याप्‍त रूपकों, बिम्‍बों का निर्माण करती हुई नहीं दिखाई देती। कविता-संग्रह का शीर्षक 'नई दिल्‍ली दो सौ बत्‍तीस किलोमीटर' तो एक रूपक बनाता है, किन्‍तु संग्रह की कविताओं में कवि व्‍यक्ति-समाज, राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ, धर्म-जाति, समकालीन समय की कड़वी सच्‍चाईयों के साथ-साथ ईमानदारी, मनुष्‍यता, कृतज्ञता, आदि तमाम विषयों पर सपाटबयानी में मुखर हुआ है। भाव एवं संवेदना के स्‍तर पर कविताएँ अच्‍छी हैं, भावों और विचारों में संतुलन है।
समीक्षित कृति
नई दिल्‍ली दो सौ बत्‍तीस किलोमीटर
खेमकरण 'सोमन'
समय साक्ष्‍य, देहरादून

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