अनुनाद

जागर- लोक की स्मृतियाँ और स्मृतियों में लोक – अंजलि नैलवाल

जब मनुष्य घर के पास नहीं होता तो कोई न कोई कारण देकर घर उसे अपने पास बुला लेता है और उससे कहता है कि तुम फल खाने के लिए चाहे कितने ही ऊंचे चढ़ जाओ पर पानी डालने जड़ के पास आना ही पड़ेगा। मनुष्य कई-कई घर बना लेता है़, परन्तु जड़ उसके पैतृक घर में ही रहती है। हमें भी हमारी जड़ ने अपने पास बुलाया ‘जागर’ का कारण देकर।

जागर उत्तराखण्ड में कुल देवी-देवताओं को पूजने की कई सौ साल  पुरानी एक परम्परा है। प्रत्येक परिवार की अपनी अलग जागर होती है पर विधि-विधान और कुछ देवता एक समान ही होते हैं। जागर का सीधा-सा अर्थ है जगाना, देवताओं को भी और मनुष्यों को भी। जागर की विधि, नियम और प्रावधान देखकर मैं कभी-कभी सोचती हूं कि अन्य जितनी भी प्रचलित पूजाएं हैं जागर उन सबसे इतनी अलग कैसे है? बाकी पूजाएं दिन में होती हैं, जागर रात को होती है। सामान्यतया पूजा से पहले अन्न नहीं खाया जाता, जागर खाने-पीने और घर-बाहर का सारा काम निपटाने के बाद होती है। पूजा में पूजन होता है मूर्तियों का, जागर में पूजन होता है मनुष्यों का।  सबसे मज़ेदार बात ये कि‍ दूसरी पूजाओं में मनुष्य ईश्वर से अपने कुशल की केवल कामना और प्रार्थना ही कर पाता है, परंतु जागर में उसे उसकी समस्या और समस्या का हल तुरंत ही प्राप्त हो जाता है। जाहिर-सी बात है कि ये सब बातें एक मिथक सरीखी लगती हैं,लेकिन उत्तराखण्ड के लोगों के लिए यह एक जरिया है अपनी समस्याओं और उनका हल जानने का।  बात उपायों और समस्याओं के सही-ग़लत या मिथक मात्र होने की नहीं है। बात है संतुष्टि की, जो इन लोगों को सारी दुनिया खोजने के बाद जागर से मिलती है। जागर जब शुरू की गई होगी तो उस वक्त के कमेरे लोगों ने दैनिक कार्यों को ज्यादा महत्ता दी होगी और इसी लिए जागर का समय रात को निर्धारित किया होगा। जागर का अन्य पूजा से अलग होने का एक कारण यह है कि यह कोई पूजा नहीं है, बल्कि एक पारंपरिक कचहरी है, जहां न्याय किया जाता है।

ये देवता भी तो हमारे जैसे मनुष्य ही थे, जिन्होंने समाज में कितने ही अन्याय सहने के बाद न्याय को समझा और लोगों की मदद करने की ठानी। जगह-जगह अपनी कचहरियां लगाई और लोगों को न्याय दिलाया और यहीं-कहीं अपने लोगों के बीच हमेशा के लिए रह जाना पसंद किया। जागर में इन्हीं सब कहानियों का वर्णन किया जाता है, जिन्‍हें सुनकर ये देवता परिवार के किसी चुने हुए व्यक्ति के शरीर में प्रवेश लेते हैं और फिर न्याय करते हैं। ये चुने हुए व्यक्ति स्त्री और पुरुष दोनों हो सकते हैं, देवताओं ने इसमें भेद नहीं रखा।

गूगल से साभार

जागर का आह्वान हुआ और मैं भी निकल पड़ी अपनी जड़ की ओर, जहां आज लगभग पांच-छह साल बाद जागर का आयोजन होने जा रहा था। खचाखच भरती हुई गाड़ियों को देखकर पता चल रहा था कि मई और जून के महीने हर कोई अपने देवताओं को याद करता हुआ घर लौट रहा है। मैं लगभग एक साल बाद वापस लौट रही थी। और एक साल में ही कितना कुछ बदला हुआ-सा लग रहा था। बदलाव का आभास तब होता है जब आप किसी चीज को कुछ देर के लिए छोड़ देते हैं बिना उसे देखे। हर पल कुछ ना कुछ बदलता रहता है और इसका पता हमें तब चलता है, जब हम उस स्थान पर लौटते हैं, जहां हमने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा बिताया हो। गुज़रे हुए साल का पता तब तक नहीं चला, जब तक मैं लौटी नहीं उस स्थान पर। पुरानी दुकानों का नई दुकानों के बीच खो जाना, रास्ते भर नए मकानों का दिखना, जाने-पहचाने चेहरों का बदला हुआ रूप देखना बता रहा था कि एक नहीं, कई साल गुज़र चुके हैं। हर एक क्षण में कुछ बदलता है, बाहर ही नहीं, भीतर भी। मेरे भीतर भी बहुत कुछ बदला। घर पहुंची, सब से गले लगकर मिलना हुआ और ठंडी-ठंडी हवाओं के साथ रात बीती। तीसरे दिन सुबह से ही गांव में पूजा-पाठ का सिलसिला शुरू हो गया। पहले भूमिया देवता को भोग लगाया गया जोकि हमेशा से ही ‘पुए’ और आटे की ‘सै’ बनाकर किया जाता है, स्वाद शब्दों में नहीं बताया जा सकता। दिन के बाद से और लोगों ने भी आना शुरू किया, शाम तक गांव की जनसंख्या दुगनी हो चुकी थी। हमने पुराने घर में, जहां देवताओं का मंदिर है, सबके बैठने की व्यवस्था की। सभी तरह ज़रूरी सामान को लाकर रख दिया गया। शाम को संध्या-आरती के बाद सारे परिवार ने एक साथ बैठकर खाना खाया और उसके बाद जागर का सिलसिला शुरू हुआ।

चित्र- त्रिभुवन नेगी

 जागर दो तरह की होती है – एक भूतों वाली, जिसमें अदृश्य बाधाओं से ग्रसित लोगों का निवारण किया जाता है, यही जागर प्रचलित है और लोगों ने एक तरह का विचार भी बना लिया है कि जागर होती ही इसके लिए है। दूसरी जागर होती है देवों वाली, जिसमें केवल देवताओं के दर्शन और उनकी कृपा दृष्टि प्राप्त करने के लिए उनका आह्वान किया जाता है। हमारी जागर यही वाली थी। हमारी जागर, मात्र जागर नहीं, देवोत्सव था, जिसमें केवल प्रसन्नता और कुशलता का संदेश था।

जागरों की कुछ धुंधली यादें हैं अब भी, बहुत पुरानी, जिनमें केवल भय ही भय है और बचने के लिए मां की गोद में नींद, पर अब सुप्ति का स्थान चेतना ने ले लिया था। भय, उत्साह में बदल गया था। उदासीनता, जिज्ञासा में परिवर्तित हो चुकी थी। बैठने की जगह सबसे आखिर से सरक-कर सबसे आगे आ गई थी।

गूगल से साभार

बिछाई गई दरियों के ऊपर एक ओर से कम्बल के आसन लगाए गए थे। आसन की पूजा-अर्चना के बाद ‘जगरिये’ और ‘डंगरिये’ अपने-अपने स्थानों पर बैठ गए। जो जगाए, वो जगरिया और जो डगर दिखाए, वो डंगरिया।। हर भटके हुए व्यक्ति को अपने जीवन में एक डंगरिए की जरूरत होती है, जो उसकी हर समस्या और सवाल का जवाब दे सके। बीच में रखी हुई थाली में धीरे-धीरे जमा होते चावल बता रहे थे कि यहां भी सबके पास सवाल हैं, सबके पास दुःख हैं, सबके पास दुविधाएं हैं, जिनसे वे न जाने कब से बाहर निकलना चाहते होंगे। आज उन्हें उनकी डगर मिलने वाली थी। सभी अपना स्थान लेकर बैठ गए। जागर शुरू हुई। पहले कुछ मिनट केवल ‘कांसे की थाली’ और ‘हुड़ुके’ की ध्वनि गूंजी। शायद वह वाद्यों के साथ शुरुआती कसरत होती होगी या फिर अपने-अपने में रमे ‘स्योंकार-स्योन्याई’ (पुरुष-स्त्री) का ध्यान खींचने का संकेत होगा। जो भी हो, सब शांत हो चुके थे। अब जगरिए ने बोल गाने शुरू किए। संगीतबद्ध ताल में, स्थानीय भाषा में वे बोल उन देवी-देवताओं की कथाएं थीं, जिन्हें आज जगाना था। करीब आधा पहर बीत गया, पर केवल जागर का गान ही रहा, देवी जागी नहीं। हो सकता है इतने समय से उनकी सुध न लेने के कारण वे योग निद्रा में चली गई हों। यदि रोज़ का नियम न बना हो तो मनुष्य भी कुछ समय तक जगाने पर भी नहीं जाग पाता। यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ। ख़ैर, कुछ उपाय करके देवी जागृत हुईं, जो नहीं आ पाए, उनके प्रति नाराज़ हुईं और अन्य सभी को आशीर्वाद देकर, अपनी प्रसन्नता जताकर नृत्य करने लगीं। यह नृत्य कुछ विलक्षण होता है, आम लोगों के जैसा नहीं। एक-एक करके सभी देवताओं को जागृत किया गया, सबने अपनी-अपनी प्रसन्नता जताई। कुछ पुरानी बातों से भी पर्दा हटाया गया, जिन्हें हमारी पीढ़ी के लोग नहीं जानते। अंत में समय आया न्याय का। एक के बाद एक व्यक्ति अपने-अपने प्रश्न लेकर आते रहे। उन्हें उनके प्रश्नों के उत्तर दिए गए। जो दुःख लेकर आए थे उनके दुःख का इलाज़ उन्हें बताया गया। जिन्होंने कुछ नहीं कहा, उनकी बात भी देवता ने कही। कुछों को मनचाहे आशीर्वाद दिए गए। जिनको समस्या का ज्ञान नहीं था, उनको उनकी समस्या से अवगत कराया गया। जो जैसी अरदास लेकर आया था, उसको वैसा न्याय दिया गया। मेरे लिए यह सब देखना कई कारणों से बहुत रोचक था। बिना कागज़-पत्तरों और तारीखों के, सरकारी तंत्र से चार गुनी रफ़्तार का यह न्याय देश के अदालतों के लिए प्रेरणा का काम कर सकता है।  हर एक न्याय के साथ यह पता चल रहा था कि मनुष्यों के भीतर कितना दुःख है। मनुष्य, मनुष्य से कितना ग्रसित है। यदि यह दुःख इन मिथक परंपराओं से कुछ कम होता है, तो उसमें व्यक्ति की आस्था बनना स्वाभाविक है। न्याय करते हुए देवता की भाषा बहुत अलग होती है, न जाने कितने ही स्थानीय भाषा के  सुंदर शब्द मैंने जागर में सुने, जो आम बोलचाल में प्रयोग नहीं किए जाते। हर भाषा में ऐसा ही हुआ है। आभास होता है कि समय के साथ भाषा फलती-फूलती नहीं, बल्कि संकुचित होती जाती है। इन सबसे ऊपर, मेरे बचपन के डर का जिज्ञासा में बदल जाना ही अपने आप में एक रोचक बात थी।

गूगल से साभार

अपने लोगों को अपने लोगों का न्याय करते हुए देखना कैसा होता है? यह प्रश्न वहाँ मौजूद लोगों से पूछना संभव न हो सका। अपनी समझ से कहूँ तो न्याय करते हुए, मनुष्य के लिए, कुछ देवता बोलता है, कुछ आदमी। कुछ देवता जानता है, कुछ उनके परिजन, लेकिन मनुष्य केवल देवता के आगे झुकता है, न ही किसी आदमी के और न ही किसी परिजन के आगे। अपनी सम्पूर्ण अहंता कहीं दबाकर, वो झुकता है अपनी विवशता के आगे। वो झुकता है अपनी इच्छाओं के आगे, वो झुकता है अपने विश्वास के आगे और ये झुकाव ही उसे उसकी  परंपराओं, आस्थाओं और बुनियादों के पास लेकर जाता है। ये झुकाव ही बिखरी हुई शाखाओं को एक पेड़ से बांधे रखता है। करीब चार घंटे के देव-दर्शन के बाद आरती, प्रसाद और चाय के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ। देवता ने अपने लोगों से एक साल बाद फिर से बुलाए और जगाए जाने का वचन लिया। देवता आना चाहते हैं, जगाया जाना चाहते हैं, पर वे तब तक नहीं जाग सकते जब तक मनुष्य नहीं जागता।

गूगल से साभार

मेरी कामना है कि मनुष्‍य जागें, उनके ऐसे ही मनुष्‍यवत सरल हृदय देवता जागें। वे जागें कि हमारा समाज हर तरह कट्टरता से दूर एक सजल हृदय समाज बन सके। यह जागरण समवेत हो, पूरे विश्‍व-समाज के लिए हो।

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2 thoughts on “जागर- लोक की स्मृतियाँ और स्मृतियों में लोक – अंजलि नैलवाल”

  1. विश्वास की बात है …. आदमी जागे तभी देवता भी जागता है ! हमारे बीच ही देवता भी हैं….. जमीन से जोड़ता हुआ आलेख , बहुत दिनों बाद पढ़ने को मिला। पर्वतीय समाज में लोक देवताओं का समय समय पर जागर के माध्यम से अवतरित होना देवभूमि होने का प्रमाण भी है ….. अब तो लोक संस्कृति के नाम सब कुछ बाजारीकरण की भेट चढ़ गया है ! ऐसे आलेख अनुनाद को भीड़ से अलग करते हैं …..

  2. दीक्षा मेहरा

    बहुत सुंदर अंजलि….. बहुत-बहुत शुभकामनाएं

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