प्रतिभा गोटीवाले हिन्दी की सुपरिचित कवि- कहानीकार हैं। स्मृतियों के रंग की शिनाख़्त और विस्मृतियों के रंग की तलाश करती उनकी यह कहानी हमें मिली है। भाषा में कविता और रचाव में डायरी हुई जाती यह कहानी दरअसल क़िस्सागोई के उस शिल्प को साधती है, जो इधर दुरूह होता गया है। प्रतिभा पहली बार अनुनाद पर प्रकाशित हो रही हैं, उनका यहॉं स्वागत है।
आसमानी शर्ट
ट्रेन चल दी थी …..
आवाज़े धीरे धीरे पीछे छूट रही थी। अब बस मैं थी, मेरा अकेलापन था और उसके भीतर मेरे होने का संगीत था।
सामने वाली सीट को देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे कोई अभी-अभी जल्दबाज़ी में यहाँ से गया होगा।
किसी की अभी अभी रिक्त हुई जगह में कितना वह बचा रह जाता है ! जैसे उस चादर में अब भी उसकी गर्माहट बची महसूस हो रही थी। अब भी वह जगह उसके होने से धड़क रही थी।
उसके तकिये के नीचे से एक डायरी झाँक रही थी। मैं उसे उठाकर दरवाज़े तक गई कि शायद कोई इसे लेने के लिए दौड़कर आता हुआ दिखाई दे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं अपनी सीट पर लौट आई और पास वाली सीट पर बैठे यात्री से पूछा पर कोई फायदा नहीं, क्योकि वह भी इसी स्टेशन से ट्रैन में चढ़ा था। फिर मुझे लगा शायद वह सीटवासी टॉयलेट गया होगा।
मैं उस डायरी को थामे कितनी देर बैठी रही पता नहीं। कोई नहीं आया।
डायरी जैसी चीज़ के हाथ में आ जाने पर पढ़ने का लालच किसी भी साधारण बुद्धि वाले इंसान को होना स्वाभाविक है। अपनी सीट पर चादर बिछाकर तकिये के ऊपर कम्बल रख, मैं अनायास ही डायरी के पन्ने पलटने लगी और कब पढ़ने में तल्लीन हो गई मुझे ही पता नहीं चला।
वह एक गहरी नीले रंग की डायरी थी। डायरी क्या थी, कह सकते है एब्स्ट्रेक्ट का एक पीस था। बिखराव में अपने आप को सहेजता एक तिनका था। बेचैनियों को समेटता कोई दिलासा और दिलासे की किरचों को समेटती स्याही थी।
कुछ सूखे हुए कासनी फूल थे और हर पन्ने पर कुछ नोट्स। एक अंतहीन रेगिस्तान और मरीचिका का भ्रम देते शब्द थे।
तारीख की जगह एक अजीब सी मनःस्थिति दर्ज थी।
जैसे संगीत का कोई नोट था जिसमें उतरो तो चारों ओर से आरोह अवरोहों से घिर जाता था मन, और फिर एक स्वरसंगति का हिस्सा बन जाना ही नियति थी।
धीरे-धीरे मैं उन पन्नों में डूबती गई।
लगातार किसी आवाज़ की तलाश में रहती हूँ …
सुबह की द्रुत लय, दोपहर की मंद ठहरी हुई आवाज़े और रात की विलम्बित तालों के बीच से कही कुछ फिसल जाता है ..
जिसे छूना चाहती हूँ …
दूर सड़क पर बहता शोर, हॉर्न की आवाज़ें, वाहनों की आवाजाही ..
इन आवाज़ों का भी एक दृश्य है , मेरे और उसके बीच एक बटर पेपर लगे होने जितनी दूरी है ..
मैं आँख बंद करके सुनती हूँ तो तमाम आवाज़ें लौटने की होती है ..
मुझे सुबह की ताज़ी और उत्सुक आवाज़ें ज्यादा पसंद है ….
नए दिन की उम्मीद लेकर निकले लोग दोपहर ढलते-ढलते जब दिन पर पुराने ढर्रे का ठप्पा लगा बासीपन लिए लौटते है तो शाम की आवाज़ कैसी व्याकुल सी हो जाती है …
वह उन सब से नजरें चुराकर जल्दी-जल्दी उम्मीदों के पौधे बोने लगती है, ऐसा कुछ रचती है जो आज की थकान भुलाकर खूबसूरत कल की प्रत्याशा में फिर तरोताज़ा कर दे …
चेहरे पर अनायास एक मुस्कराहट चली आती है , मैं शाम के कंधे थपथपा कर भीतर आती हूँ ..
अब मैं हूँ और आसपास कमरों की हवाओं को बदलते परदे है …
किचन में चाय के उबलते हुए पानी में आसमान की दीवार से झरे पलस्तर सा धूप का एक टुकड़ा गिर पड़ा है …
मैं पतीली के थोड़ा ऊपर अपना हाथ रखती हूँ तो वह मेरे हाथ पर बैठ जाता है,
मैं एक हाथ से चाय कप में छान लेती हूँ … किचन से जाते हुए उस धूप के टुकड़े को फिर दीवार पर छोड़ आती हूँ
विंड चाइम्स की मद्धम आवाज़ के साथ बहुत गहरी और स्पष्ट आवाज़ में एक कबूतर की गुटरगूँ इस समय की सबसे प्रोमिनेन्ट आवाज़ है …
माँ जब भी मेरे पास आती अपना आधा मन घर पर छोड़ आती, वापस लौटने की एक हड़बड़ी उस पर तारी रहती …..
पूछने पर कहती मुझे अपने घर का अकेलापन साथी जैसा लगता है,
इसलिए कही ज्यादा देर मन नहीं लगता साथी की याद सताने लगती है !
मैं सोच में पड़ जाती हूँ कि उसके घर के अकेलेपन में ऐसा क्या है जो वह उसे इतना करीबी लगने लगा है ?
क्या अकेलापन कोई नशा है जिसकी लत पड़ जाती है ?
क्या अकेलेपन की भी कोई आइडेंटीटी होती है … रूप,गंध, देह होती है ?
मैं घर में घूम-घूम कर अपने अकेलेपन से बात करने की कोशिश करती हूँ, उसे देखने की लालसा जाग उठती है अचानक।
मैं सारे लाइट बंद कर देती हूँ, सारी आवाज़े बंद कर देती हूँ और दबे पाँव उसे ढूँढती हूँ घर के चप्पे-चप्पे में,
लेकिन कही नहीं मिलता ….
खीजने लगती हूँ … ‘कुछ भी कह देती है माँ, ऐसा भी कभी होता है भला ? ‘
फिर अचानक एक दिन घर के सारे कामों को निपटाते हुए, मिक्सी, वाशिंगमशीन, टीवी, मोबाइल की तमाम आवाजों और घर के सारे सदस्यों की उपस्थिति के बीच
किसी अमूर्त ने आकर मेरे काँधे पर हौले से अपना हाथ रख दिया …
मैं चौंककर मुड़ी और उसे देखकर मुस्कुराती हुई मन ही मन कह पड़ी …
‘ माँ मुझे भी मिल गया है मेरा वाला !’
तुम ….जो कोई नहीं हो, कही नहीं हो ..
मैं तब भी तुम्हें लिखती हूँ बार-बार .. तुम्हारे होने की ये कैसी आहटे है मेरे भीतर !
जिन्हें आकार देना ऐसा है जैसे समंदर की गीली रेत से घर बनाना
तुम्हारी हँसी, बारिश …उदासी, बादल …गुस्सा, रेत ..प्रेम, अंकुर है फूटता हुआ ..
तुम, जिसकी आहट मैं लिखती हूँ, सालों-शताब्दियों के बाद या पहले जब भी आओगे
तो पाओगे जैसे तुम यहाँ पहले भी आ चुके हो …
जैसे कानों में पड़ती कोई आवाज़ पहले भी सुन चुके हो
जैसे छू चुके हो पहले ही कोई अनछुई छुवन …
और मैं ! कही दूर से तुम्हें देखती होऊँगी ..
तुम्हारे दृश्य में मेरा होना ऐसा है जैसे दृश्यों के सफ़र से होते हुए एक महादृश्य तक पहुँचना और अदृश्य रच देना ….
एक बेआवाज़ बारिश का आना और गुज़र जाना ..
वह भी एक दिन जैसा ही दिन था ….
ऊपर आसमान था नीचे ज़मीन, और इन दोनों के बीच सरसराती हुई दुनियाँ चल रही थी |
घरेलू कामों की वैसी ही चीख़ें थी, चुप्पियों का भी वैसा कोलाहल था लेकिन इस कमरे से उस कमरे आते जाते हुए कुछ अलग लग रहा था, कुछ ऐसा जैसा पहले कभी नहीं लगा ..
कुछ ऐसा जैसा किसी के देखने से मन के भीतर बसंत का पहला फूल खिला हो ..
मैने अचरज से यहाँ वहाँ देखा, कही कोई नहीं था घर पूरा ख़ाली ..
मन में हैरत और एक गहरी मुस्कराहट पानी के बुलबुलों से हलचल मचा रहे थे कि मैं ठिठकी।
नज़र बालकनी में टंगे कपड़ो की ओर गई।
हाँ ठीक वही उस आसमानी शर्ट के उस पार कुछ था , मैंने फिर ध्यान से देखा ..
आसमान !!
आसमान अपनी नीली आँखों से मुझे देख रहा था ! कितनी सारी नीली आँखे थी उसकी !
अचानक मैंने देखा घर के चारों ओर जहाँ जहाँ भी खिड़कियाँ थी रोशनदान थे दरवाज़े थे वहा से उसकी नीली आँखे मुझे देख रही थी।
आह ये क्या ! कैसा सम्मोहन था उसकी आँखों में ! क्यों उसे इस तरह देखना था मेरी ओर !
क्यों मुझे पड़ जाना था इस तरह आसमान के प्रेम में !!
फिर तो हम रोज़ मिलने लगे ….. वह आता और मैं कपड़ों में अपनी देह छोड़ निकल जाती उसके साथ।
जब वह मेरी रूह को देह का आभास छोड़ नहीं पाने की झिझक में देखता तो अपने बादलों का एक पैरहन बना कर मेरी तरफ बढ़ा देता, जिसे पहन मैं निश्चिन्त हो जाती। नक्षत्रों के जाल से बचते हुए हम दूर निकल जाते।
उसके साथ चलते हुए अक्सर उसके भीतर डूब जाने से बचने के लिए मुझे किसी सितारे को फ़्लोटर की तरह इस्तेमाल करना पड़ता था । आखिर हम किसी तरह चाँद के जज़ीरे पर जा पहुँचते।
धीरे -धीरे बातों का रंग गाढ़ा होने लगता और मुझे ध्यान ही नहीं रहता कि कब मेरी आभासी देह से सारे बादल बह गए |
अचानक बोलते हुए वह रुकता और थोड़ी देर एकटक मुझे देखते रहने के बाद कहता ‘तुम बहुत ख़ूबसूरत हो’
मेरा चेहरा कनपटियों तक लाल पड़ जाता। मेरी रूह देह के आभास को लिए बादलों में कूद पड़ती और वह भी अपने कहने से ही हिचकिचाया सा दूर हट जाता।
मैं धड़ाम से बिस्तर पर आ गिरती और ठीक यही समय सुबह फूटने का होता ।
आँख खुलती तो अपने आप को अपने कपड़ों के भीतर पा कर मैं निश्चिन्त होती।
बाहर वह भी अपने चेहरे पर ठंडी गुलाबी आभा लिए मुस्कुराता खड़ा दिखता।
वह आसमान था। मेरी आँखों में ज़मीन ….
वह बादलों को ज़मीन में बोता और चाँद आसमान में उगा करता
हम नदियों, समुंदरों से दिन का शिकार किया करते फिर दिन को काट-काट कर धूप निकाली जाती …
रात में चाँद पर धूप के उन टुकड़ों को सुखाया जाता यही हमारे सपनो की ख़ुराक़ थी।
सुबह मेरी आँखों का एक संस्कार, और रात उसकी आँखों की एक रस्म थी ……
अचानक वेंडर चाय लेकर आया तो तन्द्रा भंग हुई। मैंने पन्नों के बीच अपना हेयर पिन फँसाया और डायरी नीचे रख कर एक कप चाय ली। चाय पीते पीते ध्यान बाहर आसमान की ओर चला गया।
ऐसा लगा मानों तरह तरह के रंग और आकारों को बनाकर आसमान किसी गूढ़ भाषा में संवाद स्थापित करने की कोशिश कर रहा हो।
जैसे डायरी का एक एक पन्ना उसने पढ़ रखा हो और उसपर मुझसे विमर्श करना चाहता हो।
अगले ही पल मुझे हँसी आ गई यह सोचकर की डायरी का असर कितनी जल्दी मुझपर हो गया है। लिखने वाले ने कितनी गहराई में डूब कर लिखा है।
आखिर क्यों पड़ते है हम प्रेम में और कहाँ से चला आता है ये ख़ालीपन बेआवाज़।
चाय ख़त्म हो गई थी मैं ख़ाली प्याला कूड़ेदान में डाल आई और फिर लेट कर डायरी खोल ली।
ज़मीन हमें बाँटती थी और आसमान जोड़ता था, हमें उड़ना पसंद था
हवाओं को फेफड़ों में भरकर हम जब-तब इस आसमानी नदी में उतर जाते थे
तलछट में चाँद और सितारों से टकराते हुए अक्सर सोचते थे!
दुनियाँ जब भी ख़त्म होगी या तो अंतरिक्ष में बिखर जाएगी
या उस ब्लैक होल में सिमटेगी जिसके भँवर में फँसने से हम कई बार बचे थे
हमारी दो ज़ुबाने थी एक भाषा, समय की पर्ते प्याज़ सी थी संवाद हरी मिर्च से, मौन नमक सा
गुज़ारा हो जाता था। चहकते बचपन और निराश समझदारी के बीच एक ठहरी हुई उम्र थी
हमारे बीच प्रेम था …..
सारे मौसम तुम्हारी आवाज़ है … धूप तुम्हारी लिपि ..
हवा तुम्हारा ब्रश है, पानी तुम्हारा रंग …
पृथ्वी तुम्हारा फिगरेटिव चित्रकारी से भरा कैनवस है
लेकिन ये जो फलक पर तुम एब्स्ट्रेक्ट बनाते हो न उन्हें समझना बहुत मुश्किल हो जाता है ..
यार आसमान ! कभी आसान भी हो जाओ मेरे लिए !
तुम्हारा मौन बहुत दुरूह है … मैं अकेले बोल-बोल कर थक गई हूँ …
आजकल ऊँची जगहों पर जाने से डरने लगी हूँ …..
कि जाने कब तुम्हारा नीला मुझे खींच ले अपनी ओर …
देर शाम जब तुम्हारा नीला रंग नज़र नहीं आया तो यूँ लगा मानों कोरी स्लेट रख दी गई हो सामने ….
इस अनंत स्लेट से वैसे ही डर गई हूँ , जैसे पहली बार स्कूल में उस छोटी स्लेट से डरी थी …
उस दिन लड़खड़ाते हाथ अनजान थे अक्षरों से ..
आज आँखे बांच नहीं पाती इस स्लेट पर लिखी अबूझ लिपि ..
कैसे पढ़ूँ ? क्या पढ़ूँ ? क्या समझू ?
स्थिर परिभाषाएँ ढूँढने के इस दौर में एब्स्ट्रेक्ट जीवन की सबसे सटीक परिभाषा बन गई है ..
हाथों से पकड़कर हाथ किसी ने सिखाये थे उस समय अक्षर …
आँखें कोई ऐसा अभ्यास जानती है क्या ? बताओ आसमान !
पता नहीं रात के कौन से पहर में और कब ये हुआ कि तुम मेरे पास थे ..
किनारे की रेत से उठकर नदी की गहराई में उतरने का आग्रह लिए ..
जाने कैसी ये नीली रोशनी उतरी है आँख में कि गहरे काले अँधेरे में भी तुम्हें देख पाती हूँ बिलकुल तुम जैसा,
हाथ थाम कर उतर पड़ती हूँ पानी में ..
देर तक कभी हम एक दूसरे से तैरना सीखते है तो कभी एक दूसरे को डूबा देने की कोशिश करते है ..
थके हारे से जब लौटते है वापस ….
और तब तुम्हारे गीले कपड़ो की नमी से घबराया सूर्य चला आता है बाहर, और बिखेर देता है अपनी गर्म रश्मियाँ …
जरा सी रौशनी पड़ते ही लाल हो उठे चेहरों पर चहक उठती है चिड़िया ….
कोहरा है कि जैसे गहरी नींद सोई
वसुंधरा की पीठ पर अटखेलियाँ करता
आसमान की छाती के सफ़ेद बालो का जंगल !
आजकल लगने लगा है जैसे पेड़,पौधे, हवाएँ, झील, आसमान सब मुझसे बातें करने लगे है ..
सुबह की सैर के समय अचानक कोई पेड़, कोई झाड़ी रोक लेती है बाहें फैलाकर
मैं उसकी तरफ देख कर मुस्कुराती हूँ तो आसपास से गुज़रते लोग हैरत भरी नज़रों से देखते है मुझे,
छोटे-छोटे रंगीन जंगली फूलों और तरह तरह की खरपतवारों को देखती हूँ तो लगता है
ये जंगल की आपस में की गई कानाफूसी है …
पेड़ों द्वारा एक दूसरे के कानों में चुपके से कही गई खट्टी-मीठी बातें है अनेक रंगों में खिली हुई।
उदासियाँ जैसे खरपतवार है ..
आजकल फिर से वह बच्ची नज़र आने लगी है जो बहुत दिनों से जाने कहा ग़ुम हो गई थी,
वह उन जंगली पौधों के बीज अपनी पसीजी हुई हथेलियों में दबाये राह देख रही है उनके फूटने का
मुस्कुराते हुए पूछती है मुझे ‘ पटाख़े वाला पौधा याद है ? ‘
मैं उसके सवाल का जवाब न देकर उसके दोनों अपने हाथों में थामकर कहती हूँ ” ख़ुशी का रंग आसमानी होता है ” …
वह बस मेरी ओर देखती रह जाती है , मैं उसके गालों को थपथपा कर आगे बढ़ जाती हूँ ….
लगता है जैसे मैं और तुम अक़बर पदमसी के किसी मेटास्केप का हिस्सा हो गए है ..
दो बिलकुल भिन्न किनारों के बीच किसी आसमानी नदी से बहते तुम ..
एक किनारे पर उजाला, एक किनारा अँधेरा !
कितना मुश्किल है ऐसे करवट-करवट जीना …
पता नहीं यदि किसी रोज़ तुम एक भरपूर अंगड़ाई लेकर खड़े हो जाओ तो क्या होगा ?
उजाला उस ओर तक फ़ैल जाएगा ? या अँधेरा यहाँ तक रिस आएगा !
तुम्हें शिकायत है कि हम इस ओर वाले बार-बार तुम्हें चीरकर जाते है उस किनारे के रहस्यों को जानने !
शायद तुम्हें पता न हो या शायद तुम जान कर भी अनजान बने रहते हो ….
लेकिन उस किनारे के रहवासी भी हमारे बारे में जानने की पूरी उत्सुकता रखते है !
तभी तो रात गए तुम्हारी तलहटी में बैठ कर चाँद और सितारों की मशालें लिए जाने क्या ढूँढ़ते रहते है इस ओर …
क्या तुम जानबूझकर बादलों के फ़ाहे ढ़ाक देते हो उनके निशानों पर ?
या तुम्हें ख़बर भी नहीं हो पाती …कितनी गहरी नींद सोते हो यार आसमान !
सपने का कोई धागा, हर रोज़ जा उलझता है तुम्हारे आसमानी शर्ट से
और हर रोज़ शर्ट का कोई बटन टूट कर आ गिरता है नींद में ..
हर रोज़ आँखों से निकलती है कोई दुआ, हर रोज़ तुम्हारी शर्ट पर खारा नमक फैल जाता है …
हर रोज़ तुम ऐसे ही उदात्त बाहें फैलाये देखते हो मुझे, हर रोज़ मैं मुस्कुराकर करती हूँ एक ही सवाल ..
‘ आख़िर तुम्हारे पास कितने आसमानी शर्ट है ?
मन का हीलियम भरा गुब्बारा भी कहा आसमान में जाकर अटक गया है ..
किसी तरह हाथ नहीं पहुँचता वहाँ तक ..
सारे रंगो को छोड़ आई हूँ पीछे, अब बस ये नीले का सफर है …
मैं चाहूँ भी, तो अब तुम्हारी नीली उजास से बाहर नहीं जा पाऊँगी
और तुम चाहकर भी अपना कोई कोना समेट नहीं सकते, हम यूँ ही रहेंगे साथ !
मैं यहाँ धरती से आवाज़ों की पतंगे तुम तक उड़ाती रहूंगी …तुमसे एक मौन मुझ पर बरसता रहेगा ..
मैंने जान लिया कि तुम तक आने का रास्ता पिघलकर पानी हो जाने में है …
तुम हवा से होकर मुझ तक आना …
भीतर की ज़मीन पर हर रोज़ कुछ बदलने लगा है … कभी कोई पहाड़ खड़ा हो जाता है, कभी नदी बहने लगती है .
कभी रेत के टिब्बे खड़े हो जाते है तो कभी फसल लहलहाने लगती है …
कभी तेज़ बारिश की नमी उँगलियों के पोरों पर उतर आती है, कभी सूखे की पपड़ी होठों पर ..
कभी आँखों के सामने कोई चिता जलने लगती है कि तभी पीछे से किसी बच्चे की किलकारी मन बांध लेती है ..
बाहर की दुनिया से सौ गुना ज्यादा रफ़्तार से चलती है यह भीतर की दुनिया !
मैं सारे दृश्यों को समेट कर नजर ऊपर आसमान की तरफ उछाल देती हूँ ..
अगले ही पल उस पर भी रंगो और बादलों की एक दुनिया तेज़ी से चलने लगती है ..
आसमान अपने शर्ट पर चीटियों से रेंगते इन दृश्यों से जब थक जाता है
तो इन सभी को थाम कर चाँद के कटोरे के नीचे दबा देता है …उसके बाद न उसके आसपास कोई और दुनिया होती है न मेरे …
बस वह समय हमारा होता है …
तुम्हें बेहद क़रीब से देखा तो जाना कि चुनी हुई मसीहाई एक बोझिल एकांत देती है
रातों में तुम्हें नींद के लिए व्यथित देखती हूँ तो जी में आता है तुम्हारे हाथों से ले लूं
वह आसमान जो तुम्हें दिनरात ओढ़े रहना पड़ता है ..
उसे हाथों में समेटते हुए मैं जान पाती हूँ कि तुम हमेशा मेरे कितने क़रीब रहे .. जैसे मेरे भीतर मेरा ही एक अंश।
रख देना चाहती हूँ अपनी आँखों से एक सुकून भर नींद निकालकर तुम्हारी आँखों में
सोते हुए तुम किसी थके हुए ईश्वर का मिथक रचते हो ..तुम्हारा अकेलापन इसी ईश्वर का अकेलापन है
मैं आसमान की काली पड़ चुकी चादर को उजला करने की कवायद में लगी रहती हूँ
चाहती हूँ कि सुबह जब तुम्हारी नींद खुले तो तुम्हारे काँधो पर एक उजली हुई चादर हो
और आँखों पर रात के सपनों से झरे मोगरे के फूल ….
प्रसूता रात चल पड़ती है तुम्हारे पीछे मंत्रमुग्ध …
फूँक-फूँक रखते कदम नए नवेले पिता तुम ..
काँधे पर धरे शिशु चन्द्रमा
सद्योजात !
जाने किसने किया है मौसम का रागों में अनुवाद ? तुमने अपनी आवाज़ को सुना है कभी ?
ऐसा लगता है मानों राग नन्द और हंसध्वनि को एक दूसरे में मिला दिया गया हो … तुम्हारी आवाज़ पानी है ….
पानी किस राग में बहता होगा कहो ? किस थाट की होंगी उसकी गहराइयाँ ?
तुम्हें सुनते हुए मुझे चंपा बावड़ी याद आती है …
कहते है पानी जितना पुराना होता है उसका चुम्बकीय प्रभाव उतना तीव्र
शायद तुम्हारी आवाज़ में किया होगा पानी ने अपने गहरे मौन का सबसे पहला तर्ज़ुमा ……
बोलते-बोलते थक जाती हूँ इतना कि साँसे फूलने लगती है …
मैं बस रुकने का सोचती हूँ और पीछे से आकर कोई टोकता है – ‘आज इतनी चुप क्यों हो ? सब ठीक तो है ?’
मैं अचरज में पड़ जाती हूँ … किसी ने नहीं सुना ! तब मैं किससे बात कर रही थी ! कौन सुन रहा था मुझे और मैं कह क्या रही थी ?
ध्यान से खुद को देखती हूँ तो लगता है जैसे मैं किसी के हाथों में रखी कोई क़िताब हूँ …
एक-एक पन्ने की तरह एक-एक दिन कोई पढता है मुझे अक्षरशः। फुट नोट्स की तरह दर्ज़ करता है रातें ..
बुक मार्क्स की तरह स्मृतियाँ। उसकी नजर के घेरे बढ़ते जाते है मेरी उम्र के आसपास ..
किसी दिन जब उसके पढ़ने की गति तेज़ होती है तो बड़ी तेज़ी से गुज़र जाता है दिन ..
और किसी दिन जब उसका पढ़ने का मन नहीं होता तब मुझे सुनाना पड़ता है पढ़-पढ़ कर अपने आप को …
उस रोज़ दिन बहुत धीमी गति से बीतता है …उस दिन थकान बहुत ज्यादा होती है ….
भागते-दौड़ते, पीछे छूट जाते दृश्यों के बीच, कभी भी आसमान को देखकर उसके छूट जाने का डर नहीं लगता था।
अनंत हो जाना इसी को कहते होंगे …
प्रेम के नाम पर मची हुई तमाम चीख़ पुकार के बीच तुम्हे देखना कितना सुक़ून देता है आसमान !
जितना चुप .. उतना अटल .. उतना अथाह
तुम्हें जितनी बार छूती हूँ नीले के साथ घुलकर तुम्हारा ये चुप भी चला आता है मुझमे ..
कुछ ही लोग ऐसे होते है, जिनके साथ चलते हुए शब्दों की ज़रूरत नहीं होती ..
तुम्हारे आसमानी काँधो पर सिर टिकाते हुए मैंने सारे शब्द सपनों में रख दिए है और नींदे खो दी है कही …
तुम्हारे साथ रहते हुए मौन किसी अरदास सा बना रहता है मेरे आसपास …
समझ में नहीं आता क्या करूँ ? दिन कैसे निचाट सूना सा लगता है एक तुम्हारे नहीं होने से ..
ऐसा भी नहीं था कि पूरा पूरा दिन हमने बातें की हो।
प्रेम केवल दिन -दिन-भर की बातें नहीं दिन -दिन-भर का अबोला भी है …प्रेम साथ से कही ज्यादा घना एकांत है ….
अनावृत हुए ग्रह, नक्षत्र अपनी कुपित दृष्टि से देखते है मुझे,
और घबराकर मुझसे रिस जाती है नीली उष्ण साँसें, नीली दृष्टि और हथेलियों में थमा नीला एकांत,
तुम पर केवल मेरा ही तो अधिकार नहीं न आसमान …मैं समझा लेती हूँ अपने आप को
अब जब तुम अपनी उम्र के आकाश पर लौट गए हो और मैं अपनी उम्र की ज़मीन पर उतर आई हूँ,
वह समय अब भी मौज़ूद है वहाँ क्षितिज पर अपने अस्तित्व की मान्यता ढूँढ़ता …
किसी पुरानी दोपहर से आती हुई तुम्हारी याद का चेहरा क्लांत है और तुम्हारे पाँवों पर बीते दिनों की थकान है
रोज़ सोचती हूँ अब कुछ नहीं कहूँगी … बस एक आख़री बात बता दो ….
स्मृतियों का रंग हरा है … विस्मृतियों का कौन सा होगा भला ?
लगता है जैसे मैं ऐसा कोई मुसाफ़िर हूँ जिससे दिशाओं ने अपनी ऊँगली छुड़ा ली हो …
और जिंदगी आँखों पर पट्टी बाँध कर ऐसी जगह छोड़ आई हो जहा समय के सारे रास्ते एक दूसरे को काटते हुए जाने कहा-कहा तक चले गए है अंतहीन ..कोई सिरा तो मिले …
चुप के दो शीशों के बीच, हवा में सिहरता हुआ …अलगनी पर अब ख़ामोश टंगा रहता है आसमानी शर्ट …
हम दोनों एक दूसरे से कुछ नहीं कहते पर बस आते जाते आसमानी शर्ट की जेब ज़रूर टटोल लेते है
क्या पता कोई संदेश ही मिल जाए किसी को किसी का ! जब कोई नियम नहीं हो तब अनियम के सिद्धांत चलते है
हम तब भी बंधे हुए होते है जब कोई बंधन न हो …….
उन दिनों भूरे और आसमानी का कॉम्बिनेशन इन था ..
अक्सर शाम को मैं बादलों के फाहे अपनी अदरक वाली चाय में डुबोकर तुम्हारे आसमानी शर्ट पर
डिज़ाइन बनाया करती और तुम अपनी शर्ट को भूरा होते देख हँसा करते थे ….
चाँद तुम्हारी हँसी हुआ करता था उन दिनों ..
आजकल मैं दिन को तकिये के नीचे दबाती हूँ और रात को चादर की तरह ओढ़ कर पॉली हॉउस में तब्दील हो जाती हूँ …
नींद के पौधें उगाती हूँ ….
किसी शाम ने ऐसे आकार लिया …कि लगा जैसे आहिस्ता-आहिस्ता सीमेंट कॉन्क्रीट की कोई दीवार खड़ी हो रही हो मेरे और तुम्हारे बीच ! जानती हूँ अब ये दीवार यूँ ही रहेगी एक मौसम के बीत जाने तक …
फिर उसके बाद तुम एक नई अजनबी सी आभा में दिखोगे …
शायद मुझे भी तुम्हें देखने के लिए आँखों पर हथेलियों की ओट बनानी पड़े …
चौंधियाता हुआ अजनबीपन अपने पूरे शोरगुल के साथ पसर जाएगा हमारे बीच ..
बहाने को एक भीड़ होगी बिछड़ जाने के लिए …..
और फिर धीमे-धीमे चल पड़ते है शब्द भी किसी एकाकी रास्ते पर,
त्याग देते है आवाज़ों के वस्त्र, पहनकर चीवर मौन का !
मार्ग में छूटती जाती है मात्राएँ, चिन्ह, अलंकार ..
कानों में ठहर जाते है बादल और थक कर कही पीछे छूट जाता है मालकौंस …
कोई शाम ऐसे दिखाई पड़ती है मानों नीले काँधों पर खुल कर ढलक आये हो किसी के काले घने बाल …
आसमानी शर्ट पर रह-रहकर ये जो काजल के दाग़ उभरते है आजकल,
इनके आगे दुनियाँ की तमाम स्याहियाँ फ़ीकी है …
कभी क्रोध कभी क्षमा, कभी अपमान कभी प्रेम, कभी तड़प कभी आँसू …… कितना सब एकसाथ !
शब्द होंठो की तरफ चलना शुरू करते है लेकिन बीच रास्ते से कलम की राह थाम लेते है ..
क़ाग़ज़ बेसब्री से राह देखता है ..पर तब तक शब्द फिर अपना मन बदलकर आँखों की मुँडेर तक पहुँच चुके होते है …
लिखना बेमानी सा लगने लगा है अब …
बहुत देर तक बाहर के साथ-साथ भीतर भी कुछ उमड़ता है, घुमड़ता है, बरसता है …
और ज़रा बारिश के रुकते ही आसमान पर पँछी ऐसे फड़फड़ा कर उड़ते है मानों मौन अंतरालों के कारागृहों से छूटे शब्द हो ..
मैंने तुम्हारी आवाज़ को पानी कहा और एक लम्बा रेगिस्तान लिख लिया अपनी हथेली पर
अब मेरे आसपास आँधियों से उड़ने है मेरे ही शब्द, रचते है आभास।
उत्तप्त बाँहों के मरुथल में मृगतृष्णा सा मुझे ही छलता है मेरा समर्पण …
मैं अपनी साँसे उठाये किसी और के पाँवों पर चलती हूँ
थक कर ज़रा रूकती हूँ एक नीले रंग पर, विचरती हूँ उसके विशाल ह्रदय में अनंत तक ….
गुज़रती हूँ कितनी ही आकाशगंगाओं से, कितने ही सौरमंडलो में भटकती हुई
बनती हूँ ग्रहण कितने ही ग्रहो का अजाने में !
और इस बीच चुप्पियों की एक सुई बिना सिर ऊपर उठाये
लगातार बुनती है उम्र की चादर पर दिनों का कशीदा
प्रेम की ये कैसी पहेली है आसमान ?
मेरी नींद पर चलता है किसी और का स्वप्न ! तुम्हारी आँखों में आकर ठहर जाती है सारी पृथ्वी की रात …
आगे और पढ़ने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। आँखों से गर्म आँसू मेरे गालों पर ढलक आये थे। मैंने डायरी को बंद किया और आँखे मूँद ली। डायरी क्या थी एक विवर था गहरा, जिसमें मन बस धँसता जाता था। अकेलापन इतना अथाह भी हो सकता है, कभी सोचा नहीं था। उस लिखे में एक अजानी उदासी थी और उस उदासी में मोनालिसा की मुस्कराहट। कासनी का एक सूखा फूल मैंने हाथ में उठा लिया।
क्या लिखने वाली सिज़ोफ्रेनिक थी ? यदि ऐसा था तो क्या ये सब मतिभ्रम की अवस्था में लिखा गया ! इतना सुन्दर !
यह भी हो सकता है कि सिज़ोफ्रेनिक न होकर वह एक बेइंतेहा अकेलेपन की अवस्था में हो।
ये नीला आसमान है या उसके अकेलेपन का कोई आकार ? एक ठहरी हुई नीली उदासी की भाप से बना बादल !
मैंने डायरी के सबसे पिछले पन्ने को खोला तो एक पता लिखा हुआ था। पता उसी शहर का था जिस शहर मैं जा रही थी। तो क्या वह मंज़िल से पहले ही उतर गई ? जब पहुँचना ही नहीं था तो भला क्यों चढ़ी होगी ट्रेन में ? क्या इस पते पर उसका ही घर होगा ? क्या यह डायरी वह जानबूझकर छोड़ गई थी ? क्या उसे पता था कि उसका लिखा हुआ किसी को भी इतना उद्विग्न कर देगा कि वह उसकी तलाश करने लगे ? क्या वह चाहती थी कि कोई उसे ढूँढ निकाले ?
जैसे जाने कितने ही सवाल मुझे मथने लगे। सारी रात करवट बदलते हुए गुज़री। दूसरे दिन पहुँचते ही मैंने अपना सामान हॉस्टल में रखा और ऑटो लेकर डायरी में लिखे पते की तलाश में निकल पड़ी।
एक दोमज़िला मकान था जिसके आँगन में एक जंगल उग आया था। मैं ऑटोवाले को रुकने का इशारा कर गेट खोलकर भीतर पहुँची । जर्जर दीवारों से नीला पलस्तर झड़ रहा था। टूटी खिड़कियों पर कबूतर बैठे थे जिनकी गुटरगूँ आवाज़ माहौल को और भी वीरान कर रही थी।
भीतर झाँकने की हिम्मत मुझमे नहीं थी यदि झाँकती तो हो सकता है कि उसकी अनुपस्थिति की कील पर टँगी शायद उसकी कोई तस्वीर ही दिख जाती। मैं खुले बरामदे में बनी सीढ़ियों से ऊपर चली गई। छत तमाम जंगली खरपतवार से भरी हुई थी। घास के बीच मौजूद केना पर नीले फूल खिले हुए था, मकरा, मोथा, पथरचटा, कांस ने उसके उजाड़ को भी एक खूबसूरत जंगली बसाहट में बदल दिया था और थे उसकी डायरी में मिले कासनी के फूल।
छत के एक तरफ लकड़ी का एक ज़र्ज़र झूला था जो हवा की लहरों के साथ मंद मंद डोल रहा था। ऐसे लगा जैसे वह आसमान की और पेंग लगा रहा हो। दूर बिजली के तारों पर एक बदरंग कमीज़ तार तार होकर झूल रही थी मैंने सोचा शायद यही होगी वह शर्ट जो कभी आसमानी रही होगी ।एक नीला भय अचानक मुझ पर तारी हो गया और मैं वहाँ से उलटे पाँव भागी।
मुझे लगा जैसे मेरे पाँव आगे बढ़ रहे है लेकिन मैं वही रह गई हूँ। जिस हवा को काटकर मैं आगे बढ़ती जा रही हूँ वहाँ कुछ भरता जा रहा था, क्या मुझे पता नहीं।
लेकिन ऑटो में बैठकर लौटते हुए मुझे लग रहा था जैसे आसमान मेरे साथ साथ दौड़ रहा है।
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अभी तक मैंने इसे पूरा नहीं पढ़ा है, किश्तों में जरूर पढ़ूंगा लेकिन मुझे यकीन है कि इसे पढ़ना अद्भुत अनुभव होगा..