मेधा नैलवाल – हिंदी साहित्य और न्यू मीडिया के संबंध को आप किस तरह देखती हैं ?
सपना भट्ट– यह न्यू मीडिया पद अपने आप ओल्ड मीडिया या पुराना मीडिया पद का निर्माण करता दिखता है।
अपनी सीमित समझ से जो समझ पा रही हूं वह यह कि औद्योगिक समाज की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में जन्म लेने वाले अख़बार, पत्रिकाएं, रेडियो और टेलीविजन जैसे माध्यम अब इस माइक्रोप्रोसेसर या चिप केंद्रित समाज में पुराने पड़ गए हैं। जो नया मीडिया है वह सोशल मीडिया, ब्लॉगिंग, वेब पत्रिकाएं, पॉडकास्ट, यूट्यूब और तमाम वेब केंद्रित सूचना संग्रहण और प्रसारण का उपक्रम है।
इस नई तकनीक को साहित्य के और विशेषकर हिंदी साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखना इसलिए और महत्वपूर्ण और जटिल है क्योंकि हमारा यह समय एक ढंग से बीच का समय है जिसे ट्रांजिशन पीरियड भी कह सकते हैं। हमारे समय में साहित्य से संबंधित पुरानी मीडिया के प्रतिमान और उनसे जुड़े प्रतिष्ठान उतने ही सक्रिय हैं जितने वेब आधारित प्लेटफार्म।
थोड़ा ख़तरा उठा कर कहा जा सकता है कि भविष्य में पुरानी मीडिया का लोप हो जाएगा, वह संग्रहालय की वस्तु हो जाएगी और मीडिया का काम पूरी तरह इस न्यू मीडिया के कंधों पर होगा।
अभी इस न्यू मीडिया ने हिंदी साहित्य की रचनात्मकता, प्रकाशन के अवसरों, प्रकाशन की गति और प्रकाशन पर आई प्रतिक्रियाओं को अभूतपूर्व ढंग से तेज़ कर दिया है।
पुरानी मीडिया से तुलना करके देखें तो पहले एक कविता लिखे जाने, संपादक को पोस्ट किए जाने और प्रकाशित किए जाने के दौरान महीनों का समय लेती थी। वह प्रकाशन भी तब सम्भव हो पाता था जब यह संपादक की रुचि के अनुरूप हो, पत्रिका में कविता के लिए जगह हो और इस बीच लेखक का धैर्य ना चुक गया हो।
संपादक की समझ के साथ-साथ पत्रिका के मालिकों की राजनैतिक और संवेदनात्मक समझ भी पत्रिकाओं में रचनाओं के चयन को प्रभावित करती रही है ।
ऐसे में यह न्यू मीडिया साहित्य में शक्ति संरचनाओं के समाप्त होने, प्रकाशन के लोकतांत्रिकीकरण और रचनाओं पर त्वरित प्रतिक्रियाओं के आने की नई और ताज़ा हवा की तरह आया है। अब लेखक को संपादक या प्रकाशक की बाट नहीं जोहनी। वह स्वयं अपना प्रकाशक और संपादक है। लिखने के अगले ही पल वह उसे फेसबुक, इंस्टाग्राम या ट्विटर आदि पर प्रकाशित करता है, उस पर आई प्रतिक्रियाओं से रूबरू होता है और नए रचना कर्म की ओर बढ़ जाता है।
यही कारण है की रचनाशीलता में बढ़ोतरी हुई है और किताबें पहले के किसी भी समय की तुलना में बहुत अधिक प्रकाशित हो रही हैं। इस तरह देखें तो न्यू मीडिया ने ओल्ड मीडिया में भी जान फूंकी है।
सांस्कृतिक आयोजकों और पत्रिकाओं के संपादकों को भी इसी न्यू मीडिया के दायरे में रचनाकारों को खोजते, आमंत्रित करते और प्रकाशित करते देखा जा रहा है।
मेरी समझ में इसने रचनाकार को स्वतंत्र किया है, नए प्रयोगों और नई विषय वस्तुओं की ओर सोचने के लिए जगह दी है और उसकी असफलता के भय को कम किया है।
इसके दोषों को देखने के उपक्रम में यह कहा जा सकता है कि रचनाओं की गुणवत्ता को लेकर कोई संपादन या आलोचनात्मक दृष्टि मौजूद नहीं है, एक अराजकता सी दीख सकती है इसलिए संभव है कि न्यू मीडिया पर मौजूद रचनाओं में से गुणवत्तापूर्ण रचनाएं खोजना थोड़ा मुश्किल हो।
वेब के आने के बाद से साहित्येतर कारणों से छोटे-छोटे शक्ति केंद्र बन रहे हैं जो रचना से अधिक व्यक्तिगत संपर्क और प्रशंसा के लेनदेन के लघु व्यापार पर केंद्रित हैं।
मेधा नैलवाल – सोशल मीडिया पर लेखकों की उपस्थिति से पाठकों की संख्या पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
सपना भट्ट –इससे पाठकों की संख्या अभूतपूर्व ढंग से बढ़ी है, रचनाओं पर आने वाली प्रतिक्रियाएं बढ़ी हैं और बहुत कम समय में किसी भी रचना को पहले से हज़ारों गुना अधिक पाठक पढ़ रहे हैं।
मेधा नैलवाल – प्रचार एवं बिक्री के नए मंच न्यू मीडिया ने तैयार किए हैं। इस पर आपके क्या अनुभव हैं ?
सपना भट्ट –यह सच है कि प्रचार एवं बिक्री के नए मंच न्यू मीडिया ने तैयार किए हैं। प्रकाशक बेहतर जानते होंगे की किताबों की प्रतियां पहले की तुलना में किस तेज़ी से बिक रही हैं। किसी भी किताब के दूसरे और तीसरे संस्करण की सूचना अब अधिक मिला करती है। अपनी किताब के प्रचार और बिक्री के विषय में बोलना मुझे ठीक नहीं लग रहा लेकिन अपने साथी रचनाकारों की रचनाओं को तेजी से फैलते, बिकते और प्रशंसित होते देखती हूं और इसमें कोई संशय नहीं है कि यह सब न्यू मीडिया के कारण हुआ है। सोशल मीडिया पर लाइव के द्वारा, शेयरिंग के द्वारा और स्पॉन्सर्ड पोस्ट बनाकर पुस्तक ही नहीं किसी भी वस्तु की बिक्री के आंकड़ों को बढ़ाया जा सकता है और जब तक यह अश्लील ना जान पड़े मुझे इसमें कोई बुराई भी नहीं दिखती।
मेधा नैलवाल – लेखक, प्रकाशक और पाठक किताब की इस आधारभूत संरचना में न्यू मीडिया ने नया क्या जोड़ा है ?
सपना भट्ट – न्यू मीडिया ने लेखक, प्रकाशक, पाठक की आधारभूत संरचना को बहुत गहराई से प्रभावित किया है। इन तीनों के बीच परस्पर संवाद और व्यापार बढ़ा है। पारंपरिक संकोच और प्रतीक्षा जैसे मनोभावों का क्षरण हुआ है, बेबाकी बढ़ी है और व्यापार की शर्तों को लेकर एक स्पष्टता बनी दिखती है।
लेखक निसंकोच पाठक से संवाद कर रहा है, उसे अपनी किताब खरीदने के लिए प्रेरित कर रहा है। वह प्रकाशकीय प्रचार तंत्र में बिना किसी हिचक के अपना सक्रिय योगदान दे रहा है। एक ढंग से किताब के अधिक से अधिक बिकने के प्रति उसने एक अतिरिक्त जिम्मेदारी ले ली है। प्रकाशक और संपादक अब अपने रहस्यमय कमरों से बाहर खुले मंच पर लेखक और किताब की प्रशस्ति करते दिखाई पड़ते हैं। इस तरह के आयोजन बढ़ते जा रहे हैं।
चाहे या ना चाहे पाठक इस प्रचार तंत्र की ज़द में है। किताबें खरीदने का उसका विवेक और उसका बजट इन आयोजनों और उपक्रमों से प्रभावित हो रहा है। पाठकीय अभिरुचि को भी व्यावसायिक प्रयासों से बदला जा पा रहा है।
मेधा नैलवाल – सोशल मीडिया पर आपकी उपस्थिति का आपकी रचनाशीलता पर क्या प्रभाव पड़ा है ?
सपना भट्ट –व्यक्तिगत तौर पर कहूं तो कोई ख़ास नहीं। मैं सोशल मीडिया पर बहुत सीमित समय के लिए उपस्थित होती हूं। सोशल मीडिया के बहुत कम सदस्यों से संवाद होता है लेकिन इस बात की आश्वस्ति हमेशा होती है कि रचना लिखने पर प्रकाशन की एक बड़ी और उदार जगह मेरे लिए मौजूद है। यह नहीं कह सकती कि प्रकाशन की इस उपलब्ध जगह ने मेरी रचनाशीलता को बढ़ाया है या घटाया है।
मेधा नैलवाल – हिन्दी की ई-मैगज़ींस और महत्वपूर्ण ब्लॉग्स पर प्रकाशन के अपने अनुभव साझा करने की कृपा करें।
सपना भट्ट – हिंदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण ई-मैग्जीन्स और महत्वपूर्ण ब्लॉग्स ने मेरी रचनाओं को उदारता पूर्वक और बहुतायत में प्रकाशित किया है। उनकी संपादकीय दृष्टि को लेकर मेरे मन में आदर का भाव है। कह सकती हूं कि जो भी नगण्य सा मेरा लेखकीय व्यक्तित्व बन पाया है उसमें इन ब्लॉग्स और ई-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। इन जगहों से मुझे निरंतर प्रोत्साहन, नए पाठक और प्रकाशन का संतोष मिला है।
सपना जी की कविताएं जीवन के दुखों को पधारती हुई सुखों में तब्दील करती है, बहुत ही शानदार और ईमानदार इंटरव्यू, बहुत शुभकामनायें उन्हें और अनुनाद को
अनुनाद का नाद दूर तक़ जाएगा
सहमत !
बहुत सुंदर और सार्थक संवाद !
संक्षिप्त होकर भी यह बहुत सुलझी हुई और सार्थक बातचीत है। सपना भट्ट की कविताओं की संवेदनाएँ और उन कविताओं में स्त्री-जीवन की कातर विडंबनाएँ कहीं से भी उनकी बैद्धिक प्रगल्भता और अपने समय और समाज को देखने की उनकी स्पष्ट और व्यवहारिक दृष्टि के आड़े नहीं आती हैं।
मीडिया के निरंतर बदलते प्रारूपों और उसकी नकारात्मक और सकारात्मक भूमिकाओं की इतनी साफ़-सुंदर विवेचना और उसकी सीमाओं, संभावनाओं और ख़तरों का इतना तात्विक विश्लेषण उनकी वैचारिक गहनता की ओर संकेत करता है। अपनी कविताओं की तरह ही सपना अपने संवादों में भी अधिक वाचाल नहीं हैं, लेकिन फिर भी उनसे कुछ भी अनकहा नहीं छूटता। उनके कवि का संभवतः यह सबसे सबल पक्ष है। यहाँ भी कम सवालों के बावजूद उनके जवाबों में इस विषय से संबंधित सभी बिंदु छुए से प्रतीत होते हैं।
बात सहज और छोटी होकर भी स्पष्ट और पूरी हो सकती है। उन्होंने यहाँ यह पुनः सिद्ध किया है। इस अच्छे संवाद के लिए अनुनाद और सपना भट्ट को बहुत बधाइयाँ।