अनुनाद

राकेश मिश्र की कविताएं

 

 

सबूत 

 

सारा शहर जानता है 

गुनाह 

मरने वाले का 

हत्यारों की बेगुनाही 

अख़बार के इश्तहारों में है 

 

कुछ सिरफिरों ने नशे में 

सुनायी मौत की सजा 

एक शहरी को 

 

एक होश में बैठा हाकिम 

जाँचेगा 

उनकी बेगुनाही के सबूत

***

 

पूरा दिन

 

पूरा दिन बीता 

ख़ुद  से बाहर 

देखते बोलते बतियाते चिल्लाते 

 

मन का शोर 

शहर के गन्दे नाले की तरह 

बजबजा कर बहना चाहता है 

 

कुछ चेहरे दिखे 

ख़ुद में खोये हुए 

कुछ आवाज़ें खोयी हुई 

ख़ुद के बियाबान में 

 

कुछ गहरी मुस्कानों वाली सूरतें 

प्रत्युत्तर चाहती हों जैसे 

ठिठकी रहीं देर तक 

 

भूलना मुश्किल है 

रक्तहीन ठंडी हथेलियों का स्पर्श 

 

उपलब्धि हीन लौटा हूँ 

शाम को घर

इससे तो अच्छा होता 

सड़क किनारे सवारी की प्रतीक्षा में 

सो गये रिक्शे वाले को जगाकर 

बातें करते घर लौटता 

 

मूँगफली के ठेले पर ठेकेदार की 

प्रतीक्षा करते मज़दूर से 

बाक़ी दिहाड़ी ही पूछ लेता 

 

या अस्पताल के अहाते में 

रात का ख़ाना पकाते तीमारदार से 

पूछ लेता अगले दिन की दवा का हिसाब 

 

इससे तो बहुत अच्छा होता 

यदि किसी पागल से पूछ लेता 

कैसी है दुनिया आजकल।

***

 

धोखा 

 

साफ़ पानी और दाना 

धोखा है चिड़िया के लिये 

फँस कर गवांती आयी हैं 

पंख और प्राण 

अनगिन पीढ़ियाँ 

भूखे-प्यासे मर जाएगी चिड़िया 

देखेगी नहीं कभी 

साफ़ पानी और दाने की ओर

चिड़िया विद्रोही नहीं 

चेतस हो चुकी है । 

***

 

लड़ाइयाँ 

 

तुम लड़ना

वह लड़ाइयाँ 

जहाँ चुप रहते हैं लोग 

 

सान्त्वनाओं में अहर्निश रोते  हैं 

कितने सारे लोग 

उनके पास थोपा हुआ 

असीम धैर्य होता है 

उनकी जेब में होता है 

उम्मीदों का घोषणापत्र 

 

ना-उम्मीदी अपराध है 

शाबाशियाँ मिलेंगी तुम्हें 

हौसला अफ़जाई करेंगे 

लोग पर लोग 

 

चुप्पी उन्हें भी चुभती है 

एक जुलूस सम्भव है 

तुम्हारे लिए शहर में 

एक शोक प्रस्ताव हो सकता है 

छूटी लड़ाइयों का 

 

लोग ललकारेंगे पागलों की तरह 

आसमान में मुट्ठियाँ होंगी 

उन सबकी 

तुम्हारे क़िस्से 

चाय की दुकानों पर चर्चित होंगे

 

ध्यान रखना 

जब लहुलुहान होगा शरीर 

धुंधली होगी रक्त से आच्छादित दृष्टि 

तब केवल आवाज़ें होंगी 

तुम्हारे आसपास 

 

एक अंतिम बार एकत्र होंगे लोग 

शहर के चौक पर 

बुझी मोमबत्तियों लिये हुए 

 

सभी चुप होंगे 

सिसकियों में रोते लोगों के 

आंसुओं से गीले हो जाएँगे 

उम्मीदों के सारे घोषणा पत्र

***

 

चुरमुरा

 

रात ८ बजे 

चुरमुरे के खोखे पर भीड़ 

लैया चना प्याज़ हरी मिर्च 

हरी धनिया काला नमक 

दूर से ही मुँह को पनीला कर दे 

ऐसी ख़ुशबू ऐसा स्वाद 

चावल दाल सब्ज़ी की जगह 

चुरमुरे खा कर सोयेंगे 

इतने सारे लोग ।

***

 

विरोध 

 

मैं नहीं चाहता 

ना हो मेरा विरोध 

काला हो सकता है 

विरोध का पसंदीदा रंग 

चिल्लाहट पसंदीदा आवाज

कौवों की सामूहिक़ता

काँव कांव का समूह गान 

टूट पड़ना किसी भी मरणासन्न पर 

उन्हें मारकर टाँगना

सिद्ध नहीं करता 

चौराहों पर । 

***

 

मायका 

 

यूकेलिप्टस के सूखे शिखर की 

टहनियों पर फुदकती 

पल भर ठहरती 

बिन चहके बे-आवाज

वह नन्हीं सी नीली चिड़िया 

माँ- पिता बिन मायके लौटी है आज । 

***

 

बहनें

 

कोई अकेली तस्वीर नहीं होती है 

बहनों की उनके मायके में 

 

दीवाल पर सजी हुई 

सामूहिक चित्रों में उपस्थिति होती हैं

परिचयात्मक रूप से झाँकती 

 

कोई अलग कमरा नहीं होता है 

यहाँ वहाँ बनायी बिछाई जगहों में ही 

रहकर लौट जाती हैं

 

अलग अलग शहरों में बसते हुए 

सींचती हैं परस्पर गर्भनाल

भाइयों को स्वप्न की पीठ पर लादे

पितरों  की चिन्ता छाया से दूर 

चलाती हैं गृहस्थी 

 

दुनिया में कौन लौटता है 

अकारण इतनी बार जितना 

मायके में लौटती हैं बहनें ।

***

 

भूलना 

 

मैं भूल नहीं सका

पहला वाक्य 

जो मातृभाषा से इतर था 

 

पहली चोरी 

जो सहज हुई थी 

 

पहला जवाब 

जो सच के कारण छुपाया 

 

पहली झिड़की 

जो अकारण थी

 

पहली सफलता 

जब कोई साथ न था।

***

 

दर्द 

 


ख़ूब दर्द आये जीवन में 

समय समय पर 

कभी सुबह कभी शाम 

कभी दिन कभी रात 

 

कभी मन कभी शरीर पर 

अलग अलग वय-सन्धियों पर 

अलग रूपों में 

दर्द का आगमन हुआ 

 

कभी भूख कभी अभाव 

कभी उपेक्षा कभी अपमान 

कभी रोग कभी शोक के रूप में 

 

प्रेम ने दिए 

दर्द के सर्वाधिक रंग-रूप 

 

सभ्यता ने दर्द को 

कुचलने 

कुंद करने

भूल जाने 

सम्भालने के भी 

अनगिन उपाय रखे सिरहाने 

 

दर्द को कभी नहीं मिली 

उसकी वाजिब जगह 

दर्द को पीना-जीना सीखने को

नहीं बना कोई स्कूल 

कोई गुरु 

 

ख़ुशियों को पाने उपजाने  के 

बहुविध तरीक़े भी 

दर्द को दूर रखने के  

उपाय भर थे 

 

दर्द की पहचान खोती गयी 

सम्मान खोता गया 

दर्द के खोते ही 

खो गयीं 

सारी ख़ुशियाँ ।

***

 

आवाज़

 

एक आवाज़ 

गीली मिठास वाली 

जुकाम में हो जैसे 

मेरा नाम लेती है 

 

सूने-सूखे रास्तों पर

एक मैले कुचैले कपड़ों और 

उलझे बालों वाला आदमी 

अक्सर मिलता है

तेज़ कदमों से चलता हुआ 

जैसे बहुत ज़रूरी हो 

जल्दी पहुँचना 

नामालूम लौटता कब है 

 

मैं मानसूनी बादलों के सामने 

खड़े ठूँठ पेड़ सा 

अपनी इच्छाओं से निर्धारित 

स्पेक्ट्रम में जीता हूँ

 

चेतना के सघन बोझ से 

थका दिहाड़ी मज़दूर 

पीकर पड़ा है 

दारू अड्डे पर 

 

एक टाँग पर 

लंगड़ाती हुई मुर्गी 

घूर पर कीड़े खोजती हुई 

अभिशप्त है 

किलो भर होने तक

 

एक सायरन बजाती एम्बुलेंस

बहुत देर से फँसी है 

दफ़्तर से घर लौटने की जल्दी में 

जाम हुए रास्ते पर

 

घर नहीं लौटा हूँ 

मैं भी ।

***

 

कड़कनाथ 

 

मध्यप्रदेश में झाबुआ के 

आदिवासी किसान के यहाँ से 

८०० रुपए में चलकर 

इलाहाबाद में १००० का हुआ 

कड़कनाथ 

 

फिर जगदीशपुर में १२०० रुपये का होकर 

बड़ी गाड़ी में सवार हुआ और 

एक सुहानी शाम 

हाकिम के बंगले में मारा गया

कड़कनाथ  

 

झाबुआ की याद 

आँखों में लिये ।

***

 

संस्मरण 

 

मेरे कक्ष में 

मरा पड़ा है 

एक आदमी 

दाहिने हाथ में 

संस्मरणों की किताब लिये 

 

जिसके कुछ पृष्ठ 

मेरे बारे में हो सकते हैं 

मुझे पढ़ने हैं 

वो पृष्ठ 

अन्तिम विदा से पहले ।

***

2 thoughts on “राकेश मिश्र की कविताएं”

  1. अरुण सिंह, सम्पादक, इंडिया इनसाइड पत्रिका

    राकेश मिश्र की कविताओं में असली और जीवन्त जनवाद पूरी संवेदना के साथ व्यक्त हो रहा है।बिना किसी छद्म के वे मज़े-मज़े में रच रहे हैं।साधुवाद राकेश जी।

  2. Ranjana Mishra

    शब्दों की मितव्ययिता राकेश जी की कविताओं का ख़ास गुण है, पर वे शब्द अपने पूरे अर्थों के साथ, चमकते अपना अर्थ खोलते चलते हैं। इन कविताओं को ठहरकर पढ़ना, इनके कथ्य और शिल्प के संतुलन को समझना भी है। उन्हें और अनुनाद को बधाई और शुभकामनाएं ।

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