अनुनाद

दिवा भट्ट की दो कविताएं

 

 

कूड़ा 

 

हर शहर के पास होता है अपना एक कूड़ा 

बहुत-बहुत तरह का होते हुए भी कूड़ा एक ही होता है

बहुत-बहुत होने पर भी

कूड़े को बहुवचन में नहीं बदला जा सकता

 

कूड़ा कहीं का भी हो

कूड़ा कूड़ा ही होता है

 

महंगे दामों पर लाई गई 

प्यार से घर में बसाई गई हर चीज को 

एक न एक दिन

कूड़ा बनकर घर से बाहर निकलना होता है

ताजी हवा के साथ

 

खुशी-खुशी घर में घुसी धूल को भी फटकार और बुहार के साथ

निकलना ही होता है

बाहर भले ही वह दुबक कर क्यों न बैठ जाए

किसी कोने में

या कुर्सी-चारपाई के पैताने कहीं भी 

कूड़े को घर और आंगन पसंद है

घर और आंगन उसे प्यार देकर दुत्कार देते हैं

 

कूड़े की नियति है फटकार और दुत्कार 

हर शहर के पास होता है अपना एक कूड़ा

जो शहर के बाहर जाकर विश्राम पाता है

 

सजे-संवरे शहर के आलीशान घरों की असलियत 

बताता कूड़ा

विशिष्ट को सामान्य बनाना जानता है

सभी घरों से आता है 

परंतु उस पर किसी का नाम नहीं होता

अलग-अलग घरों से आने वाला कूड़ा

बाहर आते ही

जाति-धर्म-देश-भाषा और संपन्न-विपन्न का 

भेद भूल जाता है 

एकता की मिसाल बनकर अपना कूड़ा- धर्म निभाता है

 

बहुत-बहुत होते हुए भी 

कूड़ा एकवचन ही बना रहता है।

***

                              *

घर 

 

दुबक कर बैठा हुआ है भीतर

एक घर

सामने खड़ा हो गया अचानक आकर

 

हैं!

तू कहां से आया अभी?

तू तो दिखाई ही नहीं दिया था वर्षों से!

 

सुला दिया था तुझे वर्षों पहले

भीतर- भीतर कहीं भीतर

प्यार से ओढ़ा कर थपका कर 

जैसे ओढ़ाती-थपकाती थी मां मुझे छुटपन में 

पुचकारती हुई 

कुछ गुनगुनाती हुई 

फिर जुट जाती थी अपने काम समेटने में

मैं भी सुला आई तुझे भीतर के एक कोने में

और जुट गई नई-नई व्यस्ताएं समेटने में 

 

हर नई व्यस्तता के साथ डालती गई तुझ पर

एक नया ओढ़ावन 

तू ढँकता रहा 

भीतर- भीतर दबता रहा

मैं घर से बाहर जाकर

व्यस्त होती गई ढूंढने में 

नए-नए घर

 

कैसे-कैसे तो थे घर

छोटे- बड़े 

विशाल 

सुविधाओं से लदे-फँदे

 

इतने ढेरों मकानों की भीड़ में तू कहीं नहीं था

मेरा अपना घर कहीं नहीं था 

कभी-कभी

किसी निर्जन विस्तार के एकांत में 

धीरे से हटाती हूं परतें

तो थक जाती हूं 

हटाते- हटाते 

कितना नीचे छिप गया रे तू !

 

मेरे घर !

कोशिशें जब हाथ बांधकर बैठ जाती हैं 

तब अचानक बाहें फैला देता है तू

दुबक जाती हूं मैं तेरे भीतर 

सुलाती थी तुझे बचपन के खेलों में 

छुपाने लगी सच में

बड़ी होते-होते 

दबाने लगी तुझे 

और भागने लगी 

सौंप दिए मैंने अपने पांव

रण की मरीचिकाओं को

 

रेत के ढूहों के भीतर फँस गये पांव 

आंखें खोज रही हैं तुझे

हाथ लपक रहे हैं 

तेरे आभास को पकड़ने के लिए 

अपनी ही खींची हुई इबारतें 

उलझ गई हैं

 

बचपन में सीखी हुई बुनावटें

अपनी ही रची हुई इमारतें

चिढ़ा रही हैं

 

हँस रही है

सुला रही है

रुला रही है

मचलती हुई प्यास 

 

प्यास 

जिसे वचन दिया था पानी का

भरोसा दिया था तृप्ति का

पीछे- पीछे चली आ रही है वह हठीली बालिका 

 

डपटती हूं 

नहीं मानती

अब मैं हूं और प्यास है 

प्यास है और हठ है 

हठ है और हार है

 

लेकिन मैं नहीं करूंगी धारण इस हार को 

उछाल दिया है मैंने उसे दसों दिशाओं की ओर

करो जो करना है इसका 

मुझे नहीं चाहिए कुछ भी

न हार 

न जीत 

एक किनारे प्यास

दूसरे किनारे जल

खेलते रहे जीवन भर लुका- छुपी का खेल

दौड़ते रहे समानांतर

बीच में बहती नदी हूं मैं 

ठहरी हुई वह सड़क हूं मैं

चिर प्रतीक्षित द्वार हूं मैं 

द्वार को थामे खड़ा है घर 

 

मेरे भीतर बसा हुआ घर 

मुझे बचाते- बचाते कहां चला गया 

जा रही हूं उसे ढूंढने 

कोई चलेगा मेरे साथ?

***

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