अनुनाद

अनुनाद

ईरान की आधुनिक स्त्री कविताएँ- चयन और अनुवाद – श्रीविलास सिंह

हिन्‍दी कविता में ईरान की स्‍त्री कवियों के स्‍वर सुनाई दे रहे हैं। अनुनाद पर पहले यादवेन्‍द्र ने कुछ महत्‍वपूर्ण अनुवाद हमारे लिए सम्‍भव किए थे।  इसी क्रम में अब हमें समर्थ अनुवादक श्रीविलास सिंह से ये महत्‍वपूर्ण कविताएं मिली हैं। पिछले कई वर्षों में ईरान अपने धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के चलते कविता के लिए एक मुश्किल जगह साबित हुआ है, तिस पर स्‍त्री कवियों के ये ओजस्‍वी स्‍वर विश्‍व कविता के लिए एक उपलब्धि की तरह हैं। इन्‍हें हिन्‍दी में सम्‍भव करने के लिए अनुनाद श्रीविलास सिंह का आभारी है। कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद महमूद कियानुश का है।

 

 

 फ़रोग फ़रूख़ज़ाद 

मैं पुनः स्वागत करूंगी सूर्य का 

 

मैं पुनः स्वागत करूंगी सूर्य का

स्वागत करूंगी उस धारा का जो कभी बहती थी मुझमें

उन बादलों का जो थे मेरे लहराते हुए विचार

बगीचे के पॉपलर वृक्षों की कष्टमय वृद्धि

जो गुजरे मेरे संग अकाल के मौसमों से हो कर।

मैं स्वागत करूंगी कौवों के झुंड का

जिन्होंने दिया है मुझे बाग से आती रात्रि की सुगंधि का उपहार

और अपनी माँ का जो रहती थीं आइने में 

और थी मेरी वृद्धावस्था का प्रतिबिम्ब।

एक बार फिर मैं धरती का स्वागत करूंगी 

जो फुला लेती है अपना प्रज्ज्वलित उदर हरे बीजों से

मेरे पुनर्सृजन की लालसा में।

 

मैं आऊंगी, मैं आऊंगी, मैं ज़रुर आऊंगी

मेरे केशों से उड़ रही होगी मिट्टी की सुगंधि

मेरी आँखें सूचित कर रही होंगी अंधेरे की सघनता

मैं आऊंगी दीवार के दूसरी तरफ की झाड़ियों से चुने

गुलदस्ते के साथ।

मैं आऊंगी, मैं आऊंगी, मैं ज़रुर आऊंगी

दरवाज़ा प्रदीप्त होगा प्रेम से

और मैं एक बार फिर स्वागत करूंगी उनका जो प्रेम में हैं,

स्वागत करूंगी उस लड़की का जो खड़ी है 

डयोढ़ी की लपटों में।

**** 

सिमिन बेहबाहनी  

वह आयी गरिमामय ढंग से 

 

वह आयी गरिमामय ढंग से 

चमकीले नीले रेशमी परिधान में;

अपने हाथ में लिए जैतून की एक शाख़,

और शोक की ढेरों कहानियाँ अपनी आँखों में।

उसकी ओर भागते हुए, मैंने अभिवादन किया,

और ले लिया उसका हाथ अपने हाथों में:

अब भी उसकी धड़कन महसूस की जा सकती थी उसकी धमनियों में;

और अभी भी गर्म थी उसकी देह जीवन की ऊष्मा से।

 

“किंतु तुम तो मर चुकी हो, माँ,” मैंने कहा;

“ओह ! बहुत वर्ष पहले तुम मर गई थी !”

न तो उससे आ रही थी शव लेपन की गंध,

न ही वह लिपटी थी कफ़न में।

 

मैंने एक नज़र डाली जैतून की शाख़ पर;

उसने उसे लहराया मेरी ओर,

और मुस्कराहट के साथ कहा,

“यह है शांति की प्रतीक, इसे लो।”

 

मैंने उसे ले लिया उससे और कहा,

“हाँ, यह है प्रतीक….”, जब 

मेरी आवाज़ और शांति भंग हो गई

एक घुड़सवार के आक्रामक आगमन से।

वह रखे था एक कटार अपने परिधान के नीचे 

जिस की सहायता से उसने बनाया एक डंडा 

जैतून की डाल से और उसे देखते हुए 

कहा ख़ुद से :

“बहुत ख़राब नहीं है यह बेंत 

गुनहगारों को सजा देने हेतु !”

नाटकीय पीड़ा की एक वास्तविक छवि !

फिर, छिपाने को डंडा,

उसने खोला अपने घोड़े की जीन का झोला।

उस में, या अल्लाह !

मैंने देखा एक मृत कबूतर, एक रस्सी बंधी थी 

उसकी टूटी हुई गर्दन में।

 

मेरी माँ दूर चली गई ग़ुस्से और शोक में;

मेरी आँखों ने अनुगमन किया उसका;

विलाप करने वालों की भाँति वह पहने थी 

एक परिधान काले रेशम का।

**** 

ज़ालेह एस्फ़ाहानी 

 

जंगल और नदी

 

“मैं चाहता हूँ कि मैं होता तुम्हारे जैसा,”

कहा जंगल ने

आप्लावित नदी से 

“सदैव यात्रारत,

सदैव देखता नए दृश्य ;

बहते हुए समुद्र के पवित्र राज्य की ओर;

जल का साम्राज्य;

जल,

जोश और जीवंतता से भरी 

जीवन की चेतना,

प्रकाश की तरल नीलमणि

अनंत प्रवाहयुक्त…”

 

“किंतु मैं क्या हूँ?

मात्र एक बंदी,

ज़ंजीरों से बँधा हुआ धरती से।

चुपचाप मैं वृद्ध होता जाता हूँ,

चुपचाप मैं क्षय होता हूँ और मर जाता हूँ,

और बहुत दिन नहीं होंगे 

जब मेरा कुछ भी नहीं रहेगा शेष

एक मुट्ठी राख के अतिरिक्त।”

 

“ओ जंगल, अर्द्ध-सुप्त, अर्द्ध-जागृत”,

चिल्लाई नदी,

“मैं चाहती हूँ कि मैं होती तुम,

आनंद लेती एकाकीपन में 

एक मरकतमणि जैसे,

और चमकती हुई चाँदनी रातों से;

एक दर्पण हो कर 

परावर्तित करती वसंत का सौंदर्य;

होती प्रेमियों का एक छायायुक्त मिलनस्थल।”

 

तुम्हारा भाग्य, एक नया जीवन हर वर्ष;

मेरा जीवन, भागते रहना स्वयं से हर समय 

बौखलाए हुए;

और क्या है मुझे लाभ 

इस तमाम अर्थहीन यात्रा का?

आह…सदैव बिना शांति और विश्राम के !”

 

“कोई कभी नहीं जान सकता 

क्या महसूस करते हैं दूसरे;

किसे परवाह होती है पूछने की 

किसी राह चलते से कि

क्या उसका सचमुच अस्तित्व था 

अथवा था वह मात्र एक परछाई?”

 

अब एक राहगीर 

उद्देश्यहीन चल कर आता हुआ छाया में 

पूछता है स्वयं से,

“मैं कौन हूँ? एक नदी? एक जंगल?

अथवा दोनों?

नदी और जंगल?

नदी और जंगल !”

**** 

शादाब वज़्दी 

 

मेरी प्रतीक्षा करो

 

और मैं जीवित हो उठती हूँ पुनः 

अपनी देह की क़ैद से बाहर,

कामना के क्लेश से परे,

फलों से लदी डालियों के मध्य 

एक क्षण में ही,

स्वयं सूर्य से उत्पन्न;

और एक झाड़ी की छाया में 

जो ले गई प्रेम की शुद्ध सुगंधि 

सीमाहीन मैदानों में;

और मेरे हाथ,

दो राह दिखाते पतवार 

तेज़ी से जाते हुए प्रेम की हरी भरी 

भूमि की ओर;

और मेरी आत्मा, मेरा हृदय 

गा रहा 

गा रहा।

 

प्रतीक्षा करो मेरी 

क्षितिज की नीली रेखा के साथ 

जो ले जाती है चाँद के सुनहले पथ को 

सितारों के चमचमाते उत्सों की ओर।

और भोर के झरनों से 

उस क्षण जब सूर्य उगता है 

और बुनता है प्रकाश के धागे 

एक शाख़ से दूसरी शाख़ तक 

लिए हुए उन्हें दानों की भाँति 

घोंसलों के भीतर 

जहाँ चूजे,

रोशनी और आकाश की कामना में 

चहक रहे,

चहक रहे।

 

प्रतीक्षा करो मेरी 

मेरी आवाज़ के चमकीले सिरे पर 

जो आकाशगंगाओं के रहस्य के ऊपर से 

प्रवाहित होती है धरती पर 

अवशोषित कर लिए जाने को 

प्रगति की कलियों द्वारा 

और बाग के सोने वालों को 

देने को समाचार सूर्योदय और जीवन का।

 

प्रतीक्षा करो मेरी 

मैं जीवित हो उठूँगी पुनः। 

**** 

शहनाज़ अ’लामी 

 

जादुई सूटकेस

 

मैंने अपने साथ लिया एक सूटकेस

हल्का, बहुत हल्का,

बच्चों के कपड़ों के दो या तीन जोड़े,

जार्जेट का एक सफ़ेद परिधान,

अपनी माँ की एक धुंधली सी तस्वीर,

पहने हुए हिजाब,

और पारंपरिक चीजों की एक पूरी लिस्ट 

नौरोज़ के उत्सव के लिए,

ऐसा न हो कोई चीज भूल जाए;

यही सब जो था मेरे पास,

अथवा जो लोग सोचते थे कि मेरे पास था,

मेरे सूटकेस में 

जिसके साथ मैंने छोड़ दी 

उदार सूरज की भूमि।

मेरा सूटकेस था,

अथवा जैसा लोगों ने सोचा कि वह था,

बहुत, बहुत हल्का;

लेकिन कितनी बड़ी गलती थी !

आपने निश्चय ही देखे होंगे 

पेशेवर जादूगरों के कार्यक्रम;

वे रखते हैं अपनी उँगलियाँ 

अपनी क़मीज़ की बाहों पर,

और निकाल देते हैं हर वह चीज जिसका आप नाम लें:

चिड़िया, ख़रगोश, सभी रंगों के रूमाल,

कभी कभी क्रिस्टल का जग,

कभी पत्थर का एक टुकड़ा,

आग, पानी, मिट्टी,

फूल, काँटे और ढेरों और चीज़ें;

ऐसा ही था मेरा ख़ाली जादुई सूटकेस।

 

अब इस बात को हो गया लगभग एक जीवन 

कि उसी सूटकेस के भीतर से 

मैं निकालती रहीं हूँ वह हर चीज जो मैं चाहती हूँ :

इस्फ़ाहान का शानदार वसंत

और इसके बाहरी इलाक़ों में स्थित 

जीवनदायी बगीचे;

और शिराज़ की रंगबिरंगी शरद 

और इसके संतरे के वृक्षों की सुगंध;

पार्सिपोलिस के प्राचीन खंडहर;

अपने ऐतिहासिक अभिलेखों संग

बागेस्तान पर्वत;

शहज़ादी शीरीन का महल;

ना’इन में ग़रीब गाँव चाम

एक किसान लड़की 

फ़ातिमा के चिथड़े वस्त्र,

और उसके साथ ही बच्चों का एक झुंड,

जो सभी थे उसी सूटकेस के अंदर।

 

मैं उन्हें बाहर निकालती हूँ;

मैं बैठती और बतियाती हूँ उनसे,

मैं जीती हूँ उनके संग;

और जिस क्षण आता है कोई और,

वे सब वापस भाग जाते हैं सूटकेस में,

वही सूटकेस जिसे लोग सोचते हैं 

होना चाहिए बहुत हल्का

और लगभग ख़ाली।

 

जब मैं बनाऊँगी अपनी वसीयत 

मैं कहूँगी कि मेरा सूटकेस 

दफ़नाया जाए मेरे साथ।

निःसंदेह वे कहेंगे :

“उसका जीवन था एक पागलपन;

और उसकी वसीयत है मूर्खतापूर्ण !

किस तरह की वसीयत है यह !

जो चाहती है एक सूटकेस 

परलोक में?”

 

उन्हें कहने दो जो वे कहना चाहें;

आख़िर, 

कौन जानता है रहस्य

प्रेम के पेशेवर जादूगर का?

 

क्या यह सच नहीं कि ‘प्रेम 

वेधशाला है ईश्वर के रहस्यों की?’

 

———

१. फ़ारसी नववर्ष (अंग्रेज़ी कैलेंडर में २१ मार्च को शुरू होता है)।

२. राजा डेरियस (दारा) की राजधानी 

३. ईरान में क़ालीनों के लिए प्रसिद्ध एक गाँव

४. प्रसिद्ध कवि जलालुद्दीन रूमी की ‘मसनवी’ से एक प्रसिद्ध पंक्ति।

**** 

ज़िला मोस’ईद  

 

शर्म

 

आकाश के नीलेपन से अपरिचित,

धरती की चमकती हरियाली से अपरिचित,

मनुष्य के अपनी देह ढकने के इतिहास से अपरिचित,

मैं खड़ी हुई हूँ 

बर्फ के एक गोल घेरे में,

घिरी हुई शोक और दुश्चिंताओं से;

नग्न, प्राचीन और एकाकी,

मैं ढोती हूँ अपने कंधों पर 

हज़ार साल पुराना बोझ

शर्म का,

इज्जत ढकी होने का।

ओ नींद की माताओं, जिनकी हड्डियाँ हैं 

छुपने के प्राचीन स्थान 

मरी हुई अंतःप्रेरणाओं के,

देखो कैसे वे उघाड़ते हैं, प्राचीन जड़ें,

धीरे धीरे पर दृढ़ता के साथ 

बेधते हैं बर्फ को।

**** 

मीना असदी 

 

मेरे लिए अंगूठी है एक बंधन  

 

मैं नहीं सोचती  जा-नमाज़ के बारे में,

पर मैं सोचती हूँ सैकड़ों सड़कों के लिए

जो गुजरती हैं

रेशम के गुच्छों से लदे वृक्षों से भरे

सैकड़ों बगीचों से;

मैं जानती हूँ किबला

इसकी जगह है वहाँ जहाँ है ख़ुशी;

और मैं पढ़ती हूँ नमाज़ रोज़

रेशमी सड़कों पर 

गौरैयों के संगीत के साथ।

 

मैं नहीं जानती क्या है अर्थ स्नेह का,

अथवा क्या हो सकता है अंतर 

एक भूमि और दूसरी के बीच।

एकाकीपन है जिसे मैं कहती हूँ ख़ुशी

और मरुभूमि जिसे मैं कहती हूँ घर,

और जो कुछ भी करता है मुझे दुःखी, उसे मैं कहती हूँ प्रेम।

 

मेरे लिए पाँच पाउंड के एक नोट का अर्थ है धन;

मैं हर उस व्यक्ति को अंधा कहती हूँ 

जो तोड़ता है कोई फूल;

और मेरी निगाह में एक जाल

जो अलग करता है मछली को जल से 

है एक हत्यारा।

 

मैं देखती हूँ समुद्र को ईर्ष्या से 

और कहती हूँ स्वयं से 

“कितनी छोटी हो तुम !”

संभवतः समुद्र भी सोचता है ऐसा ही 

जब वह मिलता है महासागर से!

 

मैं नहीं जानती क्या है रात्रि,

लेकिन दिन क्या है मैं समझती हूँ अच्छे से,

मेरे लिए फूलों की एक झाड़ी है एक गाँव

और स्मृतियों के बाग़ में टहलना, स्वतंत्रता,

और कोई भी अर्थहीन मुस्कान, आनंद।

मेरे लिए हर व्यक्ति जिसके पास है एक पिंजरा 

है एक जेलर;

 

और हर वह विचार  

जो पड़ा रहता है व्यर्थ मेरे मस्तिष्क में

लगता है एक दीवार;

मेरे लिए अंगूठी है एक बंधन।

 

मैं नहीं सोचती जा-नमाज़ के बारे में,

पर मैं सोचती हूँ सैकड़ों सड़कों के लिए

जो गुजरती हैं

रेशम के गुच्छों से लदे वृक्षों से भरे

सैकड़ों बगीचों से।

 

————

१. वह दिशा जिस ओर मुँह कर के नमाज़ पढ़ी जाती है (पवित्र काबा की दिशा)

**** 

मेमनत मीरसदेगी  

 

एक चमकती खिड़की की तस्वीर  

 

मैं गई खिड़की के पास और कहा मैंने :

ओह ! कितनी शानदार धूप है !

कितना चमकीला दिन !

कितनी समृद्ध पल्लवित ख़ुशी 

है उपस्थित हर चीज में।

 

मैंने कहा स्वयं से 

“मैं बढ़ूँगी पौधों के संग,

मैं गाऊँगी चिड़ियों के संग,

मैं बहूँगी पानी के साथ।”

मैंने कहा स्वयं से :

“मैं पियूँगी दिन को –

यह स्वर्णिम किनारों वाला कटोरा 

जो भरा है किनारे तक धूप से –

एक घूँट में।

 

मैं खड़ी रही खिड़की के पास

मैं खड़ी रही,

और फिर मेरा छोटा सा कमरा 

भरने लगा उदासी से,

– गाढ़ा, काला धुआँ –

और मेरी कामना 

बढ़ने की,

गाने की,

बहने की, 

थी तस्वीर एक चमकती खिड़की की 

इस घिरी हुई जगह में 

इन चार दीवारों के मध्य।

 

भोर का भारी आकाश 

अपनी उदासी और 

विलाप करती बारिश के साथ 

धीरे धीरे रो रहा था।

***    

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