जीना ही है प्रेम
उसने थामा मेरा हाथ
कहा नहीं ऐसे नहीं
ऐसे होती है कविता
हाँ वह सही था
कविता के बारे में
जबकि मैं और थोड़ा
लिखना चाहता था ख़ुद को
एक कविता के होने से पहले
ठीक वैसे ही जैसे
किया था प्रेम
प्रेम में पड़ने से पहले
वो बनना – संवरना
ख़ुद ही स्त्री हो जाने तक
कल्पनाओं के दृश्य
समेटते- समेटते
किसी बदली सा यूंही
बरस जाने तक
गूंजने लगे अनहद तो
डरने लगती है ज़िन्दगी
तलाशने लगती है मायने
कि जीना उतना ही जीना
हद से हद सरहदों तक
अंत में हमको जीना ही है प्रेम
लिखनी है कविता भी कभी
***
उफ़ ये बच्चे
फर्राटा भरते
निकल जाते हैं तोते
छूते हुए कान
खंजन करती है मस्ती
लगाती है रेस
गाड़ियों के आगे
जाड़े को रख पत्थर में
चाँठी धार के बीच
घुरल टकराते हैं सींग
या गजबजा देती है
गिनती और गणित
पानी में जलमुर्गियां
जबकि इस वक्त में
इन्हें होना था
बगुले सा शान्त
हिरन सा सचेत
सदियां बीत गयी
लेकिन अभी भी
उफ ये बच्चे!
नहीं सुनते कभी
किसी की
***
कसक
तलाशते – तलाशते
अनछुए से गुज़र गये
कई-कई रास्ते
फेरीवालों की झोलियां
रंगों की पोटलियां
ना मिली संगतें
उड गयी रंगतें
तलाशते – तलाशते
फ्रेमों में आईनों में
उम्मीदें ठिठकी
अक्स ना उतरे
पटकते – पटकते
तलाशते – तलाशते
जलसे में शामिल
सलीबें हासिल
गुनहगार तो हुए
ईसा न हुए
सम्भलते – सम्भलते
तलाशते – तलाशते
***
चाँद है
चांद है
चांदनी में ताज
कब्र है
अन्धेरे में मुमताज़
फिर चूकी
पूर्णता अपनी रोशनी
अधूरी है अधूरी
हमेशा ज़िन्दगी
***