अनुनाद

श्रीविलास सिंह की कविताएँ

   

 

     धूप में       

 धूप दूर

दृष्टि के दूसरे छोर तक पसरी है,

आग का एक समुद्र उग आया है

खेतों खलिहानों में,

हवा टकराती है 

जैसे अग्निपक्षी लिपट गया हो चेहरे से।


मौसम तो आते जाते हैं

ठंड के बाद गर्मी

और उसके बाद बरसात,

पर सोचता हूँ

अगर यह धूप ठहर गई यूँ ही

किसी ढीठ अतिथि की भाँति

तब

तब क्या होगा?

जब धरती की गोद में बची

थोड़ी बहुत आर्द्रता को भी सोख लेगी

यह आग तब…तब?

सुन रहा हूँ

पानी ले कर जाते टैंकर की खड़खड़ाहट्

सोच रहा हूँ

यह हमारे ‘केपटाऊन’ की आहट तो नहीं ?


हरियाली का वितान हमने नष्ट किया है

अब धूप हमारी तलाश में है

अपने चेहरे पर महसूस कर रहा हूँ

उसकी ऊष्म साँसें ।

***

      क्रांति एक शब्द भर है?       

 इस निर्मम समय में

नहीं बचे हैं कोई रंग और अर्थ शब्दों में,

न ही उन विचारों में

जिन्हें वहन करते हैं ये शब्द

सारे अर्थ हैं सुविधा के अर्थ

और सारे रंग अवसरों के,

पुरानी सब किताबें हो चुकी हैं बदरंग,

उनके जर्जर पन्नों को

खा कर समय के कीड़ों ने

कब का अपठनीय और संदर्भहीन कर दिया है।

‘सुविधा’ और ‘समझौता’ यही दो शब्द

पढ़े जा सकते हैं आज भी।

आँख पर पट्टी बाँधे देवी को हटा कर

बुलडोज़र और एनकाउंटर बिठा दिए गए हैं

न्याय और व्यवस्था के आसनो पर,

मारे जाते लोग छोड़ दिये गये हैं

हृदयहीन भीड़ की दया पर,

सड़कों पर स्त्रियाँ निर्वस्त्र की जा रही हैं

जलाई जा रही हैं बस्तियाँ

राजा राजनय में व्यस्त हैं

और मंत्री विचार विमर्श की लफ़्फ़ाज़ियों में,

हमारे लिए सब कुछ है बस ब्रेकिंग न्यूज़,

ढेरों कवि और विचारक

असरहीन हो चुके मंत्रों का पाठ करते

दुहरा रहे हैं प्राचीन कर्मकांड

दरबारियों की निर्लज्ज हँसी

कानों को बहरा किए दे रही,

विद्रोह और संघर्ष के आह्वान की

अधिसंख्य कविताएँ बदल चुकी हैं

राजाधिराज के स्वस्तिवाचन में

स्वार्थ और कायरता ने बदल दी हैं

सारी प्रतिबद्धताएँ,

सुविधाभोग के इस विद्रूप समय में

क्रांति बस एक शब्द भर है ।

***

      लौटते हुए     

परिदृश्य वैसा ही था

जैसा छोड़ कर गए थे हम एक दिन,

जैसे किसी दिन निकल गए थे राजकुमार

बोधि की तलाश में,

हमारा निकलना हमें भी कहाँ पता चला

जब निकले थे कहाँ थे अवगत

कि अब जब आना होगा भी तो

आएंगे यात्री की तरह

हमारी परिचित धरती ठहरी होगी

उन्ही कोमल क्षणों की आभा में

स्मृतियों की चौखट पर खड़ी।

मुख मोड़ कर चले जाते लोग

अभिशप्त होते हैं

पुनः न लौट पाने को

प्रेम के उस ठहरे हुए पल में,

उम्र भर भटकते यायावर

तलाशते हैं अपना निर्वाण

कहाँ बुझती हैं लालसाएं

महत्वाकांक्षायें रिक्त कर देती हैं

सारे स्नेह कोष

देह ढह जाती है

शिखर तक पहुंचने की इस यात्रा में

और लौट कर आने तक

आगे बढ़ चुका होता है वह समय

जिसमें ठहरे हुए होते हैं हम वर्षों से।

यात्रा जारी रहती है

यात्रियों के चले जाने के पश्चात भी,

शेष होती है

स्मृतियों में ठहरे क्षणों की प्रतीक्षा।

***

    धुएँ की लकीरें         

 रेत का सीमाहीन विस्तार

आँखों में भर गया है

धुएँ की लकीरों से भरा है असमान

एक व्यर्थताबोध है स्थायी भाव मन का।

धरती अपने सारे दुःखों को सम्भाले घूम रही है

एक पाँव पर और

और हम हैं अपने ही रक्त में डूबे

नयी दुनिया की प्रतीक्षा में।

पानी से नम हुई मिट्टी में होती है शेष

बीजों के अंकुरण की आशा

खून से भीगी मिट्टी में

ख़त्म हो जाती हैं जीवन की सारी संभावनायें।

हमारे स्वप्नों में हैं

भविष्य के फूलों की बजाय

बमों और मिसाइलों के चित्र

घृणा के व्यापारी हमें सिखा रहे

प्रेम के अभिनव मंत्र।

राजनीति और सत्ता के कालनेमि

नहीं पहुँचने देंगे संजीवनी हम तक।

बहुत कठिन होता है

अपने समय का सामना करना

और अपने चुनावों का भी।

हमारी बोई गई फसलें

हमें ही काटनी होती हैं

और हमें ही करना होता है

अपने दुखों का इलाज,

सिर्फ़ शुभेच्छाओं से नहीं बदलता भविष्य

और मात्र प्रार्थनाओं से दूर नहीं होते

दुःख।

***

     युद्ध    

 रात के वनों में

बारिश आती है सहमी हुई सी

जैसे चाँदनी पिघल रही हो धीरे धीरे  और

दूर तक फैले काले समुद्र में टिमटिमा रही हों

मछलियों की आँखें ।


कोई गिरता हुआ उल्कापिंड लिख देता है आसमान पर

बिजलियों के संस्मरण और सब कुछ मिट जाने के बाद भी

मुट्ठी भर प्रकाश बचा रहता है आँखों में

जैसे तुम्हारे चले जाने के बाद भी

बचा रहता है एक उजला एहसास देर तक ।


पहाड़ की उदास और एकाकी चोटियों पर

जहाँ अपने मज़बूत कंधों पर उठाए

हमारी वृद्ध और हिंसक राजनीति का बोझ,

जाग रहे होते हैं कुछ युवक

सारी राजनीति और कूटनीति से परे

अपने प्रेम की आकाशगंगाओं में तैरते

जैसे तैरती हैं काग़ज़ की किश्तियां

बच्चों की आँखों की नदी में।


भावनाओं के सबसे कोमल तन्तुओं से ही बनती हैं

दुनियाँ की सबसे मज़बूत दीवारें

इतिहास के सबसे निर्जन पलों में लिए गए होते हैं

मनुष्यता के दुखों की सृष्टि के सबसे कुरूप निर्णय

और युद्धों का घोषित लक्ष्य हमेशा ही होता है

उन्हीं का हित जो मिटा दिए जाते हैं सबसे अधिक क्रूरता से

इन युद्धों के दौरान ।


बूढ़ी और नपुंसक महत्वाकांक्षाएँ होती है

सबसे अधिक रक्तपिपासु और

युवा सपनों के ढेर पर खड़े तमाम तानाशाह

जब मानवता की लोरी गुनगुना रहे होते हैं

धर्म और राष्ट्र की लम्पट दीवारों के दोनो ओर

बह रही होती है पीड़ा की एक नदी

हत्या और ध्वंश की बाढ़ के गुजर जाने के बाद।


रात के वनों में

अब भी पिघलती है चाँदनी

और प्रेम का स्वप्न देखती मछलियों की आँखें

अब भी सो जाती हैं चुपचाप

हमारी नींदों को सहलाती, अपने प्राणों की उँगलियों से। 


युद्ध अब भी जाग रहा है

पहाड़ों की एकाकी उदास चोटियों पर

चाटता युवा स्वप्नों का रक्त ।

***

      स्वप्न     

 धूप की चादर पर

पाँव रखती साँझ

उतरती हैं अमराइयों में धीरे धीरे

पश्चिम के क्षितिज में डूब रहा सूरज

जैसे नींद आती है

तेज़ बुखार के उतर जाने के पश्चात।

थम गया हैं उत्तप्त पलों का कोलाहल।

लहरों पर झिलमिलाने लगे हैं

चंद्रमा के स्वर्णिम स्वप्न

आकाश के घर शुरू हो गई हैं

तारों की दिया बाती।

प्रतीक्षा की आँखों में जल उठा है

आशा का एक दीपक

किनारे बंधी नाव हिलती है पानी में 

अधीर हो जैसे किसी का मन।

खड़कती हैं रास्ते में सूखी पत्तियां

किसी के आने का संकेत लिए

अनवरत हो रही दस्तक सी

एक अनदेखे द्वार पर

हाथ उठते नहीं पहुँचने को साँकल तक

हृदय की देहरी पर

रुका हो पथिक जैसे

रुक गया है समय रात के इस क्षण

उत्कंठा के पंखों वाले पाँव

आबद्ध हैं संकोच की शृंखलाओं में,

झाड़नी होगी यात्रा की धूल

धुलवाने होंगे पाँव अपने पथिक के

ताकि शीतल हो यात्रा की थकन का ताप

जल में डूबते बतासे सा

घुलने लगा है मन

शब्द डूब रहे कंठ में जैसे जल में डूबती है गागर

आकुल- पूछने को कुशल क्षेम,

दिए के मद्धिम प्रकाश में

एक उजले वलय से आप्लावित

हो रहा हृदय का आँगन

जाग गए हैं स्मृतियों के सब स्पर्श

जैसे अंधेरे में चमकता है झील का जल,

विभ्रम सा कुछ

जैसे कोई भर ले स्नेह के आलिंगन में

जैसे कोई तितली बैठ जाए होंठों पर

जैसे छूट जाएँ मेखला के बंध

जैसे किसी ने चढ़ा दी हो प्रत्यंचा

फूलों के धनुष पर

टूटती है देह एक मधुर पीड़ा से

जैसे स्वप्न में हो कोई और स्वप्न।

नींद और स्वप्न की इस गोधूली में

जहाँ मिलते हैं छाया और प्रकाश

पिघल रही है रात तरल होती नदी सी

प्रतीक्षा अभी शेष है।  

***


1 thought on “श्रीविलास सिंह की कविताएँ”

  1. कैलाश मनहर

    सटीक बिम्बधर्मिता से रचित उम्दा कवितायें

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