अनुनाद

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चेतना को झकझोरते “भीड़ और भेड़िए” के व्यंग्य/ आर पी तोमर


  कैनेडा में वर्षों से रह रहे भारतवंशी व्यंग्यकार धर्मपाल महेंद्र जैन अब वह नाम हो गया है, जिनकी पहचान भारत के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों में होती है। उनकी व्यंग्य रचनाओं को आँख बंद करके भी खरीदा जा सकता है। वे लंबे समय से व्यंग्य रचनाएं रच रहे हैं। “भीड़ और भेड़िए” नामक रचना को भी उन्होंने बेहतरीन व लीक से हटकर लिखा है। धर्मपाल जी को उनके पहले व्यंग्य संग्रह “सर क्यों दांत फाड़ रहा है” की भूमिका लिखने वाले सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी ने कहा था कि जरूरी नहीं कि व्यंग्य पढ़कर हंसी आये। बस, उसे अपने पाठक की चेतना को झकझोरने में सक्षम होना चाहिए। व्यंग्य वह जो तुमको खुद से मिलाए, विद्रूप और व्यवस्था की गंदगी उघाड़ दे और पढ़कर पाठक को लगे कि बदलाव होना चाहिए। धर्मपाल जी ने इन्हीं की गांठ बांधकर व्यंग्य लिखने, समझने और परखने की कुंजी बना ली है। अन्य रचनाओं की तरह उनकी इस किताब में भी समकालीन व्यंग्य के उत्सवी परिदृश्यों में आज के जमाने के फ़ास्ट फ़ूड परोसने से परहेज किया गया है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी ने भूमिका लिखते हुए कहा है कि धर्मपाल की रचना में एकदम स्पष्ट है कि वह क्या कह रहे हैं, कहां खड़े हैं और पाठकों को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। वे लक्षणा, व्यंजना और अभिधा की बजाय व्यंग्य में गुप्त ऊष्मा को पिरोते हुए व्यंग्य को व्यंग्‍य बनाते हैं। यह ऊष्मा विचार, संवाद और शब्द को नया अर्थ देने की ताकत दे पाए ऐसा उनका लक्ष्य होता है। वे व्यंग्य की उस समझदार चुप्पी के खिलाफ हैं, जो समकाल में सत्ता के खेल के विरुद्ध कुछ भी बोलने से बचती है।

धर्मपाल महेंद्र जैन के व्यंग्य शोषित व वंचितों की आवाज़ बनते लगते हैं। वे अपनी मध्यम आवाज़ से नक्कारखाने के मालिकों को चेताने में कामयाब होते हैं। वे “भीड़ और भेड़िए” में वास्तव में अपनी व्यंग्य रचनाओं से चेतना को झकझोरते व आत्म साक्षात्कार कराते साफ नजर आते हैं, जो व्यंग्य की पहली मांग है। उनकी व्यंग्य रचना बहुत गहरी और दीर्घकालिक है। वे मानते हैं कि उनका व्यंग्य शाब्दिक और भाषिक अभिव्यक्ति के परे भी भावभंगिमाओं, शारीरिक मुद्राओं, रेखीय और रूपंकर, मूर्त और अमूर्त कई माध्यमों से उभरता है। प्रवासी भारतीय धर्मपाल जी की व्यंग्य रचनाओं में व्यंग्य चेतना का वह भाव स्पष्ट पढ़ने को मिलता है, जिसमें शब्दों और वाक्य की सामूहिक शक्ति होती है। व्यंग्यकार धर्मपाल जी खु़द कहते हैं कि मेरे लिए व्यंग्य ऐसा प्रहार है जो चेतना को गालियों या कटु वचनों से उपजी तिलमिलाहट नहीं देता, वरन ऐसे झकझोरता है कि पाठक या श्रोता आत्म साक्षात्कार करें। उनकी व्यंग्य रचनाओं में प्रहारक शक्ति है। वे व्यवस्था की सड़ांध को इंगित करते हैं। पाखंड को उजागर करते हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक “भीड़ और भेड़िए” में धारदार कलम चला कर शोषितों की बेचैनी को धार दी है। विचार, तर्क, कौशल से ऐसी पुस्तक को गढ़ा है, जो वास्तव में व्यवस्था पर चोट है, पाखंड को उजागर करती है और वक्त का तकाजा है। वे अन्योक्ति के साथ सार्थक कटाक्ष करने से नहीं चूकते। विषमताओं, विसंगतियों, सामाजिक कुरीतियों पर वह अपने कवि एवं सफल व्यंगकार-हृदय से प्रभावी व धारदार प्रहार करते दिखाई देते हैं। व्यंग्य, कटाक्ष और तीखे शाब्दिक प्रहार द्वारा विषमता के विरुद्ध ‘एक अस्त्र’ वाली शैली से लक्षित विषमताओं के नासूर की शल्य क्रिया करता है फिर भी दुख-दर्द का आभास तक नहीं होता। अलबत्ता हंसी के फव्वारे भी छूटते हैं। धर्मपाल जी बेधड़क होकर झूठ, पाखंड, लोभ, लाभवृत्ति की जड़ों पर चोट करते हुए आईना दिखाते हैं।

बात संकलन की रचनाओं पर करें तो रचनाकार ने “भीड़ और भेड़िए” नामक रचना में अवसरवादियों पर प्रहार करते हुए राजनीति को निशाना बनाया है। उनका कहना है कि “भेड़ आदमी नहीं बन सकती। इसका मतलब यह नहीं है कि आदमी भेड़ नहीं बन सकता। आदमी भेड़ क्या भेड़िया भी बन सकता है और चमचमाता बिस्किट दिखा दो तो मेमना भी बन सकता है। कोई आदमी भेड़िया बन जाए तो वह अपनी जमात में सुपरलेटिव हो जाता है। वह कृपानिधान बनकर अपने आगे-पीछे घूम रहे लोगों को भेड़ बना सकता है।” वे आगे कहते हैं “भेड़ बनाने के मामले में राजनेता बेचारे ज्यादा ही बदनाम हैं। वे केवल राजनीतिक रुझान वाले समर्पित लोगों को कुत्ता बनाने की कवायत कर रहे होते हैं। ऐसे में आम आदमी कुत्तों के ठाठ देखता है और लिप्सा से टपकती कुत्तों की लार को भी कुत्ते अवसर में बदल लेते हैं। डराने, धमकाने, कुछ करने और आका के रोब तले दबा देने का दर्द जनता के मन में बसा देते हैं। देखते-देखते लोग भीड़ बन जाते हैं। राजनीति के अलावा भी भीड़ तो बनती है।” भेड़ के बहाने भीड़ के चरित्र पर चलते व्यंग्य का पटाक्षेप इस तरह होता है- “भीड़ देखकर पुलिस का मनोबल जागृत हो जाता है। शासकों के गड़रिए भीड़ हांक रहे हों तो पुलिस को नसबंदी चरित्र में रहना होता है। जब वे विरोधी गड़रियों को टोला ले जाते हुए देखते हैं तो उनका दिमाग सक्रिय हो जाता है। उन्हें दंड विधान की सारी धाराएं एकाएक याद आ जाती हैं। उनके डंडे में संविधान की आत्मा प्रवेश कर जाती है और उनके असले में दमदार गोलियां। वे हवाई फायर का इशारा कर देते हैं। तब समझदार भेड़ें भीड़ के भीतर से भीतर घुसती चली जाती हैं। वे अपने से कमजोर भेड़ों को कवच बनाकर छुप जाती हैं। कमजोरों व अपेशेवरों की टांगे टूटती हैं, उनके सिर फटते हैं। पुलिस संरक्षण में एंबुलेंस उन्हें लादती है।” रचनाकार कटाक्ष करते हुए अंतिम पंक्ति में कहते हैं कि मैंने आवारा और दलबदलू कुत्ते देखे, पर कभी आवारा या दलबदलू भेड़ें सड़क या विधानसभा के आसपास नहीं देखीं।

प्रजातंत्र की स्थिति पर एक शानदार व्यंग्य इस तरह आता है- “प्रजातंत्र की बस तैयार खड़ी है। सरकारी गाड़ी है इसलिए ‘धक्का परेड’ है। धक्का लगाने में लोग जोर-शोर से जुटे हैं। एक बार गाड़ी रोल हो जाए तो ड्राइवर फर्स्ट गियर में उठाकर स्टार्ट कर ले। पर बस है कि टस से मस नहीं हो रही।” प्रजातंत्र का पूरा राजनीतिक विज्ञान इस व्यंग्य की जद में है, जिसका निष्कर्ष है- “धकियारे बड़े चालाक हैं। वह प्रजातंत्र का अर्थ समझ गए हैं और दोनों हाथों से बटोर रहे हैं। दोनों हाथ व्यस्त हैं तो धक्का कैसे लगाएँ? बस जहां की तहां खड़ी है। 135 करोड़ लोग बैठ गए हैं। पर बस नहीं चल रही। लोग दो अरब हो जाएंगे, वे भी इसमें ठँस जाएंगे। ड्राइवर का मन बहुत करता है कि वह धकियारों को साफ-साफ कह दे कि सब एक दिशा में धक्का लगाओ।

धकियारे उसकी नहीं सुनते, वे कहते हैं तुम्हारा काम आगे देखना है, तुम आगे देखो पीछे हम अपना-अपना देख लेंगे। प्रजातंत्र की बस यथावत खड़ी है।”

‘दो टांग वाली कुर्सी’ की रचना में रचनाकार ने कुर्सी का महत्व बताते हुए अभिनव स्थापनाएँ की हैं। जैसे- ऊंचा उठना हो तो कुर्सी साथ लेकर सीढ़ी से चढ़ना चाहिए और मंजिल पर पहुंच कर अपनी कुर्सी टिकानी चाहिए। जिस कुर्सी पर आपको बैठना हो उसके लिए यदि कोई उत्सुक दिखे तो अपना दावा ठोक दें। प्रतिद्वंदी को आप खुद नहीं ठोकें। अपने चार लोगों को इशारा कर दें। वे उसकी ठुकाई करेंगे और आपका जोर-शोर से समर्थन भी। हर कुर्सी में सिंहासन बनने की निपुणता नहीं होती। कुछ लोग जो अपनी कुर्सी को नरमुंडों और मनुष्य रक्त की जैविक खाद देकर पोषित कर पाते हैं, वे अपनी कुर्सी को सिंहासन बना पाते हैं। कुर्सी की प्रतिष्ठा बनाए रखना कुर्सी संयोजकों के हाथ में है। जिन संयोजक को कुर्सी जमाने की तमीज नहीं हो उनके कार्यक्रमों में कुर्सी तोड़ने नहीं जाएं। कुर्सी का मान रखना हो तो कुर्सियों की आभासी कमी बनाए रखना ज़रूरी है।

“भैंस की पूंछ” रचना में बड़ी ही चतुराई से चुटीली काटी गई है। रचनाकार धर्मपाल महेंद्र जैन लिखते हैं कि सुरीली जी ने चंदन का थाल मंत्रीवर के चरणों में रख दिया और प्रार्थना की कि हे नाथ, आपके चरण इस थाल में रखकर घिसे हुए चंदन को उपकृत करें। मंत्रीवर ने गदगद हो वैसा ही किया। अब मंत्रीवर के तलवों में चंदन ही चंदन लगा था। तब रसीला जी और सुरीली जी ने मंत्रीवर की जय-जयकार करते हुए कहा नाथ आपके पुण्य चरण हमारे भाल पर रख दें। मंत्रीवर संस्कृति रक्षक थे, नरमुंडों पर नंगे पैर चलने में प्रशिक्षित थे, उन्होंने सुरीली जी व रसीला जी के भाल पर अपने चरण टिका दिए। कलाकार की गर्दन में लोच हो, रीढ़ में लचीलापन हो, घुटनों में नम्यता हो और पवित्र चरणों पर दृष्टि हो तो मंत्रीवर के चरण तक कलाकार का भाल पहुंच ही जाता है। सुरीली जी का भाल चंदन से सुशोभित हो महक रहा था। यह व्यंग्य आज की उस हकीकत को बयान करता है कि किस तरह कलाकार (साहित्यकार) अपने भाल पर चंदन लगवाते हैं।

“नए देवता की तलाश” में रचनाकार मनुष्य की मतलबी आस्था पर प्रहार करते हैं। वे लिखते हैं- “मेरे लिए निष्ठा निवेश की तरह है, जहां ज्यादा ‘रिटर्न’ दिखे निष्ठा वहां लगानी होती है। एक ही देवता को समर्पित हो जाने से अधिकतम लाभ का सिद्धांत ही लुप्त हो जाता है। आपको नहीं लगता कि 33 करोड़ देवता बनाकर विधाता ने देवताओं का अवमूल्यन तो किया ही बेचारे मनुष्य को भी चकरघिन्नी बना दिया। देवताओं ने बड़ा कंफ्यूजन मचा रखा है। किसी के पास कुछ है, किसी के पास दूसरा कुछ। पूरा पैकेज किसी के पास नहीं है। मुझे बुद्धि चाहिए और धन भी चाहिए। ये दोनों देवता पट जाएं तो प्रकाशक चाहिए। प्रकाशक देवता मिल जाए तो आलोचक चाहिए। ये रिझें तो प्रसिद्धि की देवी प्रसन्न हो, फिर सम्मान देवता प्रसन्न हो। आप देखिए न, ये जो गोरखधंधा सीरीज चलती है इसमें बहुतेरे देवी-देवता लगते हैं। एक देवता के भरोसे रहकर आप लिखते हो तो सिर्फ लिखते ही रहो और अंत तक पैन पकड़े रहो। पैन को पदक बनाने वाले देवता नहीं साध पाए तो बुद्धि की महादेवी की शरण में रहने से क्या लाभ!” मानवीय प्रवृत्तियों की गहन छानबीन इस व्यंग्य को अनूठा बनाती है।

“इसे दस लोगों को फॉरवर्ड करें” रचना में आधुनिक पीढ़ी द्वारा संदेशों को ‘फॉरवर्ड’ करने की कला का उल्लेख करते हुए व्यंग्यकार कहते हैं कि “इन दिनों विचारों का प्रवाह बिजली-सा है। मां गंगा लाशों की खदान बन गई है, वहाँ रेत उड़ती है तो आदमी निकल आते हैं। मैं व्हाट्सएप में भरी मिट्टी हटा भी नहीं पाता हूं कि दस-बीस विचार एक साथ और आ जाते हैं और धड़ाधड़ मेरे नाम से फॉरवर्ड हो जाते हैं। विचार, विचार हैं; उनमें ज्ञान हो यह जरूरी नहीं। फिर भी चारों दिशाओं से ज्ञान आ रहा है और शेष छह दिशाओं से फॉरवर्ड हो रहा है। इसके बावजूद मैं ज्ञान के ‘ओवरफ्लो’ को रोक नहीं पा रहा हूं। ज्ञान को रोक कर रखने में ख़तरा है। खोपड़ीनुमा बांध कमजोर हो चुका है, ओवरलोड होकर कभी भी फट सकता है। दिमाग की क्षमता सिकुड़ कर ईमानदारों जितनी रह गई है। इसीलिए ज्ञान को बाहर निकालने के लिए मैंने सारे ‘फ्लड गेट’ खोल दिए हैं। ज्ञान का स्तर खतरे के निशान से ऊपर पहुंच जाए तो दिमाग की कच्ची पुलिया का क्या भरोसा।” सधा हुआ कटाक्ष पढ़ते हुए पाठक अपने आप पर हँसने के लिए बाध्य हो जाता है। 

“लाचार मरीज और वेंटिलेटर पर सरकारें” नामक व्यंग्य रचना कोविड काल में सरकारी तंत्र की टालमटोली का दृश्य सामने लाती है। व्यंग्य के तीखे तीर चलाते हुए रचनाकार कहते हैं कि “देश बीमार है। जनता परेशान है, वेंटिलेटर वाला बेड ढूँढ रही है। बयान आ रहे हैं कि वेंटिलेटरों की कमी नहीं है। सच है, तीस हजार से ज्यादा वेंटिलेटर खाली पड़े हैं। कई मेडिकल कॉलेजों और जिला अस्पतालों में वेंटिलेटर धूल खा रहे हैं और उनके खरीदी अधिकारी माल पचा रहे हैं। पत्रकार खबरें ला रहे हैं कि वेंटिलेटर भेजने वालों के राजनीतिक खून का ग्रुप, पाने वाले राज्यों के राजनीतिक खून से मैच नहीं हो रहा है। इसलिए फलां-फलां राज्यों में नए वेंटिलेटर चालू नहीं हो पाए हैं। वे कहते हैं वेंटिलेटर खरीदी का कमीशन खाए कोई और, और चलाएँ हम! ना बाबा ना, प्रजातंत्र में ऐसा थोड़े ही होता है, तुम चारा खाओ तो तुम्हीं भैंस को समझाओ।” यह व्यंग्य उत्तरोत्तर तीखा हो जाता है और इलाज के अभाव में मर रहे लोगों की बेबसी यूँ बयान करता है- “विधायकों जैसे पवित्र लोग पाँच सितारा होटलों में बिकते हैं। वेंटिलेटर चालू हो या बंद उन्हें क्या फर्क पड़ता है। उनके लिए लोग मरें तो मरें, कल मरना था वे आज मर गए। मरने वाले लाइलाज थे, इतने बीमार थे कि न रैली कर सकते थे न वोट दे सकते थे। प्रजातंत्र में ऐसी नाकाम और मरियल जनता को क्यों जिंदा रखना चाहिए! जिनके फेफड़ों में दम नहीं हो उनके जेब में तो दम हो। पर अब…, न जेब का दम काम कर रहा है न सत्ता का।”

“ए तंत्र, तू लोक का बन” में दुनिया के लोकतांत्रिक देशों का बखान करते हुए धर्मपाल जी ने उचित ही कहा है कि “लोकतंत्र बहुत छलिया शब्द है, यह तंत्र कभी लोक का हुआ ही नहीं। लोकतंत्र हमेशा सत्ता का रहा। सत्ता का नाम आते ही राजनेताओं की आँखें फैल जाती हैं। उनकी मुस्कुराहट आपस में लुकाछिपी कर रही होती है और दिमाग कुर्सी पर छलांगें भरने लगता है।” व्यंग्यकार आगे कहते हैं- “पाकिस्तान जिसे लोकतंत्र कहता है वहाँ की जनता उसे जोकतंत्र मानती है, वहाँ की फौज उसे टट्टूतंत्र मानती है क्योंकि वहाँ की फौज को टट्टू चलाते हैं। रूस जिसे लोकतंत्र समझता है दुनिया उसे जासूसतंत्र कहती है। अमेरिका जिसे लोकतंत्र मानता है वह गनतंत्र है, वहाँ पर सरकार और लोग बात-बात पर अपनी ‘गन’ निकाल लेते हैं। चीन में ढोल पीट-पीटकर प्रचार करने वालों ने लोकतंत्र को प्रचारतंत्र बना रखा है। हांगकांग की जनता समझती है कि यह उन्हें भ्रम में रखने वाला भ्रमतंत्र है। कई देशों में कुछ-कुछ लोगों ने गैंग बना कर डैमोक्रेसी को गैंगतंत्र बना दिया है तो अफ्रीकी देशों में यह फेकतंत्र बन कर बदनाम है। लोकतंत्र हर जगह मुश्किल में है और इसके परिणाम निर्दोष जनता को भुगतने होते हैं।” विभिन्न लोकतंत्रों की यथास्थिति कहता यह व्यंग्य रोजमर्रा के व्यंग्य लेखन से एकदम अलग है और पाठकों को  वैश्विक परिदृश्य से परिचित कराता है।

“कोई भी हो यूनिवर्सल प्रेजिडेंट” रचना में कहा गया है कि कोई भी बने अमेरिका का राष्ट्रपति, हमको क्या, उसे भी दोस्त बना लेंगे। वह भारत आएगा तो ताजमहल दिखाएंगे। उसके स्वागत में हज़ारों स्कूली बच्चों को सड़कों पर उतार देंगे और बता देंगे कि ये होनहार बच्चे कुछ साल बाद वीजा लेकर अमेरिका आने वाले हैं। रचनाकार ने रचना में व्यंग्य कसा कि अमेरिका के राष्ट्रपति का काम है अमेरिका को महान बनाना। इसलिए वहां कभी चतुर-बुद्धिमान आदमी राष्ट्रपति होता है तो कभी चालाक-भोंदू। भारत के राष्ट्रपति बहुत संवेदनशील होते हैं, उनके ऊपर व्यंग्य लिखने की मनाही है। अमेरिकी राष्ट्रपति महाढीठ होते हैं, उनपर कोई भी व्यंग्य कर सकता है। “समझदार को सदाबहार इशारा” कटीले कटाक्ष करते हुए हमारे जीवन में आए मूर्खों का वर्गीकरण करता है। धर्मपाल कहते हैं कि ज्ञानी मूर्ख पहले दर्जे के मूर्ख होते हैं। वे हमेशा ज्ञान बांटते रहते हैं। उन्हें कोई मतलब नहीं कि कोई उनके ज्ञान के लपेटे में आ रहा है या नहीं।” ज्ञानवान बनाने वाली आधुनिक शिक्षा पद्धति पर तंज करते हुए वे कहते हैं- “मैकाले आए तो ज्ञान की भाषा बदल गई। आश्रमों का स्थान दुकानों ने ले लिया। सारा ज्ञान किताबों में घुस गया। दीमकें किताबें चट करने लगीं, वे ज्ञानवान हो गईं, मनुष्य ज्ञानहीन हो गया।” यह व्यंग्य हमारे समय के ज्ञान पर तगड़ा प्रहार है।

धर्मपाल जी के व्यंग्य विषयों की रेंज अद्भूत है। “शर्म से सिकुड़ा घरेलू बजट” महंगाई से त्रस्त परिवारों के बजट पर बुना गया व्यंग्य है जिसमें हास्य की छटा है। “हममें से कोई भी अर्थशास्त्री नहीं है। फिर भी, हम हर महीने बजट बनाते हैं। चिरकाल से यह बजट घाटे का रहा है और रहेगा। मध्यम वर्गीय घरों की यही शाश्वत स्थिति है। घाटे की पूर्ति के लिए ऋण देने हेतु हम बैंक और क्रेडिट कार्ड कंपनियों के जीवन भर आभारी रहेंगे। यूं तो हमारा मासिक वेतन पांच अंकों में होता है। पर सब कट-पीटने के बाद जो हाथ में आता है वह चार अंकों में सिमट जाता है। यह सिकुड़ा आंकड़ा बताना राष्ट्रीय शर्म की बात है।” बजट को लेकर रचनाकार ने आंखें खोल देने वाला सच उजागर किया है। “होली कथा का आधुनिक संस्करण” नामक रचना में व्यंग्यकार होलिका के माध्यम से व्यंग्य करते हैं। वे कहते हैं कि “जनता सुबक-सुबक कर रो रही थी। सत्य और दया की प्रतिमूर्ति प्रहलाद का दैत्य सम्राट के हाथों मारा जाना तय था। सम्राट के बाहुबल से सीआईए वाले भी डरते थे। सम्राट ने प्रहलाद के मस्तक को निशाना बनाया। प्रह्लाद जरा सा हट गया। सम्राट के मुक्के के प्रहार से खंभे के टुकड़े-टुकड़े हो गए। टूटे खंभे से नरसिंह का रूप धारण कर जनता निकली। जनता गा रही थी सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। चुनाव की घोषणा हो गई। सम्राट हवा में शहर दर शहर छलांगें लगाने लगे। परिणाम के दिन वे न विदेश में थे, न राजमहल में, वे संसद की चौखट पर खड़े थे। तब न दिन था, न रात थी। न विधाता निर्मित कोई प्राणी था, न कोई अस्त्र-शस्त्र था। जनता के वोटो गिनती हो रही थी और हरिण्यकश्यप हार रहे थे।” पौराणिक आख्यान को समकाल से जोड़कर कथा कहने के अंदाज ने इस व्यंग्य को यादगार बना दिया है।

“हम जीडीपी गिराने वाले” रचना के बहाने जनता की आर्थिक आधार पर नब्ज़ टटोली गई है। रचनाकार कहते हैं कि ‘किलर’ यानि हंता लोग भारत के लोगों की सुपीरियर प्रजाति है। इनका काम दलित और साधारण जनता को न्यूनतम समर्थन पर जिंदा रखना है। ये भाग्य विधाता हैं। इनका जन्म उच्च ग्रहों की श्रेष्ठतम स्थितियों में होता है। कोई भी पार्टी सरकार बनाए, इनकी संप्रभुता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। बस इन्हें पुलिस और गुंडा टाइप भाइयों को पालना पड़ता है। ये हर चीज़ खरीद सकते हैं। ये हर विचारधारा और संस्कृति को गिरवी रखकर आगे बढ़ सकते हैं। हर राजनेता और अधिकारी का मार्केट रेट इन्हें मालूम होता है। … इनके कुछ लोग सरकार बनाने, हिलाने और गिराने में पारंगत होते हैं। ये बड़े राज्यों की राजधानियों में पांच सितारा होटल बनवाते हैं। वहां विधायकों का ब्रेनवाश गारंटी से किया जाता है। … सरकारी तंत्र किलर वर्ग का गुलाम होता है।… संविधान में जिन लोगों का जिक्र है हंता उसी जनता में है, पर उनसे बहुत ऊपर हैं। और अंत में साधारण जनता कहती है- हम हैं भारत के भोले लोग, हम सब मिलजुलकर रहते हैं। यह व्यंग्य अमीरों और गरीबों के बीच की व्यापक खाई को अपने तरीके से उभारता है। “बागड़बिल्लों का नया धंधा” में सरकारी दफ्तरों की पोल खोली गई है। रचनाकार कहते हैं- “सरकारी दफ्तरों की चांदी है, अंधेरा है तो सब जायज है। काम नहीं करो तो टोका-टाकी करने वाला कोई नहीं है। जिसको काम करवाना है वह तो घुप्प अंधेरे में भी रास्ता ढूंढ लेता है। हर जगह अंधेरा फैलाने वाले लोग अधिक हैं, उजाला लाने वाले कम। थोड़े से लोग जो उजाला फैलाने की हिम्मत करके आते हैं, अंधेरा उन्हें लील लेता है। बागड़बिल्लों की खाल बहुत मोटी है। बेचारी जनता खाल कहां से लाए, उसकी चमड़ी घिस-घिसकर और पतली हो गई है। बागड़बिल्लों का क्या, इनमें से बहुत-से अपराध की दुनिया से निकलकर सुरक्षित स्वर्ग की तलाश में राजनीति में घुस आए हैं। वे जहां जो दिखा अपना समझकर हड़प लेते हैं और पचा जाते हैं। भय, भ्रम और अंधेरे के माहौल में खड़ी जनता अपने समय के इंतजार में है।” इस तरह व्यंग्य अपने समय का आईना बन जाता है।

रचनाकार धर्मपाल महेंद्र जैन हर क्षेत्र में व्यंग्य के लिए एक जाना पहचाना नाम है। “श्रेय लेने की महाप्रिय परंपरा” रचना को भी उन्होंने महान बना दिया है। सरल अंदाज़ में बात शुरू होती है- “कल मेरे पड़ोसी के यहां चोरी हो गई। पत्नी जी को अपार हर्ष हुआ, बोलीं अच्छा हुआ वह दोनों हाथों से समेट रहा था, आज सिमट गया। पत्नी जी घर-घर जाकर यह घटना आंखों देखे हाल की तरह बयां कर रही थीं। मुझे डर लगने लगा कि मोहल्ले वालों से प्रशंसा पाने के लिए चोरी का श्रेय वह खुद न ले लें। मैंने कहा भी- तुम जितनी खुश हो रही हो उतने खुश तो चोर भी नहीं होंगे। कहीं संदेह में पुलिस तुम्हें गिरफ्तार न कर ले। वे नहीं मानीं, न मानना उनका स्वभाव है। वे प्रसन्न थीं कि चोरों ने माल बटोरा और उन्होंने मोहल्ले में श्रेय।” रोज़-रोज़ की सामान्य बातें जब घने व्यंग्य में बदल जाती हैं तो बरबस धर्मपाल जी के व्यंग्य कौशल की दाद देनी पड़ती है। “दिल्ली है बिना फेफड़ों वालों की” दिल्ली में प्रदूषण की समस्या पर तीरनुमा प्रहार करता व्यंग्य है। धर्मपाल जी बताते हैं कि “दिल्ली में सबसे ज्यादा न्यायाधीश रहते हैं, सबसे ज्यादा सांसद हैं, सबसे ज्यादा आईएएस रहते हैं और सबसे ज्यादा मूर्ख! वे जिस दिल्ली में रहते हैं वहीं की हवा को जहरीली और दमघोंटू बनाते हैं और खुश होते हैं। वे विषैली हवा में भी सांस लेकर जिंदा है। जीवंत गैस चेम्बर में रहते हुए भी उफ्फ तक नहीं करते हैं। दीवाली पर चाहे फेफड़ों का दम निकल जाए पर पटाखे छोड़ने से बाज नहीं आते। हम दिल्ली वाले, हम दिल वाले हैं, भगवान भरोसे रहने के आदी हैं। अस्पताल में बेड खाली नहीं होंगे तो कॉरिडोर में पड़े-पड़े इलाज करा लेंगे और बिना फेफड़ों के भी अपनी जिंदगी जी लेंगे।” शक्तिशाली लोगों से भरी दिल्ली की बेचारगी पर इससे अधिक क्या व्यंग्य हो सकता है!

“संस्कृति के नशीले संस्कार” पश्चिमी संस्कृति में गांजा पीने पर है। “कैनेडा और अमेरिका की ठंडी हवा में मीठी-मीठी खुमारी है। प्राणवायु के साथ लोगों को मैरेवाना और गांजे के धुएं का लुत्फ मुफ्त मिलता है। यहां भारत जैसा भेदभाव नहीं है कि नशीले पदार्थ खाना-पीना हो तो युवा फिल्म स्टारों के फॉर्म-हाउस में गुपचुप पहुंचो। यहां की उदार और सहिष्णु सरकारों ने गांजे-भांग की प्रजातियों कैनबस और मैरेवाना के सेवन को वैध बना रखा है। लोग खुलेआम पॉट पीते हैं, ऑइल लेते हैं, बीज खाते हैं और मस्त रहते हैं।” वे व्यंग्य करते कहते हैं प्रजा को नशेड़ी बनाकर रखो तो सरकार का निठल्लापन छुप जाता है। कैनबस और मैरेवाना अब कैनेडियन व अमेरिकी संस्कृति के आधुनिक संस्कार हैं। इनके अलावा अन्य व्यंग्य रचनाएं ‘दिमाग अपना हो या दूसरों का’, ‘वाह-वाह सम्प्रदाय के तब्लीगियों से’, ‘ऐसे साल को जाना ही चाहिए’, ‘हाईकमान के शीश महल में’, ‘बेरोजगार विपक्षी जी’, ‘डिमांड ज्यादा, थाने कम’, ‘किसी के बाप का कश्मीर थोड़ी है’ और ‘चापलूस बेरोजगार नहीं रहते’ ऐसी रचनाएं हैं जिनमें नुकीले, तीखे, दुधारी तलवारनुमा व्यंग्य हैं, जिन्हें आप एकबार पढ़ने लगेंगे तो यह पता ही नहीं चलेगा कि दिन से रात कैसे हो गई।

“भीड़ और भेड़िए” नामक इस रचना में व्यंग्यकार धर्मपाल महेंद्र जैन ने 52 छोटे-बड़े ऐसे व्यंग्यों को पिरोया है, जो राजनीति के छोंक के साथ चटपटे व मसालेदार हैं। अधिकांश रचनाओं में राजनीति आ जाने से सिद्ध होता है कि आज राजनीति ने बहुत गहरे तक अपनी पैठ बना ली है। इससे घर परिवार भी अछूते नहीं रहे हैं। आज विश्व पटल पर स्वार्थ पूर्ण राजनीति जीवन के हर पहलू में साफ नजर आती है। रचनाकार की नजर से सामूहिक मुद्दे भी अछूते नहीं रहते। “भीड़ और भेड़िए” में कोविड की भयावह त्रासदी में मरीजों की दुर्दशा, सरकार की ढुलमुल नीति, अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव सभी का उल्लेख करते हुए पाठकों का ध्यान रचनाकार ने सलीके से अपनी ओर खींचा है। लगभग हर रचना का शीर्षक चयन, रचनाकार की पैनी दृष्टि को दर्शाता है। किताब का शीर्षक “भीड़ और भेड़िए” देखकर ही पाठक पुस्तक पढ़ने को लालायित हो जाता है। मेरा शत-प्रतिशत विश्वास है कि “भीड़ और भेड़िए” पुस्तक की विविधरूपेण रचनाएं विषमताओं, विसंगतियों से जूझते जनमानस की भाव चेतना को अवश्य ही झकझोरेगी और सुकून भी देगी। ऐसी रचनाओं को पाठक शिरोधार्य करेगा ही। इसके लिए धर्मपाल महेंद्र जैन जी को अनंत शुभकामनाएं। मुझे उनकी अगली व्यंग्य रचना का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा ही।

समीक्षित कृति:   भीड़ और भेड़िए

कृतिकार:   धर्मपाल महेन्द्र जैन

प्रकाशकः   भारतीय ज्ञानपीठ और वाणी प्रकाशन

पृष्ठः 136      मूल्यः 260/-

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