अनुनाद

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डाली पर झुका गुलाब तुम्हारी स्मृति में खिला है/ सीमा सिंह की कविताएं

  

   आश्‍वस्ति                

 

बसंत के माथे पर खिलते फूलों को देख 

लौट लौट आती हैं तितलियाँ 

जबकि पूस की रातों में जुगनू नहीं लौटते 

ऋतुएँ ले आती हैं अपने साथ मौसम का गुड़ 

बिछड़ गए पत्तों की उम्र किसको पता भला 

कोंपलें भले ही लौट आए अपने समय पर 

 

सारी गिलहरियाँ कहीं नहीं जाती 

वे अपने ही ठिहे पर लौटती हैं 

डाली पर झुका गुलाब तुम्हारी स्मृति में खिला है 

या साथ न जा सकने की बेबसी में 

काँस जंगल में खिले या आँखों में 

अपेक्षित था उसका उजला होना 

 

इच्छाओं की सीमा कैसे तय हो भला 

वे कितनी थोड़ी थीं और रास्ता लम्बा 

फिर भी दुनिया सीने पर सवार रही 

लौटने के सभी उपक्रमों में ज़्यादा नहीं 

चाहिए थी तो बस एक आश्वस्ति !

***   

 

   एकालाप                

1)

स्मृति में होती है बारिश 

और भीग जाती है देह 

कोई सपना आँखों से बह निकलता 

प्रतीक्षा के घने जंगलों में 

पुकारे जाने के लिए ज़रूरी था 

किसी आवाज़ का साथ होना 

कोई न सुने तो अकेलापन 

और घहरा उठता है !

 

2)

कानों में गूंजती हैं अभी भी की गई प्रार्थनाएँ 

जुड़ी हथेलियों के बीच 

जो लौट लौट आती 

मूल्य चुकाने से चुक जाता दुख 

तो अनुक्षण बना रहता सुख 

भाषा में रचे गए विलोम 

जीवन में अक्सर पर्यायवाची की तरह मिले 

कोई शब्द अर्थ से परे मिला 

तो खोजा किए रात दिन सात आसमान 

पर जा चुके को पकड़ा नहीं जा सकता 

खोल कर मुट्ठी बिखेरा जा सकता है हवाओं में !

***

   बालियां     

             

 एम आर आई को ले जाते समय जब नर्स ने 

आग्रह किया माँ के कान से बालियाँ निकालने का 

 

तो एकपल को भीतर तक डूब गई 

सोचती रही कैसे निकालूँ उसकी बालियाँ 

कि उम्र के पैंतालीसवें बरस तक उसे जब भी देखा 

बालियों के साथ देखा 

जीवन तप जाए तो कुन्दन हो जाता है 

बालियाँ इस बात की अकेली गवाह रहीं 

वे उसके जीवन में वैसे ही समाहित रहीं 

जैसे देह के भीतर परछाई 

 

एक बालियाँ ही थी जिसने कभी नहीं छोड़ा उसका साथ 

वे सौभाग्य की तरह उसके कानों में चमकती रहीं 

जब पिता नहीं रहे तब भी 

 

मैं आहिस्ता से चाह रही थी निकालना बालियाँ 

ताकि अहसास न हो ज़रा भी उसे अपने सूने कानों का 

 

पर लगाते ही हाथ वह चेतन हो उठी 

 

स्ट्रैचर पर उसके नंगे कानों को देख रही तो लग रहा 

कि किसी ने अनावृत कर दिया अचानक से 

उसका जीवन यूँ सबके सामने 

यहाँ इतनी भीड़ भाड़ इतनी चहल पहल में 

किसी को क्या ही मतलब उसके सूने कानों से 

पर उसकी आँखों में उतर आया है एक युग का सूनापन 

मैं उसके चेहरे को देखती हूँ और आँखों की कोरों को 

छुपाते हुए कोई पुराना क़िस्सा सुनाती हूँ 

वो मुस्कुराने भर का सुन लेती है मेरी बात 

और अपनी ठिठुरी उँगलियों से छूती है अपने नंगे कान 

एक आँसू ढुलक पड़ता है उसकी आँख से 

होठ धीरे से बुदबुदाते उठते हैं 

 

 करम गति टारे नहीं टरे “

 

मैं शब्द शून्य क्या दूँ जवाब उसकी बात का 

चुप बस देख रही उसे जाते हुए मशीन के भीतर 

मुट्ठी में दबाए उसकी दोनों बालियाँ !

*** 

   विस्‍थापन        

         

छोड़ दी गई जगहें स्मृतियों का बसेरा होती हैं 

विस्थापन उनके हिस्से भी आता है 

वे एक जगह से दूसरी जगह के बीच की दूरी में 

तय करती हैं सदियों का फ़ासला 

ख़ाली कह देने से ख़ाली कहाँ होता है कुछ 

रात के गहन अंधकार में जब सो जाता है अधिकांश 

तो सपने निकल पड़ते हैं नींद की यात्रा में !

***

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