बौज्यू
कब से कह रहे थे कि
गांव ले चलो
ले चलो गांव बस एक बार
इसे मेरी आखिरी बार की ही यात्रा समझो
लेकिन नहीं सुनी किसी ने
एक नहीं मानी
बौज्यू बड़बड़ाते रहे
खुद से बातें करते रहे
बात नहीं समझी किसी ने
तो एक दिन सुबह-सुबह निकाली बौज्यू ने
एक बहुत पुरानी एलबम
देर तक एक-एक तस्वीर निहारी
आखिरकार खोज ही लिया पहाड़ की धार में खड़ा
बाट जोहता वह पुश्तैनी घर
पुरखों का घर!
आह! आंखों में आ गई एक अलग ही चमक
उन्होंने एकबारगी इधर-उधर देखा
फिर चुपके से इस घर की सांकल खोली
और बेझिझक घुस गए इस जर्जर घर में
अब सभी ढूंढ़ रहे कि कहां गए बौज्यू
कहां चले गए इतनी सुबह
न नाश्ता किया
न दवाइयां खाईं
दोपहर होने को आई
किसी को कुछ बताकर भी तो नहीं गए
हद है, पिता आखिर चले कहां गए
उधर, बौज्यू ने अंदर से चिटकनी लगा ली कि
कोई दखल न दे
कोई दिक्कत न पैदा करे
कोई विघ्न न पड़े एकांत में!
घर के लोग बाथरूम में देख रहे
एक रूम से दूसरे रूम जा रहे
बाल्कनी में खोज रहे
छत पर जाकर ढूंढ़ आए
आस-पड़ोस में पूछ रहे
गली-सड़क घूम लिए
कहीं भी तो नहीं मिल रहे बौज्यू
कहां से मिलेंगे बौज्यू
वो तो पहाड़ के अपने पुश्तैनी घर के उस गोठ में
आराम फरमा रहे
जिसमें उनका बचपन बीता
· बौज्यू – कुमाउंनी में पिता को बौज्यू कहते हैं
· धार – पहाड़ की चोटी
· गोठ – मकान का नीचे का कमरा
***
सिसौंण
दसेक साल बाद आया होगा गांव
यूं अब तक दिल्ली में ही मौज मनाता रहा
मसान लगा हो जैसे
जंगल-जंगल घूम रहा है
पता नहीं किन-किन पौधों-पेड़ों की
पत्ती, टहनी, जड़ें इकट्ठा करता
कहता है इनसे ही करोड़ों कमाएगा
आज ले आया है बोरा भरकर बिच्छू घास
जिसे पहाड़ में सिसौंण कहते
बताता है – इसे सुखाकर चूरन बनाएगा
एक फंकी से डायबिटीज में आराम
दूसरी से ब्लडप्रेशर कंट्रोल
फिलहाल तो उसके हाथों में लग गया है सिसौंण
जैसे बीसियों बिच्छुओं ने एक साथ मार दिए हों डंक
सो, मारे दर्द के बिलबिला रहा है
पूछता फिर रहा है गांव के सयानों से
किस विधि मिले इस पीड़ा से छुटकारा
क्या चुपड़े हाथों में, किससे कौन सा लेप मांगे
कि जल्द से जल्द खत्म हो यह दर्द
और फिर वह दिल्ली भागे
***
गुनि-बांदर
इस बार तो विडियो ही बनाकर भेज दिया जगू ने
जगू मेरा चचेरा भाई – जगदीश
खंडहर बनने जा रहा पुश्तैनी घर
पाथर टूट रहे-छत से छूट रहे
सड़ चुके दरवाजे
झड़ चुकी खिड़कियां
गुनि-बांदरों ने डेरा डाल दिया है घर में
‘आ जाओ हो – एक बार पहाड़
घर अपने
देखभाल कर जाओ हो‘
ह्वाट्ऐप विडियो में बड़े आर्त्तस्वर में कह रहा था भाई…
मुझे हाथ जोड़े उसने
फिर लगाई एक जोरदार हांक
काले मुंह के गुनियों यानी लंगूरों को
और लाल पिछवाड़े वाले बंदरों को – हेहेहेहे होहोहोहो…
मैं देख रहा था विडियो में कि
कोई असर नहीं पड़ा गुनि-बांदरों पर इस हांक का
मैं जरूर डर गया
हो सकता है कि यह हांक मेरे लिए ही हो!!
बारह बरस बीते
पहाड़ नहीं जा पाया
हालांकि हर साल ही कहता रहा –
इस साल तो जाना ही है हर हाल!
बारहवें फ्लोर पर मेरा फ्लैट
उसी को सजाने में लगा रहा इतने बरस
उधर पुश्तैनी घर का एक-एक पाथर
गिरता रहा-टूटता रहा…
मैं विडियो में बड़े गौर से देख रहा
गांव के गुनि-बांदरों को
फिर देर तक सोचता रहा –
बसों में लटकते
लोकल ट्रेनों में धक्के खाते
सड़क-सड़क भटकते
बीत गया कितना तो वक्त
रीत गया सारा बल
इस बंबई में हम भी एक तरह से
गुनि-बांदर ही तो हुए
***
हिसालू
जैसे सोने के कनफूल
डाली-डाली ने पहने
किसने पहनाए होंगे इस जंगल में
इन पौधों-इन पादप को
इतने-इतने गहने
हजारों कनफूल-हजारों गहने
सम्मोहित सा खड़ा रहा
कितनी ही देर
फिर हल्के से छुआ एक कनफूल
तो जैसे जादू ही हो गया
वह तत्काल हिसालू बन
टपक पड़ा हथेली में
एक अलग ही दिव्य फल
अहा! इस अमृत फल का स्वाद अब
मैं चख ही लूं
स्मृति में जतन से
रख ही लूं
***
मालू
कैसे चढ़ी होगी मालू
इस कांठे में
कितनी घास थी
जो उसे काटनी थी
महीनेभर पहले ब्याई गाय के सामने
आखिर कितनी घास डालनी थी
कहीं उस बछड़े के लिए तो नहीं चढ़ी थी इस कांठे में
जो अब कोमल पत्तियों पर मुंह मारने लग गया है
भूल गई थी कि उसका भी तो छह माह का एक बच्चा है
एकदम बछड़े जैसा
जिसे देखते ही उसकी छाती में दूध उतरने लगता था
इतनी ऊंचाई से जब गिरी होगी मालू
तो बच्चे का ध्यान आया ही होगा
भला कौन यकीन करेगा कि
बस मुट्ठी भर घास के लिए मरी मालू
मौत से नहीं डरी मालू
***
ओ राजुली
दूर पहाड़ में तेरा घर
सबसे ऊंची डांडी के पीछे
मैं यहां बंबई में समंदर किनारे
सबसे ऊंची बिल्डिंग के नीचे
ओ राजुली! रहना राजी-खुशी
मैं तुमसे मिलने जरूर आऊंगा
तुम्हें कुछ हो गया तो
इस समंदर में डूब जाऊंगा
***
एक पेड़ था
पहले यहां एक चौड़ा खेत था
जहां यह सड़क पहुंची है
यहीं एक पेड़ भी था खूब घना
छाया देता – हवा देता – झपकी वाली नींद देता
अति उत्साहित हो गांव के एक अधेड़ ने
गिरवा दिया इसे भीमकाय जेसीबी मशीन से
कि दिल्ली, लखनऊ, चंडीगढ़ और हल्द्वानी वालों की कारें जब आएंगी
तो कहां खड़ी होंगी?
एक-दो बार ही आईं वे कारें
वे परिवार
दशकों पहले छोड़ दिया था जिन्होंने
गांव का अपना घर-बार
अब न पेड़ है
न ही कई कलर की वे चम-चम कारें
अलबत्ता तेज हवा चलती है
बस सांय-सांय है…!
***
हंस – परान
बीत चुकी एक उमर
न मां रहीं, न पिता
वह पैतृक घर भी हो चुका अब क्षीण-जर्जर
फिर भी जाने क्यों पहाड़ ही लगता
अपना असल थान
उसी ओर उड़ पड़ने को हैं हंस-परान
कैसी तो यह मया जगी
नराई लगी
लगी कैसी तो आस
बंबई से आया हूं
युगों का प्यासा
अब नौले के तुड़-तुड़ पानी से
बुझेगी मेरी प्यास!
· नराई – याद/ प्यार
· नौला – छोटा सा जलाशय
***
वाह वाह बहुत सुंदर । अनमोल रचनाएं