स्मार्ट सिटी की होड़ में
स्मार्ट सिटी की होड़ में
स्मार्टनेस की अंधी दौड़ में
बहुत से शहरों ने कत्ल किए
अपने फूलते फलते पेड़
उजाड़े बचे खुचे बाग
इन सबमें शायद उन्हें
दिखता हो जंगल
या जंगलीपन
और मेट्रो सिटी की म्युनिसिपेलिटी का
वाकिंग ट्रेल्स वाला
सरकारी पार्क
यहाँ आया नहीं
और अंदर की बात यह है
कि घोषित हो जाने के बाद स्मार्ट
बंद कर दिया
कईओं की कचड़ा गाड़ी ने
अपना काम
यहाँ कुछ मेयर के चुनाव की भी राजनीति थी
उनमें से कई आये गए
किन्तु किसी से न मह्सूसी
पेड़ों की अनुपस्थिति
अलबत्ता गायब पेड़ों में
कभी खिलने वाले रंग
बनकर परिधान
टंग गए तिमंजिले
चौमंजिले माल्स
की दुकानों में
और झाँकने लगे
शीशे के झरोखों से राहगीरों को
फिर मैनेक्वींस भी आये
उन्होंने मॉडलिंग शुरू की
और बड़ी हुई दुकानें
माल्स में बाकायदा
एक फ़ूड कोर्ट खुला
वाक़ई मॉल के हर माल ने लूटा
लोगों का दिल
शहर के बड़े बाबू से लेकर
छोटे थानेदार तक ने
बढ़ा दी रिश्वत की रकम
इधर विस्थापित पक्षी
जो खाली जगहों पर अंटके थे
चकित हुए
जब खिंचने लगीं दीवारें
इर्द गिर्द
दरअसल, शहर की
हर ज़मीन की एक कथा थी
वे सब किसी न किसी की संपत्ति थीं
बिकाऊ थीं
उन्हें बसना था
उनके खाली रहने में कहीं न कहीं
एक उजाड़ था
लेकिन, यह क्या हुआ?
शहर से गुज़रना
तो सिर्फ तुम्हारी याद से गुज़रना था………….
***
कौन सा गीत?
वो कौन सा गीत है
जो इस भयानक, ठंढे
बर्फीले, दिन को तब्दील कर देगा
चमकते हुए, सूरज की खनखनाती हुई
रोशनी में
बगैर तुम्हारे नाम के
बिना तुम्हारे नाम का
कोई गीत?
शर्तें, वजू़द और संशय में प्रेम
क्यूँ नहीं है,
मेरी सुबह, मुक़म्मल
ख़ुलूस भरी
हासिल कर लेने के बाद तुम्हें
फतह कर लेने के बाद तुम्हें
तुम्हारे दफ्तर चले जाने के बाद
तुम्हारी शर्ट में नायाब तहें लगाती हुई
चूड़ियों भरे हाथों से अपने
या देती हुई, धोबन को घर भर के कपड़े
कैद तुम्हारी शर्तों में
कैद पूरी तरह?
क्यूँ है सुबह इतनी निस्पंद?
जैसे कहीं और बसे हों सारे स्पंदन?
क्यूँ है सुबह इतनी सर्द बेजान?
इतनी ठंढी खामोश?
क्यूँ है ऐसा सन्नाटा?
जैसे छाई हो शहर भर में मुर्दनी?
क्यूँ सुनाई नहीं देती हैं?
मुझे मेरी सांसें?
और क्यूँ न सुनने पर लग रहा है
की चलती नहीं हो मेरी सासें?
कि रुकने को आयीं मेरी सांसें
क्यूँ तुम्हें हासिल न कर
खुद को पाने में हैं खोई
मेरी सुबहें?
***
बेहतर दुनिया की कामना के लिए कवि-लेखक सदियों से अपनी बलवती भूमिका नभा रहे हैं। एक मुकम्मल सुबह की तलाश में आदरणीया कवयित्री पंखुरी सिन्हा जी ने समसामयिक समस्याएं को उकेरती हुई बड़ी जीवटता से आधुनिक होने की अंधी ज़िद होने पर भुगत रहे परिणामों को रेखांकित कर रही हैं। पक्षियों का विस्थापित होना प्रकृति के संयम और संतुलन बिगड़ने जैसा है। शहरों में कंक्रीट के जंगल देखकर कवयित्री भयानक भविष्य दिखाती प्रतीत हो रही हैं। दरअसल शहर पृथ्वी से बाहर का स्थान नहीं अपितु उसे भी प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन प्राप्त होना चाहिए। तमाम सुविधाओं के बावजूद शहरों के बदलाव कवयित्री को रास नहीं आ रहा। इसकी सीधी वजह है पेड़-पौधों का कटाव और पृथ्वी के साथ खिलवाड़ करना। पृथ्वी रहेगी तो हम सब रहेंगे, इस उम्मीद में कविता का दायित्व बख़ूबी निभाई है कवयित्री ने।
बहुत-बहुत बधाई आदरणीया!
रजनीश कुमार
शोधार्थी,
हिंदी विभाग
त्रिपुरा विश्वविद्यालय
7856888633
hirkjha@gmail.com