रेख़्ता फाउन्डेशन हिन्दवी और महादेवी वर्मा सृजन पीठ, कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल के सहयोग से आयोजित कैंपस कविता कार्यक्रम (06 जून 2024) में हिन्दवी द्वारा पुरस्कृत कवियों की आयोजन में पढ़ी गई कविताएं –
पूजा गोस्वामी
आदमीनामा
यादों
की दहलीज पर
खड़ा
हो
भीतर
झांकता आदमी
अधूरी
इच्छाओं की आग में
झुलसकर
चलता आदमी।
हर
बार
खाकर
धोखा
उम्मीद
की कील पर
तसल्ली
के ‘जुमले’ टांगता आदमी।
धर्म
के मकानों की
आड़
में छिपे हुए –
किसी
आदमखोर की तरह
जबड़ा
खोले
दरवाज़े
के पीछे
आदमी
का इंतज़ार करता आदमी।
मगर
दर्पण में
खुद
को नग्न देख, झेंपकर
शालीनता
के चिथड़ों से
खुद
को ढकता आदमी।
जलते
जनतंत्र की
आग
में रोटियां सेंकता आदमी,
किसी
ईमान के
चोर
दरवाज़े से
ईमानदारी
की
चोरजेबों
को भरता आदमी।
भूख,
गरीबी
बलात्कार
किसान
आत्महत्या पर
आत्मीयता
दिखा फिर निष्क्रिय होकर
निकम्मी
आदतों की
चादर
ओढ़े सोता आदमी।
वही
चिरपरिचित
आदमी
रहता है मुझमें
ऐसा
एक आदमी
रहता
है तुझमें।
पहली बार
चारों
ओर फैली हुई
स्थिर
और कठोर चट्टानों की दुनिया के बीच
एक
आदमी
झाड़ियों
के सूखे डंठल बटोर कर
आग
जलता है।
चट्टानों
के चेहरे तमतमा जाते है
आदमी
उन सबसे बेखबर
टटोलता
हुआ आपने आपको
उठता
है और उनमें से
किसी
एक पर बैठकर
अपनी
दुनिया के लिए
रोटियां
बनाता है।
आग
तेज़ होती है
चट्टानें
पहली बार
कुछ
बनाता हुआ देखती हैं
अपने
सामने।
अंत
में
आदमी
उठकर चल देता है अचानक
उसी
तरह बेखबर,
चट्टानें
पहली बार आपने बीच से
कुछ
गुजरता हुआ
महसूस
करती हैं।
ईश्वर की ऐनक
तुमसे
बातें करना
मुझे
खोजी बना देता है
मैं
खोजता हूं
शब्द
भागने
लगता हूं
अप्रत्याशित
ध्वनियों के पीछे
तलाशता
हूं
उपमाएं
सुधारने
लगता
अपनी
भाषा का व्याकरण।
तभी
मेरी हथेली पर
उग
आती हैं
हरी
बेलें
तुम्हें
पत्र लिखने के
विचार
से ही मात्र
मेरे
हृदय के
दर्रों
से उड़ जाते हैं
तितलियों
के अनेक जत्थे
उस
खोखले मैदान की ओर
जहां
बच्चे बुनते है बसंत।
तितलियां
प्रेमियों की
मृत
इच्छाएं होती हैं
मैंने
सुना था उस बूढ़ी हव्वा से
जो
कहती है –
‘औरत
गढ़ी जाती है ’
जितनी
आज़ाद वह
दुनिया
की आखों के पीछे रहती है
उतनी
आज़ादी से
पृथ्वी
खो सकती है
अपना
गुरुत्वाबल
आज़ाद
हो सकती हैं
पुरानी
बरगद की जड़ें
और
पहाड़ खुद को उखाड़ फेंक सकते है
कहीं
दूर,
एक
नहर निकलकर
बह
सकती है आदम की हथेलियों से।
उस
नहर-सी तुम
ईश्वर
की हथेली से फिसलकर अचानक आ गिरी
मेरे
भीतर।
जब
मैं
भर
गए तिमिर से जीवन में
ढूंढ
रहा था एक छड़ी।
छड़ी—
जिसके
सहारे पृथ्वी चल सके
जा
सके किसी हसोड़ आदमी की
बालकनी
में धूप सेंकने।
रोशनी
—
जो
तुम्हारे बालों से छनकर आती है ,
बस
उतनी ही रोशनी से
पिघल
सकती है
बर्फ
की वो चादर
जिसके
नीचे दबा है
ईश्वर
का ऐनक।
कौआ
चट्टान
के ऊपर बैठा मैं
थका
हुआ भूखा हूं
और
वहीं पास ही
बैठा
एक कौआ;
जिसकी
चोंच में
एक
टुकड़ा है रोटी का
उसका
ये हिस्सा
छीना
हुआ है
सोचता
हूं इधर आए
पर
——-
ना
मैं कौआ हूं
ना
मेरी चोंच है,
आख़िर
किस
नाक-नक्शे
का आदमी हूं
जो
अपना ही हिस्सा
छीन
नहीं पाता।
नेपथ्य से दस्तक
खोई
हुई
विचारों
में आपने ही
खोजती
हूं अपना ही हाथ
तभी
नेपथ्य से
देता
है दस्तक कोई।
फिर
पूछता मुझ ही से –
तू
कौन है?
क्यों
है यहां?
निरर्थक
इस जीवन का तेरे
शेष
कुछ भी
अर्थ
है क्या?
ध्वनि
यह
चिरपरिचित
सवाल
यह अनंत काल से
मानो
बहते हो रक्त में
छाप
जिनकी पड़ी है
मेरे
पीठ पर,
छाप—
जो
धंसी हुई है मेरी पसलियों तक।
सवाल
जो कल तक
केवल
थे शब्द मात्र
अनजान
थी मैं
जिनसे
अब तक
उन
शब्दों के
आज
आकृति-चित्र बनते है।
और
वहीं
अंतर
में छिपी बुढ़िया
बजती
है बीन
सहसा
यह क्या!?!
छमछम…..
छमछम….. छमछम…..
कोई
नाचता है
अरे!!
यह
कौन???
मेरे
अंतर की पुकार!!!
आज
मानते है उत्सव
नवसृजन की उदय–वेला का।
अंजलि नैलवाल
धरती पर आसमान
सोचो अगर होता आसमान धरती पर,
तारों को टांगते
अपनी अपनी खिड़कियों पर बच्चे
गिन पाते उन्हें,
जा पाते चंदा मामा के घर और कहते
पुए पकाने को, लोरी सुनाने को,
नानी से मिलवाने को।
स्त्रियां बनाती रंगोलियां तारों की,
उनके छोटे छोटे टुकड़े बनवाकर गठाती उन्हें अपनी पायलों में,
नथनियों में
प्रेमी सचमुच ला पाते चुनकर तारे
अपनी प्रेमिकाओं के लिए,
सजाते उनके बालों में
और अपने प्रेम को चमकता हुआ देख पाते उन्हें
हर कोई छू पाता आसमान को, चल पाता उसकी छाती
पर
गिरता पड़ता अगर तो भी
सम्हालने के लिए
बांहे बिछाकर आसमान ही होता
तारों का बिस्तर होता, सिरहाने अम्मा के
झिलमिल झिलमिलती झिलमिलाहट उसकी कमज़ोर आंखों को बुझने न देती,
वह भी जागती रात भर
देखती अपने तारों को
आसमान के दूसरे तारों के साथ
चमकता हुआ।
सोचो अगर होता आसमान धरती पर
तो हर कोई भागता हसरतों के पीछे
पकड़ पाता उन्हें कसकर अपनी मुट्ठी में
उसी जगमगाहट के साथ।
सोचो अगर होता आसमान धरती पर तो
बिना किसी से छीने
हर किसी का अपना
थोड़ा थोड़ा आसमान होता
इस विपुला पृथ्वी का अलग
एक गुरुत्व होता
थोड़ा अलग विज्ञान होता।
पहाड़ का रैबासी
पहाड़ में एक गांव है, गांव
में घर है और
घर की चौखट पर बैठी हुई अम्मा।
अम्मा की आंखे हैं, आंखों में नाचता आंगन है
और
आंगन में अनाज है, डंगर हैं,
नाती पोते हैं, और आस है
इन सबके लौट आने की ।
एक शहर है, शहर में पहाड़ जैसे सपने हैं
जीवन है और हमेशा के लिए बांध लेने वाली
जिम्मेदारियां
एक पहाड़ का रेबासी है
जो इन पर्वत और मैदानों के बीच
नदी होता जा रहा है
जो अपने उद्गम पर
लौटना चाह रहा है।
बहता, बिखरता, टूटता
न जाने किस ओर बढ़ता जा रहा है।
बूंद बूंद में पहाड़ का प्रतिबिंब है, और
ये पहाड़ को खोता जा रहा है।
अम्मा की आस डुबा दे या
सपनों का पहाड़ तोड़ डाले
यह समझ नहीं पा रहा है।
अपनी बिखरी हुई धाराओं को समेटकर
फिर से पूरा होना चाह रहा है।
सूखकर कतरा कतरा
ये हिमालय होना चाह रहा है
वो कठिन बनावट में सरल हृदय
पिघलता जा रहा है
ये पहाड़ों का रैबासी
नदी होता जा रहा है।
***
अनुनाद पर पूर्व में प्रकाशित कविताओं का पाठ
नदियां और बेटियां
(19 वर्षीय हिमानी, एक सुदूर पहाड़ी ग्रामीण इलाके से आयी लड़की, जो स्नातक के लिए महिला महाविद्यालय हल्द्वानी प्रवेश लेती है. साल भर खेल के क्षेत्र में जीवन सवारने लक्ष्य को लेकर महाविद्यालय के अनेकों प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग करती रही. बैटमिन्टन में उच्चस्तर की सक्षम खिलाड़ी होने पर भी जिसके बेहतरीन खेल, भविष्य और प्रेरणा को आंतरिक गुटबाज़ी और प्रशासनिक ठगबाजों ने आगे नहीं बढ़ने दिया.)
जैसे सुदूर पहाड़ों से आती हैं नदियाँ
ऊँचे पर्वतों
ताज़ी हवा और
हरे पत्तों पर बिसरी ओंस की बूंदों को
उलांघकर मैदानों तक
ठीक वैसे ही हिमाल की बेटियाँ
उलांघकर आती हैं मैदानों पर
असंख्य देहलियाँ
अनगिनत भेड़ें
अलौकिक बुरूंश[1]
और क्वेराल[2] के पुष्प.
मैदानों में आकर
नदियाँ सींचती हैं
तीव्र-निरंतर और नीरस
पिंजरों में बंद
शहरों के फड़फड़ाते ख़्वाबों को
फिर भी मोड़ दी जाती उसकी दिशा,
कैद कर लिया जाता है
उसका संवेग,
बदल दिया जाता उसका रंग
और
उसकी देह में ठूंसी जाती है
तमाम सभ्यताओं की गंध,
मैंदानों पर आकर
मेहनत और लगन से
बेटियाँ खींचती हैं
अपने सपनों की लकीरें
ईजा-बाज्यू[3] और दाज्यू[4] भेजते हैं दुआएं
भेजते हैं
बेटियां जब बढ़ने लगती हैं
शहर में
अपने भविष्य के लिए
तभी
खींच लिए जाते हैं
उसके हाथ
हाशिये पर रख दिए जाते है उसके ख़्वाब
पूछे जाते हैं अनगिनत सवाल
निर्दोष जब लड़ती है
हक़ की लड़ाई
बोला जाता है गंवार,
पढ़ाई जाती हैं संस्कार और
मर्यादाओं की पोथियाँ
बेटियों को सताया जाता है
दी जाती हैं
गालियां
मैदानों पर आने के लिए
उनके क़दमों को बाँध दिया जाता है
तोड़ दी जाती सीढ़ियों पर चढ़ने की आश
मोड़ दिए जाते हैं उनके रास्ते
छीन लिया जाता है उनसे
उसके जीवन का
हौसियापन[7].
***
1 सुर्ख फूलों का राज्यवृक्ष (Rhododendron)
2
कचनार
(Bauhinia Variegata)
3 माता-पिता
4 बड़ा भाई
5
ग्रीष्मकाल में
4000-6000फीट पर लगने वाला पहाड़ी जंगली फल (Myrica Esculena) जिस पर अनेकों
लोककथायें हैं
6 स्थानीय पांच-सात तरह की उगने वाली दालें
7 खुशमिजाज
/ बिंदासपन
भ्यास
(पहाड़ को छोड़ कर शहर में बसे ठेठ पहाड़ियों के लिए )
पहाड़ के सयाणों[8]
खुश रहो,
तुम्हारी ज़मीनें खरीदी जा रही हैं अब
अच्छे दामों में
लेकिन
शर्त लगा लो
उस पैसे से तुम
भाबर में खरीदे प्लॉट की नींव को
दौड़ती सड़क के बराबर भी नहीं कर पाओगे,
और
याद रखना
एक दिन तुम्हारी ही नस्लें
तुम्हारे नाती-नातिनें, पोत-पोतियाँ
तुमको देंगें गालियां,
थूकेंगे तुम्हारी करनी पर
कोसेंगे तुमको कि
उस टैम[9] तुमने
जमीन, जंगल और पानी नहीं
बेचा होता तो गति[10] ऐसी नहीं होती
हम ठैरे मिट्टी से अन्न उपजाने वाले,
पानी से घराटों को गति देने वाले,
पेड़-पहाड़ों और जंगलों में घूमते जंगल चलाने
वाले
हाय !
तुमने झूठी ठसक के चक्कर में पीढ़ियाँ
खराब कर डाली
आधा रह गया तुम्हारा संसार,
गांव में सरकारी सैप[11] हो गए
और शहर में भ्यास[12] पहाड़ी.
***
8 समझदार
लोग
9 समय
10 बुरा समय होना
11 साहब
12
भुस्स / सहज / बुद्धू
ब्यू
(मेरे हिमाल के लिए)
जहां हिमाल से दूर
शहर काट रहा होता है
रात को दिन की तरह
उम्दा टेक्नोलॉजी और
स्वयं को बेहतर दिखवाने की होड़ में
लांघता है बैठे-बैठे
सफल होने के फॉर्मूले
नेक्स्ट वीकेंड को जबरदस्त रोमांच से
भरने के लिए करता रहता है प्लान,
उसी समय उसका मन जूझता है
निरंतर उस जूते की तरह
जो महंगे शौक में खरीद तो लिया है
पर
पैर के तलवों में बराबर चुभन
बनाये हुए है
काटता है उसको
इनफीरीयोरिटी काम्प्लेक्स
चका-चौंध,
बाज़ारवाद
और
पूंजी की माया में लिप्त भ्रम
उसी भेड़चाल और रैट रेस से थोड़ा अलग-थलक
गाँव में
एक पिता सुबह-सुबह
घुघूत[13],
कफुआ[14], गिणी[15],
टेपुल्लिया[16]
हाय!
पता नहीं किन-किन
पक्षियों और भौरों की गुनगुनाहट से साथ
उठकर
गिलास भर चहा खाकर
हल और हौल[17]
जभाँधूत[18]
कुमथलों[19]
पर टिकाकर
दो बरस की
चेली[20] को साथ में लेकर
छिड़कता है अपने खेतों में
पुश्तैनी भकारों[21]-फॉउलों[22]
में रखा अलौकिक ब्यू
बोता है धरती के सीने में गेहूँ
न्योली[23] की धुनों के साथ करता है
फसकबाजी,
दबाता है होंठों और दांतों के बीच मधु
का नरम डोज
और
माँ
जो कि अभी पुनः माँ बनने वाली है
रोज धार चढ़ कर लाती है
एक पुसोलिया[24] हरी घास
गोठ[25] की धिनाली[26] के लिए चुनती है
दुधिलपात[27],
बांजपात[28] और सालम[29]
काटती लाती है अपने हिस्से का मॉंगा[30]
बतकों[31] में निश्चिन्त कहती
है
‘बुर जन मानि हाँ‘[32]
न्योली गाती हुई पहाड़ की छाती पर
उड़ेलती है
गोबर के दर्जनों भर डोके[33]
और फोड़ती डालती है अंसख्य
मिट्टी के डाले[34]….
आने वाली
नई पीढ़ी के लिए
***
13 फाख्ता
14 चैत के महीने में बासने वाली
एक पहाड़ी कोयल
15 गौरैया
16 हिमालयन बुलबुल
17 दो बैलों का जोड़ा
18 अड़ियल/ ताकतवर
19 कंधे
20 बेटी
21 मिट्टी और गोबर से लीपा गया बड़ा लकड़ी का बक्सा
22 तांबे की घड़ा
23 एकल रूप से मुख्यतः विरह, विलाप, याद, प्रेम, सुख या दुःख में
फूटा गीत
24 रिंगाल/बांस से बना एक शंकुनुमा डलिया जिसको पीठ पर लादकर
घास/गोबर/मिट्टी आदि इक्कट्ठा कर एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है
25 गाय-बकरियों-भैसों को रखने का स्थान
26 दूध, दही, घी, छांछ
27 एक पेड़ जिनको गाय-भैसों को खिलाने से उनका स्वास्थ्य और दूध बढ़ता
है
28 ओक के पत्ते
29 जंगली घास
30 घास उगने की जगह
31 बातें / गप्पें
32 कृपया बुरा मत मानना
33 पीठ पर लादे जाने वाली शंकुनुमा डलिया
34 बड़े-बड़े टुकड़े
***