अनुनाद

अनुनाद

सबको अपने हिस्से की धूप चाहिए/  कौशलेन्द्र की कविताएं

 

    छद्म   

 

रात की स्याही में चाँद

चंद्रबिंदु के समान चमक रहा था

अनगिनत तारे अनंत आकाश

ज़मीं पर दूर तक फैली रेत 

रेत के पहाड़ 

रेत की घाटियाँ

छिटक चाँदनी में रेत के कण टिमटिमाते

ज्यों विशाल मरुभूमि में तारक उतर आए हों

कहीं छाया कहीं कांति 

भ्रम के सरोवर दिखाई देते…….

 

जहाँ कुछ नहीं होता

वहाँ छद्म होता है।

***

 

   रह जाना   

 

मैं नहीं होना चाहता सही सटीक

हमेशा समय पर 

मैं चाहता हूँ कभी कुछ रह जाए

क़िताब पढ़ूँ 

 

खुली छूट जाए 

उसके पन्ने साँस ले सकें

 

उनकी महक बिखरे

कलम से लिखूँ 

थोड़ी रोशनाई हाथों में लग जाए

कहीं किसी जगह कोई वर्तनी रह जाए

पढ़ने वाला मुस्कुरा उठे उसके अर्थ में

तैयार होते कमीज़ की एक बटन खुली बनी रहे

कहीं कोई प्यार से टोक दे

घर से निकलूँ ये न सोचूँ कि कहीं कुछ छूट गया!

किसी पुराने साथी से मिलूँ बतियाता रहूँ 

देर हो जाए

तारों से भरे आकाश को देखते नींद बिसर जाए 

 

रह जाने में जीवन रहता है।

***

 

   जीवन   

 

डारे पर पड़ा भीगा कपड़ा 

बूँद बूँद टपकता

सूखता 

भार घटते

लची हुई डोरी उठने लगती

 

उतार लिया जाता

 

 

   नींद की कहानियां   

 

कहानियाँ नींद को दी गयी सदाएँ हैं

शुरू होते ही झपने लगती हैं पलकें

कहने वाले के लफ़्ज़ थपकी सी देते हैं

इस तरह ताल में जैसे साँस चलती है

दिल धड़कता है

इन जुगलबंदियों से रक्त में घुलने लगता है आलस

आँखों में उभरते हैं लाल डोरे

ख़मीर की तरह उठ आता है नशा

नींद को आवाज़ देते

अक्सर अधूरी छूट जाती हैं कहानियाँ

सुनाने वाला खीझता नहीं

मुस्कुरा उठता है

 

उनींदे किस्सों की दोहर से

नींद के पाँव छोटे ही रहते हैं

***

 

   दु:ख   

 

खिली धूप में सहसा मेघ घिर आते हैं

ज़ोर से हँसते 

थोड़ी साँस फूल आती खाँसी का ठसका उठता

खिलखिलाते बच्चे खेल में ही 

बिलख उठते हैं कभी 

लगातार श्रम से सजाए गए बाग़ीचे

वीरान लगते हैं किसी मौसम में,

 

रंगे चुंगे घरों में भी दीवारें छीज उठती हैं सीलन से

बरसात के बाद

 

दुःख जीवन में इतनी ही सहजता से 

लौटता है …..बार बार

***

 

   बंधन   

 

हिदायतों ने जीवन को

उस समय तक बांधे रखा

जब तलक कुछ हासिल न था

कुछ पा लेने की ख़ुशी में

उन्हें टूटना था

 

टूटने छूटने के बाद

पूछना भी छूट गया

इस भ्रम में कि अब उनकी जरूरत नहीं,

स्निग्धता जो हर ज़रूरी बात में

टोक देती

अर्जित की गयी योग्यता के ताप में

सूख चली

 

एक ऊब सी उठती

सब कुछ अपने मन का करते,

ये एहसास देर से हुआ…….

 

 

………………एक उम्र के बाद 

कुछ चीज़ों की लत पड़ जाती है……

***

 

   सहमी धूप   

 

शहर के बाग़ीचे में

धूप अठखेलती है

कहीं किसी पेड़ की शाख़ पे झूलती

चौराहे में लगी पत्थर की मूरत पर दमकती

सर्द मौसम में जान फूँकती है

लाल बत्ती पर ठहरी गाड़ियों की छत पर नाचती

किसी घर के बारज़े से झाँकती, उड़ जाती

बीचोंबीच पोखर के पानी में तैरकर

हवा सी लहरती है

 

सबको अपने हिस्से की धूप चाहिए

कैसे भी

ये जानते हुए कि

बड़ी इमारतों की झिरी से छनकर छुपती धूप 

अब सहमी हुई है

***

 

   ग़ालिब की याद में   

 

बल्लीमाराँ की गली क़ासिम

पर रेख्ते का क़ाफ़िला बरसों पहले आ रुका था

चाँदनी चौक के सजीले बाज़ारों में मिर्ज़ा का नाम

 

आज भी

कभी कभार किसी की ज़बान पर कौंध जाता है

शायरों को इस जहाँ ने 

कब का ख़ारिज कर दिया 

वो तो ग़ालिबहै

जो फ़लक पर वक़्त की धुंध की तरह छाया है

ग़ज़ल के मिसरे आते जाते टपक पड़ते हैं

आज भी कुछ लोग उन्हें बीन लेते हैं

महफ़िलों में सजा देते हैं

बेदिली के सन्नाटों से फिर वही दौर गूँज उठता है

***

   तुम्‍हारा शहर   

 

बरसों बाद 

वो शहर अजनबी होगा

जो कभी तुम्हारा था

हाईवे से कटकर जाती सड़क आगे जाकर गुम हो जायेगी

वो पत्थर नहीं दिखेगा जिसपर शहर के नाम के नीचे शून्य किलोमीटर लिखा था

पेड़ जो मोड़ पर घूम जाने का शिनाख़्त था

जाने कितनी कंक्रीट के नीचे उसका ठूँठ दबा होगा

जाने पहचाने अड्डे अपनी नयी शक़्लों में घूरेंगे

देर तक निग़ाह किसी परिचित चेहरे को टटोलेगी

लौट आयेगी,

साथ खेलने वाले 

अब वो नहीं होंगे जो थे

 

गाँव की गली सड़क बन चुकी होगी 

जिसके भीतर तुम्हारा घर है

वहाँ मक़ान की जगह मैदान होगा

उसके छूटे खण्डहरों में तुम्हारा बचपन,

वहीं कहीं बाबा की आधी अधूरी चौकी पड़ी होगी

उनके कमरे की खिड़की की टूटी सांकल

सूखे नीम के पेड़

ढही हुई मैदान की बाउंड्री भी

मालती की बेलों में सूने पत्ते होंगे

बड़े कुँए की जगत से पीपल के छौने भीतर 

पानी की ओर झांकेंगे

छत की मुंडेर पर उगी पीली घास आकाश ताकती रहेगी

आकाश!…… हाँ आकाश वही होगा

ओस के साथ 

एक आस टपकती

तुम्हारे आने की प्रतीक्षा में

***

 

   किसी दयार पर   

 

किसी दयार पर जाना

तो मकाँ नहीं

उनकी दीवारों की दरारें देखना

बाग़ों में फूल नहीं

पुराने दरख़्त ढूँढना

 

मिट्टी की नमी नहीं

 

उसका सौंधापन महसूसना

 

पत्तों की शादाबी नहीं

उनका पीलापन छूना

 

देख लेना 

बच्चे खेलते हैं वहाँ

पंछी चहकते हैं

साँझ ढले…….

 

कहीं कोई गीत गुनगुनाता है

***

 

   तृप्ति     


बरसों से बंजर भूमि में

दूब का हरियाना

तपेदिक के कृशकाय चेहरे में 

उपचार से गालों का भरना

कांति लौटना,

महीनों से निद्रा के लिए जागती आँखों का

विश्रांति में सुख से सोना

कुम्हलाए शावकों को ठिठुराते शिशिर में

गर्म स्थान का आश्रय मिलना

जेठ की भरी दुपहरी में प्यास से आकुल चिड़ियों के लिए कटोरी में पानी

चावल के दाने रखना,

विषाद से मुरझाए मन में जीवन की आस जागना

 

एक टूटते संबंध का छूटते हाथ को थाम लेना

फिर से साथ चलना,

निरंतर चलते वहीं आकर ठहर जाना

जहाँ कितनी अपनी आवाज़ें पुकारकर थम गयीं

 

इससे बड़ी तृप्ति अगर है

मैं नहीं पहचानता!

 

बीत जाता है जीवन

 

जीवन बीत जाता है 

उत्सवों, समारोहों, शोक सभाओं में

यूँ ही 

किन्हीं औपचारिक गोष्ठियों में

कहीं यहाँ कहीं कहाँ

आदमी वहाँ अक्सर वो नहीं होता

जैसा हुआ करता था या

अभी भी है

ये मुलाक़ातें पूरी नहीं होतीं

बातें उठती हैं

किसी व्यवधान में टूट जाती हैं

अगली बार के वायदे के साथ

 

सहसा एक दिन 

उन अधूरी मुलाक़ातों के सिलसिले में

उस पूरी मुलाक़ात का वादा 

दम तोड़ देता है

***

 

   कुछ यादें   

 

यादों की सरहद होती है

उस पर बाड़ बांधते भी

कितना कुछ बार बार आता रहता है

खरोचों में लहूलुहान

जगह जगह से रिसता

कई बार कुछ जाने पहचाने यादों के स्केच 

आपके आज से मेल नहीं खाते

फिर भी उन्हें हटाते ज़ेहन का एक हिस्सा 

सूना लगता है

ख़ाली कमरे की तरह

जिसमें उस याद की गूँज

बार बार लौटती है

ऐसी यादों को भुलाते

ज़िन्दगी कहीं गुम हो जाती है

उन ज़रूरी फाइलों की तरह 

जो कुछ मिटाते कंप्यूटर की मेमोरी से मिट जाती हैं

***

 

   अरसे बाद   

 

इतने अरसे बाद

समय वहीं था

उस छोटे शहर में अपनी स्मृतियों को ढूँढते

बहुत कुछ नया बिसर रहा था

विद्यालय अब स्कूल बन चुका था

 

कक्षा एक सजा हुआ कमरा

हाँ पीछे की बेंच पर प्रकाल से खींचा मेरा नाम

ग़र्द से झांक रहा था

सौभाग्य से कुछ चीजों पर विकास की दृष्टि नहीं पड़ती

सड़कें इधर उधर टहल रही थीं

थोड़े भटकाव के साथ

मित्र जो मिले वहीं थे 

बस चेहरों की परतें बढ़ गयी थीं

अतीत के जितने खण्डहर थे

उनमें वही प्राण थे

आबोहवा में वही सिहरन 

 

जो शहर जन्म देते हैं

वो ढूँढ ही लेते हैं 

अपनी संतानों को

***

 

   मृत्‍यु   

 

मृत्यु अपने से अधिक

अपनों की मृत्यु है

 

शेष जीवन में

मृत्यु जीवित रहती है

 

मृत्यु होने तक

 

 

चिड़चिड़ाती यादें

 

कुछ यादों में चिड़चिड़ाहट होती है

उनके आते ही हम स्वयं से रूठ जाते हैं

आस पास 

लोग भांप लेते हैं

भौंचक रहते हैं

वो सबको दिखायी देती है

नितांत अकेली

और हम भी

उस अनुपस्थिति में

स्वयं के लौट आने की प्रतीक्षा करते हुए

***

 

   धुऑं (नज्‍़म)   

 

जीवन के धुंधलके में

रोज़ टहल पर मिल जाती है एक भोर

जाने किस गली किस छोर

चमक उठता है सन्नाटा

दूर तलक बंद बाज़ारों में

यूँ कि जैसे अंधेरों में बिजली कौंध जाती है

मेरे भीतर किसी गुमनाम की

आवाज़ लौट आती है

 

सुबह की बात

सुबह ही दफ़न कर देता हूँ

लौट आता हूँ उन्हीं धुंध के शहसवारों सा

 

घने लोगों के बीच छाए गुबारों का

कि ज़िंदगी 

दूर तक बिखरा हुआ

एक धुआँ है

बस धुआँ ……

***

 

   डिमेंशिया(मस्तिष्क की व्याधि)   

 

उसे आईने में अपना चेहरा अजनबी दिखता 

वो ख़ुद से ही कुछ पूछना चाहती

पर शब्द कहाँ रह गए थे!

मुँह घुमाकर देखती

बिस्तर के चार पाए उसे बौनों की तरह चिढ़ाते 

शुरू में चीख पड़ती 

अब वो भी कहाँ याद था ! 

उठती तो खड़ी रहती 

चलती तो चलती ही 

देर तक अनिश्चित

चेहरा किसी मरुस्थल की रेतीली भूमि जिसमें

कुछ सिलवटें पड़तीं, मिट जातीं

वो ऐसे देखती

जैसे कोई शिशु देखता है

उसकी आँखों का सूनापन अंधेरे गहरे कुएँ की तरह डरावना था

जिसमें बरसों से किसी ने न झाँका

याद अब

 

 

बहुत दूर की रिश्तेदार थी जो कभी कहीं किसी रोज़

टपक पड़ती

भीनी मुस्कान ठहर जाती

क्षण भर के लिए

फिर आँसू ढरक आते

कोई नाम भी आ जाता ज़बान पर

 

जीवन कहीं

बहुत पीछे छूट गया था 

वो मृत्यु से थोड़ा पहले मरकर

बीत चुके की कृतज्ञता में

जीवित थी

***

 

   उत्‍तरायण   

 

पतंगों से भरे आकाश में

हर रंग की पतंगें हैं

यूँ नीली क़िताब के

रंगीन पन्ने

हवा से फड़फड़ाते

छिटक जाते

 

दूर क्षितिज में

धुंध सी सिमटी है

किसी ने बुहारकर लगाया हो जैसे

आज के लिए

 

उत्तरायण होते सूर्य की

यात्रा का विराम दिवस

कि अब तीव्र रश्मियों से बरसो

तेज बिखेरो

ठिठुरते प्राणों पर

गर्म उच्छवास फूँको

***

   आज का दिन   

 

घने कुहासे की दोहर ओढ़े

शहर ठिठुर रहा है

सड़कें अलावों के धुएँ फूँकती

हाँफ रही हैं

बाशिंदे कई परतों के भीतर दबे 

नहीं चाहते कोई उनकी पुकार सुने

पेड़ पौधे सर्द आग के समक्ष सिर झुकाए 

थरथराते हैं

पशु पक्षी अपने खोलों में 

थोड़ी थोड़ी गर्मी समेटे दुबके हैं

दूर तलक सन्नाटा है

बर्फ़ीली हवा की निगहबानी में

आज कोहरा निज़ाम है

ऐसी सर्द हुक़ूमतों में

सुबहें नहीं होतीं

सिर्फ़ ढलती हैं

***

2 thoughts on “सबको अपने हिस्से की धूप चाहिए/  कौशलेन्द्र की कविताएं”

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