अनुनाद

सदा से ही तमाम जीवनों के लिए अपना जीवन जीती रही है इजा/   गिरीश अधिकारी  की कविताऍं   


     लेसू रोटियां   

 

उन
दिनों जब
 

इजा
के पास मडुवा था
 

और
मेरे पास थी एक जि़द कि

गेहूँ
की ही रोटी खानी है
 

तब
पदार्पण हुआ इन पहाड़ों में
 

लेसू
रोटियों का
 

कोई
पारंपरिक व्यंजन की तरह नहीं

बल्कि
इजा की प्रेमपूर्ण साजिश की तरह

इनरु
मुया और चल तुमड़ी बाटों बाट

सुनाते
हुए
,मुझे खेल लगाकर

बड़ी-बड़ी,काली -काली लोईयों पर

बड़े
सलीके से चढ़ा दी जाती थी
 

एक
महीन सफेद परत

इस
तरह

देखते
ही देखते
, ईजा की ओर से 

ठग
लिया जाता था मुझे

मेरा
पेट भरने के लिए..

यूँ
तो ठगते बाबू भी थे मुझे कभी-कभी
 

पटांगण
के जिस पाथर से मुझे चोट लगती
 

उसे
जोर-जोर से मार के ठगते

मेरे
साथ कुश्ती लड़ते
,मुझसे हार के ठगते,

मगर
इजा तो मानो

ठगने
का हुनर ही लेकर पैदा हुई थी
 

कई
मौकों पर खाली हाथ दिखाकर
 

मेरे
सिर को तेल से सानकर ठगना
 

कि
मुझे सब खिला कर खाली बर्तन से

स्वयं
कुछ नहीं खाकर पेट तानकर ठगना
 

ठगना
,ठगना निरंतर ठगना….

किंतु
समय के बीतते कालचक्र के साथ

सबसे
बड़ा ठग मैं ही साबित हुआ

गाड़, गधेरों ,धार ,खरकों पर

ईजा
को निपट अकेला छोड़
 

चला
आया उससे दूर
, बहुत दूर 

याद
है मुझे
,उस अंतिम क्षण में भी तो 

ठगा
था उसने मुझे
 

जा
जा नानतिन तो पढ़ाने ही ठैरे

हमारी
चिंता मत करना

होठों
से हल्की मुस्कान के साथ
 

निकले
इन शब्दों के समानांतर
 

आँखों
से निकले आँसुओं को छुपा कर
 

ठगा
था तब उसने मुझको..

अब…..

उससे
बहुत दूर हूं मैं
 

सुना
है कि ठगी ठगी सी
 

बैठी
रहती है किसी भीड़े पर

और
घाम तापते हुए देखी रहती है एकटक

ठगे
-ठगे उन बंजर खेतों को
 

जिनकी
उर्वरा शक्ति
 

आज
भी इंतजार कर रही है
 

बाबू
के जैसे मेहनतकश हाथों का

जिन
खेतों में मडुवा बोने के बाद

बाबू
को नहीं ठग पाया था कभी
 

हल
का नुकीला नस्यूण भी

सूख
चुकी कठोर मिट्टी से
 

उसका
यूँ ही सरक जाना

कितनी
जल्दी भाँप लेते थे वे…

और..

उसके
बाद की कहानी

मेरे
घर के मालगोठ में अंधेरे कोने में पड़ी

बेतरतीब
घिस चुकी कुदाली और फडुवा

बेहतर
बता सकता है आपको..

खैर…

इन
दिनों सुना है मैंने
 

मडुवा
भी ठग गया है सबको
 

जब
उजड़ गया तो श्री अन्न कहलाने लगा है
 

इधर
महानगरों में

बाजार
द्वारा ठगे ठगे से लोग
 

हाथ
पाँव मारते देखे गये हैं उसके लिए
,

मुट्ठी
दो मुट्ठी पा भी लेते हैं जब कहीं से तो
 

फिर
ढूँढना पड़ रहा है
 

उनको
आग का वह डंगार
 

जिसमें
सेकी जा सके आड़ी
,तिरछी,छोटी-मोटी

लेसू
रोटियाँ
         
 

पहाड़ी
हैं साहाब जुगाड़ पहचान है इनकी
 

वह
भी कर लेते हैं

किंतु
फिर ढूंढना पड़ रहा है उनको

ठग
बाजार में बह रहे
 

केमिकल
घी के सैलाब के बीच

लेसू
रोटी के ऊपर रखने के लिए
 

आमा
के हाथ से बनी भुटैन घी की डली ..

और
अंततः खोजनी पड़ रही है
 

थोड़ी
बहुत

वही 

बचपन
वाली भूख भी।

***

 

   ईजा और पहाड़ का जीवन   

 

घुघुती
और बांज का रिश्ता
 

जानता है पहाड़ 

या
फिर जानती है
 

सिर्फ़
और सिर्फ़ यहाँ की
 

सदा
की रहवासी
 

इजा
मेरी

 

तभी
तो बांज काटते-काटते

छोड़
आती है वह
 

केवल
उस टहनी को

जिसमें
है घुघुती का घोल

 

वह
तुम पहाड़ में जिसे

घुघुती
का घुरघुराना कहते हो ना

वह
धन्यवाद अदा करना भी है
 

उसका
ईजा के प्रति

 

इस तरह अपने
श्रमसाध्य जीवन से

निपट
अकेली

सदैव
पहाड़ का
 

अस्तित्व
बचाने की
 

जुगत
में लगी इजा

जीवन और अस्तित्व बचाकर

घुघुती का

चुन
लाई है बांज

एक
और जीवन के लिए

 

देखा
मैंने उसको
 

उसने
गट्टर फेंका
 

पल्लू
उठाया
 

और
उका्व काटने का हासिल
 

पसीना
पोछा

और
चली गई गोठ
 

लाल
मा्ट से लिपे

 

दो
छिलुके और
 

चार
लकड़ियों की तलब में

खाप
तान के बैठे

चूल्हे
की ओर

कुछ
और जीवनों के लिए

 

सदा
से ही

तमाम
जीवनों के लिए
 

अपना
जीवन जीती रही है इजा

तो

अभी
कुछ और दिन
 

मुस्कुराइए
कि
 

कुछ
ईजाएँ जीवित हैं

जीवित है

घुघुती 

जीवित है

पहाड़

और 

पहाड़
का जीवन

***  

 

1 thought on “सदा से ही तमाम जीवनों के लिए अपना जीवन जीती रही है इजा/   गिरीश अधिकारी  की कविताऍं   ”

  1. बहुत सुन्दर अधिकारी जी| आप इतना सुन्दर लिखते है मानो यह हम सबकी आवाज हो|इतना सुन्दर शब्द संयोजन कि पढ़ने में दृश्य उभरकर सामने आ जाते हैं|और सच में आपने यह जीवन जिया है,महसूस किया है और बहुत बारीकी से उस हर एक अनुभव को अपनी कलम से उकेरा है|मुझे तो आप की प्रशंसा के लिये शब्द भी नहीं मिल रहे| बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं आप निरंतर बहुत बहुत अच्छा लिखते रहें और हम आपकी रचनाओं को पढ़कर आनन्द लेते रहें| 🙏🏻🙏🏻🌺🌺🌺🌺

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