बहुत ही कम समय में अपनी पहचान बनाने वाले कवि जावेद आलम खान अक्सर अपनी कविताओं में समय से सवाल करते हैं। यह विविध विद्रूपताओं का दौर है इसमें इंसान महज मशीन बनकर रह गया है, जावेद इन्हीं विद्रूपताओं की पड़ताल करते हैं। वे बिंबो एवं प्रतीकों के साथ नया मुहावरा गढ़ते हैं। जहां एक तरफ उनकी कविताएं प्रतिरोध करती हैं वहीं दूसरी तरफ शांति की आशा लिए होती हैं।
जावेद आलम खान का कविता संग्रह ‘स्याह वक्त की इबारतें’ देश की इबारतों का आईना है। यह भूमंडलीय दौर है, इसमें इंसान (ग्लोबल विलेज में) अपना अस्तित्व खो चुका है, उनकी कविताएं इसी अस्तित्व को तलाशती हैं। यह वह दौर है जिसमें इंसान समस्याओं से लड़ने के बजाय झूठी आत्मसंतुष्टि का रास्ता खोज रहा है, रिश्तो का पतन हो चुका है, स्वार्थ के लिए गलत के साथ होना इंसान की प्रवृत्ति बन चुकी है। ऐसे में कवि ‘मैं’ शैली में आत्मालोचना करता है-
“हम अपनी ही आत्म संतुष्टि के हत्यारे हैं
अपनी प्रतिभा को आत्ममुग्धता के ताबूत में दफन कर चुके हैं।”
जावेद की कविताओं में राजनीतिक क्रूरता का दंश दिखाई देता है। नौकरशाही, भ्रष्टाचार को दिखाती उनकी कविताएं ऐसे सवालों से टकराती हैं जहां राजनीति में शतरंज का खेल खेला जाता है। यह न्यायिक हत्या का दौर है, इस दौर में बुलडोजर का न्याय लोगों में सर्वमान्य सा है। जावेद की कविताएं इसी के इर्द-गिर्द घूमती हैं। जावेद ने कविताओं में प्रकृति को याद किया है। वे दिखाते हैं कि मशीनी युग में मशीन बन चुका मनुष्य प्रकृति से कितना दूर होता चला जा रहा है। बच्चे प्रकृति से जुड़ने के बजाय मोबाइल और टी०वी० में अपना मनोरंजन ढूंढ रहे हैं। इंसानों की हंसी के आवरण में छिपी उदासी अपना आवरण फैला रही है। आज इंसान मेट्रो ट्रेन सा भागता सब कुछ भूल चुका है।
“अजीब है कि आदमी अपने खटरागों में व्यस्त है
प्रकृति से अभिशप्त है”
1992 के बाद भूमंडलीकरण इतनी तेजी से अपनी डैने फैलाया की उसके रंग में पूरी दुनिया रंग गई। प्रभा खेतान लिखती हैं – “भूमंडलीकरण वह बिजली है जिससे आपका घर रोशन भी हो सकता है और आपके घर में आग भी लग सकती है।” जावेद ने अपनी कविताओं में इसकी रोशनी और आग दोनों को दिखाया है। जहां इसकी रोशनी से देश में चकाचौंध मची है वहीं दूसरी तरफ इसकी आग देश को जला भी रही है। इसकी आग नौकरियों में लगी है, बाजारों में लगी है, रिश्तो में लगी है; तो वहीं दूसरी तरफ आज का हर व्यक्ति निराशा, हताशा, कुंठा से जूझ रहा है। जावेद दिखाते हैं कि किस तरह लोगों का नैतिक पतन हो रहा है। रिश्ते अपना मूल्य खो रहे हैं। आज का हर व्यक्ति शहर के चकाचौंध में भाग रहा है-
“देश अब भी मौजूद है
जब सभ्यता उखाड़ रही है काल्पनिक मुर्दे
जब संस्कृति के जंगल कैद हैं
शहरों की चहारदीवारी में”
कवि वर्तमान पत्रकारिता पर चोट करता है और दिखाता है कि किस तरह देश के लोकतन्त्र का चौथा स्तंभ अपने मार्ग से भटक गया है। पदलोलुपता, झूठीप्रतिष्ठा एवं स्वार्थ के लिए किस प्रकार जनता की आवाज को दबा दिया जा रहा है-
“न्यूज़ चैनलों पर चीखते एंकरों की उलटबासियों में
गुम हुई जनता की आवाज”
कवि देश के अंदर सांप्रदायिकता की खौफ को दिखाया है। वह दिखाता है कि किस तरह राजनीतिक स्वार्थ के लिए वैमनस्यता को आधार दिया जा रहा है। कवि अल्पसंख्यकों के भय और सिसकियों को कलमबद्ध करता है
“मेरे अंदर एक धार्मिक अल्पसंख्यक का खौफ है
जो दंगों की अफवाह उड़ते ही
घर के दरवाजे पर मोटे ताले जड़ देता है।”
जावेद ने धर्म-जातीय गर्व में अंधी हुई जनता के पागलपन को चित्रित किया है। वे दिखाते हैं कि राष्ट्रवाद के नाम पर सांप्रदायिकता कैसे पनाह ले रही है और नफरत को जन्म दे रही है। यह ऐसा समय है जहां ‘देशभक्ति’ की मार्केटिंग की जा रही है और कुछ वोट की खातिर ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को’ जैसे नारे लगवाए जा रहे हैं। जावेद लोगों के बीच फैलते जहर को दिखाते हैं-
“मिथ्या गर्व के स्वप्नलोक में चक्कर काटती देशभक्ति
बंदूक बनकर अपनी ही कनपटी पर तनी है।”
वहीं दूसरी तरफ व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी और आईटी सेल द्वारा युवाओं में लगवाई गई इस आग को दिखाते हैं जहां मोबाइल चलाते-चलाते सोया हुआ किशोर बड़बड़ाता हुआ देश के गद्दारों को गोली मारने का फरमान सुनाता है। जावेद अपनी कविताओं में राष्ट्रवाद के मर्म को उद्घाटित करते हैं और वर्तमान राष्ट्रवाद पर प्रश्न खड़ा करते हैं
“दरअसल राष्ट्रवाद देश की किताब में वह पवित्र शब्द है
जिसका मौन वाचन देश की जनता करती है
और सस्वर पाठ हिंसक गतिविधियों में लिप्त ठेकेदार”
हर युग में ऐसे बहुत से कवि रहे हैं जिसने गलत के खिलाफ आवाज उठाई है। पूरी दुनिया में हमेशा सच बोलने वालों का विरोध किया जाता रहा है, यह परंपरा दिनों दिन और ही सशक्त होती जा रही है। जावेद वर्तमान दौर के कैदीनुमा इंसानों का आइना प्रस्तुत करते हैं, उनमें प्रतिरोध की शक्ति मर गई है, आत्मलोलुपता में सुनने और समझने की शक्ति क्षीण हो गई है। सच बोलने वाले को देशद्रोही कहकर जेल भेज दिया जा रहा है। इस निर्मम समय में कविता ही है जो इंकलाब की राह दिखाती है-
“सनद रहे कि तारीख की तहरीर में दर्ज होगा
चारण भाषा जिसे देशद्रोह लिखती है
कविता उसे इंकलाब कहती है”
कवि क्रूरताओं के अट्टाहास को दिखाता है। वह याद दिलाता है कि कितना जरूरी है एक पुरुष के भीतर एक स्त्री का होना, इस निर्मम समय में घावों पर मरहम लगाने वालों के महत्व को बड़ी खूबसूरती से रचा है। यह चौकन्ना रहने का वक्त है। किसके हाथ की छूरी कब किसके गले पड़ जाए पता नहीं। कवि ‘अंधेरे’ कविता में ज़िदगी के स्याह में उतरने और उससे संघर्ष करने को प्रेरित करता है-
“कभी उतरना फुरसत से उस अंधेरे में
कोई छूटी हुई चमक जरूर मिलेगी
और तुम देखोगे की तुम्हारा डर
अतीत की नदी में बह गया है।”
जावेद शोषण, षडयंत्र और भ्रष्टाचार की तह में जाकर सच की पड़ताल करते हैं। वे अपनी चुभती भाषा में व्यंग्य करते हैं। वे देश की संरचना पर अपनी दृष्टि डालते हैं और महज जमीन के टुकड़ों को देश नहीं मानते, वे किसी तस्वीर को देश नहीं मानते। उन्हें प्रकृति, बच्चों, हल, कुदालों और किसानों में देश दिखता है।
“देश बनता है आदमियों से
और सांस लेता है आदमियत में।”
जावेद की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से बहुत सुलझी हुई दृष्टि है। वे संस्कृति और नैतिकता को जितना जरूरी मानते हैं उतना ही समता और प्रगति विरोधी जड़ संस्कृतियों पर प्रहार भी करते हैं। कवि मध्यवर्ग पर चोट करता है और चोट करता है उन व्यक्तियों पर जो जुल्म करते करते आगे बढ़ गए, चाटुकारिता की ताकत ने उन्हें सर्वोच्च पद पर खड़ा कर दिया। कवि अंधेरे में चल रहे इन कुख्यातों को नंगा देखता है।
भक्त, फैन के साथ-साथ आत्ममुग्धता की भी बाढ़ आई है; कवि इन आत्ममुग्ध लोगों की तुलना कछुए की पीठ से करता है जिनको असंख्य चीत्कार की ध्वनियां सुनाई नहीं देती। आज लोगों की पशुता देवत्व के जिहरबख्तर में कस सी गई है।
किसानों को देश मानने वाला कवि किसान आंदोलन की झांकी प्रस्तुत करता है। उनके माटी के प्यार को बिंबो, प्रतीकों से सजाता है। तानाशाही सरकार के खिलाफ किसानों की चेतना को दिखाता है-
“कोई आंदोलन नहीं कर रहे हैं
धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि होने का दंभ पाले
दो मुंहे सांपों के दांत उखाड़ रहे हैं
झूठ की तहरीर फाड़ रहे हैं।”
कवि वेश्याओं की विवशता और समस्याओं पर कलम चलाता है। वह ‘जिंदा जिस्म का मर्सिया’ कविता में उनकी विडंबना को दिखाता है। पूरी दुनिया में जिस्म का सौदा करने को मजबूर इन वेश्याओं को इंसान समझा ही नहीं गया। कवि दिखाता है कि उनके आत्मा के घाव कभी नहीं भरे-
“वे समाज में रहकर समाज के फ्रेम से बाहर थीं
वह पुरुषों के लिए अंधेरे में प्रिया थी दिन में कुलटा थी।”
कोरोना की त्रासदी जिसने हजारों जिंदगियां नष्ट कर दी जिससे उत्पन्न बेरोजगारी, भुखमरी पर न तो सरकार का ध्यान गया और न ही किसी अखबार वालों ने कलम चलाई। इसी समय के यथार्थ को जावेद ने ‘लॉकडाउन में कारखाना’ कविता में दिखाया है। ‘पनाह’ आज के दौर में अनसुना सा शब्द लगने लगा है क्योंकि भूमंडलीय संस्कृति आपसी सहयोग एवं भाईचारे का लगभग खात्मा कर चुकी है, कवि इसी पनाह के विविध शेड्स को दिखाता है-
कवि ने स्त्रियों की विडंबनाओं को चित्रित किया है। सामंती दौर से निकली स्त्रियां आज बाजार की चंगुल में है। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष होने वाले शोषण को प्रतिबिंबित करते हुए उनकी असुरक्षा बोध एवं भय को शब्दबद्ध किया है। सूचना क्रांति और तकनीकी ने हमारा बचपन छीन लिया और जवानी पटरी पर रेलगाड़ी की तरह भाग रही है। कवि बचपन से मर्द तक की यात्रा को रचा है और दिखाया है कि बच्चा बड़ा होता है तो उसके बहुत सारे अधिकार स्वतः खत्म होते चले जाते हैं, यहां तक की उसका रोना भी सर्वग्राह्य नहीं। जावेद ‘मर्दानगी’ कविता में लिखते हैं-
“भीतर उगे तमाम फूलों की बेदखली है मर्दानगी
हजार कोमलताओं के कत्ल पर मिलता है मर्द का तमगा
कि बच्चे का मर्द बनना इंसानी इतिहास की सबसे क्रूर घटना है।”
जावेद की कविताओं में एक पिता की जिम्मेदारी, कर्तव्य और चुनौतियों का भी प्रतिबिंब दिखाई देता है। संभावनाओं की किरण प्रेम से निकलती है और प्रेम इस क्रूरतम समय में उम्मीद की सुबह है। जावेद अपनी कविताओं में ऐसे ही प्रेम का राग रचते हैं और हवा में घुले जहर को अपने खुश्बू से नष्ट कर जीवन का संचार करते हैं–
“वह प्रेम ही है जो सूर्य की किरणों को सोखकर
विकट अंधकार के युग में
भटकती मानवता को नई रोशनी दिखाएगा।”
लेकिन आज के दौर में प्रेम के बजाय देह को महत्व दिया जा रहा है –
“तुम महसूस कर सकते थे संबंधों की गर्माहट
पा सकते थे प्रेम की शीतलता
मगर तुमने आत्मा में समा जाने की बजाय
देह में धंस जाने को चुना”
जावेद की कविताओं के शिल्प की बात करें तो उनकी कविताओं का एक विराट शिल्प है। इन्होंने अपनी मुहावरेदार भाषा विकसित की है। उनकी कविताओं में सूक्ष्मता मिलती है, जो खोलने पर परत दर परत खुलती चली जाती है। वे नवीन बिंबो एवं प्रतीकों का प्रयोग करते हैं –
“नौकरी की तलाश करती किताबों में डूबी
मेरी जवानी यूट्यूब पर चलती फिल्म में
उस विज्ञापन की तरह आई
जिसे स्किप करके लोग आगे बढ़ जाते हैं।”
वे अपनी कविताओं में कथा कहते हैं, कभी सपाटबयानी तो कभी फेंटेसी में अपनी बात कहते हैं। उनकी अधिकतर कविताएं ‘मैं’ शैली में हैं जो पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करती है। उनकी कविताओं में कहीं-कहीं दोहराव भी देखने को मिलता है। अतः जावेद की कवितायेँ समय की क्रूरताओं के बीच मानवता और प्रेम की राह दिखाती हैं।
पुस्तक:- स्याह वक़्त की इबारतें
लेखक:- जावेद आलम खान
प्रकाशन:- बोधि प्रकाशन, जयपुर
पहला संस्करण :- 2023
इस समीक्षा में पूरी किताब को आपने पूरी ईमानदारी से रख दिया। जिस सूक्ष्म अध्ययन के साथ आपने यह समीक्षात्मक टीप रखी है, मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।बहुत शुक्रिया नीरज भाई।
जावेद की कविताओं का बेहतरीन विश्लेषण किया है। समीक्षक और कवि को हार्दिक बधाई
यह समीक्षा कवि के विविध आयामों को सामने रखती है। कवि व समीक्षक दोनों को ही बधाई।