अनुनाद

स्‍मरण विष्‍णु खरे –  कृष्‍ण कल्‍पित / अविनाश मिश्र


    

कृष्‍ण कल्‍पित

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केदारनाथ सिंह की अनुकृति करने की कोशिश में जितने युवा कवि नष्ट हुये उससे कुछ अधिक ही विष्णु खरे की कविता की नक़ल करके हुये होंगे । जो कवि जितने युवा कवियों को बरबाद कर सके – वह उतना ही बड़ा कवि होता है । इस लिहाज़ से केदारनाथ सिंह और विष्णु खरे दोनों ही बड़े कवि ठहरते हैं – कुछ थोड़ा कम तो कुछ थोड़ा ज़्यादा !

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विष्णु खरे आठवें दशक के अतिरिक्त कवि थे । आश्चर्य यह कि इसी अतिरिक्त में सम्पूर्ण समाया हुआ था । आठवें दशक के पाँच कवियों को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला । इस प्रकार विष्णु खरे कम से कम पाँच साहित्य अकादमी पुरस्कार के हक़दार थे लेकिन अफ़सोस कि उन्हें एक बार भी साहित्य अकादमी पुरस्कार के काबिल नहीं समझा गया !

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विष्णु खरे महाकवि नहीं थे लेकिन उनकी लिखी हुई हर पंक्ति महाकाव्यात्मक थी !

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महाभारत विष्णु खरे का प्रिय महाकाव्य ही नहीं था – महाभारत उनके लिये कविता का उद्गमस्रोत भी था और ख़ुद विष्णु खरे कौन विचित्रवीर्य से कम थे ?

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हिंदी कविता में निराला के उत्तराधिकारी मुक्तिबोध थे या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन विष्णु खरे मुक्तिबोध के निर्विवाद उत्तराधिकारी हैं !

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भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी और कविता-प्रेमी त्रिपुरारि शरण जब दूरदर्शन के महानिदेशक बनकर आये तो उन्होंने मुझे कविता के विशेष कार्यक्रम करने को कहा । शायद जनवरी 2013 की बात होगी जब हमने दिल्ली के राजेन्द्र भवन में कविता-अभिलेखकार्यक्रम किया । इस कार्यक्रम के लिये हमने दिवंगत कवि पंकज सिंह को सलाहकार बनाया था । इस कार्यक्रम में समकालीन हिंदी कविता के अधिकांश श्रेष्ठ कवि उपस्थित थे । विनोद कुमार शुक्ल से लेकर ऋतुराज तक । मंगलेश डबराल से लेकर असद ज़ैदी से लेकर देवी प्रसाद मिश्र तक । सविता सिंह से लेकर गगन गिल तक । कैलाश वाजपेयी से लेकर राजेश जोशी तक । इस कार्यक्रम का डीडी-भारती पर Live प्रसारण होना था । कार्यक्रम शुरू होने से पहले विष्णु खरे ने मुझसे कहा – मैं जो आज कविताएँ पढूंगा उससे तुम्हारी नौकरी चली जायेगी, कल्पित ! इस पर मैंने विष्णुजी से कहा कि मेरी नौकरी की आप परवाह न करें उसे लेने के प्रयास बहुत लोग बहुत दिन से कर रहे हैं, आप को जो पढ़ना हो पढ़ें कार्यक्रम शुरू हुआ । संचालन कवि पंकज सिंह कर रहे थे । विष्णु खरे की चेतावनी को ध्यान में रखते हुए कार्यक्रम के शुरू होने से पहले ही मैंने डीडी-भारती पर Live Streaming रुकवा दी थी । कार्यक्रम को सिर्फ़ Record किया गया। विष्णु खरे ने उस दिन कविताओं के नाम पर राहुल और सोनिया गाँधी पर बहुत ही घटिया तुकबंदी सुनाई, जिसे मैंने बाद में Edit करके हटा दिया । उन दिनों कांग्रेस का राज था और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे । इस तरह मेरी नौकरी भी बच गयी और विष्णुजी की ज़िद भी रह गयी । इसके बाद भी पटना, राँची और जयपुर के कार्यक्रमों में मैं विष्णुजी को बुलाता रहा । विष्णुजी हर बार पूछते – मुझे फिर क्यों बुला रहे हो तो मैं जवाब दिया करता था कि इसलिये बुला रहा हूँ कि अभी मेरी नौकरी गई नहीं !

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रात के 11 से कम क्या बजे होंगे ? विष्णु खरे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की बार में झूम रहे थे । मैं बार-काउन्टर की स्टूल पर बैठा अपना पाँचवाँ प्याला पी रहा था । विष्णुजी ने अपनी चिर-परिचित शैली में तीर चलाते हुये मुझसे कहा – कल्पित तुम ग़ज़लगो कवि हो । असल में विष्णुजी मेरे छंद/ग़ज़ल प्रेम पर कटाक्ष कर रहे थे । मैंने भी प्रत्युत्तर में तीर चलाते हुये कहा – अगर ग़ज़लगो होना इतना ही निंदनीय है तो आप लोग शमशेर के पाँव धोकर  क्यों पीते हैं ? शमशेर तो मुझसे अधिक ग़ज़लगो हैं । अस्ल में आप लोग पाखंडी हैं । इसके कोई चार साल बाद विष्णु खरे राँची में मेरे निवास पर तरल-गरल के बाद तीर चलाते हुये बोले – कल्पित तुमसे अच्छी कविता तो अजन्ता लिखती है । अजन्ता तुमसे बेहतर कवि है । प्रत्युत्तर में मैंने भी बाण मारते हुये कहा कि आपका यह तीर कभी का भौंथरा हो चुका है। पंकज सिंह पर भी आप इसका पूर्व में प्रयोग कर चुके हैं । अजन्ता की तुलना मुझसे क्यों कर रहे हैं आप तो यह बताइये कि अजन्ता मंगलेश डबराल और आपसे बेहतर कवि है या नहीं हमारी लड़ाई हर बार बराबर छूटी !

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विष्णु खरे ने जीते-जी इस बात का पुख़्ता प्रबंध कर रखा था कि उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार देने के लिये कोई सोच भी न सके लेकिन अब मैं प्रस्तावित करता हूँ कि विष्णु खरे को धूमिल की तरह मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जाये !
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समय बीत गया । यह पुकार भी अनसुनी ही रही)

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रामविलास शर्मा को गपोड़ी, अशोक वाजपेयी को सम्राट अशोक और कवयित्री गगन गिल को महादेवी सिर्फ़ विष्णु खरे ही कह सकते थे ।निर्विवाद रूप से विकट ही नहीं बल्कि दुर्दांत मेधा के धनी विष्णु खरे केवल कवि, आलोचक ही नहीं बल्कि अनुसंधानकर्ता भी थे। विष्णु खरे मेरी जानकारी में प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने निराला के हृदय में विजयलक्ष्मी पंडित के प्रति छुपे हुये प्रेम (Crush) की खोज की ।

अभी पिछले दिनों समालोचनकी एक टीप में उन्होंने हिंदी-विदुषी आगनयेशका सोनी के प्रति मुक्तिबोध के लगाव का ज़िक़्र करते हुये यहां तक लिखा – जो बहुत दिलचस्प है वह मुक्तिबोध का कुछ अंतरंग मित्रों के साथ लगभग erotic प्रेम-भाव।

उनके अति सक्रिय मस्तिष्क को और दूर की कौड़ी लाने की सिद्धहस्तता को देखते हुये मेरा मानना है कि विष्णु खरे अगर fiction में हाथ आज़माते तो कोई बड़ा classic उपन्यास हिंदी-साहित्य को मिलता !

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अभिधा में कविता सम्भव करने वाले विष्णु खरे संसार के कदाचित एकमात्र कवि हैं। नुकसान उठाकर भी हक़ की बात कहने वाले विष्णु खरे के लिये मेरे मन में बहुत सम्मान है । बिगाड़ के डर से हक़ की बात कहना विष्णुजी ने अंतिम समय तक नहीं छोड़ा ।

केदारनाथ सिंह की मृत्यु के बाद मेरे लिखे गये लेख की प्रतिक्रियाओं में जब मुझ पर कोड़ों की बरसात हो रही थी और मैं कड़ी मारेंसह रहा था तब विष्णु खरे का मुंबई से टेलीफ़ोन आया । उन्होंने शायद सिद्धांत मोहन से मेरा नम्बर लिया था।

अरे भई कल्पित, तुमने केदारजी पर बहुत ज़ोरदार लिखा।” विष्णु खरे ने कहा ।

इस पर मैं क्या कह सकता था ? यही कहा, “केदारजी ने तो आपकी प्रतिनिधि कविताओं का सम्पादन किया है !

तो क्या मुझ पर एहसान किया है । छोड़ो इस बात को तुमने बहुत अच्छा लेख लिखा है !” यह कहकर विष्णुजी अपनी चिरपरिचित खरखराती हुई हँसी हँसने लगे ।

इसके बाद मेरे पास कहने को क्या था !

(११)

विष्णु खरे की मृत्यु एक त्रासदी है । हमारी भाषा और हमारे समय की एक नीच ट्रेजेडी । विष्णु खरे हिंदी संस्थाओं और सत्ताओं से तमाम उम्र बाहर किये जाते रहे। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि मरते समय वे दिल्ली की एक मरी-गिरी अकादमी के उपाध्यक्ष थे । जैसे वे मरने के लिये ही उस दिल्ली में वापस आये, जिसने उन्हें दस बरस पहले शहर निकाला दे दिया था !

(१२)

जैसे सरस्वती की सवारी हंस, गणेश की मूषक और इंद्र की हाथी है वैसे ही हिंदी के एक अलबेले, औघड़ और अवांगार्द कवि विष्णु खरे की सवारी आसमानी रंग का एक जर्जर वेस्पा स्कूटर था और यह उस समय की बात है, जब हिंदी का हर हलकट लग्जरी गाड़ी में चलता था ।

हंस उड़ गया और वह खरखराता हुआ आसमानी वेस्पा स्कूटर कभी का कबाड़ी के हाथों बिक चुका होगा!

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अ‍विनाश मिश्र

वह जागरूकता का प्रथम क्षण होता है, जब लगता है कि अब रोज़गार की ज़रूरत है।

यह जागरूकता अगर बचपन में हो तब बचपन बीत जाता है, अगर तरुणाई में हो तब तरुणाई और अगर यह वृद्धावस्था में हो तब जीवन बीत जाता है। 

इस जागरूकता में बहुत सारी कामनाएँ और स्वप्न बिखर जाते हैं। ये क़तार में ले आने वाले पल होते हैं।

वे जिन्होंने जीवन में कभी रोज़गार की खोज नहीं की, मृत्यु तक कच्चे रहेंगे।

रोज़गार को खोजने की प्रक्रिया और अवधि ही बेरोज़गारी है।

साल 2017 की एक शरद दुपहर में एक संवाद से बाहर रहे आए संवाद में मैंने विष्णु खरे से प्रश्न किया था कि आप 1993 से बेरोज़गार हैं। इस बीच आपने कोई पत्रिका भी नहीं निकाली और न ही कोई प्रकाशन शुरू किया। इतनी लंबी अवधि तक इस प्रकार बेरोज़गार रहने वाले हिंदी कवियों-लेखकों के क्लब में आपके साथ देवी प्रसाद मिश्र भी शामिल होंगे जिन्होंने रोज़गार-संस्थानों को दासताओं के अड्डे कहा है। मैं यहाँ आपसे जानना चाहता हूँ कि बेरोज़गारी में सबसे ज़्यादा क्या चीज़ काम आती है? इस सवाल का यह सोचकर जवाब दें कि सामने एक बेरोज़गार बैठा हुआ है।

मैंने इस प्रश्न के बहुत अमूर्त और दार्शनिक उत्तर की अपेक्षा की थी, लेकिन विष्णु खरे इसलिए ही स्मरणीय हैं कि वह अपेक्षाओं के पार चले जाने वाले व्यक्तित्व हैं। उन्होंने कहा :

बेरोज़गारी में सबसे ज़्यादा काम आती है—फ़्रीलांसिंग और उसकी मेहनत और कर सको तो अनुवाद। मेरा उदाहरण वैसे तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में थोड़ा भिन्न है, क्योंकि मैंने विदेशी भाषाओं से हिंदी में लाखों रुपए के अनुवाद किए हैं। इसके लिए मुझे मेडल भी मिले हैं और नाइट और सर की उपाधि भी। मैं यह करके भारत से बाहर बहुत सम्मानित हुआ हूँ। लेकिन क्या है कि मेरे साथ एक लाभ यह रहा कि मुझे इस प्रकार के वेल पेड काम एक के बाद एक बराबर मिलते गए। मेरे प्रकाशकों ने भी मेरे साथ कई वर्षों तक बेईमानी नहीं की, बहुत बाद में की। लेकिन अब ध्यान से सुनो : फ़्रीलांसिंग बहुत अजीब चीज़ है, इसके लिए आपको प्रतिभाशाली होना पड़ेगा। फ़्रीलांसिंग का एक बहुत बुरा उदाहरण हिंदी में सुरेश सलिल हैं, क्योंकि उनमें प्रतिभा नहीं है। वह अनुवादक बहुत बड़े हैं, लेकिन कोई उन्हें मानता नहीं है। देखो, कितना काम किया है उन्होंने; लेकिन सब का सब साधारण। हालाँकि वह अशोक (वाजपेयी) से बेहतर हैं। वह तो बहुत ही ख़राब अनुवादक है। वह इसे समझता भी है।

  एक और बात कि फ़्रीलांसिंग के लिए आपको अपनी गृहस्थी में यक़ीन होना चाहिए। अपनी जीवनसंगिनी, उसकी मेहनत और उसकी समझदारी पर यक़ीन होना चाहिए। इस प्रकार परस्पर प्रेम और समर्पण होना चाहिए कि अभाव कलह का रूप न ले सके। मेरी पत्नी ने मुझसे कभी नहीं कहा कि अब क्या होगा? वह जानती थी कि ये आदमी कहीं से भी पैसे लाए, लेकर आएगा। मैं तुम्हें यहाँ एक बेहद हृदयविदारक दृश्य दिखाने जा रहा हूँ, देखो :

जब मैंने नवभारत टाइम्स छोड़ा—जयपुर में, तब हुआ यों कि किराए का मकान ख़ाली करना है। मैं वहाँ अकेले रहता था, इसलिए थोड़ा ही सामान था मेरे पास। मैंने पत्नी को बताया कि नौकरी छूट गई है। मैंने उसे दिल्ली से बुलाया कि यहाँ आ जाओ और मेरी थोड़ी मदद करो—पैकिंग-वैकिंग में, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि अब दफ़्तर की या किसी और की कोई मदद लूँ।

वह आई और हमने एक-एक चीज़ पैक की। एक बड़े बोरे में रखी और ऑटो मँगाया। ऑटो में बोरा रखा और हम लोग भी बैठे। जयपुर बस-स्टैंड पहुँचे। दिल्ली वाली बस खड़ी थी। मैं ऊपर चढ़ गया और पत्नी ने नीचे से बड़े प्यार से बोरा पकड़ाया। मैंने बोरा जहाँ रखना चाहिए था, वहाँ रख दिया। अब बस चलने लगी। पत्नी मुझसे बार-बार पूछे कि बोरा ठीक से रखा था न?

मैं कहूँ—हाँ भई! लेकिन उसका संशय सफ़र भर बरक़रार रहा। रात गए हम लोग बोरे सहित सकुशल दिल्ली पहुँचे।

मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि उस औरत ने कभी उफ़् तक नहीं की कि यार तुम फिर बेकार हो गए। मैंने भी उसे कभी भूख से मरने नहीं दिया। मेरे बच्चों को तो कभी पता ही नहीं चला कि पापा अब बेरोज़गार हैं। मैं बेकारी में भी ख़ूब विदेश जाता रहा। मैंने इस काल और अवधि के दरमियान ख़ूब कमाई की। मेरा मतलब यह है कि मैं अपने बेरोज़गार होने का रोना नहीं रो सकता। मैं हिंदी का सबसे ख़ुश, निर्लज्ज और कमाऊ बेरोज़गार हूँ।

मैं इसलिए विलाप कर ही नहीं सकता। मेरे साथ हुए अन्याय का विलाप तो कर सकता हूँ जिस तरह साहित्य अकादेमी और नवभारत टाइम्स से मुझे निकाला गया; लेकिन मेरे घर में खाना नहीं है, बीमार होने पर इलाज नहीं है, मेरे बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं, मेरी बेटियाँ फटी फ्राक पहनकर घूम रही हैं… इस प्रकार का कुछ नहीं हुआ। हम बहुत बेहतर ढंग से रहते थे। बहुत बेहतर ढंग से खाते-पीते थे। बेरोज़गारी पर रुदन मेरे जीवन में इसलिए ही अनुपस्थित है। हाँ, यह सदमा ज़रूर है कि मुझसे नौकरियाँ छीन ली गईं। लेकिन इसके लिए किया क्या जाए, छीन ली गईं तो छीन ली गईं। यह बताओ कि आख़िर ग़ुलामी करने से आपको रोकता कौन है? कौन रोकता है जूते चाटने से? कोई नहीं!

आज अधिकांश मीडिया संस्थानों में जूते चाटने वाले लोग बैठे हुए हैं। वे रोज़ जूते चाट रहे हैं और अच्छे से चाट रहे हैं। मीडिया ही क्यों, सब जगह, कहाँ नहीं चाट रहे हैं यह बताओ? उन्हें कोई रोक नहीं रहा—न उनका परिवार, न उनका ज़मीर। क्योंकि सबको पता है कि ये जूते चाटने वाला महीने के आख़िर में इतना पैसा लेकर आएगा—लाख, डेढ़ लाख, दो लाख, तीन लाख… कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ग़ुलामी करने से, जूते चाटने से। अगर पड़ता है तो जाओ घर बैठो, ऐसी-तैसी कराओ अपनी। मुझसे किसी ने कहा नहीं नौकरी छोड़ने को। मेरा ग्यारह पेज का इस्तीफ़ा है—नवभारत टाइम्स को दिया हुआ। सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा लड़ा मैंने—साहित्य अकादेमी के विरुद्ध। ये पेपर आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। ये हवाई बातें नहीं हैं। मैं बस रोता नहीं हिंदी साहित्य के सामने, क्योंकि रोने से कुछ होता नहीं है। रोने से और बुरा हश्र होता है। इसलिए गरिमापूर्ण ढंग से इस्तीफ़ा दो, कष्ट सहो और अपना काम करो। एक ही बार तो अपमानित होओगे, बार-बार तो नहीं।

हाँ, अब इस उम्र में थोड़ी दिक़्क़त है; लेकिन मैं अब भी फ़्रीलांसिंग कर रहा हूँ। तुम देख ही रहे हो। मैं थोड़ा और स्वस्थ हो जाऊँ फिर बहुत बड़े पैमाने पर फ़्रीलांसिंग शुरू करूँगा। मेरे पास रोने का समय नहीं है। दरअसल, रोने के लिए कुछ है ही नहीं। मैं कई बार छिपाता हूँ चीज़ों को, वरना लोग कहेंगे कि कमीना हूँ।

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