अनुनाद

पिछले साल पर लिखा एक लंबा निबंध/शचीन्‍द्र आर्य



कितनी सारी बातें होती हैं कहने के लिए । कुछकुछ तो हमेशा सबके पास रहता ही है । ऐसा लगने से हो कुछ नहीं जाता, बस एक अजीब सा भाव घेर लेता है, जिसमें खुद के कुछ न कहने पर कोफ्त घर कर जाती है । इस एक साल के दरमियान अपने मन में बहुत कुछ कह रहा हूँ । वह कागज़ पर नहीं आ रहा । इस बात को तो कई मर्तबा लिख भी चुका हूँ पर काम बनता हुआ लगता नहीं है । मन में कहा, ‘किसने देखा’ ? यह किसी नमालूम जगह पर ‘मोर नाचने’ के बराबर हो गया हो जैसे । लिखने के लिए जितनी कोशिश और खाली समय मिल सकता था, वह सब ‘देखने’ में बिता दिया । क्या देखा को ‘कूड़ा’ नहीं कह रहा । खुद से चुनने के बावजूद बहुत सारी फिल्में और ओटीटी का मसाला बर्बाद करने की कूवत रखता है । बर्बाद मैं नहीं वक़्त हुआ । जिस मोहलत में बहुत सारी बातों को कागज़ या ऐसे बैठे हुए कहीं न कहीं आ जाना चाहिए था । जहाँ समय को रोकने की बात एकदम बकवास बात थी, वहाँ घड़ियाँ खरीदकर भी क्या हो जाना है । यह चौथी या पाँचवीं वर्ड फ़ाइल है, जिस पर बहुत लंबा बैठकर अपने मन को खाली करने की गरज से आया हूँ । होता मेरे से कुछ नहीं है । बस सोचता रहता हूँ । सोचता रहता हूँ, लिख लेना चाहिए । लिखने से ही कुछ-कुछ बचा रहेगा। जो घड़ियाँ यहाँ लग जाएंगी, उन पर लौट कर आया जा सकता है । कभी भी । जब मन करे । जिस ‘देखने’ की बात ऊपर आई है, उसमें दूसरों की कविताओं को भी शामिल माना जाए । यह कवितायें क्यों लिखी जा रही हैं, इसका जवाब उनसे कोई नहीं मांगता, जो इन्हें लिख रहे हैं । सभी को मिलकर उनसे पूछना चाहिए । वह क्यों लिख रहे हैं । कवितायें इसलिए भी पढ़ पाना आसान है क्योंकि वह कम समय लेती हैं । अंदर उतारने में भी उतना कम समय लगेगा, कहा नहीं जा सकता । वह बहुत देर बाद किसी आहट की तरह बनी रहे, यही सोचता रहता हूँ । दिक्कत तब होती है, जब लिखने वाला भी इसी कम समय की मोहलत में इसे लिख दे । ऐसा क्यों है, और ऐसा क्यों हो गया कि सब एक ही मनः स्थिति की कविता लिखते हुए लग रहे हैं । सबकी भाषा एक तरह से अमूर्त होती चली गयी । क्या यह वही प्रभाव है, जिसमें वह जैसा पढ़ रहे हैं, उससे बाहर आए बिना वह लिखने लगे । हर उम्र का एक खास दबाव है । जिस सामाजिक संरचना वाले समाजों में हम रहते हैं, वह कमोबेश एक जैसे साँचों में सबको ढाल रहे हैं । उसमें प्रेम और नौकरी के दबाव और पिता की उपस्थिति को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता ।यह सारी कविताएं भले अलग-अलग लोगों ने लिख दी हों । उन्हें अलग-अलग शीर्षक लगा दिये हों । पर अगर किसी के पास वक़्त हो तो वह इन्हें एक जगह इकट्ठा करके इन्हें इनके कवियों कवयित्री से अलग कर दे तब क्या यह पहचाना जा सकता है, यह कोई एक कविता नहीं है । इसमें बहुत सारी कविताओं को एक साथ मिला दिया गया है । इन रूखी हुई पंक्तियों से बिम्ब एक सिरे से गायब हो गए हैं । भाषा की तुकबंदी की इस घटिया वापसी पर कुछ न कहना ही ठीक है । अँधेरा रचती हुई यह कविताएं कितनी दूर तक देख पाएँगी, यह (भाड़े के) आलोचक देख नहीं पाएंगे ।

 सोचा था, मुझे किसी ने आलोचक के रूप में नियुक्त नहीं किया है । क्या यह काम मुझसे हो सकता है? अदनान कफिल के कविता संग्रह को पढ़ गया । कुछ कविताएं बहुत बढ़िया लगीं । जिस पर उन्हें भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला, उससे बेहतर और बड़ी कविता पुन्नू मिस्त्री लगी । मन हुआ, इस कविता को अपनी आवाज़ में कैमरे पर बोलता हूँ । इस खयाल के आ जाने के बाद ही मेरा स्वनियुक्त कवि आलोचक बनने का ख्वाब टूट गया । 

इस एक साल में ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो ऐसी ही अधूरी छोड़कर आगे बढ़ गया हूँ । मन न लगने के बजाए एक साथ इतने सारे काम कर लेने की चाहत ही इसकी एक वजह दिखाई पड़ती है । जैसे अभी ठीक ठाक पाँच सौ शब्द लिख चुका हूँ, कि मन कर रहा है, एक पत्रिका के जनवरी वाले अंक को मेज़ के नीचे इकट्ठा हो गए ढेर में से ढूँढ निकालूँ । एक मन कर रहा है, सोपान भाई की किताब जल थल मल को पढ़ जाता, तो क्या बात होती । पिछले अक्टूबर जबसे पीएचडी जमा करवाई है, तब से यह ख़्वाहिश रह रहकर ऊपर आ जाती है और अदना-सा मैं इस काम को टालता रहा हूँ । कुछ भी तो कायदे से होता लग नहीं रहा है । इसमें सबसे बड़ी दिक्कत शुरू से ही मेरी पकड़ में थी ।

 मेरी बड़ी-सी मेज़ और दीवान वहीं छूट गए । जहाँ से चलकर ‘यहाँ’ आ गया हूँ, यह मेज़ नहीं है । वह दीवान भी नहीं है, जिस पर बैठा हुआ घंटों बिता दिया करता । यह मेज़ ही ख्वाबगाह थी । आज तक जितना भी लिखा, वह उसकी पीठ पर ही रखकर लिखा । मेज़ क्या छूटी, जैसे लिखना मन से छूट गया । वह रह गया, वहीं ऊपर वाले कमरे में । जहाँ स्याही भरते हुए हाथ में रौशनाई लग जाती । कितना अरसा हुआ उस नीली शफ़ाक़ स्याही को बालों में पोंछे हुए । सब जैसे मेरी आँखों के सामने धुंधले से साफ हो गया और फिर धुंधला हो गया । वहाँ था, तब भी पढ़ तो खाक ही रहा था । किताबें धूल में रिसी हुई सामने पड़ी रहती थी । बस एक यही लिखना तो था, जो काम नहीं लगता था । ठीहा पिछले साल मई में उठ गया । जिस जगह को चौदह साल से बना पाया था, वह आईने की तरह टूट गया ।

 जो छोटे-छोटे टुकड़े मेरे हाथ में अभी हैं, उनके सहारे कभी-कभार लिखने की कोशिश कर लेता हूँ । कागज़ पर हिम्मत अभी भी नहीं हुई ऐसा नहीं कह सकते । यह वही फुर्सत वाला नुक्ता है, जो तिल की तरह मेरी गर्दन और हाथ की उंगली में शाया है । कैसे लिखें, यही सोचता रहता हूँ । उस बरसाती जैसे अकेले कमरे में बैठा हुआ, जब भी अक्स दिखाई दे जाता है, तब-तब मन करता है पर सुकून चाहिए । बहुत सारा । ऐसा इतमीनान, जिसमें घंटों बैठे रहने, कुछ न करने की फुर्सत हो । कोई टोके न । कोई पास आकर छू भी न जाये । क्या ऐसा वक़्त मिला मुझे ? मिलता तो लिख न चुका होता, यह सब । फिर बात यह भी थी, जब कुछ ऐसा कोना मिला, तब टाल दिया । टाल दिया कि अभी लिखने बैठा तो बात पूरी हो पाएगी नहीं और छोड़ कर जाना पड़ेगा । इस चक्कर में कुछ भी कह पाना संभव नहीं हुआ ।कभी लगता, खुद को कभी धान नहीं बना पाया । बियाड़ को एक जगह से दूसरी जगह लगा देने पर ही धान होता है । मैं शायद इसे ‘उखड़ना’ ही कहूँगा । जहाँ बचपन से लेकर पिछले साल तब का सारा जमाना बिता दिया, वहाँ से चल पड़ना ऐसा ही है । महीनों किसी काम में मन लग पाना, उस मन को जगह पर रख पाना मेरे बस में नहीं था ।

 जिस मंजिल पर अभी बैठा हूँ, उस कमरे की एक खासियत इस गर्मी में बहुत महीन आँख से देखने पर नज़र आई । अभी दो तीन दिन पहले की बात है । नीचे दूध लेने उतरा तो इस कमरे की दीवारों को नीचे से देखने लगा । इसकी नंगी पीठ सारा दिन सूरज को अपने ऊपर लिए फिरती है । सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आया तो इस दीवार को छुआ । आग से कुछ कम ही इसका स्पर्श रहा होगा । यह छुअन उस कमरे के ताप सी लगी । शायद यही वजह है, अभी लिखने बैठ गया हूँ । मन है, जो इतनी बार कहने को हुआ, जिसे नहीं कहा, उसे कह दूँ । बहुत सारी बातें तरतीब से आयें, इसकी कोई कोशिश नहीं करूंगा, ऐसा नहीं है । पर कोई कायदा न बन पाया, तब भी कोई बात नहीं ।

 यहाँ इस कमरे को बैठक की तरह इस्तेमाल करेंगे, यह बहुत पहले से तय था । इसका ढाँचा कुछ इस तरह का है । उजाला सारा दिन बिना ट्यूब जलाए आता है । बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ हैं । खिड़कियों के बीच दरवाजे से वह दिशा दिखाई देती हैं, जहाँ रोज़ सूरज डूब जाता । इस डूबने के साथ ही उन शुरुवाती दिनों में खिड़कियों और दरवाजों को बंद करके बैठा रहता । आसमान देखने के लिए बाहर जाते ही अंदर सैकड़ों मच्छर एक साथ घुस जाते। उनके साथ कमरे में बैठ पाना मेरे बस की बात नहीं थी । कई दिन अँधेरा होने से पहले यही तरकीब आजमाई । मच्छर घुस न जाएं, इसलिए दिन में भी डर बैठा रहा । इसमें हुआ यह कि दीवारों के बीच खुद को अकेला बैठा हुआ बुत लगने लगता । कोई नहीं होता। मच्छर होते । यही इसी ‘लैपटॉप’ की स्क्रीन पर कोई फिल्म होती। तुम्हारा साथ होता।

 यह दृश्य मुझे बार-बार अपनी तरफ खींचता है । शायद यही अकेला भाव हो, जो मुझसे यह सब लिखवा गया है । यह कमरा जेल से भी बदतर लगने लगा था । जेल मेरी समझ में वह जगह है, जहाँ कैदी को आसमान देखने की इजाजत नहीं होती । अगर वह देख पाता, तब भी वह उसमें, वह मायने नहीं भर पाएगा, जो वह तब भरा करता होगा, जब वह उस क़ैद से बाहर खुले आसमान के नीचे भरता होगा । वह यहाँ अँधेरे में नितांत अकेला बैठा हुआ है । कोई भी बात करने वाला नहीं है । उसकी चुप्पी दीवारों से टकराकर उसमें वापस जाना चाहती है । उधर वह उस चुप्पी को अपने भीतर दोबारा लेने की इच्छा से भरा हुआ नहीं है । ऐसी स्थिति में चुप्पी भी उसके साथ कमरे में चक्कर काट रही होती है । वह कोई अंतेनीयो ग्रामशी नहीं था । उसके पास नोटबुक नहीं थी । उस कमरे में वह चुप्पी इस तरह घर कर गयी, जैसे वह उसके साथ ही पैदा हुई थी । कमरे की खिड़की उसे खुद बनानी होगी । कोई उसके लिए बनाकर नहीं देगा ।

 ऐसा लगने से बाहर आने में बहुत वक़्त लग गया । यह छिटक कर बहुत दूर आने की पीड़ा मवाद की तरह दिमाग में रिस रहो हो जैसे । इसे अपनी त्वचा से पसीना बनाने के लिए बीच-बीच में कुछ लिखने की कोशिश करता रहा । बहुत खराब इसी में लिखा । एक गद्य में बहुत भारी और जटिल वाक्य संरचना लिए हुए कविता लिखी- ‘दिल्ली मेट्रो की एक दोपहर’ । इस दोपहर वहाँ उस स्टेशन पर उतर गया था, जहाँ से मेरा हर सफर शुरू होता था । अब वह सफर का एक बिन्दु बनकर रह गया था । कविता कभी कहीं भेज दूंगा, शायद वह छप जाए । तब भी उस मनः स्थिति से बाहर आ पाना मेरे लिए इतना आसान नहीं है । जो छूट गया, उसे बार-बार देखना तोड़ देने की हद तक ले जाता है ।हम दो ही तो हैं यहाँ । अकेले । हमारे सिवा कोई नहीं था । जिस कमरे में होते, हम दो होते । तुम्हारा साथ देने के लिए मैंने अपने लिखने को किनारे कर दिया । तुमने भी मेरा साथ देने के लिए अपना हर काम बहुत देर-देर तक टालना शुरू कर दिया । इसी में दोनों साथ रहे । परछाईं की तरह । इस परछाईं की तरह जो साथ था, उसमें आसमान छूटने को भूल पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल काम है । यह काम ही है जो मुझे यहाँ आकर करना पड़ा । इसकी वजह छत थी । ऊँचाई से मुझे डर नहीं लगता पर जब सच में आप के घर के दोनों तरफ कोई और घर न हो, तब चौथी मंजिल से नीचे झाँकने पर डर लगना लाज़िमी है । ऊपर से हर बार छत पर जाने पर यह एहसास होता मिस्त्री ने एक-एक रद्दा ईंट और लगा दी होती, तब छत की चार दीवारी थोड़ी और ऊंची हो जाती और डर दीवार से थोड़ा और दूर खड़े होने पर कम लगता । बहरहाल, डर कम नहीं हुआ । दीवार के किनारे खड़े होकर नीचे देखना बहुत कम कर दिया । इस सबमें छत पर आना जाना कम किया, नीचे बंद कमरे में बैठे हुए लगता, अगर कहीं काला पानी की सजा होगी तो वह ऐसी ही होती होगी । घुटन भरी । अकेली । गरम । यह जेल आसमान, उसकी ऊंचाई की अनुपस्थिति का मेरा अनुवाद है । जिसे पहली मर्तबा लिखने की कोशिश कर रहा हूँ । आज पता नहीं क्या है, इस बात को घुमा घुमाकर लिखने का बहुत मन कर रहा है । सब वहीं हैं और वहां से गायब भी है जैसे । जैसे कोई तुकबंदी हो जो तुक के साथ खत्म ही न हो रही हो ।

 यहाँ आकर इंतज़ार को नए अर्थ मिलने वाले थे, यह आने वाले समय ने बताया । उसकी कई-कई किश्तें हो जाने वाली थीं । नींद सुबह पूरी नहीं हो सकती क्योंकि रात देर से सोने गए । इसलिए उठ जाओ । दोपहर काम से जल्दी घर नहीं लौट सकते क्योंकि बीच में कई सारे स्टेशन पड़ते हैं । उन्हें पार किए बिना घर आ नहीं सकता । वापस देर से आए इसलिए वापस आकर खाना खाने में देर । खाना खाकर सोने में देर । सब चीज़ें एक-एक दूसरे पर इस तरह आश्रित होती गईं हैं कि इस इंतज़ार में खीज, झुंझलाहट, उतावलापन, बेसबरी, उकताहट सबकुछ थोड़ा-थोड़ा आकर मिल चुका है । इसकी आदत चाहकर भी नहीं डालना चाहता । जब नींद पूरी नहीं होती है, तब आँख की कड़वाहट पलकों को भारी कर देती हैं । इसके बावजूद खुद को उन सबकी तरह बदलता हुआ देखता हूँ, जो मोबाइल स्क्रीन के सहारे इतनी बड़ी-बड़ी दूरियों को पाट ले जाते हैं । कोई कितना भी कहे, वह उस दूरी को रोज़ एक तरह से लोगों को देखते हुए उनकी हरकतों को नोट करता हुआ झेल नहीं सकता । हर दिन कम से कम दो बार वही मेट्रो स्टेशन आएंगे ।

 लोगों में जो रोज़ चलते हैं, उनके तय पैटर्न हैं । सीटो के लिए हुज्जत । सीट मिल जाए इसके लिए ताक में हमेशा रहते हैं । लड़के लड़कियों का एक दूसरे को छोड़ना । शादीशुदा लोगों में कुछ का एक दूसरे में खोए हुए रास्ता काट जाना या उनका अपने-अपने तरीके से मोबाइल का इस्तेमाल करते हुए स्टेशनों को गिनना । सब कुछ तो सामने हैं । बूढ़े लोग सबसे ज़्यादा असहाय इन मेट्रो रेलों में हैं । वह चाहते हैं, तवज्जो उन्हें मिले । अगर वह समाज को बदलने के लिए अपनी जवानी में कुछ करते तो यह दुनिया शायद कुछ और रहने लायक बन पाती । हर बूढ़ा अपने आपको ढोता हुआ, चाहते न चाहते सफर में है । कुछ लोग मेरी इस बात बिदक चुके होंगे । उन्हें ठहर कर सोचना चाहिए, क्या वह कुछ ऐसे लोगों में और कल के ऐसे बूढ़ों की जमात में तो शामिल नहीं होने जा रहे, जो इस दुनिया को थोड़ा काबिल-ए-बर्दाश्त बनाने में अपनी हस्ती को देख नहीं पाते । सब उसी तरह के रिश्तेदार हैं, जो आपस में चुगलियाँ करते हैं । दूसरा घर उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाता । अपना नहीं । मेरा मन कभी किसी के लिए सीट छोड़ने का नहीं करता । मैं बैठा रहता हूँ । अव्वल तो वह जिद करते हुए जिन सीटो के लिए बोलने लगते हैं, वहाँ बैठना फिजूल है । फिर खालिस उपभोक्तावादी नज़रिये से सोचता हूँ, जितनी दूरी हम दोनों तय करेंगे, उसके लिए हम दोनों समान रुपये का टिकट खरीदकर यात्रा कर रहे हैं । तब क्या हम दोनों नहीं चाहेंगे, हम बैठ कर यात्रा करें । इस एक साल में सीट के लिए पहले आओ, पहले पाओ का नियम बिलकुल ठीक लगता है । इसके बाहर कोई बात सोचना ‘संस्कृति’ है । किसी के लिए कोई अपनी फितरत भला कोई क्यों बदले । ऐसा साल भर के मेट्रो सफर ने मुझे ऐसा कर दिया है । इसमें मेरा क्या दोष । जिन उम्रदराज लोगों के लिए मेरे अंदर थोड़ा भी सम्मान है, वह सीधे तौर पर या तो मेरे परिवार से हैं या उन्हें बचपन से जानता हूँ । उनके प्रति यह सम्मान, उनकी बड़ी आयु के बजाए, मेरा भावनात्मक लगाव अधिक है । जिस व्यक्ति को मेट्रो के कुछ देर के सफर में मिल रहा हूँ, उसके प्रति जितना भी चाहूँ, वह भाव तो मेरे अंदर आने से रहा । जो उन अपरिचित चेहरों को देखते ही तुरंत अपना व्यवहार बदल लेते हैं, वैसी मशीन मेरे पास नहीं है । मशीन ही ‘ऑन’ होने पर फ्रिज, एयर कंडीशनर जैसा बर्ताव कर सकती है । मेरी फितरत इतनी जल्दी बदल नहीं पाती । जो इस बात पर मुझे कुछ कम इंसान मानने की ओर झुके जा रहे हैं, वह मुझे कुछ कम इंसान ही माने । मेरे लिए साझे अतीत का होना बहुत ज़रूरी है । जिसके साथ सहचर्य नहीं, उस अपरिचित के लिए इससे ज़्यादा अभी नहीं सोच पा रहा । 

 बहरहाल, बात इंतज़ार की चल रही थी । यह दूरी पहले इंतज़ार और बाद में सीट के लिए कब बदल गयी, नहीं पता चला । बिना सीट के भूख जल्दी लगने लगती है । खड़े-खड़े पैर दुखने लगते हैं । ब्रेक लगने पर हर बार आगे पीछे होने और उस शीशे पर अपना बोझ डालते हुए सफर करना इस कदर हावी है कि बात कैसे इंतज़ार की इस तह को सामने खोलने लगी, यह मेरे अख़्तियार से बाहर की बात है । सुबह नींद को अधूरा छोड़ कर इसलिए तो नहीं उठा कि घंटा भर खड़े-खड़े दिल्ली के एक कोने से दूसरे कोने तक जाना पड़े ? बैठने का एक फ़ायदा यह भी है कि सीट मिलने पर आप उस भ्रम में जी सकते हैं कि जो नींद बिस्तर पर छूट गयी है, उसे पलकों को बंद कर इस दूरी में पूरा कर सकते हैं ।

 इस एक साल में यह बात भी पता चली कि मेट्रो के डिब्बा नंबर सात और आठ में सबसे कम ठंडक होती है । यह रेल का ड्राइवर अपने मन से करता है या कोई सेंसर लगा है, वह दिल्ली मेट्रो जाने । मुझे राजीव चौक से दोपहर के एक बजे भी अक्सर इन दो डिब्बों में ही सीट मिल पाती है । इसलिए इन डिब्बों के बारे में यह बात दिखाई दी । जब मेरा स्टेशन आ जाता है, तब घर तुम्हें फोन करता हूँ, बस ले ली है । सात-आठ मिनटों में पहुँचने वाला हूँ । इस फोन का इंतज़ार तुम सुबह से करती हो । दोपहर लौटूँगा, तो साथ खाना खाएंगे । इस दरमियान में चावल पक जाते हैं । मैं मुंह-हाथ धोकर खाने के लिए बैठ जाता हूँ । सोचता हूँ, खाना खाकर सुबह वाली नींद पूरी कर लूँगा । यही इंतज़ार सबसे ज़्यादा अखरने लगा है । यह इतने पर खत्म हो जाता तो क्या बात होती । इंतज़ार के साथ, दो का जोड़ कितना भी सुंदर हो, दो लोगों को खाली तो ज़रूर करता है । उन्हें और लोग भी चाहिए । वह चाहे फोन पर हों या ज़िंदगी में साथ रह रहे हों । उनका होना दिन को आसान बनाता है । हम दोनों यहाँ इंतज़ार करते हैं, कोई आए । घर को उसके लिए तैयार ही कर रहे हैं । अभी कमरे ठीक से जंचे नहीं हैं । फिर भी चाहत है । चाहत का कोई कुछ नहीं कर सकता । ले देकर एक कमरा है, जिसे हम सोने के लिए इस्तेमाल करते हैं । एक यह, जिसमें बैठ कर सुबह से लिख रहा हूँ । एक कमरा और है, जिसने अभी स्टोर रूम की भूमिका ओढ़ रखी है । जब कोई आता है, तब उसी खोह में से गद्दे , रज़ाई और तकिये निकाले जाते हैं । उसमें धूल नहीं पर धूल की तरह लगने वाला ऐसा बहुत सा समान पड़ा है, जो समय-समय पर अपनी याद दिलाता है । इसी में किताबें, बर्तन, कुर्सी, रद्दी अखबार सब पड़ा हुआ है ।

 साल भर में ऐसा उंगली पर गिनने लायक ही हो पाया है, जब कोई यहाँ आया हो । वह जब आएगा, तब घर को कैसा दिखना चाहिए, हर दिन हम दोनों उसी तैयारी में लगे रहते हैं । उनके आने का कोई तय दिन नहीं है । इसलिए हमारा हर दिन उस तैयारी में बीतता है । जब वह अचानक सामने आ जाएंगे, तब उनके लिए यह घर कैसा होगा? वह इसकी किन स्मृतियों को अपने साथ ले जाएंगे । घर का फर्श, दीवारें, सीढ़ियाँ, छत, खिड़कियाँ, आसमान सब कुछ तो हमारे बस में रह भी नहीं पाता । हम खुद भी कहाँ अपने बस में हैं । सब इन कमरों के खालीपन सा अंदर घर कर जाता है । मैं तो फिर भी घर से निकलने की फ़ेहरिस्त में आगे हूँ, तुम तो इसी में हवा की तरह तैरती रहती हो ।जब शुरू-शुरू में यहाँ आए, तब सबसे ज़्यादा फर्श पर हमारा ध्यान गया । यही वह शख़्सियत है, जो सबसे ज़्यादा याद रह जाती है । चप्पल जूते उतारकर जब कोई एक कमरे से दूसरे कमरे में जाएगा, तब इस फर्श की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी । इस पर जो धूल नामुराद की तरह बिखरी हुई है, वह कैसे हटाई जा सकती है, यही जुगत सबसे पहले भिड़ाई गयी । एक दिन निकाला गया । पहले फूल झाड़ू से धूल के कणों को इकट्ठा किया गया । उसके बाद फर्श को पानी से थोड़ा गीला किया और उस पर सर्फ डाला । सर्फ डाल कर सींक झाड़ू से उसे फर्श के ऊपर सख्त हाथों से फेरा गया । जैसे नाई बाल काटते हुए कभी नर्म और सख्त हाथों का इस्तेमाल करता है बिलकुल वैसे हम दोनों से फर्श की हजामत और चंपी दोनों एक साथ की । यह बात अब अतीत का हिस्सा है कि फर्श कहीं-कहीं अपने पास बहुत ज़्यादा पानी इकट्ठा कर लेता था, जिसे निकालने में काफी मशक्कत करनी पड़ी । फर्श की सफाई के बाद जाले हटे, सीढ़ियों को चमकाया गया । खिड़की पर लगे जंगलों की धूल हटाई गयी । कुछ वक़्त बीतने के साथ घर कुछ-कुछ हमें भाने लगा । जब भाने लगा, तब सोचा गया, अब अपने मित्रों को बुलाया जा सकता है । घर वाले भी आएंगे तो उन्हें लगेगा, अब घर कुछ और रहने लायक हो गया है । वह इस बात को दोबारा कहेंगे- जब रहो, तभी घर-घर जैसा बनने लगता है

 मेरे लिखने और आपके पढ़े जाने के बीच में अभी बहुत-सी जगह रह गयी है, जिसे चाह कर भी भर नहीं सकता । ऐसी-ऐसी शामें और उसके बाद आई रातों की बात कह पाने में शब्द नाकाफ़ी लगते हैं । यह अनुभव जब बीत रहे थे, तब इन्हें लिख पाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी । आज देखता हूँ तो लगता है, लिखने वाली फुर्सत कभी नहीं बन पायी तो यह दर्द अंदर कम रिसता है अब । वक़्त वह भी था, जब पीलिया होने से काफी पहले मुझे बहुत अरसे तक यही लगता रहा कि भूख इसलिए कम हो गयी है क्योंकि बचपन वाला घर छूट गया । सब घर वाले वहीं हैं और मैं यहाँ आ गया । मन उचट जाने के लिए यह अकेली वजह काफी लगने लगी थी । जो खाता, कम खाता । कम खाने को मन से जोड़ देता । मेरी ‘पायथागोरस थियोरम’ यहीं आकर पानी भरने लगती थी । इसी में एक रात ऐसी आई, जब सारी रात पित्त की उलटी होती रही या उलटी जैसा मन बना रहा । एक करवट लेटता, तो लगता दूसरी करवट ठीक थी । थोड़ा पानी पीता तो पाँच मिनट में वह बाहर आने के लिए मचलने लगता । पेट में असहनीय दर्द । बेचैनी । अभी यहाँ आए हुए जुम्मा- जुम्मा महिना भर भी नहीं हुआ था कि मेरा मन यहाँ से जाने के लिए भाग रहा था और अब यह हालत।

 कुछ भी समझ नहीं आ रहा था और भूख न लगने वाली बात भावनात्मक रूप से कमजोर तो कर रही थी लेकिन इस  संवेदना में इससे अलग कोई अर्थ और भी हो सकता है, इस ओर ध्यान ही नहीं गया। लगता कि घर का घी पुराना हो गया है । तेल का सामान कम खाना चाहिए । उन दिनों से पहले कुछ-कुछ शारीरिक परिवर्तन संकेत कर रहे थे पर उन्हें नज़रअंदाज़ ही करता रहा । मेरी नाक जबकि बहुत पहले से बता रही थी, कुछ गड़बड़ है । नजफ़गढ़ नाले का पानी और वहाँ बहती हुई महक । उन दिनों मुझे उस महक में नमक की मात्रा कुछ ज़्यादा लगने लगी । नाक में यह हवा एकदम कपूर या लोबान जैसे घुसती और अंदर तक उसकी प्रकृति को मेरे सामने खोलने का प्रयास करती । आटा पुराना है । रोटी ठीक नहीं बन रही । परेठा किनारों से कच्चा है । सब बहाने एक-एक कर सतह पर आने लगे । अरहर की दाल ठीक नहीं है । खिचड़ी बनाओ । रात में दूध नहीं पीऊँगा । पता नहीं क्या-क्या और कहा होगा उन दिनों । 

फिर एक दिन आया, जब सुबह से लेकर दोपहर तक हम फर्श को डिटरजंट डाल कर पानी से उसे धोते रहे । इस सब में टंकी खाली कर दी । तब जाकर संगमरमर संगमरमर लगा । लगा, अब रंग निकल कर आया है । अब जब सब आएंगे, तब कहेंगे, चमक रहा है । इस शाम मुझे पेट में दर्द हुआ । हमने वैद्यजी से पूछा, वह आयुर्वेद के साथ-साथ एलोपैथिक दवाइयों के कुछ जानकार थे । उन्होंने दोनों के साथ चलने की हमारी बात मान ली । बहुत परेशान रहा । पर एक रात के बाद दर्द पर काबू हो गया । लगा, सब कंट्रोल में है । इसी नियंत्रण की स्थिति में कानपुर हो आया । गाड़ी से। रास्ते में चार पाँच पूड़ियाँ खाईं, तो लगा घर छूटने का ही असर था। देखो कैसे बाहर आते ही भूख ठिकाने पर आ गयी है। कानपुर में जहाँ ठहरे, वहाँ भी ठीक ठाक खुराक के साथ खाना खाया । आगे कोंच पहुंचे, वहाँ भी जो सामने आया, उसे खाते रहे । लगा ही नहीं के जो परेशानी यहाँ रहते हुई थी, या हो रही थी, वह कभी थी । घूम घामकर बुद्धू की तरह दिल्ली लौटना था, लौट आए । फिर क्या हुआ मेरी स्मृति कुछ साथ दे नहीं रही है । सब कुछ उस याद में उलट-पुलट कर रह गया है । इसके बाद वही रात याद है, जब पेट पीठ से चिपक गया था और वैद्य जी ने तुम्हें मेरे तलवों में सरसो का तेल मालिश करने को कहा था । ताकि मुझे कुछ देर के लिए नींद तो आ जाए ।

 इस प्रकरण से कुछ सूझा हो या कुछ भी समझ न आया हो, बस यही बात समझ आई, अपना डॉक्टर नहीं छोड़ना चाहिए । हमारे डॉक्टर भसीन । अब जो डॉक्टर हैं, वह हमारे बचपन में युवा ही लगते थे । तब उनके पिता से कितनी बार हम सब दवा लेकर आते । उस वक़्त जब मैंने भाई के गाल को नाखून से नोचकर जख्मी कर दिया था, तब भी उनके पिता ने ही उसे देखा था । मैं बाहर खड़ा रो रहा था । भाई अंदर रो रहा है । मुझे उसे देख कर रोना आ गया । वह निशान अभी भी उसके गाल पर है । वह डॉक्टर सर्दी हो या गर्मी बहुत बड़े से एल्यूमिनियम के गिलास में लस्सी ज़रूर पीते थे । अब वह नहीं हैं । उनके बेटे हैं, जो हमसे बहुत बड़ी उम्र के हैं । उन्होंने पहले एक खून जाँच करवाई और पीलिया की दवाई शुरू कर दी । जिसे हम गैस समझ रहे थे । जिसकी वजह से पेट से पानी बाहर निकलता जा रहा था, उसकी वजह पीलिया थी । एक ने तबीयत ठीक हो जाने के बाद कहा- हैपीटाइटस बी का टीका लगवा लो । मैंने कहा- डॉक्टर से पूछकर देखूंगा । इस बीच मेरा ध्यान डॉक्टर गांधी की दी गयी दवाइयों की तरफ भी जा रहा है । कुछ साफ-साफ अंतर कर पाना अब मुश्किल है कि पानी की वजह से जो रोग मुझे हुआ था, जिसे पेट में गैस जैसा समझा जा रहा था, वह इस पीलिया के बाद हुआ या पीलिया के पहले या यह भी साथ-साथ किया गया एक इलाज था । 

 इस सबके बीच पानी का फ़िल्टर लगवाने की बात चली । वह आज तक नहीं लगवाया । उसके लिए पानी का कनेक्शन चाहिए । उसके लिए कोशिश नहीं की । एक मंजिल पर नगर निगम का पानी आता है । वहीं से दो स्टील की बाल्टियों में भर लाता हूँ । पहले दिन से यह क्रम आज तक चलता रहा है । निचली मंजिल से दो मंजिल ऊपर पानी लाकर देखिये । दस-दस लीटर की बाल्टियाँ हैं । कुछ कार्बोनेटेड पानी वाली दो-दो लीटर की बोतलें भी होती हैं अक्सर । उन्हें भी पानी से लबरेज कर लेते हैं । बस इसमें एक चीज़ बदल गयी है । अब हम दस-दस लीटर वाली बाल्टियों में एक डेढ़ माशा फिटकरी डाल दिया करते हैं । नीचे वाले अंकल ने बहुत बाद में जब तबीयत बिगड़ कर सही हो गयी, तब बताया कि वह तो बहुत पहले से फिटकरी डाल कर पानी को साफ कर लेते हैं ।

 अब जबकि वह बता चुके थे कि फिटकरी डालने से पानी साफ हो जाया करता है, मेरी पहली प्राथमिकता थी, फिटकरी खरीद कर लाना । वह लड़का जो आठ साल पहले दुबला पतला और छरहरा था, वह अब तंदुरुस्त हो गया था । दुकान इसी लड़के की थी । नीचे वाली आंटी इसे ही लाला की दुकान वाला लड़का कहती हैं । हंसमुख लड़का है । इस जगह का पहला ऐसा व्यक्ति, जिससे मैंने बात करना शुरू किया था । कितनी बात? जितनी उसकी दुकान पर सामान लेते हुए हो जाए । बस उतनी ही । इसी दुकान पर गया था फिटकरी लेने । फिटकरी अभी भी यहाँ नाई दाढ़ी बनाने के बाद ‘आफ्टर शेव’ की तरह इस्तेमाल करते हैं, यह दोबारा पुख्ता हुआ पचास ग्राम फिटकरी की बट्टी, दस रुपये की मिली । अंकल को दिखाई, उन्होंने कहा, यह खाने वाली फिटकरी नहीं है । अब क्या हो ? खरीद कर तो ले आया । वापस करने नहीं गया । तब भी फिटकरी तो चाहिए । कहाँ से मिलेगी ? इसी उधेड़बुन में गोल मार्केट वापस याद आया । ‘कश्मीर स्टोर’ से जाकर फिटकरी ला सकता हूँ । वहाँ से किलो भर फिटकरी ले आया । एकदम पारदर्शी तो नहीं पर नमक के ढेले जैसे बचपन में चाचा की दुकान पर देख रखे थे, बिलकुल वैसे ही थे । अब जाकर छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ कर पानी में डालने की तरकीब पता चल चुकी थी । इसके बाद पानी काँच की तरह रोज़ चमकता हुआ स्टील की बाल्टी में देखता हूँ तो दिल्ली की नदियों की याद नहीं आती ।

 इसी दुकान वाले लड़के से बात होती रही और एक मर्तबा बात बारिश पर जाकर टिक गयी । वह कहने लगा- यहाँ बारिश नहीं होती । सब जगह होती है, यहाँ नहीं होती । बारिश न होने की सबसे बड़ी वजह उसने नाले को बताया । नाले के पार बारिश होने की संभावना बहुत कम है । क्या इस वजह को कभी वैज्ञानिक तथ्य की वैधता मिल पाएगी ? कहा नहीं जा सकता । फिर भी मुझे लगता है, पालम हवाई अड्डे के बिलकुल पीछे इस जगह का तापमान दिल्ली के और इलाकों की वजह से अधिक गरम रहता होगा पानी के बादल इतनी गर्मी में कितनी देर तक उसे झेल सकते हैं? विमानों से निकलने वाली ऊष्मा और उसके नुकसान की बात मुख्य धारा वाले मीडिया में आना उतना ही मुश्किल है जितना किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की ‘संसक्रीम’ या ‘फेसवॉश’ के साइड इफ़ेक्ट्स पर कोई खबर आना।

 जब उस दिन मम्मी ने बताया कि घर पर ओले गिरे और इतनी तेज़ बारिश हुई कि कई सारे पेड़ जमीन से उखड़ गए ।  तब हम मेट्रो में थे । राजेन्द्र प्लेस पहुँचने पर काले बादल और धूल भरी आँधी से मिले पर यहाँ आते-आते सिर्फ धूल भरी आँधी बची । बादल कहीं दूसरे रास्ते पर मुड़ गए । पहले हम सिर्फ अनुमान करते थे, कि रिज होने की वजह से वहाँ बरसात ज़्यादा होती है । वैसे यह तो भूगोल पढ़ने वाला सामान्य विद्यार्थी और बारिश को जानने वाला कोई भी व्यक्ति अपने अनुभव से बता देगा, पेड़ पौधे बादलों को अपने पास बुलाते हैं । नदियों के पास सबसे भयानक बारिश ऐसे ही थोड़े होती है । हम जिसे इतने समय से जान रहे थे, देख रहे थे, उसका उस दिन यहाँ घटित न होना, उसी बात को दोहरा रहा था । यहाँ बारिश नहीं हुई । हम उसका इंतज़ार करते रहे । वह नहीं आई । इस साल मई या अप्रैल के एक दो दिन थे, जब हम कूलर पानी भरकर चलाना शुरू कर चुके थे । तब उन दो रातों में हम रात को ओढ़ने के लिए चादर ढूँढ रहे थे । ढूँढने पर भी हमें चादर नहीं मिली थी । ठिठुरते हुए बहुत जद्दोजहद के बाद बस एक चादर मिली ।

 ऐसा नहीं है कि साल भर में यहाँ बारिश नहीं हुई है । बहुत घंटों चलने वाली बारिश हुई है यहाँ । पानी एक ईंटिया दीवार में इतना रिसता है कि वह सीलन बन जाता है । यह मेरे पीठ पीछे जो दीवार है, इस तरह दो ट्यूबलाइटें बरसात में ही फ्यूज हो गईं । दोनों को बाद में बिजली वाले को बुलाकर एलईडी लाइट से बदलवाया । घर की खिड़कियाँ बादल के गरजने पर थरथरा जाती हैं । हवा चले तो काँपने की नौबत भी हमने देखी है । इस बरसात के पिछले मौसम की एक शाम थी । इतनी तेज़ हवा चली कि जो दरवाजा अंदर की हवा को बदलने के लिए खोल रखा था, वह अचानक उस तेज़ झोंके से बंद हुआ कि पीछे की तरफ नई लगाई टाइल धम्म से बालकनी में गिरी । मैं उसे देखने लगा । अच्छा हुआ पीछे गली में कोई नहीं था । इसके बाद तो जो करने की ठानी, वह किसी बुरे सपने की पटकथा बनते- बनते बच गया । इसे लिखते-लिखते भी अंदर सिहरन दौड़ने लगी है । मैंने जीना उठाया और लगा उन दो टाइलों को निकालने, जो हवा से लहराती हुई लग रही थीं । बस एक गलती यह हुई कि वह मेरे हाथ के बल से नीचे गली में जाकर गिर सकती हैं, यह सोच ही नहीं पाया । मैंने एक टाइल किसी तरह निकालने की कोशिश की । वह इतनी भारी होगी, इसी कल्पना नहीं की थी । सीमेंट की वजह से वह अपने वजन को तो तीन-चार गुना बढ़ा चुकी थी । वह मेरे हाथ में आई और पल भर में छिटक गयी । एक क्षण भर की देर से वह नीचे खेल रहे बच्चे के हटते ही जमीन पर गिर कर चकनाचूर हो गयी । इस घटना के बाद तो मैं इस कदर डर गया कि उस दिन को लगभग साल भर बाद भी जैसे तैसे लिख कर निपटा रहा हूँ । उस वक़्त मन में आया, तुरंत अगली सुबह मजदूर आ जाएँ और यह सारी टाइलें निकाल दें । ऐसे सोचा । पापा को बताया । पापा ने कुछ पहचान वालो से बात की । कहीं कोई मजदूर नहीं मिला । सब यही कहने लगे, अभी ‘लॉकडाउन’ में छूट मिली है तो सब दिहाड़ी पर काम करने चले गए हैं । कोई इस काम को हाथ में लेकर अपनी दिहाड़ी नहीं मारेगा । जो कोई तैयार भी हुआ, वह सात आठ सौ रुपये से कम पर काम करने के लिए तैयार नहीं था । इंतज़ार होता रहा । होता रहा । होता रहा ।

 ऐसी स्थिति में जबकि टाइल निकालने के लिए हम किसी को तैयार नहीं करवा पाये, तब करिश्मा हुआ । वह सूक्ति अपने आपको स्वयं सिद्ध करवा गयी, जो जमाना भर पहले, पढ़ने वाले बच्चे, रट जाया करते थे । आवश्यकता आविष्कार की जननी है । इस आविष्कार का नाम रस्सी था । रस्सी बहुत पहले नारियल का पानी पीने वाले लोगों ने बनाकर ताखे पर रख दी थी । वही जब प्लास्टिक की बन गयी, उसे दुकान से खरीद लाया । छह रुपया मीटर के हिसाब से तीस रुपये में पाँच मीटर । उसमें से एक डेढ़ मीटर के करीब रस्सी चाकू से काट ली और कमरे में दाखिल होने वाले दरवाजे को हमेशा के लिए खोलने की शर्त पर दस्तखत कर दिये । जब यह दरवाज़ा खुला रहेगा, तभी पिछला दरवाज़ा खोलने की सहमति पर दोनों दरवाजे राजी हुए । अब दोनों चूंकि अंदर की ओर खुलने वाले दरवाजे हैं तो दोनों दरवाजों के हैण्डलों में रस्सी को बाँध दिया गया । अब इससे हुआ यह कि बाहर बालकनी वाला दरवाज़ा कभी भी कितनी भी हवा चलने लगे, धड़ाम से जाकर बालकनी की तरफ खुलने वाली खिड़की को अपने अंदर समा लेने वाली दीवार पर जाकर नहीं भिड़ पाएगा । जब भिड़ नहीं पाएगा, तब हवा में हिलने वाली टाइलें, जो सीमेंट लगने की वजह से दो तीन गुना भारी हो गयी हैं, वह पीछे वाली गली में लहराते हुए कभी नहीं गिरेंगी ।

 आज मेरे लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि उस वक़्त यहाँ तक सोच जाता था कि यह टाइलें गिरें तो एक साथ गिर जाएँ और यह वक़्त, वह वक़्त हो, जब हम घर पर न हों । लोग चिल्लाएंगे तो चिल्लाएँ । हमें क्या । यहाँ तुम्हारी हिम्मत की दाद देता हूँ कि तुम मेरे डर को जान रही थी, तब भी नहीं घबराई । तुम हिम्मत बनकर खड़ी रही ।

 इतनी सारी बातों को कह देने के बाद भी लगता है, अभी बहुत सारी बातें कही जानी बाकी हैं । जो महसूस होता रहा, वह कभी शायद आ भी न पाये । पर लगता है, वक़्त के साथ सब किसी ‘फ्लैशबैक’ की तरह घटित हुआ था । जिससे हम दूर निकल आए हैं । यह साल भर का फासला ज़्यादा नहीं है तो कम भी नहीं है । जब कुछ न लिखा हो तब तो यह बहुत कम कहा गया माना जाएगा । है भी कम । जिस रफ्तार से लिखने के लिए आदतन बैठ जाया करता था, वह आदत यहाँ साथ बैठने में कहीं पीछे छूट गयी । फिर भी नज़र डालता हूँ तो लगता है, यह शायद कम लिखने का ही सबब था जो किसी ग्रंथि की तरह मेरे अंदर साथ चलता रहा । यह अंग्रेज़ी का गिल्ट ही है, जिसकी वजह से इस एक साल में इतनी सारी डायरियाँ खरीद चुका हूँ कि उस अनुपात में कागज पर लिखना बहुत कम हो गया है । अगर उसे एक सामान्य गति मान कर चलूँ तो पता नहीं आने वाले कितने साल कुछ भी खरीदने की ज़रूरत ही न पड़े । ए-4 शीटों के दस रिम उस स्टोर रूम में एक गत्ते वाले डिब्बे में बंद रखे हैं । वह कब काम आएंगे । कह नहीं सकता । स्टेशनरी में अलग-अलग तरह के पैन खरीदने में महारथ इसी वक़्त सबसे खतरनाक शक्ल अख्तियार कर चुकी है । जैसे कागज़ पर लिखना कम हुआ है, वैसे ही उस पर लिखने वाले पैनों की खपत भी कम हुई है । पर इस बात का मुझ पर लगता नहीं है कोई खास असर पड़ा है । इस अवधि में न मालूम कितने पैन खरीद कर इधर उधर रख चुका हूँ ।

 इन सब बातों को आज बने इस दबाव की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जाना चाहिए । जिसके बूते घंटों बीत जाने के बाद भी लिखता जा रहा हूँ । अभी रात के पौने ग्यारह बज रहे हैं । लगभग छह हज़ार शब्द लिख चुका हूँ । बातें याद करकर तरतीब बेतरतीब कहने की छटपटाहट में बेचैनी बढ़ती जा रही है । लग रहा है, जैसे जितना है, सब कह दूँ एकबारगी । यहाँ आने के बाद यह शायद यह पहली बार है, जब इतनी मोहलत मिली है । यह भी तब हुआ है, जब आज एक भी  फिल्म को देखने के लिए हम नहीं बैठे हैं । मोहन लाल की एक फिल्म लगाई है तो वह एक घंटे बीत जाने के बाद भी सही से चलती हुई लग नहीं रही है । उसे छोड़ दिया है । छत पर साथ गया तो आधे घंटे बाद भाग आया । बेचैनी इसलिए भी है क्योंकि सब पीछे छूट जाने का एहसास अब थोड़ा साफ़-साफ़ दिखने लगा है । भावुकता है । संवेदना है । इस दौरान एक बार भी रोया नहीं हूँ । रोना आया ही नहीं । बस बिखरता रहा हूँ । घंटों सोचता रहा, यह सब कैसे लिखा जा सकता है । इसका लिखा जाना क्यों ज़रूरी है । लिख कर कुछ हो न होपर लिखा जाना चाहिए । पर वह क्षण कब आएगा, इस पर कभी मुतमइन नहीं हो पाया था । बावजूद लिखने का मन बेसाख्ता होता रहा । लौट कर, पीछे मुड़कर देखने का भी एक अंदाज़ यह होना था, पर आते-आते हुज़ूर ने बहुत देर कर दी । इसे देर आए दुरुस्त आए भी नहीं कहा जा सकता । मन में अभी लखनऊ न जाने की कसक रह गयी है । टिकट कैंसिल करवाया है ।

 सोच रहा हूँ, ठहर कर । क्या-क्या कहना बचा रह गया है । बहुत सी बातें होंगी, जो अब रेत की तरह पानी में नीचे बैठ रही होंगी । कुछ बैठने की फिराक में होंगी । अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं, जब उस रात आने में थोड़ी सी देर हुई होगी । सात बज रहे थे, जब मेट्रो स्टेशन से उतरा । बरसात का मौसम था । नीचे आकर देखा । बेतहाशा जाम । गाड़ियों का रेंगना भी दूभर । लगा, मंज़र एकदम थम सा गया है । दूसरी तरफ, जनता पैदल चल रही है । सड़क पर चलने वाली बसों में रेंगने से बेहतर था उसके समानान्तर चलते रहना । देर लगेगी, पर यहाँ रुके रहने से अच्छा है, चलते रहो । थोड़ा कीचड़ ही जूते में लगेगा । उसके छींटे पहनी हुई जींस में जाकर चिपक जाएंगे । सूखने पर झाड़ दो तो वह झड़ जाते हैं । तय हुआ, रुकूँगा नहीं । कोई फ़ायदा नहीं है । चल पड़ा । बौछार अब नन्ही-नन्ही बूंदों में बदल गईं । सिर भीग जाएगा । कोई बात नहीं । जूते चलते-चलते सत्यानास हो जाएंगे ।

 कोई बात नहीं । किसी तरह घर पहुँच जाएँ । उसके बाद इस सबको सोचने की फुर्सत होगी तब सोच लेंगे । कभी भीड़ के साथ, आगे-पीछे, अगल-बगल होते । किसी से टकराते- टकराते बचते बचाते निकलते रहो । उस रात समझ आया, यहाँ जाम लगने की दो बड़ी वजह हैं । पहला नाले से पहले ककरोला मोड़ और दूसरा, नाले के बाद शिव विहार, नांगलोई की तरफ नाले के किनारे से जाती हुई सड़क । इन दोनों की तरफ कोई देखना नहीं चाहता । जैसा चल रहा है, वैसा चलता रहेगा । जाम ही तो है । थोड़ी देर में खुल जाएगा ।

 इस जाम से किसी को कोई परेशानी नहीं है । सब मान कर चलते हैं, अँधेरा होने के बाद यह मिलेगा । अँधेरा होने से थोड़ा पहले और देर हो गयी है तो थोड़ा और रुककर जाने से यह नहीं मिलेगा । लेकिन घर की नाली के लिए आप यह नहीं सोच सकते । हमारे यहाँ बाथरूम चोक हो गया । हमें लगता, नाली में कुछ फंस गया है । एक दो दिन इसी में निकल गए । यह भी ख़याल साथ-साथ चलता रहा, कम पानी से नहाते हैं, तब नाली जाम नहीं होती । जबकि असलियत यह नहीं थी । एक सुबह कपड़े धोते हुए पानी ने नाली के अंदर जाने से मना कर दिया । सबने पूछा – पहले तो नाली चल रही थी । हम दोनों ने कहा- हाँ । तब तो कचरा-वचरा इकट्ठा हो गया होगा । हो सकता है- हम दोनों ने कहा ।

 इसके लिए एक पाउडर आता है, वो रात में डाल देना । उसके बाद सुबह ही गुसलखाना इस्तेमाल करना । रात भर में वह अपना काम कर जाएगा । दस-दस रुपये के दो पैकेट ले आया । एक-एक रात इसमें निकल गयी । तीसरी सुबह तक दो बाल्टी पानी इस्तेमाल करने के बाद वही हालत । कुछ समझ न आए । क्या बात है । क्यों नाली काम नहीं कर रही । क्या किया जाए ? प्लम्बर को बुलाकर दिखा दो । वही मर्ज पकड़ पाए शायद । प्लम्बर मिलेगा कहाँ ? हार्डवेयर की दुकान पर पता करो । वही बताएँगे । दुकान पर गया । उस दुकान वाले ने एक कार्ड दिया । प्लम्बर का नाम और फोन नंबर था । नंबर मिलाया । वह आधे घंटे में आने के लिए राजी हो गए । सुबह-सुबह मेरा ही फोन गया था शायद । वह मोटर साइकिल से दुकान पर पहुँचे । वहाँ से मेरे साथ घर आ गए । बहुत देर तक मुआयना करते रहे । सवाल जवाब के दौर से भी बात बनती हुई नज़र नहीं आई । फ़र्श तोड़कर देखना होगा । गुसलखाने की दीवार पर सीलन है । अब तो फ़र्श को तोड़े बिना काम बनेगा नहीं । उनकी बातें हथौड़े, छेनी, सीमेंट, बालू करती रहीं और हम अड़ गए कि फ़र्श तो नहीं तुड़वाएंगे । हार कर वह किसी तरह राजी हुए । फ़र्श नहीं तोड़ते हैं ।

 फ़र्श न तोड़ने की स्थिति में कैसे पता चले नाली काम क्यों करना बंद कर चुकी है ? थोड़ी देर सोचने के बाद उनकी आँखें चमकी । वह बोले – सोफट (शाफ़्ट) में उतर कर देखते हैं । शायद कोई इलाज मिल जाए । उनके खिड़की से अंदर जाने की देर थी । बीमारी झट से पकड़ में आ गयी । जो एलबो बाथरूम की नाली का पानी नीचे ले जाता था, उसे हथौड़ी से पीटने पर मालूम हुआ, नाली जाम है । पानी नीचे जा ही नहीं रहा है । गड़बड़ यहीं है । कुछ फँसा हुआ है, जो उसे नीचे जाने नहीं दे रहा । इसके लिए एलबो से सीवर पाइप को निकालना होगा । निकाल दीजिये अंकल- मैंने कहा । पाइप को बहुत धीमे-धीमे आड़ा-तिरछा, ऊपर-नीचे, गोल-गोल घुमाने के बाद वह थोड़ा सा खिसकता हुआ बाहर आने के लिए मानता हुआ लगा । उस पर पानी तो पानी है । जैसे ही थोड़ी सी जगह मिली वह बाहर आने पर उतारू हो गया । उसके उतावलेपन में एक बात तय थी कि पानी की मात्रा बहुत है । जितना पाइप की क्षमता है, उतना तो पानी भरा ही हुआ है । एलबो खोलते ही वह प्लम्बर अंकल पर गिरेगा । कैसे गिरेगा, इसका कोई अनुमान नहीं था । जितना भी आहिस्ते से उन्होंने पाइप को बाहर निकाला हो, बाँध के पीछे नकली झीलों में इकट्ठा किए पानी की तरह एकबारगी उन्हें कंधे से एड़ी तक नहला गया । उनके इस नहाने की कीमत हमें चौदह सौ रुपये पड़ी । एलपी, एलबो, नल का टेप, नाली की जाली, सफ़ेद सीमेंट सब अलग से दुकान से खरीदना पड़ा । उस दिन के बाद नाली अविरल बह रही है । ऐसी कई सारी नालियों का पानी नजफ़गढ़ नाले में जा रहा है । जिसके इधर और उधर दो तरह की दुनिया रहती है । हम पिछले साल उस दुनिया से चलकर इस दुनिया तक आ चुके हैं । यह विभाजन जमना पार की तरह इतना गाढ़ा न भी हो पर नाला यमुना की तरह दिल्ली की जीवन रेखा है । कई मर्तबा तो इसमें जमना से ज़्यादा पानी होता है ।

 नाले के इधर जो दुनिया है, वह भी दिल्ली कहलाती है । इस दुनिया में सरकार के दावा करने के बावजूद बिजली कटती है । यहाँ आने के बाद शुरू-शुरू के दिन इसलिए भी मन को बेसबर बनाने वाले थे क्योंकि मौके-बेमौके बिजली कट जाती थी । महीने भर में नौबत इनवर्टर लगवाने की आ गयी । ऐसी जगहों पर बिजली न जाए तब हमारे भारत रत्न जैसे किरदारों और अभिनेताओं को रोजगार कैसे मिलेगा । कैसे चलेगी इन इनवर्टर वालो की दुकान । हमने सचिन तेंदुलकर वाली कंपनी का सामान नहीं लिया । हमें माइक्रोटेक का बैटरा और इनवर्टर पंद्रह हज़ार के पड़े । उसके पहले लगभग इतना ही उस बिजली वाले विनोद को देने पड़े, जिसने इनवर्टर की वाइरिंग की । कितना गोली बाज़ आदमी है । अभी तक नीचे की लाइट ठीक करवाने का एडवांस लेकर गया है, लौटा नहीं है । दिवाली पर इसरार करके बुलाया तब तीन दिन बाद आया । उस सुबह दो एलईडी लाइट लगवाने के एवज में दस रुपये बोहनी के नाम पर ले गया । जब आया, तब नीचे लाइट ठीक करने की बात याद दिलाई, तब भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ ।

 इन सब बातों को एक तरफ़ रखकर उस समय के बारे में सोचता हूँ, जब कोरोना की वजह से देश में लॉकडाउन लगाया गया । यह कॉलोनी आज जबकि कोई पाबंदी नहीं है, तब इतनी खाली रहती है, रात दस बजे बालकनी से झाँकने के बाद सन्नाटा पसरा रहता है, वह तब कैसी रही होगी ? उन गायों को क्या हुआ होगा, जिनके लिए मारुति एट हंड्रेड में सुबह दो चक्कर लगाती गाड़ी रोटियाँ और अनाज ले जाती हैं । यह गाड़ियाँ शुरवात के दिनों में मुझे कितना रोमांचित कर देती थी । उसकी आवाज़ । उस पर फ़िर कभी । यहाँ हर रात गलियों में चौकीदार घूमता है । वह रात भर पुकारता रहता है – जागते रहो । आँख अक्सर ढाई बजे रात को खुलती है, तब सरिया जमीन पर घसीटते हुए उसकी आवाज़ सुनाई देती है । कभी-कभी उसकी आवाज़ के साथ दूर तक साथ चला जाता हूँ । जब वह मद्धिम पड़ जाती है, तब नींद में खोये बहुत देर हो चुकी होती है । सब कहते हैं, गर्मियों में यहाँ चोरी होती हैं । कुछ वीडियो देखे हैं, जिनमें चोर पकड़े गए हैं । थोड़ा सावधान रहने की ज़रूरत है । नज़र बनाए रखनी पड़ती है । फिर हमारे यहाँ तो घर में छोटी-छोटी डकैतियाँ डालने वालो ने परेशान कर रखा है । इन्हें देख कर धोबी घाट फिल्म याद आ जाती है ।

 इस फिल्म का एक किरदार राज बब्बर के बेटे ने निभाया है । वह रात को सरिया लेकर मोटे-मोटे चूहों को मारता है और शायद इसके बदले उसे अनाज और कुछ रुपया मिलता है । हमारे यहाँ इन मोटे-मोटे चूहों की पूरी फौज है । रसोई का दरवाज़ा नीचे से कुतर देने वाला इनमें से ही कोई एक दुष्ट प्राणी है । इनसे बचने के लिए दो तीन तरीके हम आजमा चुके हैं । बीच में कुछ दिन ऐसे गुजरे जिसमें रोज़ शाम चूहेदानी की पकड़ में आए हष्ट-पुष्ट चूहे को छोड़ने के लिए सड़क पार जाना पड़ता था । तंग करके रख दिया था इन सबमें । एक रात किचन से एक चूहे की आवाज़ ने इतना परेशान कर दिया कि मुझे उठकर देखना पड़ा, क्या बात है । देखा । उसकी पूंछ चूहेदानी में आने से रह गयी । हमारी चूहेदानी दरअसल इस प्रजाति के लिए छोटी पड़ गयी । लालच उनका चूहों की तरह ही था पर वह थोड़े बड़े थे । मैंने तुम्हें जगाया । तुममें मुझसे ज़्यादा समझदारी दिखी । मैं कर नहीं पा रहा, तुम नहीं करोगी तो रात में दूसरा कोई आने वाला है नहीं । तुमने चूहेदानी का दरवाज़ा थोड़ा सा उठाया, उसने अपनी पूंछ अंदर कर ली ।

 यहाँ आने के बाद कुछ ही दिन बीते होंगे, तुम्हारे दाँतों के दर्द की वजह से फ़ौजी क्लिनिक का मतलब मुझे समझ आया । इस फ़ौजी क्लिनिक से एक बहुत पुरानी याद जुड़ी थी । स्कूल में मेरे साथ एक अध्यापक थे । नांगलोई से वह आते थे । तब उन्होंने मुझसे गोल मार्केट में किसी फ़ौजी क्लिनिक के बारे में पूछा । वह मुतमइन थे कि फ़ौजी क्लिनिक ज़रूर है । होगी । मैंने सोचा । पर इस नाम को अपने सर्च इंजन’, ‘दिमाग में खंगाल मारा, कोई क्लिनिक नहीं मिली । तब वह बोले भगत सिंह मार्ग पर है । जैन हैप्पी स्कूल के पास । तब दिमाग की बत्ती जली । भाषा का अध्यापक इस तरह से क्यों नहीं सोच पाया । वह पॉली क्लीनिक को फ़ौजी क्लीनिक कह रहे थे । हमारा पॉली उनका फ़ौजी कैसे बना, इसके लिए भाषा वैज्ञानिक बहस करें, मुझे वापस फ़ौजी क्लीनिक जाने दें।

 नजफ़गढ़, ढाँसा बस स्टैंड के पास इस फ़ौजी क्लीनिक का स्पेशलाइज़ेशन दाँत थे। यह डेंटल डॉक्टर पहले फौज में थे । फौज के यह डॉक्टर शायद तब लेफ्टिनेंट थे । उनमें से एक डॉक्टर की तस्वीर एक फ्रेम में हमारे देश के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के साथ लगी हुई थी । वह उनसे कोई प्रशस्ति पत्र लेते हुए दिखाई दे रहे थे । उसने तुम्हारे दाँत को देखते ही कहा, तुरंत निकलवा लो । इसे निकाले बिना, दर्द से राहत नहीं मिलेगी । दाँत निकलवाने में कोई दिक्कत नहीं थी । दिक्कत थी वह बिना सुन्न किए कुछ देर के अंतराल के बाद दाँत निकालने की बता कह रहे थे । बिना सुन्न किए दर्द बहुत होगा । यह सोच हम दवा लेकर वापस आ गए । दवा का असर खत्म होने के बाद दर्द बढ़ने लगता । दाँत का दर्द कैसे ठीक हो ? कुछ समझ नहीं आ रहा था । पापा को फोन किया तब उन्होंने बताया, पहाड़ गंज में एक फ़ौजी क्लीनिक है । वहाँ डॉक्टर बैठते हैं । यह फ़ौजी क्लीनिक भी कहीं नजफ़गढ़ वाले क्लीनिक की तर्ज पर अपने मरीजों से फ़ौजी सहनशक्ति मांगने लगेगा, तब दिक्कत होगी । यह सोचे बिना दोपहर हम दोनों चल पड़े । जब हम उनके क्लीनिक पहुंचे, वह तब तक आए नहीं थे । उन्होंने दर्द से छटपटाते हुए तुम्हें देखा और तुरंत दाँत सुन्न करने वाला इंजेक्शन लगा दिया । तीन सौ रुपये में एक्सरे किया । बताया, दाढ़ के दाँत का चूरा हो गया है । इसे निकालना ही होगा । पर वह आज नहीं तीन दिन के बाद दाँत निकलेंगे, जब इस दर्द से कुछ राहत मिल जाएगी । 

 उस दोपहर यहाँ से शुरू मेट्रो का वह सफर तुम्हारे दर्द के कारण इतना ज़्यादा दूर हो गया था कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था । एक नयी जगह जहाँ कोई बीमार हो जाए, वहाँ हम किस तरह डॉक्टर पर भरोसा कर सकते हैं, यह सवाल आज भी मेरे जेहन में बना हुआ है । जगह बदलने के बाद भी डॉक्टर बदल पाना बहुत मुश्किल है । नयी जगहों पर डॉक्टरों का न मिल पाना नए संकटों की तरफ हमें धकेल तो देता है, पर हम लौटते पुराने डॉक्टरों के पास ही हैं ।

 लिखते-लिखते सुबह के ग्यारह बज गए हैं। ऐसा नहीं है, सारी रात लिखता रहा पर पिछली रात ग्यारह बजे तक लिख कर एक बची हुई फिल्म देखी और साढ़े बारह बजे सोया । सुबह कूड़ा फेंकने की गाड़ी की आवाज़ आने पर जो उठा तो नींद वापस आई नहीं । जल्दी नहा लिया और नौ बजे से लिखने बैठ गया । रात छह हज़ार शब्द हुए थे । अब कुछ आठ हज़ार दो सौ शब्द हो चुके हैं । सोचता हूँ और कितना लिखूंगा । पढ़ने वाले के धैर्य का भी कुछ ध्यान रखना चाहिए । सबसे पहले तो तुम इसे पढ़ोगी, यह तुम पहले कह चुकी हो । फ़िर जाकर किसी और का नंबर आएगा । रात जब सोया था, तब दो तीन बिन्दु कागज़ पर लिख कर सोया था, उन्हें देख रहा हूँ, तो कमोबेश सभी को यहाँ रख चुका हूँ । अब कहने को क्या बचा है ? जो मेरे मन में अभी भी चलता रहेगा । घर का छूट जाना । वहाँ न रह पाने की कसक । बीच-बीच में वहाँ जाकर लौटने के बाद की उदासी । चाहता हूँ यह उदासी बनी रहे । कभी-कभी सोचता हूँ मेरे लिए तो अब भी वहाँ जाकर लौटना संभव है । मन को तैयार करने, उसे मनाने के लिए इस अवकाश को रच पाने की युक्तियों को तलाशने की मोहलत मेरे पास है । ऐसा जो अभी वहाँ रह गए हैं, जब यहाँ आ जाएंगे, तब यह जगह कैसे उन्हें बनाएगी, यह सवाल हमेशा मेरे मन में घूमता रहता है । इस जगह की आदत बनने में कितना वक़्त लगेगा, कह नहीं सकता । बस इतना पता है, शायद साथ उस जगह की स्मृतियों को जल्दी पिछले पन्नों की तरह पलटने में कामयाब होगा । जब सब यहाँ आ जाएंगे, तब यह जगह भी इतनी खाली, बेकार, उदासी भरी नहीं रह जाएगी ।

 कितना सब कुछ तो वहीं छूट गया । जो लगता है कभी वापस नहीं लौटेगा । लौटना चाहेगा, तब भी उसका उस तरह वापस आना बहुत मुश्किल और कष्टकारी है । जिस छत पर घूमता रहा । सोचता रहा । जिन पेड़ों को, जिन पौधों को निहारता रहा, वह भी क्या मेरका इंतज़ार करते होंगे ? कुछ भी तो समझ पाने की हालत में नहीं लगता । सब वैसा ही है, जैसे वह जगह उस पीटर पार्कर नाम के शेर में बादल गयी हो । वह मुझसे मुड़कर कभी तो कुछ कहेगी, इस उम्मीद के सहारे कितने दिन बीत गए । कोई जवाब नहीं आया हो ऐसा नहीं है । जो छूट गया। उसका मौन साथ चला आया ।

 अभी भी लगता है, इतनी सारी बातों के बाद भी जो बातें नहीं कह पाया, वह दिमाग में ऊपर नीचे होकर कहीं कोने में दब गयी होंगी या जब इसे खुद से पढ़ूँगा, तब शायद वह याद आ जाएँ । अभी तो बस आखिरी बात में इतना ही कहना चाहूँगा, पिछले साल पीएचडी थीसिस जमा करवाने के बाद भी इस कमरे में रखी हुई किताबों को पढ़ पाने की मोहलत अभी मिलती हुई नहीं लग रही है । कुछ जहाँ काम करता हूँ, उसने फुरसत नहीं दी । कुछ मेरा मन ही ऐसा है । उसे जैसे लिखने के लिए ढेर सारा वक़्त एक साथ चाहिए, पढ़ने के लिए भी उतना ढेर सारा वक़्त एक साथ चाहिए । देखते हैं, यह कब, कैसे मिल पाता है । यह लिख लिया है, जो पहाड़ की तरह मेरे सिर पर सवार था । शायद इसके लिखे जाने के बाद अब उस तरफ लौट सकूँ, जहाँ एक दिन में एक किताब को किनारे करने की सपनों में ठानता रहता हूँ ।

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