“अरे यार, ढाई करोड़ की पौर्श चलाने के लिए दे दी उसके मम्मी पापा ने. सो कूल! एक हमारे मम्मी पापा हैं जो हमें कनॉट प्लेस तक अकेले कैब से भी जाने नहीं देते हैं… लेट नाइट पार्टीज़ नहीं अटेंड करने देते। स्लीप ओवर के लिए दूसरे दोस्तों के घर नहीं जाने देते. पाँच सौ रुपये से ज़्यादा पॉकेट मनी का सवाल ही नहीं उठता और भाई, उस पाँच सौ का भी उन्हें पूरा हिसाब चाहिए.” दूसरा छात्रः “सच में यार इन लोगों को कुछ तो सीखना चाहिए इन रिच लोगों से। कैसे उन्हें अपने बच्चों पर इतना भरोसा होता है?और दूसरी तरफ़ हैं हमारे मम्मी पापा जिन्हें हमारे ऊपर ज़रा भी भरोसा नहीं है… कहीं भी जाओ पूरी नज़र रहती है उनकी हम पर.. क्या कर रहे हैं, किससे बातें करते हैं,पैसे लिए हैं तो कहाँ ख़र्च हो रहे हैं.. कोचिंग से लौटने में पाँच मिनट भी लेट हो जाए, तो बस फोन पे फोन, कहाँ रह गए थे ?… क्यों देर हो गई ?… ब्ला ब्ला ब्ला! ”…“ भाई, मेरी मॉम तो पूरी डिटेक्टिव हैं, मेरे फ़ोन, लैपटॉप इंस्टा और सोशल मीडिया अकाउंट्स पर उनकी पूरी नज़र रहती है… मेरी सारी एक्टिविटीज़ अंडर सर्वेलेंस रहती हैं”
चौथा छात्रः“सीरियसली यार,एक दम कैप्टिव्स की सी ज़िंदगी बिता रहे हैं… जल्दी से स्कूल ख़त्म हो और हम भी कॉलेज जाएँ और मस्ती करें।”
साथियों, ये संवाद काल्पनिक या मनगढ़ंत किस्सा नहीं है. ये विचार हैं आजकल के नव युवाओं के या जिन्हें हम टीनेजर्स के रूप में पहचानते हैं और जिन्हें लेकर समाज में अनेकों भ्रांतियां देखने को मिलती हैं .
सामान्यतया परिवारों में बच्चों की तरह ट्रीट किए जाने वाले ( पर खुद को परिपक्व समझने वाले) ये नव युवा अपनी शारीरिक, मानसिक, हार्मोनल और संवेदनात्मक परिवर्तनों के चलते कई बार अपने व्यवहार से, समाज के विरुध्द आचरण के चलते चर्चा का विषय बनते दिख जाते हैं. देश- दुनिया की किसी भी हलचल की ख़बर इन्हें वयस्कों वृद्धों से पहले होती है और उनका रुख़ या उनकी प्रतिक्रिया भी रिऐक्शनरी या चौंकाने वाली ही होती हैं क्योंकि वे सभी सामान्यतया अपने माता-पिता की रोक टोक और बंदिशों से उकताए, ऊबे और उदास अपनी दमित कुंठित भावनाओं की अभिव्यक्ति का कोई मौक़ा हाथ से नहीं जाने देते.
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किशोरावस्था का समय जितना नई संभावनाओं से परिपूर्ण होता है उतना ही भटकाव और अस्त व्यस्तता की स्थिति भी उत्पन्न कर सकता है. माता पिता के चंगुल से निकलने की जद्दोजेहद, चीज़ों को अपने नियंत्रण में लेने की और अधिकार जताने की इच्छाएँ,विपरीत जेंडर के प्रति आकर्षण और उस वजह से दूसरों से प्रतिस्पर्धा, दूसरों से अनुमोदन, स्वीकृति और हॉर्मोनल चेंजस की वजह से लगातार ग़लत फ़हमी का शिकार होना इत्यादि घटनाओं से उनका जीवन बहुत जटिल बनता जाता है.
साधारणीकरण से बचते हुए कहना चाहूंगी कि भारतीय परिवेश में ज़्यादा ध्यान छोटे बच्चों और वृद्धों का दिया जाता है बजाय किशोरों के. उनकी शारीरिक सबलता की वजह से उनसे महती अपेक्षाएं होती हैं पर उनकी मानसिक ज़रूरतों और उनके समक्ष चुनौतियों के विषय में बहुत ज़्यादा सोच विचार की ज़रूरत नहीं देखी जाती है और कुछ हद तक उनकी अनदेखी भी होती है जिसक सीधा प्रभाव उनके अंदर इकट्ठा होते हुए ग़ुस्से के ग़ुबार और मौका मिलने पर पारिवारिक सामाजिक मूल्यों के ख़िलाफ़ बग़ावत के रूप में भी देखा जा सकता है. सिर्फ़ भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर किशोरों के द्वारा किये जा रहे अपराधों में बढ़ोतरी देखी जा रही है. आए दिन बिना लाइसेंस के, बिना किसी सही ट्रेनिंग और ज़िम्मेदारी के नव युवा बड़ी-बड़ी गाड़ियों को लेकर सड़क पर उतरकर निर्दोष मनुष्यों, पशुओं और सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाते सुने जा रहे हैं. और सिर्फ़ रोडरेज़ के क़ेसेज ही नहीं बल्कि उनकी निर्लिप्तता अन्य तरह के गंभीर अपराधों यौनिक हिंसा, घोटाले, स्कैम,हत्या, नरसंहार, इत्यादि में सुननेवालों के रोंगटे खड़े कर देती है. इन तमाम घटनाओं के पीछे कितनी निजी असावधानी ज़िम्मेदार है, और कितना पारिवारिक ढिलाई या उनसे मिली उपेक्षा, ख़राब रोल मॉडल या गलत संगति यह निश्चित तौर पर कहना मुश्किल है पर एक बात तय है की परंपरागत समाज के तौर पर हमने अपने एक महत्वपूर्ण हिस्से को अकेला छोड़ दिया है जिसकी वजह से उनके उद्देश्यों,आचार विचार में विसंगति और अन्ततः पारस्परिक समन्वयन और समावेश में उन्हें अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है.
इससे पहले की बात हद से आगे बढ़ जाए सभी माता पिताओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि वो किशोरों को न तो अनुचित प्यार-दुलार से बिगाड़ें और न ही बेमतलब की रोक टोक से उनके आत्मसम्मान को आहत करें. बल्कि समय आ गया है कि नव युवाओं को भी एक व्यक्ति की तरह सम्मान पूर्ण तरीक़े से देखा जाए जिससे वे अपनी ज़िम्मेदारी स्वयमेव समझें, उनके अंदर सही ग़लत की भावना का समुचित विकास हो, सामाजिकता के सही लक्षण विकसित हों और वे ख़ुद की ज़रूरतों से हटकर एक बड़ी भूमिका के लिए ख़ुद को तैयार करें और ज़रूरत पढ़ने पर देश समाज के निर्माण में सकारात्मक योगदान दें.
बचपन और युवावस्था के बीच खड़े टीन्ज अपने बेतरतीब व्यवहार, अनुचित रिएक्शन्स, मनो भावनाओं पर अनियंत्रण की स्थिति में अपने आस पास के लोगों को चौंका सकते हैं, तो तार्किक और प्रेम पूर्ण तरीक़े से समझाए जाने पर अपने व्यवहार में सही परिवर्तन भी ला सकते हैं. किशोरावस्था नई चीज़ों को देखने, समझने, जानी अनजानी चीज़ों के शौक़ पूरा करने के लिए जानी जाती है. यह वह समय होता है जब कोई भी बालक या बालिका तमाम तमन्नाओं और उम्मीदों से भरकर एक सपनीली दुनिया में जीता है और उत्सुकताओं से भरे उनके मन मस्तिष्क को किसी भी तरह की नकारात्मकता या निषेध स्वीकार नहीं होता है. ऐसे में उन्हें यह समझाना कि वह अपने वय अनुसार एज अप्रोप्रिएट चीज़ों, व्यसनों में ही अपना समय, शक्ति लगाएँ और कोई भी ऐसा काम न करें जिससे उनका भविष्य ख़तरे में पड़ जाए या समाज के किसी अन्य व्यक्ति वस्तु को उनकी वजह से किसी तरह का ख़तरा उत्पन्न हो, समय की ज़रूरत है . जिन परिवारों में माता पिता और बड़े होते बच्चों में संपर्क और बातचीत खुले तरीक़े से नहीं हो पाती वहाँ अधिकतर नव युवाओं को उनके उद्देश्यों और भविष्य के प्रति निर्णयों में दुविधा की स्थिति का सामना करना पड़ता है है जिसका परिणाम गाहे बगाहे किसी असामाजिक गतिविधि के रूप में देखा जा सकता है. और ऐसी स्थिति से निपटने के लिए स्कूल के लेवल पर काउंसलर्स की भूमिका और भी बढ़ जाती है जो उनके नियमित कार्यकलाप और व्यवहार को देखकर उन्हें सही दिशा निर्देश दे सकें.
स्थिति बिगड़ने पर पुलिस और क़ानून ऐसे बच्चों को जुवेनाइल होम में, सुधार गृह में आवश्यक सुधार हेतु भेज सकते हैं.पर इन सब उपचारों के बावजूद समस्या के मूल में जाना बहुत ज़रूरी है और परिवार के अन्य सदस्यों की तरह टीनेजर्स को भी समुचित ध्यान, विश्वास और दायित्वबोध के ज़रिए एक सही दिशा में निर्दिष्ट किया जाना ज़रूरी है. सामाजिक स्तर पर भी कुछ परिवर्तनों की गुंजाइश है जैसे दिखावे की प्रवृत्ति को नियंत्रण में रखा जाए. उच्च वर्ग के द्वारा उनके बच्चों को ज़रूरत से ज़्यादा संसाधन उपलब्ध कराये जाना, उनकी हर सही ग़लत ज़रूरत को बिना संकोच के एकदम से मान लिया जाना, स्कूलों में किसी एक वर्ग विशेष के छात्रों को विशेषाधिकार या किसी विशेष तरजीह की स्थिति में अन्य छात्रों के बीच एक तरह की प्रतिस्पर्धा या प्रतिद्वंदिता जन्म ले सकती है . जरूरत है कि स्कूल कॉलेज बिना किसी भेदभाव के सभी छात्रों के भीतर सही तरह के आचरण पर ज़ोर दें और ग्रुप डिस्कशन सैमीनार, ग्रुप एक्टिविटीज़ इत्यादि तरीक़ों से उन्हें उनकी उम्र के अनुसार एक तरह की सामान्य सुविधाएँ और सामान्य परवरिश दी जाएँ जिससे उनके बीच किसी भी तरह की अनुचित तुलना या संघर्ष की स्थिति उत्पन्न न हो पाए . साथ ही उनकी भावनात्मक विचारात्मक ज़रूरतों को समझा जाए ,उनके द्वारा सुझाए तरीक़ों को भरसक स्वीकृति मिले और अच्छे काम किए जाने पर अनुशंसा या पुरस्कार, अनुमोदन भी यथासंभव दिया जाए. आज नव युवा मीम्स, टिक टॉक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और स्नैपचैट के फ़ीड और विडियोज में अपने जीवन का अर्थ ढूँढ रहे हैं और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश में अपने जीवन के बहुमूल्य समय को बेमक़सद ज़ाया कर रहे हैं जो किसी हद तक समाज के समक्ष एक बड़ी समस्या बन सकती है. आज के समय में जब सूचना को सशक्तिकरण का बहुत महत्वपूर्ण ज़रिया समझा जाता है, इन नव युवाओं को सूचना की दृष्टि से अधिक से अधिक समृद्ध बनाये जाने की पहल की जाए जिससे वह पहले की भाँति अपने पूर्ववर्ती जनरेशन की तरह देश निर्माण में और समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने में अपना योगदान कर सकें न कि समाज में अवांछित उथल पुथल मचाने में . गुकेश, ग्रेटा थनबर्ग, मलाला यूसुफजई, मैथिली ठाकुर, अंगद दरयानी,कौटिल्य पंडित पृथ्वी शॉ, शुभम गिल, जुबिन डामनिया, हिना सैफी, रिद्धिमा पांडे आदि युवाओं ने समय समय पर अपने विचार पूर्ण कार्यों से सिर्फ़ अपने देश में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. विचारों और व्यवहार में खुलापन टीनेजर्स को आकर्षित करता है, इमानदारी और ज़िंदादिली की भी उन्हें दरकार होती है और यदि उन्हें सही वातावरण मिले तो कोई आश्चर्य नहीं कि वो आज समाज और देश के समक्ष जो बड़ी समस्याएं खड़ी है वो उनके समाधान के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दें । साथ ही यह भी आवश्यक है कि उनके आस पास मौजूद वयस्क एक ज़िम्मेदारी पूर्ण व्यवहार का उदाहरण उनके समक्ष रखें जिससे वे भी अपनी भावनाओं को बिना किसी भय संकोच या शर्म के सही समय पर, समुचित तरीक़े से अपने परिवार और अपने समूह के साथ साझा करने की हिम्मत जुटा सकें. आचरण में खुलापन, व्यवहार में उदारता निश्चित रूप से टीनेजर्स का आत्म विश्वास जीतने और बढ़ाने में कारगर साबित हो सकते हैं. पारस्परिक प्रेम को संप्रेषित करने के लिए माता पिता को स्वीकृति की भाषा विकसित करने की ज़रूरत है जिससे वे बच्चों को उनके बदलते हाव-भाव, उनकी कमजोरियों, प्रश्नों के बावजूद सहज रूप में स्वीकार कर सकें और उनके भविष्य के लिए उन्हें जागरूक बना सकें . वहीं बात-बात पर बेमतलब की रोक टोक से उनका आत्मविश्वास कमज़ोर भी पड़ सकता है. साफ़ तौर पे अपना सही आंतरिक मूल्यांकन,साहस और सकारात्मकता ही है जो नव युवाओं को उनके चुने हुए क्षेत्र में सफलता तक पहुँचा सकती है. अंत में मार्गरेट ए एडवर्ड्स का यह कथन हमें किशोरों के प्रति अपने व्यवहार को संयमित करने में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा , “बहुत से वयस्क किशोरों की ‘सुरक्षा’ करना चाहते हैं जबकि उन्हें उनको जीवन को समझने के लिए वैसे ही प्रेरित करना चाहिए जैसे जीवन जिया जाता है.”
और अंततः सभी तरह की शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य यही है कि वह हमारे नव युवाओं को सिखा सकें कि जीवन को सहजता से सरलता से और सार्थकता से कैसे जिया जाए. गलतियाँ तो किसी से भी से हो सकती है पर गलतियों को स्वीकार कर ज़िम्मेदारी से जीवन में आगे बढ़ने की संभावना ही हमारे नव युवाओं को एक सकारात्मक दृष्टिकोण दे सकती है।
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बहुत सुंदर और उपयोगी लेख है, यदि हम सब अभिभावक अपने बच्चों का समय -समय पर इन सब बातों को ध्यान में रखकर उचित मार्गदर्शन करेंगे तो निश्चित रूप से ही स्वस्थ और समृद्ध समाज का निर्माण कर पाएंगे।
बहुत तार्किक, मानवीय और प्रासंगिक लेख है। पढ़कर समृद्ध हुआ। बहुत से परिवार ऐसे किशोरों की बहुत सी आदतों से आज सहमे हुए हैं। यह लेख सभी पहलुओं को छूता है।