अपने सम्पर्क में आकर करुणा की कड़ी से हमेशा के लिए अपनी संवेदनाओं से जुड़ गये समाज के जिन उपेक्षित पात्रों को महादेवी ने शब्दों की रेखाओं से बाँधा है, उन सबके सरोकार प्रायः समान हैं। नियति-प्रदत्त आपदाओं के साथ-साथ मनुष्य प्रदत्त उत्पीड़न से भी निरन्तर जूझने वाले इन पात्रों को जीवन-संघर्षों से ही ताकत मिलती है। घीसा उनमें से एक है।
घीसा के प्रति लेखिका के हृदय की करुणा पाठक के हृदय से संस्पर्शित होकर उसे आर्द्र बनाती है। इस करुणा का स्रोत कहाँ है? लेखिका के हृदय में? उनकी मानवतावादी दार्शनिक संवेदना में? छायावादी भाषा में या महादेवी जी की विमर्श दृष्टि में? अथवा यह घीसा के पाले में है?करुणा का अस्तित्व दोनों तरफ है। उसकी मात्रा कहाँ कम, कहाँ अधिक है, इसका मापन अनावश्यक है। हमारे लिए इतना पर्याप्त है कि करुणा का प्रवाह दोनों तरफ से आकर एक हो जाता है। प्रश्न यह है कि घीसा के पक्ष में करुणा कहाँ उपजती है? घीसा के परिवेश में? उसके अभाव में? उसके गाँव के एक मलिन सहमे विद्यार्थी होने में? उसके प्रति समाज की उपेक्षा में? उसकी माँ, उसके पिता, कहीं भी हो सकता है करुणा का स्रोत। दूसरी ओर घीसा के अपने अन्दर के तत्व भी हैं; प्रेम, उदारता, लगन, जिज्ञासा, पर-दुःख कातरता, मातृभक्ति, गुरुभक्ति, आज्ञाकारिता, महत्वाकांक्षा आदि रत्न उसी के पाले में हैं। उपलब्धि उस दृष्टि की है; जिसने उन रत्नों को देखा, पहचाना और संजोया है। देखने-पहचानने और संजोने की इस दृष्टि से ही महादेवी की कला उपजती है। वे चित्रकार हैं, ऐसी चित्रकार जो बने-बनाये फलक पर चित्र खींचने में विश्वास नहीं करतीं। वे अपने कैनवास भी स्वयं तैयार करती है। पहले वे घीसा की और घीसा के साथ अपने परिचय की पूरी पृष्ठभूमि प्रस्तुत करती हैं; जैसा कि वे अन्य रेखाचित्रों में भी करती हैं।
इलाहाबाद में गंगा पार झूंसी के आसपास के खंडहरों के प्रति लेखिका का जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्धों जैसा आकर्षण, गुड़ियों के घरोंदे जैसे लिपे-पुते वहाँ के मिट्टी के घर, तांबे, पीतल और मिट्टी के घड़े लेकर गंगा का पानी भरतीं स्त्रियाँ, उनके रंगीन-बूटेदार-मैले, फटे कपड़े, आभूषण, गुदना गुदे मैले पाँव और सुख-दुःख भरी मुस्कानें। गाय-भैंस चराते अथवा दूध बेचकर लौटते ग्वाले, आते-जाते मजदूर, नावें खेते-बाँधते हुए गीत गाते मल्लाह, ढीले-लम्बे बेढंगे कपड़ों से ढँके-कुपोषण को विज्ञापित करते दुबली-पतली देहों और निष्प्रभ मलिन मुखों तथा पीली आँखों वाले बच्चे, मलिन धोती में अपने सुडौल अंगों को सलीके से ढाँकती व्यथा से आर्द्र आँखों वाली घीसा की माँ एवं उन घूमते-डोलते बच्चों को अवकाश के दिन लेखिका का पढ़ाना। बारीक रेखाओं और संयत रंगों से इस फलक को तैयार करने के पश्चात् महादेवी जी इस पर घीसा का चित्र उकेरती हैं। यह चित्र अपनी पृष्ठभूमि से मेल खाता हुआ भी उससे निराला है। इस चित्र के माध्यम से लेखिका घीसा की कहानी कहती हैं, उसके समाज की कहानी कहती हैं और वह भी कहती हैं, जो कहानी का विषय नहीं है; वह स्वयं लेखिका हैं।
घीसा के निमित्त गंगा पार की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले उस समाज की बहुत-सी बातें पता चलती हैं; कि वहाँ की स्त्रियाँ, चाँदी, ताँबे, काँसे, राँग और गिलेट के आभूषण पहनती हैं, काँच की नगदार चूड़ियाँ वहाँ शहर से आती हैं और वह श्रमजीवी निर्धन समाज भी अर्थ-प्रधान मूल्यों के प्रभाव में आकर दिखावे की ओर उन्मुख होता है। स्त्रियाँ गिलेट के कड़े युक्त हाथों को तो घड़े की ओट में छिपाने का प्रयत्न करती हैं, किंतु चाँदी के पछेली-ककना को जानबूझकर झनकाती हैं। नमक या गुड़ की डली के साथ बच्चों का नाश्ता होता है। उनके पास एक या दो जोड़ी से अधिक कपड़े नहीं होते। ये कपड़े भी दान में अथवा माँग कर प्राप्त हुए हैं। साबुन इत्यादि यहाँ विलासिता के सामान की कोटि में आते हैं। सफाई के संस्कारों से वे इतने वंचित हैं कि गुरुजी के कहने पर वे स्वच्छ होकर आये तो- ‘‘कुछ गंगाजी में मुँह इस तरह धो आये थे कि मैल अनेक रेखाओं में विभक्त हो गया था, कुछ के हाथ-पाँव ऐसे घिसे थे कि शेष मलिन शरीर के साथ वे अलग से जोड़े हुए से लगते थे।’’ दवा अथवा चिकित्सक की वहाँ कोई व्यवस्था नहीं है। बरसात में चूते रहने वाले उन कच्चे घरों में आठ पृष्ठ की किताब को भी भीगने या चूहों के कुरतने से बचाना एक विकट समस्या है।
ये सब घीसा के समाज के आर्थिक सांस्कृतिक सरोकार हैं। घीसा के बहाने वहाँ के जो सामाजिक सरोकार सामने आते हैं; उनमें सबसे बड़ा आकार भेदभाव का है। भेद की भी अनेक पर्तें हैं। उच्च और मध्य वित्त वर्ग अथवा सवर्णों के सापेक्ष तो वह समाज एक खाई के उस पार है ही, किंतु उस उपेक्षित-दलित समाज के अपने अन्दर भी भेद के अनेक स्तर हैं। माँ के विशेष अनुनय तथा गुरुजी की आज्ञा से घीसा उन शिक्षार्थी बच्चों में शामिल तो हो जाता है, किंतु वह ‘‘सबसे पीछे अकेले एक ओर दुबक कर’’ बैठता है। ‘‘लड़के उससे खिंचे-खिंचे रहते थे। इसलिए नहीं कि वह कोरी था, वरन् इसलिए कि किसी की माँ, किसी की नानी, किसी की बुवा आदि ने घीसा से दूर रहने की नितान्त आवश्यकता उन्हें कान पकड़-पकड़ कर समझा दी थी।’’ बच्चों की दृष्टि भेद नहीं जानती, भेद देखना-करना उन्हें बड़ों द्वारा सिखाया-समझाया जाता है। घीसा के अपने अस्पृश्य समाज के अन्दर भी अस्पृश्य बन जाने का कारण वास्तव में गर्व करने योग्य होते हुए भी हीनता जनक बना दिया जाता है। असली कारण है घीसा के माता-पिता के आत्मगौरव का बोध; जिससे प्रेरित होकर वे अपनी दलित स्थिति से ऊपर उठकर सम्मानपूर्ण जीवन जीने का प्रयास करते हैं। घीसा का बाप कोरी जाति का डलिया बीनने का अपना पुश्तैनी कार्य छोड़कर बढ़ईगिरी सीख लेता है और चौखट-दरवाजे बनाकर अपनी आर्थिक स्थिति सुधार लेता है। साथ ही वह परम्परा के विरूद्ध जाकर दूसरे गाँव से अपनी पसन्द की युवती को ब्याहकर ले आता है। उसका अपनी सूझ-समझ तथा अपने परिश्रम के बल पर अपनी इच्छानुसार जीवन यापन करना सामाजिक अपराध की श्रेणी में आ जाता है। लीक से हटकर अपना रास्ता बनाकर स्वाभिमान के साथ जीने वाले को उसका अपना ही समाज अपराधी सिद्ध करने पर तुल जाता है; जबकि अपने स्तर से ऊपर उठने की आकांक्षा सभी की है। समानतापूर्ण सामाजिक विकास में सबसे बड़ी बाधा ऐसी ही मानसिकता से उत्पन्न होती है।
ऐसे मामलों में पुरुष का स्वाभिमान फिर भी क्षम्य माना जा सकता है, लेकिन स्त्री का स्वाभिमानी होना अक्षम्य अपराध बन जाता है। पति की अकाल मृत्यु के बाद ‘‘गाँव के अनेक विधुर और अविवाहित कोरियों ने केवल उदारतावश ही उसकी नैया पार लगाने का उत्तरदायित्व लेना चाहा; परन्तु उसने केवल कोरा उत्तर ही नहीं दिया, प्रत्युत उसे नमक-मिर्च लगाकर तीता भी कर दिया। कहा- ‘हम सिंघ के मेहरारू होइके का सियारन के जाब?’ फिर बिना स्वर ताल के आँसू गिराकर, बाल खोलकर, चूड़ियाँ फोड़कर और बिना किनारे की धोती पहनकर जब उसने बड़े घर की विधवा का स्वांग भरना आरम्भ किया, तब तो सारा समाज क्षोभ के समुद्र में डूबने-उतराने लगा।’’
इस पूरे प्रसंग में महादेवी के नारी विमर्श और दलित विमर्श अपने चरम रूप में उद्वेलित करते हैं। पहले दिखता है पुरुष का अहंकार, जो प्रत्येक स्थिति में नारी को दयनीय-रक्षणीय तथा पुरुष से हीन मानते हुए उसका स्वामित्व ग्रहण करना चाहता है; वह भी उपकार के दंभ के साथ। भले ही वह स्वयं उस स्त्री पर अधिकार पाने हेतु लालायित हो, परन्तु स्त्री की ‘‘नैया पार लगाने’’ के लिए ही उसका हाथ पकड़ेगा। यह मुहावरा ही पूरे दंभ को मुखर बना देने हेतु पर्याप्त है। अपनी उपेक्षणीय स्थिति से ऊपर उठ रही स्त्री का अभिमान भी कम प्रबल नहीं, इसलिए उसका प्रत्युत्तर पुरुष के अहंकार को बुरी तरह चोट पहुँचाता है; जब वह अपने आपको सिंहनी और अन्य पुरुषों को सियार सिद्ध कर देती है। प्रेम-विवाह तथा बढ़ईगिरी के ऊँचे व्यवसाय ने उसका आत्माभिमान बढ़ा दिया है। उसका अभिमान उसे सामान्य से विशिष्ट बनने हेतु उत्प्रेरित कर रहा है; जबकि पुरुष मानसिकता चाहती है कि वह स्वाभिमान खोकर सदैव पुरुष की दया और रक्षा की भीख मांगती रहे। इस संघर्ष में हार स्त्री की ही होती है।
हमारे समाज में भाषा, वेश भूषा, संस्कार तथा रीति रिवाजों सम्बन्धी अनेक व्यवहारों में जाति के अनुसार भिन्नता दिखाई देती है, किंतु विधवा वेश पर भी जाति भेद की छाया आश्चर्य में डालती है। पति के न रहने पर स्त्री किसी अन्य पुरुष का साथ-संरक्षण ले या न ले; इसका निर्णय लेने का अधिकार उसे नहीं है। उच्च जातियों में भी स्त्री बाल विधवा हो तो भी पुनर्विवाह उसके लिए वर्जित है। निम्न जाति की विधवा का पुनर्विवाह न करना ही नहीं, विधवा वेश धारण करना भी अपराध है। सारांश यह कि स्त्री को अपने जीवन का मार्ग तो क्या, वेशभूषा तक स्वयं चुनने का अधिकार नहीं है। इस विडम्बना का एक छोर यह है कि दलित विधवा स्त्री बड़े घर की विधवा का जैसा वेश धारण नहीं कर सकती, और दूसरा छोर यह है कि वह स्वयं अपने वर्ग को छोटा समझते हुए उच्च वर्ग का अनुकरण करना चाहती है। हजारों वर्षों से अनेक रुढ़ियों और अंधविश्वासों के बन्धनों में जकड़ा समाज अपने स्तर से ऊंचा उठने की आकांक्षी ऐेसी स्वाभिमानी-महत्वाकांक्षी स्त्री को कैसे क्षमा कर सकता है? उसे परास्त करने के अन्य सब अस्त्र-शस्त्र परास्त हो जाने के पश्चात चरित्र-हनन का ब्रह्मास्त्र लक्ष्य सिद्ध कर लेता है। बाप की मृत्यु तथा घीसा के जन्म के बीच के छः माह के अन्तराल को खींच कर साल भर का बना दिया जाता है; जिससे घीसा का जन्म नाजायज एवं उसकी माँ चरित्रहीन सिद्ध हो जाते हैं। समाज की यह मानसिकता पुरुष वर्चस्व वाली मानसिकता है; जो स्त्रियों के माध्यम से ही स्त्रियों पर शासन करती है। जैसे बच्चों को उनकी माँओं, नानियों, बुवाओं आदि स्त्रियों ने घीसा से दूर रहने की आज्ञा दे रखी थी, वैसे ही स्त्रियों ने ही ‘‘आते-जाते रोक कर अनेक प्रकार की भंगिमा के साथ एक विचित्र भाषा में’’ लेखिका को ‘‘घीसा की जन्मजात अयोग्यता की कथा अनेक क्षेपकोंमय विस्तार के साथ’’’ घीसा की ओर से उनका ‘‘मन फेरने के लिए’’ सुनाई थी।
इस ब्रह्मास्त्र का स्त्री ही नहीं, उसके बच्चे के जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। घीसा के व्यवहार में विरोधाभासी प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। अपने पिता से अपने स्तर से अधिक योग्य बनकर ऊँचा उठने की आकांक्षा का गुण लेकर जन्म लेने वाला घीसा एक ओर अति दीन-हीन है, दूसरी ओर, महान। पढ़ते समय वह ‘‘सबसे पीछे अकेले दुबक कर बैठता था। ‘‘सबको अपनी छाया से इस प्रकार बचाता रहता था, मानो उसे कोई छूत की बीमारी हो।’’
दूसरी ओर- ‘‘पढ़ने, उसे सबसे पहले समझने, उसे व्यवहार के समय स्मरण रखने, पुस्तक में एक भी धब्बा न लगाने, स्लेट को चमचमाती रखने और अपने छोटे-छोटे काम का उत्तरदायित्व बड़ी गंभीरता से निभाने में उसके समान कोई चतुर न था।’’ उसका पढ़ने के स्थान को बार-बार साफ करना, गंगा तट पर आकर गुरु जी (लेखिका) की प्रतीक्षा करना, उनकी नाव दिखाई पड़ते ही ‘गुरु साहब-गुरु साहब’ कहकर बच्चों को बताने दौड़ना, नहा-धोकर कक्षा में आने की गुरु की आज्ञा का पालन करने हेतु दूसरे कपड़ों के अभाव में गीले कपड़े ही पहन कर आ जाना, दंगे के समय गुरु साहब से शहर न जाने की हठ करना, विदाई वाले दिन अपनी नयी कमीज के बदले तरबूज खरीद कर गुरु साहब को देना आदि आचरण उसकी शिक्षा की भूख, प्रेम और सम्मान की भूख, आगे बढ़़ने की लगन, दृढ़ निष्ठा और गुरु भक्ति के अद्वितीय उदाहरण हैं। उन सब बच्चों में उसी में ये गुण प्रबल रूप से उभर कर आये हैं। ‘‘वह दिन भर वहीं पेड़ के नीचे बैठा रहता है, मानो वह किसी प्राचीन युग का तपोव्रती अनागरिक ब्रह्मचारी हो, जिसकी तपस्या के लिए ही लू के झोंके आते हैं।’’ कभी वह विद्या के प्रबल आकांक्षी गुरुभक्त एकलव्य की आधुनिक आवृत्ति प्रतीत होता है, तो कभी भक्ति और सरलता की प्रतिमूर्ति शबरी की। अपनी एक मात्र सम्पत्ति तन ढकने की कमीज खेत वाले लड़के को देने में उसे अपनी कोई चिंता नहीं। गर्मियों भर कमीज न पहनना उसकी आदत है, किंतु उस कमीज के बदले एक तरबूच लेकर उसकी गुरु दक्षिणा देना; तरबूच भी मीठा है कि नहीं, यह जांचने हेतु चख कर देना; जिनता भावपूर्ण है, उतना ही घीसा की तर्क-बुद्धि के प्रति चकित भी करता है। तभी महादेवी जी को लगा कि ‘‘उस तट पर किसी गु रु को किसी शिष्य से कभी ऐसी दक्षिणा मिली होगी, ऐसा मुझे विश्वास नहीं, परन्तु उस दक्षिणा के सामने अब तक के सारे आदान-प्रदान फीके जान पड़े।’’ उसकी संवेदना, उसकी बुद्धि और उसकी उदारता देखकर कभी कल्पना होती है कि यदि वह बच्चा लम्बी उम्र पाता, पढ़-लिख पाता; तो कोई फक्कड़-युग प्रवर्तक कवि बनता? निराला की तरह? अभाव ही जिसके जीवन का एकमात्र सत्य है, वह स्वयं दूसरों के प्रति कितना उदार और सहृदय है यह हम जलेबी वाले प्रसंग में देख पाते हैं। गुरुजी द्वारा बांटी गई जलेबी में से वह अपने हिस्से की जलेबी में से माई के लिए तो रखता ही है, पिल्ले के लिए भी बचाकर रखता है। यही नहीं, पिल्ले को भी उसके बराबर ही मिलनी चाहिए, यह उसका न्याय है। गुरु साहब को दंगे के समय शहर न जाने देने पर अड़ा हुआ है, लेकिन यह सुनते ही; कि अपने माता-पिता को छोड़कर आये हुए अनेक बच्चे गुरु साहब के वहाँ न जाने पर घबरा जाएंगे; उसका हठ समाप्त हो जाता है और तर्क की दिशा बदल जाती है- ‘‘जो साँझ को अपनी माई के पास नहीं जा सकते, उनके पास गुरु साहब को जाना ही चाहिए। घीसा रोकेगा तो उसके भगवान जी गुस्सा हो जाएंगे। क्योंकि वे ही तो घीसा को अकेला बेकार घूमता देखकर गुरु साहब को भेज देते हैं।’’ उसके विश्वास निराले हैं और तर्क अकाट्य।
घीसा का प्रथम परिचय कराते समय उसके बाह्य व्यक्तित्व को चित्रित करने के साथ लेखिका ने लिखा है; ‘‘बस ऐसा ही था वह, न नाम में कवित्व की गुंजाइश, न शरीर में।’’ इस कवित्वहीन बालक को निकट से जानने के पश्चात् उन्हें पता चलता है कि जीवन का खरा सोना छिपाने के लिए उस मलिन शरीर को बनाने वाला ईश्वर उस बूढ़े आदमी से भिन्न नहीं, जो अपनी सोने की मोहर को कच्ची मिट्टी की दीवार में रखकर निश्चिंत हो जाता है।
जलेबी के निमित्त लेखिका बाल चरित्र का मनोविश्लेषणात्मक चित्रण भी करती हैं। जलेबी-वितरण के समय बच्चों की छीना झपटी, अपने भाई-बहनों के लिए भी जलेबी पाने की चाह, बच्चों का हठ और बच्चों के तर्क यथार्थ भी हैं और रोचक भी। छुट्टियों के दिन गिनने हेतु बच्चों की भोली युक्तियों में लोक विज्ञान की पारम्परिक विधियों का भी परिचय मिलता है। तरबूच वाले प्रसंग में बाल-बुद्धि, व्यवहार तथा बाल हठ का सीधा साक्षात्कार होता है- ‘‘गुरु साहब (तरबूच) न लें तो घीसा रात भर रोयेगा- छुट्टी भर रोयेगा- ले जावें तो वह रोज नहा-धोकर पेड़ के नीचे पढ़ा हुआ पाठ दोहराता रहेगा।’’
रचना का नायक एक बालक है तथा अन्य पात्रों में भी बच्चे ही अधिक हैं। पूरे रेखाचित्र में लेखिका ने अपनी भाषा-शैली के अनुरूप सहज ही अनेक सुन्दर उपमानों का प्रयोग किया है, किंतु इस बाल परिवेश के अनुरूप सबसे सार्थक तथा विषय वस्तु के सर्वथा अनुरूप प्रयोग ‘‘दाईं छूने के लिए दौड़े हुए बालक के समान समय का विदाई के दिन को छू लेना’’ है।
बच्चों का चित्रण करती हुई लेखिका लिखती हैं, ‘‘व्यर्थ दिन भर गुल्ली-डंडा खेलने वाले निठल्ले लड़के भी बीच-बीच में नजर बचाकर मेरा मुख देखना नहीं भूलते।’’ यहाँ प्रश्न उठता है कि बच्चों का दिन भर गुल्ली-डंडा खेलना किसकी दृष्टि में व्यर्थ और निठल्लापन है? बच्चों की दृष्टि में तो खेलना कभी व्यर्थ हो नहीं सकता, तो किसे उनका खेलना व्यर्थ दिखाई देता है? अभिभावकों को या लेखिका को? अभिभावकों को दिखाई देता है, तो वह स्वाभाविक है, किंतु यदि लेखिका को दिखाई देता है तो क्यों दिखाई देता है; जबकि वे उस पूरे बाल विश्व में रम कर उसकी स्निग्धता में आर्द्र हो रही हैं?
संस्मरण और रेखाचित्र की यह विशेषता भी है और सीमा भी कि चित्र में चित्रकार की उपस्थिति भी अनिवार्य हो जाती है। महादेवी जी भी रचना में निरन्तर अपनी उपस्थिति का बोध कराती रहती हैं। यह बोध-वे अपनी करुणा-जनित संवेदनीय प्रतिक्रियाओं द्वारा ही नहीं करातीं; अपने बौद्धिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्तर की प्रतीति के द्वारा भी कराती हैं। तब वाच्य और वाचक के बीच का अन्तराल भी मुखर हो उठता है। ‘घीसा’ नामक रेखाचित्र का पहला ही वाक्य इस वर्गीय भेद की ओर संकेत करता है- ‘‘मैं भी आज गाँव के उस मलिन सहमे नन्हे विद्यार्थी की सहसा याद आ जाने का कारण बता सकती, जो एक छोटी लहर के समान ही मेरे जीवन-तट को अपनी सारी आर्द्रता से छू कर अनन्त जलराशि में विलीन हो गया है।’’
इस उक्ति में करूणा तथा स्नेह-स्मरण तो हैं, किंतु यह वाच्य और वाचक के बीच के वर्गीय अन्तराल का बोध भी कराती है। ग्रामीण स्त्रियों के वर्णन में यह बोध और भी स्पष्ट हो जाता है। ‘‘अपने और मेरे बीच का अन्तर उन्हें ज्ञात है, तभी कदाचित वे इस मुस्कान के सेतु से उसका वार-पार जोड़ना नहीं भूलतीं।’’ बूढ़ी ‘भक्तिन’ के लिए में भी उन्होंने लिखा है; कि वह ‘‘नौकरानी से अपने आपको एक प्रकार की अभिभावक मानने लगती है।’’ यह तथ्य यथार्थ होता हुआ भी दीन-दुखियों के प्रति सहृदय, उदार एवं मानवतावादी लेखिका महादेवीजी के प्रख्यात व्यक्त्तिव से मेल नहीं खाता। तब इस सम्पूर्ण करुणा, संवेदना एवं साहित्यिक सौंदर्य की लहरों के नीचे से एक प्रश्न सिर उठाता दिखाई देता है कि क्या महादेवी स्वयं ऊँचे आसन पर स्थित रहकर नीचे गिरे हुए उन दीन-हीनों पर दया दृष्टि बरसा रही थीं? उन पर करूणा, बरसाते समय, उनकी स्मृतियों को अपनी संवेदना में संजोते समय तथा उन संचित स्मृतियों की पूंजी बनाकर एक नई कृति का सृजन करते समय क्या उनका आभिजात्य उन पर हावी था? कई बार उनके मन ने चाहा कि घीसा को उसकी माँ से माँग ले जाकर उसके विकास की उचित व्यवस्था कर दें, किंतु उस मानिनी विधवा का वही एक सहारा है, सोचकर नहीं ले गईं। ऐसे विधानों के प्रत्युतर में भी कई तर्क उपस्थित हो जाते हैं। इसी प्रकार वे स्वयं के विषय में कहती हैं; ‘‘जिस अवकाश के समय को लोग इष्ट मित्रों से मिलने, उत्सवों में सम्मिलित होने अथवा आमोद-प्रमोद के लिए सुरक्षित रखते हैं, उसी को मैं इस खंडहर और उसके क्षत-विक्षत चरणों पर पछाड़ें खाती हुई भागीरथी के तट पर काट ही नहीं, सुख से काट देती हूँ।’’ यह लेखिका की अपने विशिष्टीकरण की स्वीकारोक्ति ही तो मानी जाएगी!
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जिन्होंने महादेवी वर्मा के रेखाचित्र पढ़े हैं, वे इस पर खरी टिप्पणी कर सकते हैं।