अनुनाद

‘कितनी कम जगहें हैं’ में कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है/समीना खान



रचनाकारों की दुनिया में अमूमन एक वर्ग ऐसा होता है जो किसी रचनाकार के पहले संग्रह को उसके लेखन के शैशवकाल से जोड़ता है।मगर सीमा सिंह का पहला संग्रह जिस परिपक्वता की मिसाल देता है,उसका अंदाज़ा पाठक केवल शीर्षक से ही लगा सकता है। ‘कितनी कमजगहें हैं’ के साथ वे छंद मुक्त कविता के संसार में अपनी जगह बनाती हैं । फिर उनका पाठक उन्हें वर्तमान साहित्य संसार में ठीक-ठाक स्थान घेरने में सफल बना देता है। स्थान घेरने की यह प्रक्रिया कवि के उस कंटेंट की बदौलत पूरी होती है, जहाँ वे अपने आस-पास के कई नज़र आने वाले और अनदेखे विमर्श को सामने लाती हैं। 

 शीर्षक के बाद और कविताओं के विषयवस्तु तक जाने से पहले अगर बात की  जाए क्रम की तो सीमा सिंह की कविताओं का क्रम उनके रचना संसार के विस्तार का खुलासा करता है। ठीक वैसे ही जैसे मक़बूल फ़िदा हुसैन कहते हैं-“ जब मैं चित्र बनाने लगूं तो आसमान को अपने हाथों में पकड़ लेना क्योंकि मैं अपने कैनवास के फैलाव से अनजान हूं।”

और यही बात सीमा की कविताओं की इस फेहरिस्त में नज़र आती है।जिसमें घर के कोने में रखा इमामदस्ता भी है और शहर की ऐतिहासिक इमारत घंटाघर भी, जिसे वह एक आंदोलन के संकेत से जोड़ती नज़र आती हैं। घर के वृहतचक्र और आध्यात्मिकता को समेटे ब्रह्म मुहूर्त का पाठ कराने वाली सीमा क्रांति की दलील को प्रेम से जोड़ने में नहीं चूकतीं।इन सभी पर बात करें तो दूर तलक निकला जा सकता है। जिसमें अपने सामने फलते-फूलते एक आंदोलन को वे कैसे देखती हैं, इसका ज़िक्र किए बग़ैर आगे बढ़ना नाइंसाफी होगी-

“घंटाघर अकेला गवाह है

कि जब भी ये हथेलियाँ

थामती हैं कोई मशाल, तो फूटता है

रौशनी का सोता वहीं से!”

 अब बात करें कविताओं की तो ये वह कविताएं हैं जिन्हें कवि ने वर्ष 2016 से 2023 के बीच रचा है। मगर इनका बीज बहुत पहले से इनके भीतर रहा और पनपा नज़र आता है। समय के साथ मध्यम आंच पर पकी इन सभी कविताओं पर अलग-अलग समीक्षा करना मुमकिन नहीं और अपनी पसंद तलाशना भी आसान नहीं। मगर चंद पर बात करें तो पाते हैं कि वर्तमान को रचते समय सीमा बीते युगों का दामन भी थामती हैं और भविष्य के लिए सवाल उनकी रचनाओं का निष्कर्ष बन कर सामने आता है । मसलन ‘रवीश कुमार तुम्हारा कैमरा झूठ बोलता है’ शीर्षक से लिखी कविता- 

“बुद्ध की धर्म देशना ने बताया था मध्यम मार्ग

एक और कवि था जो कहता था कि बीच का रास्ता नहीं होता

और ठीक बीच में आकर ख़त्म हो गए हैं मेरे सारे शब्द भी…”

 … में सीमा सदियों का ज़िक्र करते हुए यह भी कह जाती है कि उनके पास शब्द ख़त्म हो गए हैं और मध्यम मार्ग का संकेत भी दे देती हैं। इस रचना में वे न तो अपने विचार थोपती हैं और न पाठक से गुज़ारिश करती हैं बल्कि विनम्रता से अपनी बात कहते हुए शब्दों के समापन और अपनी ख़ामोशी को सामने ला देती हैं।

इमामदस्ता के बहाने कवि नस्लों के दुखों को जब प्रस्तुत करती हैं तो बड़ी सादगी से अपने वर्तमान की अदालत में गुहार लगाती हैं कि पीढ़ियां बदल गईं मगर इमामदस्ता नहीं बदला।

 ‘निमित्त’ शीर्षक से लिखी कविता में प्रकृति, भूख और आस्था के बीच गुज़रते मानव के साथ सीमा का दर्शन इन सबकी परिणीति बनकर सामने आता है और जीवन के कई पहलुओं से दो-चार कराती इस कविता का समापन जिस दर्शन पर होता है, वह जैसे संसार को सहेजने का सन्देश दे जाता है। वे उसी सहजता से रचती हैं-

“प्रेम में छोड़ देना अपनी जगह

उसके होने का सबसे बड़ा निमित्त है।”

 इस संग्रह में घंटाघर शीर्षक से लिखी कविता का तीसरा खंड-

 “कोरे पन्नों पर उतरने से बहुत पहले

इतिहास उतरता है मानव देहों पर

लिखी होती है कितनी ही कहानियां

इन्हीं देहों पर, जिन्हें मामूली समझ

छोड़ देते हैं इतिहासकार लिखने से,

देखो! देखो कि इस बार ये कोरे पन्ने

भरे जा रहे

नाज़ुक समझी जाने वाली हथेलियों से “

 यहां कविता बताती है कि जब इतिहासकार अपना काम पूरा कर लेता है तो किस तरह साहित्यकार अपना फ़र्ज़ निभाता है। महज़ चंद शब्द, और बड़ी ही सरलता से वे मानव देहों द्वारा झेली जाने वाली त्रासदियों की गाथाओं की ओर इशारा कर देती हैं। 

 ख़ामोशी के साथ सीमा रचती जाती हैं। इस रचे जाने में कई बार ऐसा लगता है कि वह अपनी बात की कुछ तहें खोलती है और कुछ बिना खोले पाठक के हवाले कर देती हैं। कवि का यह अंदाज़ ‘कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है’, का एहसास दिलाता है। ऐसा लगता है कि वे चाहती हैं कि पाठक खुद भी कुछ ज़हमत करे और उस परदे के परे पहुंच सके। मसलन ‘स्त्रियां’ शीर्षक में लिखी कविता-

उन्होंने छिपा दी थीं

 अपनी बहुत से इच्छाएं

 वह आगे लिखती हैं-

 अनावृत हो जाना

दुनिया का उधड़ जाना था 

 सीमा सिंह के लेखन की एक ख़ास बात जो उनकी रचनाओं में निरालापन देती है, वह यह कि वे किसी सियाह और सफ़ेद का फैसला पाठक के हवाले करने में माहिर हैं। अगर कोई हमसे पूछे कि उनका लेखन किस रंग का है तो मेरा जवाब होगा- सुरमई। क्योंकि सीमा सियाह को सियाह और सफ़ेद को सफ़ेद कहने से तो बचती हैं साथ ही जिस सुरमई शेड में वह अपनी बात कहती हैं, उसे भी अनायास ज़ाहिर करने से बचा ले जाती हैं ।मसलन कील शीर्षक से लिखी कविता के हवाले से यह बात सामने लाना मुनासिब होगा-

 “एक कील लोहार के हथोड़े में

 एक कील ईसा के हाथों में

एक कील किसान के हल में

 कीलें नहीं जानती अपनी सही जगह

कभी-कभी वे उग आती हैं राजधानी जाने वाली सड़कों पे”

 या फिर बीत गए समय और क़ुदरत से किनाराकशी करते विकसित होती सभ्यता से जुड़ी ये पंक्तियां-

“शब्दों की यात्रा में अब देखती हूं तो

कचनार कहीं नहीं दिखता

दिखती है गति विकसित होती सभ्यता की

जिसके निरंतर आगे जाने के क्रम में आड़े आ रहा था

एक पुराना पोस्ट ऑफिस और उससे लगा कचनार!”

 एक ऐसे समय में जब विभिन्न माध्यमों के ज़रिए विमर्श लिखा जा रहा है और खूब-खूब लिखा जा रहा है, वहीँ सीमा का विमर्श कुछ इतर नज़र आता है। सीमा रसोई के इमामदस्ते से सियासत के बुलडोज़र तक पर निगाह रखती है। बारिश की बूंद से लेकर आस्था तक को अपनी कविताओं में पिरोती हैं। प्रेम और विरह का भी बखान करती है और समकालीन रचनाकारों के साथ स्त्री विमर्श पर भी उनकी लेखनी चलती है। मगर वे स्त्री विमर्श के नाम पर अपना रास्ता ज़रा अलग करती नज़र आती हैं। यहां वे स्त्री के दुख सामने लाती है, उनके अधिकारों की बात करती हैं, विमर्श के लिए कई मुद्दे परोसती हैं मगर मातम को दरकिनार करते हुए। और शायद उनका यही अंदाज़ स्त्री विमर्श को वह मज़बूती देता है जिसमें दुखड़ा रोने के बजाए  सवालों की एक ठोस ज़मीन तैयार हो ।मसलन एक कविता में वे पूछती हैं

 पेड़ों से पत्ते झर जाने कहां चले जाते हैं

 और फिर खुद ही उत्तर देती हैं

इसके लिए चाहिए एक उम्र का सफ़र और

इतना धैर्य कि प्रतीक्षा की अंतिम सांस तक

आस बनी रहे!

 या फिर-

मैं किसी और दिन की तलाश में

देखती हूं आज का भीगा हुआ दिन

 कविता विशेषज्ञ होने के नाते न सही मगर कविता की रचना प्रक्रिया का भागीदार और पाठक होने के नाते, ‘कितनी कम जगहें हैं’ पर कुछ लिखने का प्रयास किया है। अब अगर इसे एक आलोचक के नज़रिए से देखें तो यहां भी थोड़ा कहे जाने की गुंजाइश बनती है। क्योंकि सीमा विनम्रता और सौम्यता के टूल से अपना रचना संसार निर्मित करती हैं, जिसमें पैनेपन की गुंजाइश कम हो जाती है और इसके नतीजे में पाठक उनके धारदार रचे जाने से महरूम हो जाता है। मुमकिन है आनेवाले संग्रह तक वे शब्दों पर इस हद तक अपनी पकड़ बना लें, जहां सौम्यता और विनम्रता के साथ जायज़ आक्रमकता भी शामिल हो सके।

 पहले संग्रह की परिपक्वता के बावजूद कहीं-कहीं शिल्प पर उनकी पकड़ ढीली हुई है। ‘एक और मन’ जैसी कविता में इसकी कमी साफ नज़र आती है। ऐसे ही कई और भी उदहारण संग्रह में हैं। रचनाकार कथ्य से इसे साधने का प्रयास करता नज़र आता है। इसी कविता के हवाले से एक और कमी जो नज़र आती है, वह है रचना का गद्यात्मक हो जाना।जिसको ‘एक स्वप्न की प्रतीक्षा’ शीर्षक वाली पूरी कविता में साफ तौर पर देखा जा सकता है।

 ‘कुछ है जो दुनिया से कहना नहीं चाहती अब

कि कहते-कहते थकने लगी हूं

जिसे बोलने के लिए मुझे एक सपने की ज़रूरत है।’

 सीमा का डायरीनुमा यह वार्तालाप कई बार सामने आकर अच्छे कंटेंट के बावजूद पद्य की कमी का एहसास कराता है । इतिहास और दर्शन का अध्ययन और भविष्य की संभावनाओं के साथ कुछ और रूपक की दरकार शायद उनके कहन को और भी सुन्दर बना सकती थी।   

 सेतु प्रकाशन से सीमा सिंह का निकलने वाला पहला संग्रह उनकी पचास से ज़्यादा छोटी-बड़ी रचनाओं को इसमें जगह देता है। संभावित उत्तरों की तलाश वाली प्रतिरोध की इन कविताओं के साथ सीमा बड़ा सलोना रच रही हैं। उनसे आगे भी शानदार रचे जाने की उम्मीद है। कमी कहें या इच्छा मगर इस संग्रह में छंद युक्त कविता की तलाश थी और कामना है कि अगर संभव हो तो सीमा सिंह इस पर भी कोशिश करें।

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