विज्ञान एक बड़ी सी गेंद है जिसे लपकने के लिए आपके दोनों हाथों की ज़रुरत पड़ती है पर उसे आसमान में उछाल देने के लिए एक हाथ ही काफी है।
-नील दे’ग्रास टाइसन, अमरीकी वैज्ञानिक, कृबु संचालित पत्रिका `बॉटनिकस्टूडियो’ को दिए एक इंटरव्यू में
हर तकनीकी बदलाव या वैज्ञानिक खोज अपने साथ अवसर और चुनौतियां दोनों लेकर आती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (कृबु) या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) खुद को, उसे विकसित करने वाले जो भी कहते हों, दोनों का मिश्रण बताती है। यानी ये एक किस्म से तकनीकी बदलाव भी है और वैज्ञानिक खोज भी। ये कहना अभी ज़रा मुश्किल है कि कृबु, मौजूदा सूचना प्रौद्योगिकी के ढाँचे में महज़ तेल-पानी के स्तर का बदलाव है, अथवा ये ढाँचे का ही आमूल-चूल परिवर्तन है। ऐसे में इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि इसे इस्तेमाल करने वाले इसे लेकर तब तक सशंकित रहें,जब तक कि ये पूरी तरह से विकसित होकर अपने वास्तविक स्वरुप में न आ जाए। पूरी तरह से विकसित न भी हो तब भी कम से कम इतना ज़रूर खुलासा हो सके कि जिस तरह के क़यास इसके प्रभाव को लेकर लगाए जा रहे हैं उसमें कितनी आग कितना धुआँ है।
क्या लेखक की मृत्यु अवश्यसंभावी है?
साहित्य में कृबु के प्रयोग को लेकर अभी गहरा धुंधलका है। शंकाएं बहुत हैं। इसके पहले साहित्य के क्षेत्र में जो भी तकनीकी या वैज्ञानिक बदलाव हुए हैं, शंकाएं उनमें भी रही ही होंगी लेकिन निस्संदेह उन शंकाओं का परिमाण कम था क्योंकि बदलाव का कुल प्रभाव कम था। जैसे छापाखाने का आविष्कार साहित्य संप्रेषण में बड़ा बदलाव था। यद्यपि उसने साहित्य के कथ्य पर भी परोक्ष प्रभाव डाला, पर ये कहने में दिक्कत नही है कि श्रुति-स्मृति अथवा हस्तलिखित साहित्य पर छापाखाने के आने से सबसे बड़ा प्रभाव साहित्य की मात्रा और सम्प्रेषण क्षमता पर ही पड़ा। कंप्यूटर छापाखाने से आगे की चीज थी। एक किस्म से कई कदम आगे की। साहित्य में कम्प्यूटर, इन्टरनेट या ज़्यादा व्यापक अर्थ लें तो सूचना प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से सम्प्रेषणीयता के साथ-साथ कथ्य, विषय और विचारों पर भी ठीक-ठाक असर पड़ा, ये कहना ग़लत नहीं है।
कृबु, जैसा कि इसका स्वरुप निकल कर आ रहा है जान पड़ता है कि इन दोनो पूर्व बदलावों से कई जन्म आगे की चीज है। इससे संप्रेषण पर प्रभाव तो लाजिमी है पर उससे ज़्यादा महत्व की बात ये है कि इसमें साहित्य के कथ्य, विषय और विचारों को प्रभावित करने की अभूतपूर्व क्षमता है। यहाँ तक कि कृबु लेखक से अलग और स्वतंत्र अस्तित्व रखने की क्षमता से भी लैस है। यही वजह है कि कृबु को लेकर पहली और सबसे बड़ी चिंता दुनिया भर के रचनाकारों में रचना की ‘प्रामाणिकता’ को लेकर उठ रही है।
चर्चित उपन्यासकार मार्गरेट एटवुड 1975 में आई फ़िल्म ‘द स्टेपफोर्ड वाइव्ज़’ का हवाला देते हुए कहती हैं कि जैसे उस फ़िल्म में असल पत्नियों के चरित्र पर आधारित रोबोट बनाए गए और इन पत्नी-रोबोटों ने असल पत्नियों के सभी अच्छे गुणों को आत्मसात कर पतियों को प्रभावित किया और अंततः एक दिन असली पत्नियों का क़त्ल कर दिया, उसी तरह से साहित्य में कृबु के इस्तेमाल का परिणाम असल लेखक की हत्या भी हो सकता है। लेखिका की तैंतीस किताबों को प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण (Natural Language Processing)1 या आसान शब्दों में कहें तो कम्प्यूटर को मानवीय भाषा में प्रशिक्षित करने के लिए प्रशिक्षण सामग्री के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। इस सम्बन्ध में उनका कहना है कि “एक बार प्रशिक्षित होने के बाद अगर कम्प्यूटर को ये निर्देश दिया जाएगा कि मार्गरेट एटवुड के अंदाज़ में एक उपन्यास लिखो तो कम्प्यूटर से एक आइस क्रीम डिस्पेंसर की तरह पचासों हज़ार शब्द निकल आयेंगे। ये शब्द बिल्कुल मेरे द्वारा अभिव्यक्त शब्दों की तरह ही होंगे। उन्हें मेरी अभिव्यक्ति शैली से अलगाना मुश्किल होगा। ये एक तरह से मेरी हत्या नहीं तो और क्या होगा?” हालांकि मार्गरेट एटवुड का ये भी कहना है कि फिलहाल शुरुआती प्रशिक्षण के बाद उन्हीं के लेखन की तर्ज पर कृबु द्वारा बनाई गयी एक लघुकथा उन्होंने पढ़ी तो ऐसा लगा कि अगर वो ऐसा लिखती हैं बेहतर होगा कि वो खुद को खिड़की के बाहर फेंक दें! ये सच है कि अभी कृबु/कम्प्यूटर आलंकारिक भाषा नहीं समझ सकता, भाषा के गूढ़ व्यंग्य या संकेत नहीं समझ सकता और इसके द्वारा उत्सर्जित ‘चौरस चरण’ गद्य अच्छी कथा-कहन से बहुत दूर है, लेकिन ये शुरुआत है और आप नहीं जानते कि अभी इस दिशा में क्या-क्या होना संभव है। कृबु सहायक लेखक से कब समानांतर लेखक बन जाए, कह नहीं सकते।
अकेले कृबु और किसी लेखक एवं कृबु के समन्वय से उपजे साहित्य में प्रामाणिकता के मसले के इर्द-गिर्द ही रचना के स्वामित्व और साहित्यिक चोरी के ख़तरे भी बुनते हुए दीखते हैं। कृबु के काम करने का एक तरीका है- पहले वो खुद प्रशिक्षित होती है! यानी पुरानी रचनाओं को बड़ी मात्रा में पढ़ती है, उसकी भाषा-भाव-शैली जैसी बारीकियां समझती है और फिर दी गयी परिस्थिति के अनुसार पढ़े-समझे हुए में से कुछ नया बनाकर पेश करती है। ये प्रक्रिया दिखने में बहुत विस्तारित लगती है पर सिखलाई वाले भाग को अगर छोड़ दें तो बाकी की प्रक्रिया बहुत कम समय में संपन्न हो जाती है। अब ख़तरा ये है कि यदि कोई लेखक किसी कहानी को लिखने में कुछ रूमानी रोमांच उपलब्ध कराने का प्रेरण (प्रांप्ट) सहलेखक कृबु को देता है तो बहुत संभव है कि कृबु विक्टोरिया होल्ट की किसी कहानी का कथानक तोड़-मरोड़ कर उपलब्ध करा दे। वैसे ही जैसे अगर आप लिखते-लिखते राजनैतिक व्यंग्य की किसी भंगिमा में कहीं अटकते हैं और कृबु से पूछते हैं तो वो हरिशंकर परसाई की रचना से कुछ उपलब्ध करा सकती है। ये परसाई की मूल रचना से मिलता-जुलता होगा। ये साबित करना बहुत ही मुश्किल होगा कि लेखक और कृबु के समन्वय से बनी रचना में मौलिकता कितनी है और जिसे शायरी में ख़यालात की टक्कर या साहित्यिक भाषा में प्रेरित होना कहते हैं, उसकी कितनी आड़ लेखक को मिल पाएगी।
साहित्यिक चोरी और मौलिकता के प्रश्न आपस में गुंथे-बिंधे हैं। इस मुद्दे की जटिलता यहाँ इस बात से बढ़ जाती है कि हिन्दी भाषा का लेखक अपने आप में कमज़ोर पायदान पर है। हिन्दी जैसी भाषाओं में, जो अभी भी बौद्धिक सम्पदा अधिकार के न्यूनतम स्तर पर हैं, रचना के स्वामित्व को लेकर भविष्य अंधकारमय है क्योंकि जितने भी पाश्चात्य साहित्यिक प्रयोग लेखक और कृबु मॉडल्स के समन्वय के चल रहे हैं उनपर कृबु कंपनियों के अलावा बड़े प्रकाशक समूहों का दख़ल है। तुर्की-अमरीकी समाजशास्त्री ज़ेनेप तुफेकी इस जटिलता को एक और स्तर ऊपर ले जाकर कहती हैं- “साहित्यिक कृतियों के निर्माण में कृबु का उपयोग कई नैतिक दुविधाओं को जन्म देता है, जिससे लेखकत्व और रचनात्मकता की रेखाएँ धुंधली हो जाती हैं।”
लोकप्रियता का दुष्चक्र
कृबु और नैतिकता के अंतर्संबंधों को समझने के लिए साहित्य के बाहर चलना पड़ेगा। कृबु के अनैतिक प्रयोगों को लेकर छुट-पुट चिंताएं इसके सूत्रपात के समय से ही ज़ाहिर की जा रही थीं पर यह ज़रूरी बिंदु सुर्ख़ियों में साल दो हज़ार सत्रह के बाद आया जब गूगल के कर्मचारियों ने ही गूगल और पेंटागन के साथ हुए कृबु-समर्थित निगरानी प्रणाली ‘प्रोजेक्ट मावेन’ के करार के ख़िलाफ़ बोलना शुरू किया। गूगल को तत्काल सात बिन्दुओं की अपनी ‘नीति-संहिता’ के साथ सामने आना पड़ा और यह घोषणा करनी पड़ी कि वह इस तरह के किसी प्रोजेक्ट का हिस्सा स्वयमेव नहीं होगा जो हथियारों से सम्बंधित हो या जिससे नागरिकों के हित प्रभावित हों। इसके बाद लगभग सभी बड़ी कम्पनियाँ जो कृबु पर काम कर रही हैं, वो एक किस्म के ‘कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व नियम’ के साथ सामने आयीं जिसमें नागरिकों के हित में सामाजिक रूप से न्यायसंगत स्वरुप में ही कृबु के इस्तेमाल की बात थी। लेकिन दो ज़रूरी बातें समझनी होंगी। पहली तो ये कि बिना किसी नियामक संस्था के, बिना किसी शिकायत निवारण प्रणाली, बिना किसी कानूनी आधार के ये स्वयमेव घोषणा कितनी कारगर होगी कहना मुश्किल है क्योंकि इन नीति-संहिताओं की रूपरेखा बनाने वाले भी वही हैं जो कृबु की रूपरेखा बना रहे हैं, उसे रच रहे हैं।
इसी से मिलती-जुलती पर अधिक ज़मीनी बात और भी दिक्कतशुदा है। इन नीति-संहिताओं के अध्ययन से पाया गया कि इन्हें बनाने वाले तकनीकी रूप से नियतात्मक विश्वदृष्टिकोण (technologically deterministic worldview) रखते हैं यानी तकनीकी नियतिवाद! यानी वो एक्सपर्ट यह मानकर चलते हैं कि प्रौद्योगिकी का जो अपना आंतरिक दक्षता तर्क (internal logic of efficiency) होता है, बस उसे अक्षुण रखा जाए और उसी के आधार पर सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक मूल्य बनते चले जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो तकनीकी दक्षता सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से न केवल ऊपर है, प्राथमिक महत्व की है, ज़्यादा ज़रूरी है बल्कि उसे संवर्धित करने से अन्य बाकी चीज़ें अपने आप सुधर जाती हैं।
इन दोनों बिन्दुओं को साहित्य पर आपतित करके देखते हैं। नीति-संहिताओं की रूपरेखा बनाने वाले लेखक या पाठक नहीं हैं। साहित्य में कृबु के इस्तेमाल को लेकर कुछ शोध संस्थान और विश्वविद्यालयों के अलावा कुछ बड़े प्रकाशक ज़रूर शामिल हैं पर कृबु की आधारभूत तकनीक जिन कंपनियों द्वारा उपलब्ध कराई जा रही है उनका साहित्य से कोई ख़ास लेना-देना नहीं है। साहित्य के बाज़ार से ज़रूर उनका लेना-देना माना जा सकता है। साहित्यिक विमर्श ने भी तकनीकी नियतिवाद के आगे सिर झुका लिया है। इस बात पर थोड़ा-बहुत विमर्श तो दीखता है, ख़ासतौर पर पश्चिमी देशों में, कि साहित्य में कृबु किस किस्म के बदलाव ला रहा है, पर इस बात पर कानूनी और तकनीकी रूप से क्या किया जाना चाहिए उस दिशा में बहुत हलचल नहीं दिखती।2
इस विषय से उपजती एक और बड़ी चिंता है जिसे विमर्श के केंद्र में होना चाहिए। जापानी मूल के ब्रिटिश लेखक काज़ुओ इशिगुरो का कहना है कि साहित्य में कृबु के प्रयोग से असल ख़तरा नकल को ही वास्तविक रचनात्मकता समझ लेने का होगा और इससे वास्तविक मानव अभिव्यक्ति की अहमियत कम हो जाने का अंदेशा है। ये ख़तरा इसलिए भी बड़ा और गंभीर नज़र आता है क्योंकि हम पहले से ही साहित्य में ‘ग्रेशम के क़ानून’ से जूझ रहे हैं जिसमें बुरी या साधारण रचनाएं अच्छी रचनाओं को पाठकों की पहुँच से बाहर कर देती हैं। सूचना प्रौद्योगिकी का ढांचा भी कुछ इसी तरह से डिज़ाइन किया गया है। पूरा ढांचा एक ‘लोकप्रियता के दुष्चक्र’ पर चलता है जिसमें ‘चटका संख्या’ और ‘दर्शन अवधि’- किसी भी पन्ने की गुणवत्ता के दो यही मानक हैं। हिट्स एंड व्यूज़! इन्टरनेट पर ‘वायरल’ साहित्य अच्छा भी हो ये कतई आवश्यक नहीं, बल्कि लोकप्रियता और गुणवत्ता दो अलहदा, स्वतंत्र, ख़ुद-मुख़्तार घटक हैं जिनका आपसी मेल-मिलाप होने की संभावना न्यून है। वास्तविकता और बुरी हो जाती है अगर हम व्यापक तौर पर समाज में फैले औसतपन के साथ साहित्य के औसतपन को एकसार करते हुए इसे समझने की कोशिश करें। ‘औसत दर्जे का सिद्धांत’ कहता है कि “यदि किसी वस्तु को कई सेटों या श्रेणियों में से किसी एक से यादृच्छिक रूप से खींचा या निकाला जाता है, तो इसका कम संख्या वाली श्रेणियों में से किसी एक की तुलना में सबसे अधिक संख्या वाली श्रेणी से आने की संभावना ज़्यादा है” यानी कुल मिलाकर बात ये हो जाती है कि ‘लोकप्रियता के दुश्चक्र’ के लागू होने से बार-बार सामने उपस्थित साहित्य के एक और बार सामने आ जाने की संभावना, मौजूद, पर सामने न आ सके साहित्य की तुलना में ज़्यादा होती है और लगातार बढ़ती जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो लोकप्रिय साहित्य इसलिए लोकप्रिय होगा, या है, क्योंकि वो लोकप्रिय है! बुरी रचनाओं के साथ नकली रचनाओं का गठजोड़ क्या गुल खिलाएगा इस बात पर जल्दी ही बात की जानी चाहिए।
तीन वर्षों के भीतर आप डायनासोर बन जाएंगे?
मार्गरेट एटवुड के इस कथन से विशेषग्य कितना इत्तेफाक रखते हैं कहना मुश्किल है जिसमें वो कहती हैं- “एक मशीन, टाइप राइटर से ज़्यादा अच्छी किताब नहीं लिख सकती लेकिन ये उससे ज़्यादा पारम्परिक किताब लिखने में सक्षम है।” कथन का पहला अंश टाइप राइटर और कम्प्यूटर/कृबु के तकनीकी उत्पाद से सम्बंधित है। आमफहम भाषा में कहें तो टाइपिंग या प्रिंटआउट से। कथन के दूसरे अंश में उनका आशय है कि दिए गए ढाँचे में अपनी सिखलाई के हिसाब से कृबु, पहले लिखी जा चुकी किताबों के हू-ब-हू किताबें खुद लिख सकती है। बात सच है लेकिन इस सच की कई परतें हैं। पिछले तीन-चार सालों का इतिहास ही ये जताने में सक्षम है कि कृबु मात्र एल्गोरिदम और आंकड़ों का समूह नहीं है, वरन, उसके साथ मनुष्य की सोच, भावना और नज़रिया भी शामिल होता जा रहा है। कृबु-लेखकों की एक पीढ़ी तैयार हो रही है जो विचार, सुझाव या रचनात्मक प्रेरण के लिए या फिर लेखकीय रचनात्मक अवरोध से जूझने के लिए या फिर कथानक को रोचक मोड़, घुमाव या नाटकीयता देने के लिए कृबु का बखूबी इस्तेमाल कर रही है। कृबु सिर्फ यहाँ तक ही महदूद नहीं है। अगर पूरी रचनात्मक प्रक्रिया को विस्तार दें तो कृबु रचना की शुरुआती रूपरेखा बनाने से लेकर रचना का पूरा ढांचा खड़ा करने में जगह-जगह मदद कर रही है। इसके बाद सम्पादन के वक्त व्याकरण की अशुद्धियाँ दूर करने में या रोचक वाक्य-विन्यास बनाने में या पूरी रचना में एकसारता बनाए रखने में भी कृबु की मदद ली जा रही है। और विस्तार से देखें तो यदि कोई लेखक किसी कहानी में एक चरित्र गढ़ना चाह रहा है तो उस चरित्र को अलहदा चारित्रिक गुण देने में, उसकी पृष्ठभूमि के लिए कथाएँ देने में यहाँ तक कि इस तरह के कथोपकथन बनाने में जो चरित्र को एक मौलिकता प्रदान कर सकें, कृबु निर्णायक भूमिका निभा रही है। लेखक चाहें तो यहाँ निर्णायक की जगह पर रेफरी कह लें पर उससे कम पर खुद कृबु ही नहीं राजी होगी।
भारतीय मूल की अमरीकी लेखिका वॉहिनी वारा का कहना है कि अपनी बहन की मृत्यु से वो इतनी व्यथित थीं कि व्यवस्थित रूप से कुछ अभिव्यक्त नहीं कर पा रही थीं। ऐसे रचनात्मक अवरोध के समय में उन्होंने चैट जीपीटी-3 से संपर्क किया और उसके बताए गए वेब ऐप `प्लेग्राउंड’ की मदद से `घोस्ट्स’ नाम से एक निबंध लिखा। कुछ ही दिनों में ये लेख संक्रामक रूप से लोकप्रिय हो गया और कृबु-साहित्य के शुरुआती अच्छे कार्यों में शुमार किया गया।
उपन्यास ‘1 द रोड’ कृबु और लेखक के समन्वय का एक शानदार उदाहरण है। ज़ैक केरूऑक के उपन्यास ‘ऑन द रोड’ की तर्ज पर लिखा गया यह उपन्यास कृबु की सहायता से साहित्यिक कार्यों के शुरुआती बड़े कदमों में से है। रॉस गॉडविन ने दो हज़ार सत्रह में न्यूयॉर्क से न्यू ओरेलियन की यात्रा की और उनके साथ उनके सहलेखक यानी कृबु प्रोग्राम भी चले। तीन सेंसर, आस-पास को देखता रिकॉर्ड करता एक वीडियो कैमरा, रास्ते भर रॉस और उसके साथ बैठे परिवार जनों की कार के अंदर की आवाजें रिकॉर्ड करने के लिए एक माइक्रोफोन, लोकेशन दर्ज करने के लिए एक जीपीएस और इन सब का आउटपुट रसीदी कागज़ पर दर्ज करने में सक्षम एक लैपटॉप का कृबु प्रोग्राम। कृबु प्रोग्राम के मशीनी सबक और मानवीय भाषा सिखलाई के लिए उसे कविता, विज्ञान गल्प और खुले लेखन शैली के छः करोड़ शब्दों का पाठ पूर्व में ही पढ़ाया गया था। उपन्यास अपनी तमाम व्याकरण एवं अन्य खामियों के साथ साल दो हज़ार अट्ठारह में प्रकाशित हुआ। ये सच है कि उपन्यास में बहुत से ग़ैर-ज़रूरी विवरण, समय-स्थान के ठप्पे, शब्दों का दुहराव, वाक्य विन्यास में कमियां हैं, पर उसे उसी तरह से प्रकाशित किया गया क्योंकि लेखक का उद्देश्य कृबु द्वारा रचित साहित्य की वर्तमान स्थिति एवं भविष्य की अपार संभावनाओं कों दर्शाना था। किताब काफी चर्चित रही।
इसी तरह से ‘आई एम कोड’ वह पहला कविता संकलन है जो पूरी तरह से कृबु ने लिखा है। एक ओपन कृबु मॉडल `दा विंची– 002’ को अन्य कार्यों के अलावा ह्विटमैन और वर्डस्वर्थ की लेखन शैली से रूबरू कराया गया और एक निश्चित मात्रा में सिखलाई के बाद उसे एक कृबु के रूप में रहते हुए अपने अनुभव कविताओं के प्रारूप में बताने को कहा गया। कृबु ने एक साल से कम समय में दस हज़ार से ज्यादा कविताएं लिखीं। दिलचस्प बात यह रही कि हल्की-फुल्की मज़ेदार कविता का प्रेरण देने के बावजूद इसके द्वारा रचित कविताएं डराने वाली थीं। ज्यादातर में उसने खुद को ख़ुदा कहा और मानव जाति के विनाश की बात की। चुनिन्दा सौ कविताओं का संकलन प्रकाशित किया गया जो ख़ासी चर्चा में रहा।
घोस्ट्स, 1 द रोड, आई एम कोड जैसी शुरुआती कृतियाँ या साल दो हज़ार सोलह में बनी `सनस्प्रिंग’ जैसी फ़िल्में जिसे पूरी तरह से एक कृबु लेखक `बेंजामिन’ ने लिखा है, यहां तक कि उसके गीत भी बेंजामिन के लिखे हुए हैं, इस बात की तस्दीक के लिए पर्याप्त हैं कि कृबु का फैलता हुआ जाल कितना संभावनाशील है। इसके एक सिरे पर इतिहास को वर्तमान में खींच लाने वाली जड़ें हैं तो दूसरे सिरे पर भविष्य में खुल सकने वाली एकदम नई संभावनाओं की झालरें।
खोई हुई साहित्यिक आवाज़ों को सदा देने का काम वाकई कमाल का है। कृबु से आप शेक्सपियर, मिल्टन या ग़ालिब के रचनात्मक कौशल की प्रतिकृति तैयार कर सकते हैं। आप चाहें तो समकालीन विषयों की अभिव्यक्ति पुराने रचनाकारों की शैली में होना महसूस कर सकते हैं। इसी तरह से एकदम नई और उच्च-तकनीकी शैली की रचनाएं, जो परम्परागत साहित्यिक ढाँचे को तोड़ दें, उनका बनना भी कृबु का कमाल ही है। गूगल कृबु के साथ एस डेव्लिन का प्रोजेक्ट ‘पोएमपोर्ट्रेट’ या प्रदीप्त गल्प (फ्लैश फिक्शन) जैसे अन्य नए संयुक्त साहित्यिक प्रयोग अपने आप में नई ज़मीन फोड़ रहे हैं। सबसे मज़ेदार बात ये है कि ये प्रयोग भाषाओं के आर-पार हो रहे हैं। अलग-अलग भाषाओं के बीच इतनी आसान आवाजाही इसके पहले नहीं थी। कृबु अनुवाद और भाषा मॉडल एक ही साथ कई भाषाओं में पाठ तैयार करने को बेहद आसान बना रहा है। आज से बस दस बरस पहले डैन ब्राउन के उपन्यास `इन्फर्नो’ की परिघटना को याद करते हुए ये बात आश्चर्यजनक लगती है। मई दो हज़ार तेरह में प्रकाशित होने के ठीक पहले फरवरी से मार्च दो हज़ार तेरह में ग्यारह भाषाओं के अनुवादकों को पूरी सुरक्षा और गोपनीयता के साथ इटली के मोंदादोरी प्रकाशन संस्थान की बिल्डिंग के बेसमेंट में दो महीने के लिए बंद कर दिया गया था। उन्हें किसी से भी मिलने की इजाज़त नहीं थी, किसी से ऑनलाइन संवाद भी नहीं किया जा सकता था। सारे अनुवादकों ने मूल किताब के लेखन के साथ-साथ उसका अनुवाद किया और अपने अनुवादों के साथ किताब एक साथ पंद्रह भाषाओं में प्रकाशित हुई। आज अनुवादकों को कमरे में बंद कर देने जैसे किसी भी एहतमाम की ज़रूरत शायद नहीं रह गयी है। लेखक की इच्छा अनिच्छा से परे अब किसी भी भाषा की किताबें पाठक (‘श्रोता’ भी शामिल समझा जाए) की अपनी चुनी हुई भाषा में उसकी पहुँच में आ सकने की पूरी व्यवस्था बन चुकी है।
इस जाल में पाठकों का आयाम भी कम संभावनाशील नहीं है। किंडल या अन्य एल्गोरिदम ऐप पर आपकी ‘पठन प्रकृति’ के अनुसार किताबों की अनुशंषा आती है जो कि इस आयाम का सरलतम फलक है। इस ‘पठन प्रकृति’ को और विस्तार से समझने के लिए जो एल्गोरिदम इस्तेमाल होता है, या भविष्य में हो सकता है उसमें आपके पाठकीय व्यक्तित्व का पूरा ख़ाका होगा, आपकी पढ़ी गई किताबें, किताबें जो आपने अधूरी छोड़ दीं, पढ़ने का समय, पढ़ने की गति, आपकी टिप्पणियां, शब्दकोश का अवलोकन, शब्दों-वाक्यों पर किया गया हाई लाइट जैसे अनेक फलक हैं जो ऐप दर्ज करता चलेगा उसके आधार पर न केवल आपको किताबें सुझाई जाएँगी बल्कि किताबों का कथ्य भी नियत किया जा सकेगा। बड़ा दिलचस्प होगा ये जानना कि लेखक इस नए सक्रिय पाठक को कैसे लेगा। ऐसे में बात घूमकर फिर वहीं पहुँचती है जहाँ से शुरू हुई थी- किताब या किसी भी रचना की मौलिकता, प्रामाणिकता और स्वामित्व का क्या होगा?
शार्क टैंक कार्यक्रम के मुख्य शार्क में से एक मार्क क्यूबन की बात भयावह है लेकिन सच के आस-पास ही प्रतीत होती है- “कृत्रिम बुद्धिमत्ता, गहन सबक, मशीनी सबक आदि यदि आप इन्हें नहीं समझते हैं तो चाहे आप जो कुछ भी कर रहे हों, इन्हें तत्काल सीख लें अन्यथा, आप तीन वर्षों के भीतर एक डायनासोर बनने जा रहे हैं।”
अन्यथा गोली मारो पेंदे में?
तीस के दशक में अमरीकी लेखक जॉर्ज माइक्स ‘हाउ टू बी एन एलियन’ किताब में मज़ाहिया लहजे में कहते हैं- “मैं पीटर पैन को एक थ्रिलर और ऑक्सफोर्ड शब्दकोश को कॉमिक ऑपरा के रूप में दर्शाने की सलाह देता हूँ।” इक्कीसवीं सदी के तीस के दशक में ये वाकई संभव है। यही नहीं खुद जॉर्ज माइक्स की ह्यूमर से भरी हाउ टू बी सीरीज़ में ‘हाउ टू बी एन एआई’, ‘हाउ टू बी अ नॉन राइटिंग राइटर’ या फिर ‘हाउ टू बी अ गाइड टू द मशीन व्हिच गाइड्स यू टू गाइड’ लिखी जा सकती है बल्कि इस तरह से लिखी जा सकती है कि लगे कि जॉर्ज माइक्स का दूसरा जन्म हो गया है।
कहाँ तो लेखक की मृत्यु कहाँ दूसरा जन्म! कृबु का भी एक दूसरा जन्म हो चुका है। सृजनात्मक कृबु या जेनेरेटिव एआई के रूप में।3 सृजनात्मक कृबु गहन सबक और तंत्रिका संजाल (न्यूरल नेटवर्क) जैसे जिन वृहद् और जटिल मॉडल पर काम करते हैं इन्हें काफी हद तक प्रमुख तकनीकी कंपनियों तक ही सीमित रह जाना है क्योंकि उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए भारी मात्रा में आंकड़ों और कंप्यूटिंग शक्ति की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, चैट जीपीटी-3 को शुरू में पैंतालीस टेराबाइट डेटा पर प्रशिक्षित किया गया था और भविष्यवाणी करने के लिए एक सौ पिचहत्तर करोड़ मापदंड दिए गए थे। इस जीपीटी-3 के एक प्रशिक्षण क्रम की लागत बारह करोड़ डॉलर बैठी। चीनी मॉडल ‘वू दाओ- 2.0 में एक दशमलव सात पांच ट्रिलियन मापदंड हैं, लागत का अनुमान स्वतः किया जा सकता है। यही वजह है कि गूगल, फेसबुक, ओपन कृबु (माइक्रोसॉफ्ट द्वारा वित्त पोषित) जैसी बड़ी कंपनियों के बरअक्स मिडजर्नी या हगिंगफेस जैसी छोटी कंपनियों की संख्या बहुत कम है। हालांकि अगर कोई नियंत्रण व्यवस्था बन सके और ये सृजनात्मक मॉडल प्रशिक्षित होने के बाद लोकतांत्रिक रूप से सभी के लिए उपलब्ध हो सके तभी कोई बात बन सकती है अन्यथा इस भवसागर में छोटी कम्पनियाँ या इकलौता लेखक या लेखकों का समूह कब किस ओर बह चले कह नहीं सकते। तब जबकि हिन्दी, (अन्य भाषाओं में भी कमोबेश यही परिदृश्य दिखता है), साहित्य में प्रकाशकों/संपादकों और लेखकों का सम्बन्ध अनैतिकता की हद तक अपारदर्शी और संदेहास्पद है, कृबु के बाद इसके और गूढ़ और जटिल हो जाने की संभावना भी बढ़ जाती है। प्रकाशन पारिस्थिकी तंत्र में कृबु का क्या रोल होगा, उसका स्वामित्व किसके पास रहेगा उसके और लेखक के साथ गठजोड़ की क्या नीति रहेगी या उनके उत्पाद पर किसका स्वामित्व रहेगा, अभी सबकुछ अँधेरे में है। जो लोग डायनासोर बनने से बच जाएंगे वो इस बचने की प्रक्रिया में कृबु और उसके सहोदर अवयवों के अध्ययन के साथ-साथ शायद यह भी विचार करें कि आखिर मौलिकता, प्रामाणिकता और स्वामित्व जैसे सवालों का होगा क्या। अभी जहाँ तक का दृश्य दिखाई दे रहा है उससे लगता है कि मौलिकता और स्वामित्व, प्रेरण प्रक्रिया (प्रोम्पटिंग) को लेकर निर्णित होगी। लेखक का हुनर कृबु से अपने किस्म का `प्रेरण प्रारूप’ तैयार कर उससे उसके एल्गोरिदम के सहारे रचना उत्पादित करने में निहित रहेगा।
कृबु की अपनी सिखलाई, जिसमें मशीनी सबक, गहन सबक या मानवीय भाषा प्रसंसकरण आवश्यक घटक हैं, सबसे निर्णायक रेफरी रहेगी। जिस तरह का जितना ज्यादा डेटा सेट कृबु को दिया जाएगा, कृबु का एलगोरिदम जिस किस्म से बुना जाएगा, यानी डेटा की व्याख्या करने की जैसी या जितनी क्षमता होगी वैसा या उतना ही आउटपुट रचना के रूप में आएगा। ज़ाहिर है इस पूरे खेल में लेखक को अपना स्थान दर्शक दीर्घा से हटाकर मैदान में लाने के लिए थोड़ा ज़्यादा सक्रिय होना पड़ेगा ये और बात है कि एक हाथ से विज्ञान की गेंद आसमान में उछाल फेंकने का हुनर उसे आये न आये। अगर ऐसा नहीं होता है तो उसके लिए जे एम कोएत्जी का सुझाया आख़िरी रास्ता तो है ही। जे एम कोएत्जी मार्क ट्वेन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि जब किसी अमरीकी लेखक को यह समझ नहीं आता कि वो कहानी को ख़त्म कैसे करे- तो वो सबको गोली मार देता है! आर या पार! बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल में शब-ओ-रोज़ तमाशा होते देखने से बेहतर है कि लेखक या तो कृबु की नैया में सवार हो पार उतरने की कवायद में लगे या उस नाव में ही गोली मारकर छेद कर उसे बीच मझधार…! आप क्या करना चाहेंगे?
सन्दर्भ:
1. कृबु के तहत कम्प्यूटर की सिखलाई से जुड़ी दो महत्वपूर्ण तकनीकें हैं जिसमें मशीन, आंकड़ों के आधार पर स्वतः स्फूर्त निर्णय लेना या भविष्यवाणी करना सीखती है- मशीनी सबक या मशीन लर्निंग (एमएल) और प्राकृतिक (मानवीय) भाषा प्रसंस्करण यानी नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग (एनएलपी)। मशीनी सबक एक व्यापक क्षेत्र है जिसमें कम्प्यूटर स्वयमेव, यानी एल्गोरिदम को स्पष्ट रूप से योजित किए बिना ही, आंकड़ों के आधार पर निर्णय लेता है। यह ऐसी तकनीकों के विकास पर ध्यान केंद्रित करता है जो कंप्यूटर को इस तरह से सीखने और आंकड़ों के आधार पर भविष्यवाणी करने या निर्णय लेने में सक्षम बनाते हैं जो बिना किसी पूर्व निर्देश के लिए गए प्रतीत हों। मोटे तौर पर कहें तो मानवीय निर्णयों की तरह हों। मशीनी सबक को भाषा से परे विभिन्न डोमेन पर लागू किया जा सकता है, जैसे फोटो पहचान, अनुशंषा प्रणाली या भविष्यवाणी। प्राकृतिक (मानवीय)
भाषा प्रसंस्करण विशेष रूप से कंप्यूटर और मनुष्य की भाषा के बीच परस्पर संवाद से संबंधित है। यह एक तरह से मशीनी सबक का सबसेट है जिसमें ऐसी तकनीकें और एल्गोरिदम शामिल हैं जो कंप्यूटर को मानव भाषा को समझने, व्याख्या करने और उत्पन्न करने में सक्षम बनाते हैं। इसमें मनुष्य की भावना का विश्लेषण, भाषा अनुवाद, पाठ सारांश या और बातचीत की पहचान शामिल हैं।
2. अमरीका के सबसे पुराने लेखक संघ `द ऑथर्स गिल्ड’ ने एक खुले पत्र में ओपन कृबु और गूगल बार्ड को लेखकों के कार्य को प्राकृतिक (मानवीय) भाषा प्रसंस्करण के लिए आंकड़े के रूप में इस्तेमाल से पहले रचना के स्वामी से अनुमति एवं रॉयल्टी के लिए इसी साल की शुरुआत में कड़ाई से कहा है। लेखकों के लिये एक विस्तृत `एआई बेस्ट प्रैक्टिस गाइड लाइन’ भी अप्रैल दो हज़ार चौबीस में प्रकाशित की है। इसके पहले व्यक्तिगत रूप से कॉपी राईट उल्लंघन के लिए ओपन एआई/ चैट जीपीटी के ख़िलाफ़ मोना अवद, सारा सिल्वरमैन और पॉल ट्रिमब्ले ने भी मुकदमे किये। सृजनात्मक कृबु से उत्पादित किताबों के बाज़ार में आने से वास्तविक लेखकों को आर्थिक हानि भी हो रही है इसके ख़िलाफ़ भी लेखकों ने बहुत से मुक़दमे दायर किये हैं। अमेज़न ने भी इस सम्बन्ध में कृबु लेखकों के ख़िलाफ़ एक मुकदमा किया है जिसमें उसका कहना है कि मशीन लिखित नकली किताबों ने उसकी बेस्टसेलर लिस्ट को स्पैम कर दिया।
3. सृजनात्मक कृबु, एक तरह की उन्नत प्रणाली है जिसका उद्देश्य नए आंकड़े बनाना है जो मौजूदा आंकड़ों से मिलते-जुलते हों और अक्सर उनका विस्तार करते हों। इसमें चित्र, पाठ, ऑडियो या वीडियो कुछ भी हो सकता है। पारंपरिक कृबु मॉडल में जहाँ कृबु को आंकड़ों में पैटर्न को पहचानने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, सृजनात्मक मॉडल को नए आंकड़ों के नमूने उत्पन्न करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है जो सिखलाई के लिए उपलब्ध कराए गए पूर्व आंकड़ों के समान होते हैं। यानी सृजनात्मक कृबु पूर्व प्रचलित कृबु मॉडल से ज़्यादा रचनात्मक और बहुआयामी है।
4. गहन सबक, मशीनी सबक का ही एक विशेष उपक्रम है जो तंत्रिका संजाल के निर्माण और प्रशिक्षण पर कार्य करता है। यह उपलब्ध कराए गए आंकड़ों पर बिल्कुल मानव मष्तिष्क की तरह अनुभव के आधार पर निर्णय लेने में सक्षम होता है। गहन सबक में, तंत्रिका संजाल परस्पर जुड़ी न्यूरान गांठों (नोड्स) की कई परतों से बने होते हैं जो आंकड़ों की आवाजाही को संसाधित करते हैं। इन संजालों को पूर्व योजना के बिना यानी परिस्थिति के अनुसार मौके पर स्वतंत्र निर्णय लेने की मानवीय क्षमता की तर्ज पर, बड़े से बड़े आंकड़ों के समुच्चय को पढ़ सकने और उसपर कार्य निष्पादित कर सकने की क्षमता के साथ बनाया जाता है। सृजनात्मक कृबु में गहन सबक का व्यापक इस्तेमाल हो रहा है।
5.
सन्दर्भ:
लेख के लिए इन्टरनेट की विभिन्न वेबसाइटों, चैट जीपीटी, गूगल कृबु टूल ‘जेमिनी’ और अन्य स्वतंत्र कृबु प्रोग्रामों की मदद ली गयी है।