अनुनाद

देखता हूँ पहले कौन चीखता है : विजयदेव नारायण साही – संदीप तिवारी

विजयदेव नारायण साही का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। वह मूलतः कवि थे। यह अलग बात है कि  वह हिंदी आलोचना में एक प्रखर आलोचक, विचारक और चिन्तक के रूप में भी हमेशा याद किये जाते हैं। तीसरा सप्तक से उनकी काव्य मेधा चर्चा में आई। उसके बाद लगातार उनकी कविताएँ प्रकाशित होती रहीं। उनके जीवन काल में उनका एक मात्र काव्य संकलन ‘मछलीघर’ प्रकाशित हुआ था। मरणोपरांत उनकी कविताओं का एक संकलन ‘साखी’ नाम से १९८२ में प्रकाशित हुआ। यही दो काव्य संग्रह उनकी काव्यात्मक मेधा को समझने के लिए पर्याप्त हैं। उनकी काव्यात्मक प्रतिभा को ध्यान में रखकर कवि कुंवर नारायण ने लिखा है “उनकी कविताओं में कहीं भी गुस्से का छिछला प्रदर्शन नहीं है : ताकत–लगभग हीरोइक आयामों वाली ताकत की भव्यता है – एक चढ़ी हुई प्रत्यंचा की तरह उनमें वह दृढ़ता और संयम है, जिनसे महाकाव्य बनते हैं।”

इस आयोजन के विषय- (शब्दों का आखेट: विजयदेव नारायण साही)  से अज्ञेय की वह बात याद आती है। उन्होंने तार सप्तक के दूसरे संस्करण के कवि वक्तव्य में कहा था – “काव्य सबसे पहले शब्द है। और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है। सारे कवि- धर्म इसी परिभाषा से निःसृत होते हैं। शब्द का ज्ञान-शब्द की अर्थवत्ता की सही पकड़ ही कृतिकार को कृती बनाती है। ध्वनि, लय, छंद, आदि के सभी प्रश्न इसी में से निकलते हैं और इसी में विलय होते हैं।”

इसलिए इस विषय पर कुछ लिखने से पहले यह कहना ज़रूरी जान पड़ता है कि शब्दों का आखेट तो  हर कवि को करना ही होता है। बिना आखेट के कुछ पकने से रहा। देखने वाली बात तो यह होती  है कि किस कवि का आखेट कितना बड़ा और सार्थक है। शब्दों को बरतने में कौन कवि कितना ईमानदार है। क्योंकि कवियों का धर्म, शब्दों को आवरण से बाहर ले आना भी है। मौजूदा समय में हमारे आसपास  शब्द का क्या हश्र है, यह किसी से  छिपा नहीं है। राजनीति में, धर्म में, अर्थ में, पत्रकारिता में, विज्ञापन में, सिनेमा में, हमारे आस-पास, जहाँ भी जितना छीछालेदर शब्दों का हो रहा है, वह हमारी आँखों के आगे है। इसलिए आज शब्दों को बचाने, बरतने और उसे पाखण्ड से ऊपर लाने की ज़िम्मेदारी भी साहित्य की ही है। जैसा कि श्री अशोक वाजपेयी ने अपने एक निबंध में लिखा है कि “शब्द को बचाना, उसे कल्पना और सच के बीच अपनी आभा जीवनाभा से द्योतित रखना कलावादी होना नहीं है बल्कि मनुष्य के एक कालजयी आविष्कार को बचाना है: उसकी जिजीविषा और मौलिकता को संजोना है। शब्द नहीं बचेगा तो मनुष्य और उसका जीवन नहीं बचेगा।”

इसलिए कवियों के लिए शब्दों का आखेट, शब्द विरोधी शक्तियों के यहाँ से शब्दों को वापस लाने जैसा है। यह आखेट शब्दों की निर्मलता को बचाने की एक कोशिश होती है। हर बड़ा कवि यह करता है। विजयदेव नारायण साही की कविताओं से गुजरकर यह जाना जा सकता है कि वह शब्दों की निर्मलता के प्रति कितने सजग हैं। शब्दों को बरतने का, उसे रचनात्मक रूप देने के अनगिन उदाहरण साही के साहित्य में मौजूद हैं।

साही की एक कविता है ‘पराजय के बाद’ जो साखी में संग्रहित है। इस कविता में योद्धाओं की जो विशाल सेना है वह पराजित होकर लौट रही है। जो जहाँ से, जिधर से लौट रहा है, आपस में ही एक दुसरे को लूटते हुए लौट रहा है। लौटने पर सबके पास कुछ न कुछ है। सब अपने लोगों को यही लूटी हुई चीजें दिखाकर यह साबित करने का यत्न कर रहे हैं कि हम पराजित होकर नहीं लौटे हैं। जीतकर लौटे हैं। और कविता का अंत इन पंक्तियों से होता है-

इसी बीच आसेतु पृथ्वी पर

बर्बरों का राज्य हो गया

और वे अपने- अपने एकांत में

जीत और गद्दारी के

पुराण रचते रहे

सुनो भाई साधो

सब जग अंधा हो गया है

मैं किसको समझाऊं ?

कविता की ये आख़िरी पंक्तियाँ जिस विवशता, बेचैनी और युग सत्य को हमारे सामने लाकर खड़ी करती हैं, उससे इस कविता का क़द और बड़ा हो जाता है। इस कविता से गुजरते हुए श्रीकान्त वर्मा की ‘कोसल में विचारों की कमी है’ की याद आती है। दोनों की भावभूमि वही है। जैसे विजयदेव नारायण साही की कविता में हारे हुए लोग, युद्ध विजय की घोषणाएं करते हैं वैसे ही इस कविता में बिना युद्ध के जय हो जाती है। ‘जो भी हो/ जय यह आपकी है/ बधाई हो/ राजसूय पूरा हुआ/ आप चक्रवर्ती हुए’ लेकिन अंत में वे जो प्रश्न छोड़कर जाते हैं कि कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता, क्योंकि कोसल में विचारों की कमी है। कोसल में विचारों की कमी और सब जग अंधा हो गया है में कोई विशेष अंतर नहीं है। बात वही है। दोनों कवियों ने अपने युग की सचाई तक जाने का रास्ता चुना है। रास्ते अलग हो सकते हैं लेकिन दोनों ही कविताओं की रचनात्मक मंजिल एक है। यह दोनों कवियों के शब्दों का कमाल है। दोनों ही कवियों ने शब्दों के रचनात्मक प्रयोग से अपने युग के पाखण्ड को नंगा किया है। 

‘अस्पताल में’ शीर्षक कविता का शिल्प शब्दों और संवादों में ही पूरा होता है। डॉक्टर और मरीज के संवाद पढ़ने में बड़े सहज लग सकते हैं, पर हैं बहुत व्यंग्यात्मक। एक ऐसा अस्पताल है जहाँ एक कराहता है तो दूसरे को नींद नहीं आती। एक कराहेगा तो दूसरे को नींद कैसे आएगी भला। जैसा कि कवि अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि ‘कराह सुनकर/ जो न टूटे/ नींद नहीं, मृत्यु है/ चाहे जितना थका हो आदमी/ और चाहे जब सोया हो’। कवि विजयदेव नारायण साही अपनी इस कविता के अंत में लिखते हैं-

साधो भाई

इस अस्पताल में

सब सो रहे हैं

सहज समाधि की तरह

सब कराह रहे हैं

अनाहत नाद की तरह

कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह अस्पताल सच में किसी अस्पताल का दृश्य सामने नहीं खड़ा करता है। बल्कि इस दृश्यावली में पूरा देश उपस्थित है, जहाँ हर किसी की स्थिति एक मरीज जैसी हो गई है। किसी को नींद नहीं आती, तो कोई कराहता रहता है। एक आता है तो एक इस अस्पताल से चला जाता है। मरीज डॉक्टर से पूछता है कि कहाँ चला जाता है। डॉक्टर कहता है कि यह बताना डाक्टरों के धर्म के विरुद्ध है। डॉक्टर हर जवाब मुस्कुरा कर देता है। डॉक्टर के हर बार मुस्कुराने से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि डॉक्टर इस देश का सामान्य नागरिक तो कतई नहीं हैं। देश का सामान्य नागरिक  हर समय मुस्कुरा नहीं सकता। मुस्कुराने का काम हुक्मरानों के पास है, यहाँ वही मुस्कुरा सकता है जो ताकत में है। बाकी के लोग या तो समाधि में हैं या अनाहत नाद में हैं।

इसी तरह साखी संग्रह की एक कविता जो ‘बहस के बाद’ शीर्षक से है जो अपने शिल्प की वजह से बहुत चर्चित रही है। यह पूरी कविता सवालों से भरी हुई है। असली सवाल है कि मुख्यमंत्री कौन होगा या ठाकुरों को इस बार कितने टिकट मिले? क्या यादवों में फूट पड़ी? कि शहर के ग्यारह अफसर भूमिहार क्यों हो गये। कवि साही की इस कविता में जितने भी सवाल हैं वह हम सबके सामने आज भी जस के तस हैं। मुश्किल वही है कि इतने असली सवालों में से असली किसे मानें। इन असली सवालों की फेहरिस्त गिनाते-गिनाते कवि बहुत थकी मुद्रा में अंततः यही लिखता है कि
    सुनो भाई साधो

असली सवाल है

कि असली सवाल क्या है ?

यह राजनीतिक कविता है। क्योंकि पहला प्रश्न राजनीति से ही है, दूसरा प्रश्न और सारे प्रश्न राजनीतिक हैं। राजनीतिक कविताएँ लिखना चुनौतीपूर्ण कार्य है। क्योंकि इसमें राजनीतिक कविता कब कविता की राजनीति पर अटक जाए, यह स्वयं कवि को भी मालूम नहीं होता। लेकिन सजग कवि इसे अपनी आत्म सजगता से साध लेते हैं। जैसे ब्रेख्त अपनी कविताओं में करते हैं। विजयदेव नारायण साही राजनीति से गहरे जुड़े रहे। लेकिन उनकी कविताओं को पढ़ते हुए कहीं भी नहीं महसूस होगा कि उनका कवि-कर्म विरोध की राजनीति पर अटका हुआ है। उनकी राजनीतिक कविताओं में गहरे व्यंग्य हैं। यही व्यंग्य उनकी इस तरह की कविताओं की ताकत हैं, जो अपनी नाटकीयता में कविता के तनाव को कहीं कम नहीं होने देते। राजनीतिक कविताओं के लिए एक ख़ास ईमानदारी की ज़रूरत होती है। जो हमें मुक्तिबोध की तरह विजयदेव नारायण साही की कविताओं में दिखती है।

कवि विजयदेव नारायण साही की ‘मछलीघर’ की कविताओं में स्वातंत्र्योत्तर भारत का यथार्थ बिलकुल नए ढंग से आया है। शब्दों से वह अपनी कविता का ऐसा वितान रचते हैं कि कई बार उनकी कविताओं में मुक्तिबोध की तरह की फैंटसी दिखाई देती है। उनकी काव्यभाषा बिलकुल सधी हुई है। ‘संदर्भहीन बारिश’ कविता को देखें तो उसमें आजादी के बाद का मोहभंग वाला स्वर साफ़ नज़र आता है। स्वतंत्रता के बाद की जो स्थितियां थीं, लोगों के भीतर जिस तरह की बेबशी और बेचैनी थी, उसे कवि ने पकड़ा है।

तबसे मैंने

न जाने कितनी बातों के टुकड़े सोच डाले हैं

और हर सोची हुई बात

सोख्ते में दबी हुई

सूखी और नाजुक पत्ती की तरह हो गई है

जिसकी दिन ब दिन साफ़ दीखती हुई रगों पर

इतिहास के बाहर से

सुनहरी रोशनी का सफूफ गिरता है

बावजूद इसके विजयदेव नारायण साही की कविताओं में जीवन के प्रति  निराशा का भाव नहीं मिलेगा। राजनीतिक ताकतों के प्रति भले वह निराश व बेचैन रहते हों। लेकिन जीवन और प्रकृति के प्रति उनका उल्लास कभी कम नहीं हुआ। तीसरा सप्तक की कविताओं से लेकर साखी तक वह अदम्य जिजीविषा और आस्था को रचते रहे।वह अपनी कविता में उम्मीदों और आशाओं का एक नया मुहावरा पूरी लयात्मकता के साथ लिखते हैं। जीवन के राग-रंग को वह जिस कलात्मकता के साथ अभिव्यक्त करते  हैं, वह अपने आप में अनूठा है। कविता की यह भाव भंगिमा हमें बड़े कवियों में ही दिखाई देती है। जब वह कहते हैं-

सच मानो प्रिय,

इन आघातों से टूट-टूट कर रोने में कुछ शर्म नहीं ,

कितने कमरों में बंद हिमालय रोते हैं,

मेजों से लग कर सो जाते कितने पठार –

कितने सूरज गल रहे अँधेरे में छिप कर,

हर आंसूं कायरता की खीझ नहीं होता!

वह व्यक्ति के दुःख से आतंकित नहीं होते हैं। दुःख अनिवार्य हैं, वे तो आएँगे ही। उसके लिए हमेशा हाय- हाय करने से क्या होगा। उनका मानना है कि दुःख व्यक्तिगत के अलावा सामाजिक भी है। उनसे चेतना ग्रहण करके उनसे संघर्ष भी किया जा सकता है। तब ऐसा हो कि ‘शायद धरती पर पड़ी दरारें मुंद जाएँ।’

मैं केवल इतना कहता हूँ

इस सूने कमरे की सिसकन से क्या होगा

बाहर आओ,

सब साथ-साथ मिलकर रोओ

आंसू टकराकर अंगारे बन जाते हैं

फट पड़ते हैं युग- युग के ज्वालामुखी सुप्त,

शायद धरती पर पड़ी दरारें मुंद जाएँ

वह अंग्रेजी के प्रोफेसर थे, फ़ारसी उनके स्नातक में एक विषय था। इसलिए उनकी कविताओं में उर्दू के शब्दों का अच्छा प्रयोग देखने को मिलता है। हिंदी कविता में उर्दू की साहित्यिक परमरा पहले भी थी लेकिन विजयदेव नारायण साही ने उस परम्परा को और निखारा, उसे एक नया तेवर दिया। उनकी इस तरह की शैली पर कवि कुंवर नारायण ने लिखा है – “उर्दू शैली साही की भाषा में व्याप्त थी। वह उनकी कविताओं के रचाव का एक ख़ास अंग है- ऊपर से चढ़ाया हुआ रंग नहीं, कविताओं के अन्दर से खिलता हुआ रंग है – इतना अलग कि उनकी कविता की एक भी पंखुरी से पहचाना जा सकता है।” 

अमीर खुसरों की प्रसिद्ध पंक्ति ‘चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँदेश’ की तर्ज पर वह अपनी कविता ‘इस नगरी में रात हुई’ में एक बिलकुल नये ढंग का प्रयोग करते हैं। जिसमें वह अपने समय के घटाटोप, विडम्बनाओं, क्रूरताओं, हताशाओं, निराशा और असंतोष को बहुत कम शब्दों में कह देते हैं। कहने की यह कलात्मकता हमें चौंकाती भी है और आकर्षित भी करती है।

 मन में पैठा चोर अँधेरी तारों की बारात हुई

बिना घुटन के बोल न निकले यह भी कोई बात हुई

धीरे-धीरे तल्ख़ अँधेरा फ़ैल गया, खामोशी है

आओ खुसरो लौट चलें घर इस नगरी में रात हुई

मछलीघर और साखी की कविताओं में एक लंबा अंतराल है। यह अंतराल उन कविताओं से गुजरकर पता चलता है। मछ्लीघर में प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य की कविताएँ भी हैं। लेकिन साखी की काव्यभाषा में एक पीड़ा है जो बार- बार कविताओं से झांकती है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की जो मुश्किलें थीं, बेरोजगारी, निर्धनता, भुखमरी, निरक्षरता, भ्रष्टाचार आदि, वह धीरे धीरे भयावह हो रहा था। साही की कविताओं में उस आसन्न भयावहता की अनूगूंजें हैं। इसलिए वह कहते हैं- ‘आओ अपनी उलझनों का एक दस्तावेज तैयार करें।’ यह उलझन साही की कोई व्यक्तिगत उलझन नहीं है। वह जिस उलझन की ओर इशारा कर रहे हैं वह उनके समय की उलझन है जिससे वह लगातार जूझ रहे थे। जब वह कहते हैं ‘लकीर की समाप्ति पर/ मूर्ति नहीं आदमी है’ या ‘बाहर कुहरा है/ बेहद ठण्ड पड़ रही है / रात वही है’ या जब वह लिखते हैं कि ‘अजीब बात है / इस पूरे दयार में / एक भी गोताखोर नहीं है’ इन काव्य पंक्तियों में आजाद भारत के यथार्थ के वही प्रतीक हैं जिनसे समूचा देश जूझ रहा था। साही अपने समय की सामाजिक स्थितियों से बराबर टकराते हैं। इस क्रम में उनकी वाणी में वही फक्कड़पना देखने को मिलती है जो कबीर के यहाँ थी। कविताओं में चिंता का जो स्वर है वह भी कबीर की तरह है। इसलिए श्री अशोक वाजपेयी ने साखी की कविताओं को ‘कबीर की उक्ति भंगिमाओं का पुनराविष्कार’ कहा है।

साखी की एक कविता ‘सत की परीक्षा’ बहुत चर्चित कविता है। ईमानदारी कितनी दयनीय हो सकती है, इस कविता के एक- एक दृश्य इसकी गवाही देते हैं। एक स्त्री पात्र के माध्यम से उन्होंने अपने समय और समाज का सारा खाका सामने रख दिया है। एक स्त्री के सामने दस पांच गाँव के लोग इकट्ठे हैं, ससुराल मायके के सारे लोग उपस्थित हैं लेकिन कोई उसकी व्यथा समझने वाला नहीं है। उसे अपने सत की परीक्षा देनी है। क्योंकि कोई भी उसके पक्ष में खड़ा होने वाला नहीं है। कवि की पंक्ति ही उधार लेकर कहें तो सब जग अंधा हो गया है।

 ऐसे में एक स्त्री कितनी दयनीय और कातर हो सकती है देखिये-

सुनो भाई साधो सुनो

और कोई रास्ता नहीं है

मुझे अपने दोनों हाथ

इस खौलते कड़ाह में डालने ही हैं

यदि मेरी छाती पर जड़ाऊ हार की तरह चमकता

आन्दोलित प्रकाश

सचमुच मेरे ह्रदय का वासी हो

तो यह खौलता हुआ कड़ाह

हाथ डालने पर

गंगा जल की तरह ठंडा हो जाय

कवि साही की काव्यात्मक उक्तियाँ कहीं कहीं इतनी चमकदार हैं, जिनमें अद्भुत कल्पनाशीलता, विराट रचनात्मकता अपनी दार्शनिकता के साथ हमारे सामने होती है। जैसे वह कहते हैं – ‘इस गुमनाम सफ़र में/ तुम्हारे साथ मै नहीं हूँ/ अकेले तुम्हीं हो’। या वह अपनी एक कविता में लिखते हैं – मैं सिर्फ शब्दों के सहारे/ भविष्यवाणी कर रहा हूँ/ इसी शताब्दी ने/ मुझे तुम्हें दोनों को/ गंभीर शब्दों वाली वाणी दी है/ देखता हूँ पहले कौन चीखता है?

और जैसा कि हमारे समय के वरिष्ठ कवि-आलोचक श्री अशोक वाजपेयी ने अपनी किताब ‘कविता का गल्प’ में लिखा है –“कविता की चिंता अधिक से अधिक सचाई है, सत्य नहीं। सचाई जो अपने असंख्य ब्योरों में सजीव और सक्रिय है और जिसे किसी सामान्यीकरण में एकत्र संग्रथित नहीं किया जा सकता। बल्कि कविता की नैतिकता ही यह है कि वह जो ब्योरे अपनी सचाई गढ़ने के लिए चुनती है, उसके साथ- साथ अपने में यह अहसास बनाए रखती है कि उसके अलावा असंख्य ब्यौरे हैं। जैसे कि उसके समय के अलावा और भी समय है : पहले भी था और बाद में भी होगा। हम कविता के पास सत्य पाने या खोजने नहीं जाते बल्कि सचाई को पाने, उसमें शामिल होने जाते हैं।”

कवि विजयदेव नारायण साही की कविताओं तक जाना उस समय की सचाइयों की तरफ जाना है। मछलीघर और साखी संग्रह की कविताओं में अनेक ब्यौरे हैं जो हमें उन सचाइयों की तरफ ले जाते हैं, जो उस युग की थीं।

***

2 thoughts on “देखता हूँ पहले कौन चीखता है : विजयदेव नारायण साही – संदीप तिवारी”

  1. Virendra Tiwari

    बहुत अच्छी समीक्षा संदीप भाई। काफी मेहनत से यह लेख तैयार किए हैं। शानदार, पुनः बधाई।

  2. Karandeep rajpoot

    संदीप सर की यह रचना हम जैसे युवाओं के लिए प्रेरित करती है,कि हम भी साहित्य के क्षेत्र में कुछ योगदान प्रदान करें ..
    सर के लिए बहुत बहुत बधाई 🎉🎉

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