अनुनाद

ऐसा कहां से लाऊं कि तुझसा कहूं जिसे – शिरीष मौर्य

ग़ालिब नामवर सिंह के बहुत प्रिय कवि रहे। जिस मिसरे को मैं इस लेख का शीर्षक बना रहा हूं, उसका पहला मिसरा है – आईना क्‍यों न दूं कि तमाशा कहें जिसे …. लगता है यही आईना नामवर सिंह के आलोचना-कर्म ने हिन्‍दी को दिया। इस आईने को तमाशा कहने वाले लोग साठ वर्षो में फैले नामवर जी के लेखन के हर दशक में रहे। नामवर जी ने जानते-बूझते अपने लिए ये आईना चुना होगा कि तमाशा कहें जिसे।

 

ख़ुद नामवर जी के कहे से ये बात अब जैसे किंवदन्‍ती बन चली है कि कविता के नए प्रतिमान उन्‍होंने कुछ दिनों, शायद 23 दिन में लिखी। अपनी संरचना में यह किताब एक प्रत्‍याख्‍यान है, लेकिन मेरा ध्‍यान रचना-अवधि पर है। हमारे इलाक़े में गेंहूं की फ़सल कटते ही बैसाख में ही साठ दिनी धान रोप देने का चलन इधर बढ़ा है। धान की मूल फ़सल की रोपाई आने तक ये फ़सल कट जाती है, खेत दो महीने के लिए भी ख़ाली नहीं छूटता। मैं हिन्‍दी के उस कविता-काल के बारे में सोचता हूं, जब नामवर जी ने ये तेईस दिनी धान रोपे होंगे। अज्ञेय समेत कथित नई कविता के कवि इन प्रतिमानों के केन्‍द्र में रहे और मुक्तिबोध परिशिष्‍ट में चले गए थे। प्रगतिशीलता के सिद्धान्‍त अन्‍तर्कथाओं सरीखे दिखे और नई समीक्षा मुख्‍यकथा बन चली। मैंने जाना कि नामवर जी कभी खेत ख़ाली नहीं छोड़ते थे। बेमौसम लगाए धान की गुणवत्‍ता पर बहस चलाई जा सकती है और चलाई जानी चाहिए। नामवर सिंह अब नहीं हैं, लेकिन उन पर बहस करने गुंजाइश बची है, तो कहना ही होगा कि नामवर जी भी उतने ही बचे हैं, जितने वे जीते-जी रहे।

 

नामवर जी के लेखन की विडम्‍बना रही कि उन्‍होंने या तो विश्‍वविद्यालयों में नियुक्ति की आकांक्षी लाभमुखी भक्‍त-मंडलियां पायीं या साहित्‍य के शत्रु-समूह। उनके लिखे से प्‍यार करने वाले, उनके डिक्‍शन में कहीं छुपी हुई उनकी मौलिक आलोचना की मार्मिकता और महत्‍ता तक पहुंचने वाले कम हैं। उनके काम की विपुलता हमें भरमा जाती है। उस विपुलता में हम राह भटकते हैं और इस भटकाव में नामवर जी ख़ुद भी अपना हाथ जब-तब लगाते रहते हैं।

 

मेरे हमउम्र मित्र कवि-आलोचक आशीष त्रिपाठी ने बहुत श्रम करके नामवर जी की पुस्‍तकों की एक पूरी शृंखला सम्‍भव की है। इनमें से आठ-दस पुस्‍तकें मेरी पढ़त में अब तक रही हैं। इनमें से एक किताब कविता की ज़मीन ज़मीन की कविताहै। यह किताब साठ साल के विस्‍तार को समेटती हुई कविता विषयक 30 निबन्‍धों, लेखों और लम्‍बी टिप्‍पणियों को संग्रहीत करती है। नामवर जी की भारतीय परम्‍परा से पश्चिमी परम्‍परा तक साधिकार आवाजाही रही है। यह किताब भी परम्‍परागत भारतीय रस-सिद्धान्‍त से ब्रेष्‍ट और पाब्‍लो नेरूदा की कविता तक जाती है। इसमें नामवर जी हिन्‍दी में अल्‍पज्ञात रहे बेडेकर, सुरेन्‍द्र बारलिंगे, अशोक रा. केलकर जैसे विद्वज्‍जनों की रस सम्‍बन्‍धी चर्चा की प्रस्‍तुत की है, जिसका आधार केलकर की लिखत प्राचीन भारतीय साहित्‍य की मीमांसाको बनाया है। इस लेख में रस-सिद्धान्‍त को लेकर तो जो बातें हैं, हैं ही, प्रथम वाक्‍य ही जैसे एक स्‍थापना है – चिन्‍तन के क्षेत्र में पूर्वजों से उऋण होने का एक तरीक़ा यह है कि उनकी मान्‍यताओं की पुन:प्रस्‍तुति स्‍वयं उनकी प्रस्‍तुति से बेहतर की जाए1 इसी लेख में विद्वानों के हवाले से यज्ञ-नाटककी विशुद्ध नामवरीय चर्चा भी है। नामवर जी ध्‍यान दिलाते हैं कि रस-निष्‍पत्ति की प्रक्रिया समझाने के क्रम में बेडेकर की निभ्रान्‍त दृष्टि नाट्यशास्‍त्र की इस पंक्ति की ओर जाती है – शरीरं व्‍याप्‍यते तेन शुष्‍कं काष्‍ठमिवाग्निना  …. क्‍या रस की नि‍ष्‍पत्ति इसी प्रकार नहीं होती, जैसे कि यज्ञ के लिए काष्‍ठ के शरीर में ही सुप्‍त अग्नि को काष्‍ठ से ही रगड़ कर निष्‍पन्‍न किया जाता है। यह जो देखना है नामवर जी का, विशिष्‍ट है। तभी वे अपूर्व अध्‍यापक रहे। देवासुर कथा में उपस्थित द्वन्‍द्व और असुरों के साथ हुए अन्‍याय के क्रम में इसी लेख के अंत तक आते-आते नामवर जी का रस-सिद्धान्‍त के लिए यह कथन ख़ासा दिलचस्‍प है कि वह सभ्‍यता का दस्‍तावेज़ होने के साथ ही बर्बरता का दस्‍तावेज़ हो तो इसमें चौंकने की कोई बात नहीं है। 2  

 

संस्‍कृत कविता की लोकधर्मी परम्‍परा पर एक लेख इस किताब में है। मैं इस तथ्‍य को हिन्‍दी की उपलब्धि की तरह देखता हूं कि कविता में अलक्षित और लगभग अदृश्‍य को देखने की एक नामवर-दृष्टि हमारे पास है, हमें उस दृष्टि से नहीं, तो उस दृष्टि को देखने की ज़रूरत है। राधावल्‍लभ त्रिपाठी, कमलेशदत्‍त त्रिपाठी, डैनियल हेनरी होम्‍स इंगाल्‍स जैसे संस्‍कृत-विद्वानों से लेकर डी डी कोसाम्‍बी और गोखले प्रभृत संस्‍कृतज्ञ इतिहासकारों ने संस्‍कृत में लोकधर्मी काव्‍य की पड़ताल की है। इस पड़ताल की पड़ताल किंवा पुन:प्रस्‍तुतीकरण नामवर जी करते हैं, यों भी दूसरी परम्‍परा की खोज के लिए वे जाने जाते हैं। लोग दूसरी परम्‍परा की खोज को पहली का विरोध समझ लेते हैं, जबकि वह अलक्षित को लक्ष्‍य बनाने का एक ज़रूरी संधान है। इस लेख में संस्‍कृत के एक ग्राम कवि योगेश्‍वर की चर्चा है। योगेश्‍वर की कविता के क्‍या ही सुन्‍दर अनुवाद नामवर जी ने इस लेख में किए हैं।

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कबीर के दुख से मेरा परिचयहुआ प्रेमचन्‍द की कहानी क़फ़नसे। परिचय कराया घीसू और माधव ने …… झोपड़े में बहू मरी पड़ी है और बाप-बेटे दोनों क़फ़न के पैसों से कलवरिया में दारू उड़ा रहे हैं। नशे में भी बहू की लाश दख़ल देती है। बेटा रोने लगता है तो बाप समझाता है :  रोता क्‍यों है बेटा, ख़ुश हो कि वह मायाजाल से मुक्‍त हो गई। बड़ी भाग्‍यवान् थी, जो इतनी जल्‍द मोहमाया के बंधन तोड़ दिए।और दोनों खड़े होकर नाचने और गाने लगते हैं :

 ठगिनी क्‍यों नैना झमकावै, ठगिनी

कबीर और कबीर के दुख से परिचय का क्षण  वही है। मृत्‍यु, मुक्ति, माया और इन सबके ऊपर समाज के सबसे निचले तबके के दो प्राणियों का नृत्‍य। मृत्‍यु भी नाचती है, मुक्ति भी नाचती है और नाचती है माया। कबीर ने ही कहीं कहा है :

यह माया जैसे कलवारिन,

मद पियाइ राखै बौराई

घीसू और माधव अपना कबीर गा रहे हैं, अपना कबीर नाच रहे हैं और लगता है कि उन्‍हीं के साथ कबीर भी नाच रहे हैं और गा रहे हैं :

 नाच रे मेरे मन मत्‍त होई

गिरि समन्‍दर धरती नाचै लोक नाचै हँस-रोइ

नाच भी कैसा? हँसना-रोना साथ-साथ। सती के शव को लेकर शिव ने ऐसा ही उन्‍मत्‍त नृत्‍य किया था क्‍या ?

 

घीसू-माधव उस शिव को शायद ही जानते हों। लेकिन अजीब है कि ऐसे क्षण में उन्‍हें कबीर के राम भी न याद आए। याद आयी तो माया ठगिनी। एक माया शंकराचार्य की भी है। लेकिन वह पंडितों की सम्‍पत्ति है। लोक तो कबीर की माया ठगिनी को ही जानता है। 3

 

इस लम्‍बे उद्धरण का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाया। नामवर जी कबीर का दु:ख जानने निकले हैं और उन्‍हें निकटतम व्‍यतीत में प्रेमचंद मिल जाते हैं। फिर मिलता है कबीर की माया के बारे में यह नामवरीय निष्‍कर्ष –  कबीर के लिए माया दर्शनशास्‍त्र की कोई अमूर्त अवधारण नहीं है, बल्कि वह एक ठोस वास्‍तविकता है, कड़वी सचाई है। राम भले ही निर्गुण हों, माया तो एकदम सगुण है और हर जगह, हर पल सशरीर उससे बचकर निकल जाना मुश्किल है। 4 

 

नामवर जी देख पाते हैं कि कबीर का दु:ख विद्रोही है। इसके बाद के लेख में वे कबीर के सच की खोज में निकलते हैं। एक साखी उन्‍होंने आरम्‍भ में ही उद्धृत की है –

 

अनल अकासां घर किया मद्धि निरन्‍तर बास

बसुधा ब्‍यौम बिगता रहै, बिन ठाहर बिसवास 5

 

यही अगन-पाखी कबीर का सच है शायद। धरती और व्‍योम से विगत जो निरन्‍तर बीच में उड़ता है, वहीं वास करता है और तिस पर इस ठहराव के लिए किसी विश्‍वास का आधार भी नहीं। यह सन्‍त की वाणी भर नहीं है, हिन्‍दी की कविता का सच्‍चा सरूप भी है। इस सरूप की पहचान नामवर जी हजारी प्रयाद द्विवेदी की परम्‍परा में ही नहीं करते, बल्कि उनके पास अपनी एक दृष्टि है। कवियों का वास, कविता का वास संसार में इसी अनल पाखी सरीखा हो, यह मेरा निजी विश्‍वास भी है। मैं बौखलाया-सा घूमता हूं, तो कबीर के यहां शरण मिलती है और भरोसा भी कि मेरा दुख और सच सही राह पर है। जगह-जगह से टूटता और मनुष्‍य को तोड़ता नया-नया यह उत्‍तरआधुनिक संसार उसी माया की याद दिलाता है और अनल पाखियों जैसे मद्धि निरन्‍तर वासकरते दुनिया भर के कवि, जो जन से जुड़े हैं, जन के दुख और विद्रोह से जुडे हैं।    

***

 

काशी में कबीर हुए और इस महाश्‍मशान में शायद राम का नाम लेने वाले पहले व्‍यक्ति भी वही हैं। काशी में निर्गुण संत हो जाना कठिन नहीं है, शिव भी अनादि और निराकार ही हैं, लेकिन राम नाम की रट लगा लेना काशी के मिजाज़ से मेल नहीं खाता। फक्‍कड़पन मेल खाता है, जो एक तीखा स्‍वभाव है वह मेल खाता है पर राम की दुलहिन होना? कैसे दिन कटिहैं रामा जतन बताई जइहौ / यही पार जमुना रामा वही पार गंगा/ बिचवा मढ़ैया रामा हमका छवाई जइहौ का स्‍वर काशीवासी के लिए अलग-सा स्‍वर है। काशी की परम्‍परागत महिमा को चुनौती देकर मगहर पर अपनी कथा का अंत करना? यह सब किसी उदात्‍त कविता सरीखा है। किसी महाकाव्‍य सरीखा जीवन यह कबीर का। कबीर के बाद राम के नामलेवा तुलसी हुए काशी में। काशी के पंडितों ने कबीर को तो ठुकराया ही था, तुलसी को भी ठुकरा दिया। कथा है कि काशी में कथित मनुष्‍यों के दुश्‍चक्र से तुलसी को बंदरों ने बचाया। इस मायने में तुलसी कबीर की सेकेंड लाइनसाबित हुए। निर्गुण राम की विरासत उन्‍होंने सगुण कर सम्‍भाली। यह सुनना अटपटा-सा लग सकता है कि तुलसी ने एक विशिष्‍ट क्षेत्र में कबीर की परम्‍परा को आगे बढ़ाया। रुद्राष्‍टक का रचाव बताता है कि निर्गुण में तुलसी की आस्‍था थी, उनके राम का सगुण होना एक सामाजिक आवश्‍यकता है। गो राम के लिए कबीर की मार्मिक पुकार कम सामाजिक नहीं, लोक में वह अब भी उतनी ही कारगर है। कहना होगा कि तुलसी ने राम को अधिक समाजोपयोगी बनाया। इसी काशी में और इस विमर्श के बीच नामवर जी का भी रहवास रहा।  

मोकू रोए सोई जन जो सबद बिबेकी होय

 

यह कबीर ने अपने लिए तय किया था, मैं इसे नामवर जी के सन्‍दर्भ में याद करता हूं। उन्‍हें याद करने वाले कितने जन ऐसे हैं, जो सबद विवेकी हैं। मैं नहीं जानता नामवर जी के पढ़ाए कितने लोग विश्‍वविद्यालयों में नई पीढ़ी का निर्माण और उत्‍थान कर रहे हैं, पर साहित्‍य में उनका कोई शिष्‍य मैं नहीं पाता, जो सीधे कहता हो कि जो सीखा नामवर जी से सीखा। दरअसल उनसे सीखा क्‍या जाए, यह भी एक बड़ा सवाल है। उनका लहजा और सिद्धान्‍त नहीं सीखे जा सकते, कहने वाले यह भी कहते हैं कि उनका कोई सिद्धान्‍त था ही नहीं, लहजा ही लहजा था बस। मैं नामवर जी से क्‍या सीख सकता हूं?

 

पहली चीज़, परम्‍परा का ज्ञान और समकालीन अवधाराणाओं से सीधी मुलाक़ात। दूसरी चीज़, अध्‍यवसाय, जो पढ़ने की निरन्‍तरता क़ायम रख सके। बहुत पढ़ना नामवर जी की पहली विशेषता है, जबकि लोग बहुत बोलना उनका प्रथम गुण मानते हैं। नामवर जी ने बहुत बोला है, इसमें कोई संशय नहीं, लेकिन उससे अधिक उन्‍होंने लिखा है और उनका बोला गया भी अब लिखित रूप में सामने आ रहा है, तो पता लगता है कि उनका बोलना भी दरअसल लिखना ही था।

 

इस किताब में कबीर पर उनकी दो लम्‍बी टिप्‍पणियां दर्ज़ हैं, जिनके शीर्षक दिलचस्‍प होने के साथ-साथ सीधे और धारदार हैं – कबीर को अगवाऔर कबीर को भगवा। यह विशिष्‍ट नामवरीय डिक्‍शन है। दोनों चीज़ें रामस्‍वरूप चतुर्वेदी के कबीर सम्‍बन्‍धीअकादमिक क्रियाकलापों को सम्‍बोधित हैं, इनमें से एक का यह अंश दृष्‍टव्‍य है –

 

बहस का आलम यह है कि आग्रह है पाठ पर, लेकिन पाठ पर दृष्टि पल भर के लिए भी एकाग्र नहीं होती और उतावले-से हाथ मारते हैं कभी पश्चिमी काट के सेकुलर पर, तो कभी उपनिवेशवादियों पर और फिर पश्चिमीकरण का प्रसंग लाकर मास्‍को से वाशिंगटन तक का चक्‍कर। इन सबके बीच धाक जमाने के लिए यह बताना नहीं भूलते कि एडवर्ड सईद का ओरिएंटलिज्‍़मउन्‍होंने पढ़ रखा है। गरज कि इस किनारे नोच लें और उस किनारे नोच लें। ऐसे विश्‍वकोशी विद्वान से बहस करने में मुश्किल यह है कि शुरू करें तो कहां से और ख़त्‍म हो कहां पर।

 

विडम्‍बना यह है कि बन्‍धुवर रामस्‍वरूप चतुर्वेदी अब कबीर को भगवापहनाने से ही संतुष्‍ट नहीं हैं। अब तो वे कबीर को अगवाकरने पर आमादा हैं। 6

 

ज़रा सोचिए इस भाषा में बहस करने वाले कितने आलोचक आज दृश्‍य में मौजूद हैं। बतकही की यह भाषा अब लोप गई लगती है, ऐसा बोलने पर विद्वज्‍जनों में मरने-मारने के आसार हो सकते हैं। लाग-डांट का ज़माना गया, जो कभी नामवर जी और मैनेजर जी में भी चलती थी, पर दोनों में परस्‍पर सम्‍मान भी बहुत था।

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कबीर के बाद नामवर जी भारत-भारती पर आते हैं। मेरा दिल रह-रहकर कहता है – अहो, यह गुप्‍त-काव्‍य। भारत-भारती के वे अंश, जिनमें अंग्रेज-राज की प्रशंसा है या वे, जिनमें पुनरुत्‍थान और पुनरुद्धार कूट-कूटकर भरा है, मुझे सदा ही बेचैन करते रहे। भाषा की दृष्टि से यह गुप्‍त जी के माध्‍यम से हिन्‍दी को द्विवेदी जी का प्रेमोपहार है और विचार की भूमि पर भी   इसकी परीक्षा बहुत कठिन नहीं है। नामवर जी ने यह परीक्षा अध्‍यापक की तरह भी ली और आलोचक की तरह भी।  गुप्‍त जी की भारत-भारती किस भारत की आरती है? यह भारतीयता दरअसल क्‍या है ? 1920 में इस काव्‍य की लिखत के दौर के पत्रों के जो ब्‍यौरे नामवर जी अपने लेख में देते चलते हैं, वो बताते हैं कि यह काव्‍य कितना मैनिपुलेटेड है। कवि के आत्‍म-स्‍वीकार से भरे ये ब्‍यौरे कविता के निर्जीव होते चले जाने के ब्‍यौरे भी हैं, गो गुप्‍त जी के काव्‍य में कविता का जीवन सदा से बहसतलब रहा आया है।  नामवर जी अपने लेख के आरम्‍भ में इस बहस को गुप्‍त जी की ओर साढ़े तेईस डिग्री झुक कर करते हैं। मैं इस झुकाव को समझने की कोशिश करता हूं। नामवर जी के लिए अपनी धुरी पर घूमने के लिए यह झुकाव क्‍या वैसा ही और उतना ही नहीं, जैसा और जितना सूर्य के गिर्द घूमते हुए अपनी कक्षा में बने रहने के लिए पृथ्‍वी के लिए ज़रूरी है। यह झुकाव अंग्रेज-राज तक ही सीमित रहता है। असल बहस भारत और भारतीयता की है, यहां नामवर जी गुप्‍त जी से दूर जाते हैं। मैं कहना चाहता हूं कि गुप्‍त जी की अभिधा और सुविधा से परे भारत की निर्मिति बहुत जटिल है, उस जटिलता को समझाने से पहले स्‍वयं समझना किसी भी भारतीय कवि के लिए अनिवार्य है। नामवर जी लिखते हैं –

 

हम कौन थे – कवि का यह प्रश्‍न सर्वथा उचित है, लेकिन इसके साथ ही तुरन्‍त यह प्रश्‍न भी उठता है कि इस हमका दायरा कितना बड़ा है और इस हममें कौन-कौन शामिल हैं? इस प्रश्‍न की आवश्‍यकता इसलिए है कि कवि की ओर से ये सारे भारत की भारती है। पहला प्रश्‍न तो यही है कि क्‍या इस हममें भारत के मुसलमानों के लिए जगह है? कवि की कलम से एक जगह यह वाक्‍य फिसल पड़ा है : हम हिन्‍दुओं के सामने आदर्श जैसे प्राप्‍त हैं,  स्‍पष्‍ट है कि भारत भारतीका हमसिर्फ़ हिन्‍दुओं तक ही सीमित है और भारत भी मुख्‍यत: हिन्‍दू भारतहै। जिस भारत की भव्‍य संस्‍कृति के बखान में तानसेन और ताजमहल का जिक्र तक न हो, वह हिन्‍दू भारत नहीं तो क्‍या होगा?

 

किन्‍तु भारत भारतीके हिन्‍दू भारत में दक्षिण के लिए भी कोई स्‍थान नहीं है जिस गौरवशाली अतीत का चित्र कवि ने खींचा है उसमें न मदुरै मीनाक्षी के लिए स्‍थान है, न त्‍याग राज के लिए। भारत भारतीका हिन्‍दू भारत अन्‍तत: गंगा के दोआबे तक सिमट कर रह गया।

 

फिर यदि धर्म की दृष्टि से देखें तो यह ऐसा हिन्‍दुत्‍व है, जिसमें बौद्धों के लिए भी स्‍थान नहीं है। कवि ने बड़े हर्ष से कहा है :

 यद्यपि सनातन धर्म की अन्‍त में जय – जय रही

 भगवान शंकर ने भगा दी बौद्ध भ्रान्ति भयावही 7   

 

इस लम्‍बे उद्धरण में जिस बहस की मांग है, वह भारतीयता की भावना पर होगी। मुझे डॉ. रामनोहर लोहिया याद आते हैं। कहीं पढ़ा मैंने कि वे हर मिलने वाले से पूछते थे – तुम किस नदी के हो? नदियां जो केवल जलधाराएं नहीं, संस्‍कृति का सजल प्रवाह होती हैं। नदी पूछना, संस्‍कृति पूछना है। गुप्‍त जी गंगा के दोआबे वाली संस्‍कृति के अलावा यह देश दूसरी महान संस्‍कृतियों का देश भी है। जमुना गंगा में मिल जाती है पर उसके किनारों की अपनी एक संस्‍कृति है, जिसमें दिल्‍ली-आगरा तो हैं ही, समूचा ब्रज शामिल है। बहारें होली की देखते और कैसा था ब्रज के कन्‍हैया का बालपन पूछते नज़ीर उसमें हैं, मीरोग़ालिब उसमें हैं। जमुन-जल पीने और उसके किनारे बसने वालों को कैसे छोड़ देंगे? मैं किसी धर्म और मत को मानने वालों की बात ही नहीं कर रहा, कभी करता भी नहीं। मैं नदी की बात कर रहा हूं। दक्षिण की नदियों के किनारे बसे लोग और सागर तट पर और शिवालिक- हिमालय पर बसे लोग। भारतीयता कहते हुए आप नदी तो छोड़ दीजिए हमारे पहाड़ के गाड़-गधेरों के बीच रह रहे लोगों को भी नहीं अलगा सकते। उत्‍तर की इन महान नदियों में हिमालय-शिवालिक की कितनी ही ज्ञात-अज्ञात, दृश्‍य-अदृश्‍य क्षीण जलधाराओं का पानी है, मेरे लिए इन गाड़-गधेरों के बिना संस्‍कृति का कोई रूप पूरा नहीं होता। सब कुछ छोड़ देने वाले और बौद्ध भ्रान्ति भयावही लिखने वाले कवि को राष्‍ट्रकवि कैसे मानूं? मैं ऐसा कहूं तो ज्‍़यादती न मानी जाए कि मेरे जैसा गाड़-गधेरों का कवि, ऐसे राष्‍ट्रकवि की वैचारिकी पर हैरान कवि है। बनती हुई भाषा के अग्रदूत भी मेरे लिए वे नहीं, निराला हैं – मैं द्विवेदी जी की उस मेहनत पर सिर उठाकर जीने वाला व्‍यक्ति हूं, जिसने भाषा को आधार दिया पर उसी भाषा की आधुनिक कविता का आरम्‍भ मेरे लिए छायावाद से होता है, न कि द्विवेदी युग से।   

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 भारतीयता की शिनाख्‍़त नामवर जी के लिए एक सतत् कर्म है। इस किताब में शामिल रवीन्‍द्रनाथ टैगोर पर लिखे लेख में यह जारी रहती है –

 

गोरा के बारे में उनके मित्र विनय ने कहा था – ‘‘ देश के जिन सत्‍यों को हम लोग खंडित करके बिगाड़कर देखते हैं, गोरा इन सबको एक करके, संश्लिष्‍ट करके देख सकता है – उसमें इसकी आश्‍चर्यजनक क्षमता है।’’ इसका कारण यह है कि ‘‘ वह बहुत ऊंचाई से भारतवर्ष को देखता है। उसके लिए भारतवर्ष के छोटे-बड़े सब एक विराट ऐक्‍य में बंधे हैं, एक बृहत् संगीत में घुल-मिलकर सम्‍पूर्ण दिखाई देते हैं।’’ यही बात गोरा के विधाता रवीन्‍द्रनाथ के बारे में निस्‍सकोंच कही जा सकती है। 8       

हमारे देश का ताना-बाना योरोप की तरह एकरंगी नहीं। यह बहुरंगी-बहुवर्णी है। अधिक वाइब्रेंट किंवा जीवन्‍त। ज़ाहिर है हमारे संकट भी वैसे ही हैं। इस रंगीन दृश्‍य से एक भी रंग हटाना पूरी तस्‍वीर को नष्‍ट कर देना होगा। फिर दुहरा दूं कि मैं धर्म की बात नहीं कर रहा। मैं संस्‍कृतियों के विस्‍तार में रहना चाहता हूं। हिमालय की शौका जनजाति से लेकर नगा लोगों तक। मुझे याद आता है गढ़वाल के हिमालयी छोर के वरिष्‍ठ पत्रकार हरीशचन्‍द्र चंदोला की ससुराल नागालैंड में थी। पश्चिमी थार से लेकर बंगाल की खाड़ी तक और केदार से लेकर केरल तक यह भारत है। यह सब कहने की, बार-बार कहने की ज़रूरत बची है तो तय है कि नागरिकों में अभी भारतीयता की भावना की ठीक-ठीक समझ आनी बाक़ी है। यह भारत अगर अब भी नहीं है तो रवीन्‍द्र की वाणी में पूछना होगा – हेथा नय, अन्‍य कोथा, अन्‍य कोथा, अन्‍य कोन खाने यानी यहां नहीं है, कहीं और नहीं है, कहीं नहीं है तो और कहां है? कभी तो हम भारत के लोग इस योग्‍य हो पाएंगे कि रवीन्‍द्र से कह सकें – यहां है, यहीं है और कहीं नहीं, यहीं है यह भारत मानव-महासमुद्र।

 

नामवर जी उस भारत को देखते हैं, जो राष्‍ट्रकवि के नक्‍़शे पर नहीं। वे तमिल किंवा तमिष कवि सुब्रह्मण्‍य भारती के पास जाते हैं, उस कवि के पास जो दक्षिण का अनल-पाखी है। कथित समाज के लिए उपहास का पात्र कवि, जो साम्राज्‍यवादजनित दमन और आर्थिक वंचनाओं के बीच कहीं लगातार उड़ता रहता है। वह भारत की ज़मीन के ऊपर भारत के आकाश के नीचे बिना ठहरे उड़ता है और अपने जैसे अनगिन जनों के दु:ख कहता है।

 

नामवर जी की यह किताब छायावाद और पंत तक आते-आते अपने एक परिदृश्‍य का निर्माण करती है, जो आम जनों के दु:ख, संकट, सत्‍य, यथार्थ और इन सबके प्रस्‍तोता कवियों पर लिखत से बना एक मौलिक और अनिवार्य परिदृश्‍य है, इसके बिना समकाल तक आना निरर्थक बल्कि अनावश्‍यक युक्ति होगी। हिन्‍दी आलोचना में इस यात्रा को नामवर जी ने सम्‍पूर्णता में सम्‍भव किया है।  पन्‍त जी और नई पीढ़ी शीर्षक लेख इस किताब में है, जिसके आरम्‍भ की भाषा का वैदिग्‍ध्‍य देखने योग्‍य है – ‘‘कवि श्री सुमित्रानन्‍दन पन्‍त हमसरे पूर्ववर्ती ही नहीं, बल्कि समवर्ती भी हैं – नई पीढ़ी के ही नहीं, बल्कि पिछली तीन पीढ़ियों के। छायावाद और प्रगतिवाद के तो, ख़ैर, प्रवर्तकों में ही हैं, प्रयोगों के भी पुरस्‍कर्ता बतलाए गए हैं और अब नई कविता की दौड़ में भी पश्‍चात् पद नहीं हैं।’’ 9  पन्‍त जी की एक छवि इस बयान से बनती है। यह छवि नामवर जी के भीतर है और पाठक तक जाती है। मेरे जैसे लोग इसे अपने निकट पाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि पन्‍त जी ने अपनी कविता को आधुनिक हिन्‍दी कविता के हर मोड़ पर बदलने की कोशिश की। कोशिश की सराहना है, लेकिन बदलाव की सार्थकता पर बहस ज़रूरी है। ज़ाहिर  है यह बहस हुई भी और उस पीढ़ी ने इस बदलाव में कुछ ख़ास अर्थ पाया नहीं, जिसे नामवर जी 1960 में नई कह रहे हैं और जो अब हमारे लिए अत्‍यन्‍त वरिष्‍ठ पीढ़ी है। मैं जोड़ना चाहूंगा कि तब के बाद अब की नई पीढ़ी ने भी वहां कुछ ख़ास नहीं पाया। पन्‍त जी के बरअक्‍स निराला में छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगों के दृश्‍य बहुत सहज दिखाई देते हैं। बदलाव की इस यात्रा में पन्‍त जैसी आत्‍म-सजगता भले न हो, पर वास्‍तविक आत्‍मा और आत्‍म-संघर्ष निराला के पास है।

 

नई कविता की भाषा पर 1953 में लिखा और आजकल में छपा एक दिलचस्‍प लेख इस किताब में है। इसे कविता के नए प्रतिमान के साथ जोड़कर पढ़ना और भी दिलचस्‍प है। नामवर जी की ख़ासियत यह है कि वे आरम्‍भ में एक दिशा स्‍पष्‍ट कर देते हैं –

 

नई कविता की भाषा को लेकर दिमाग़ में दो सवाल अकसर उठते हैं। क्‍या बात है कि जनसाधारण तक भाषा को पहुंचाने की कोशिश में अनेक कवि एकदम साधारण-सीभाषा में गिरे जा रहे हैं और दूसरी ओर साधारणीकरणकी सच्‍ची लगनवाले ईमानदार कवियों की भाषा क्रमश: असाधारणता में सिमटती जा रही है। इन दो छोरों के बीच भाषा की अनेक तहें हैं। ये सभी भाषाएं अभीष्‍ट पाठक-समाज की सूझ-बूझ तक पहुंचने में आज थक-सी रही है। 10

 

उस दौर में सच्‍ची लगनवाले ईमानदार कवियोंको याद करूं तो सबसे पहले मुक्तिबोध याद आते हैं, क्‍या उनकी भाषा क्रमश: असाधारणता में सिमटती गई है?

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जो अपने आपको पूरे परिवेश के सन्‍दर्भ में जानने-समझने-खोजने और पाने की ईमानदार कोशिश कर रहे हैं, उनके लिए नए कवियों में यदि कोई एकदम अपना कविहै, तो गजानन माधव मुक्तिबोध। 11

 

नामवर सिंह ने 1958 में यह लिखा और यह बात आज 2023 में भी साफ़ चमकदार आईने की तरह हमारे सामने खड़ी है। छोड़ दीजिए कि ख़ुद नामवर सिंह ने अपनी इस स्‍थापना के बाद मुक्तिबोध पर कितना लिखा। यह सोचिए कि अपने ही समय में मुक्तिबोध कितना अकेले होते गए। उनका जीवन ही नहीं, मृत्‍यु भी कैसी एकाकी थी। कविता में वे कभी नहीं मरे, न मरेंगे। लोग जीते-जी अपनी ही कविता में मर गए। नामवर सिंह के इस कथन में चार पद हैं – जानना, समझना, खोजना और पाना। यह दरअसल किसी भी कवि का सम्‍पूर्ण रचना-विधान है। फिर इसका केन्‍द्र है – अपने आपको पूरे परिवेश के सन्‍दर्भ में देखना। लेख के आरम्भिक कथन को इतना खींच रहा हूँ, आलोक धन्‍वा की भाषा में कहूँ तो छोटी-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हॅूं मैं, पर क्‍या यह सचमुच छोटी-सी बात है ? नामवर सिंह कविता की मूलभूत संरचना पर बात कर रहे हैं, जहॉं निजता कोई मूल्‍य नहीं, पूरा परिवेश किंवा पूरा सामजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिवेश केन्‍द्र में है। यह जानना, समझना, खोजना और पाना उस परिवेश के सन्‍दर्भों में है, पूरी कविता परम्‍परा उठा कर देखिए कि जिस भी कवि ने यह किया, वह बड़ा कवि हुआ, हमारे साथ रहा।  नामवर सिंह जो कह रहे हैं, वह इसी मूल्‍यवान तथ्‍य का अनिवार्य रेखांकन है, जिसे बार-बार किया जाना कविता के लिए तो है ही, आलोचना के लिए भी अनिवार्य है।   

 

इसी लेख में नामवर सिंह ने आत्‍म-संघर्ष को लेकर समकालीन कविता की प्रवृत्तियों पर तीखी और बेधक टिप्‍पणियॉं की हैं, जिन्‍हें उद्धृत करना आज के दृश्‍य को समझने के क्रम में मुझे ज़रूरी लगता है –    

 

परन्‍तु मुक्तिबोध का आत्‍म-संघर्ष मुख्‍यत: लोकोन्‍मुखी तथा वस्‍तोन्‍मुखी है और यही वह विशेषता है जो उन्‍हें अपने समकालीन अनेक आत्‍मवादी कवियों से अलग करती है।

 

तार सप्‍तकके कवियों में केवल मुक्तिबोध ही हैं, जिनमें आज भी आत्‍म-संघर्ष का बोध जीवन्‍त है। क्‍यों ?  उन्‍होंने भी रामविलास शर्मा की तरह सुविधानुसार किसी आस्‍थाका वरण करके आत्‍म-संघर्ष समाप्‍त क्‍यों नहीं कर दिया? अज्ञेय की तरह उन्‍होंने भी आत्‍म-संघर्ष से ऊबकर किसी दर्द पर आधारित आस्‍थाके सामने घुटने क्‍यों नहीं टेक दिए? और नहीं तो नेमिचन्‍द्र जैन की तरह उन्‍होंने ने भी मौन क्‍यों नहीं साध लिया? क्‍या इसका कारण यह नहीं है कि मुक्तिबोध का आत्‍म-संघर्ष इन कवियों की अपेक्षा अधिक व्‍यापक तथा गहरा था?  

 

वस्‍तुत: लोकोन्‍मुखी आत्‍म-संघर्ष ही टिकाऊ होता है। आत्‍मोन्‍मुखी आत्‍म-संघर्ष प्राय: अपने आपको समाप्‍त कर डालता है। 12    

 

इन सभी बातों में जाते हुए ध्‍यान रखना होगा कि ये 1958 में कही गई बातें हैं। रामविलास शर्मा ने तब किस आस्था का वरण किया था, जो इस टिप्‍पणी में इनवर्टेड कॉमा में दर्ज़ है। यही सवाल अज्ञेय की आस्‍था का भी है। यह भी ध्‍यान रखना होगा कि ये बातें मुक्तिबोध के बरअक्‍स कही गई बातें हैं। रामविलास शर्मा के बारे में कहे गए को समझने के क्रम में सुविधानुसार को भी ध्‍यान में रखना चाहिए। अज्ञेय की दर्दीली दास्‍तान में नहीं जाते हैं, वह तो बहुश्रुत, सर्वउल्लिखित और बहुप्रमाणित है। रामविलास जी की आस्‍था तो साम्‍यवादी विचार ही था? तो क्‍या इस विचार किंवा आस्‍था से नामवर सिंह का तब विरोध था ? ध्‍यान में रहना चाहिए कि रामविलास जी की 1978 में एक किताब छपी, जिसमें मुक्तिबोध को निरन्‍तर सवालों के घेरे में रखा गया, मसअला केदारनाथ अग्रवाल बनाम मुक्तिबोध भी हुआ। केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिशील परम्‍परा के सच्‍चे प्रतिनिधि ठहराए गए और मुक्तिबोध को नई कविता और अस्तित्‍ववाद में परिभाषित करने का अकादमिक प्रयास हुआ। इस किताब से बीस बरस पहले नामवर सिंह ने यह लेख लिखा, तो इसका इस किताब की प्रतिक्रिया होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। मैं सोचता हॅूं क्‍या इस किताब के बीज बीस बरस या उससे भी अधिक पुराने हैं? इसके लिए बहुत पुराने दस्‍तावेज़ खंगालने होंगे और यह काम अभी मैं नहीं कर सकता। रामविलास शर्मा की इस किताब ने तो मुक्तिबोध को मनोरोगी तक घोषित किया था। यह मान लेना शायद ग़लत नहीं होगा कि इसकी जड़ें बहुत गहरी रही होंगी, पेड़ 1978 में उगा। नामवर सिंह के सामने कुछ तो लिखत रही होगी, जिसके आधार पर यह तीखा प्रहार उन्‍होंने रामविलास शर्मा पर किया, लेकिन ऐसा कोई सन्‍दर्भ इस लेख में मौजूद नहीं है। हम केवल अनुमान लगा सकते हैं। शायद मित्र-संवाद ही रामविलास जी की सुविधा है, जिसकी ओर नामवर सिंह का इशारा है। नामवर सिंह समकालीन बहसों में हमारे अनुमान के लिए कई चीज़ें छोड़ देते हैं। इतना तो तय है कि रामविलास शर्मा मुक्तिबोध से ख़ास प्रभावित नहीं थे और इतना ही नहीं, उन्‍होंने उन पर वैचारिक आधार लेकर विवादित प्रहार भी किए। जहॉं तक मुझे याद पड़ रहा है मुक्तिबोध सम्‍बन्‍धी स्‍थापनाओं के आधार पर ही कहीं आलोचक नंदकिशोर नवल ने रामविलास शर्मा को संकीर्णतावादी मार्क्‍सवादी कहा है। नामवर सिंह ने लेख के आरम्‍भ में ही जो लिखा, उतना भर आधुनिक हिन्‍दी कविता के समूचे परिदृश्‍य और मुक्तिबोध को लेकर उनकी आलोचकीय दृष्टि का परिचय देने के लिए बहुत है। इस दृष्टि के बाद मुक्तिबोध पर किसी लम्‍बे काम की आशा जगती थी। बहरहाल, इस लेख के अंत में जैसे समाहार करता हुआ-सा वक्‍तव्‍य मुक्तिबोध की काव्‍य-कला पर है। 1958 में मुक्तिबोध को कविता लिखते बीस बरस हो गए थे और इतना समर्थ कवि बीस वर्षों की काव्‍य-साधना के बाद भी सहृदयों में प्रिय नहीं हो सका13 इस तथ्‍य की पड़ताल करते हुए नामवर सिंह कला की ओर रुख करते हैं। मुक्तिबोध की कला से नामवर सिंह तब संतुष्‍ट नहीं दिखाई देते –

 

मुझे ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध जितनी बड़ा विषय लेते हैं उसके लिए उनके पास गहरी चिन्‍तन शक्ति तो है परन्‍तु उतनी ही समर्थ कलात्‍मक शक्ति नहीं। 14          

 

नामवर सिंह ऐसा नहीं कह रहे हैं कि कलात्मक शक्ति नहीं है, वे उतनीकलात्‍मक शक्ति नहीं है, ‘जितनीचिन्‍तन शक्ति है कह रहे हैं। मुक्तिबोध की कला बहस का विषय रही है। वैसे तो हिन्‍दी कविता में कला पर जितनी बहस होनी चाहिए थी, नहीं हुई – यह बहस अलग-अलग खेमों के बीच खींचतान में डाइल्‍यूट हो गई। कला के उतना समर्थ न होने पर टिप्‍पणी करने के बाद नामवर सिंह अचानक ही चिन्‍तन शक्ति की ओर पलटते हैं –

 

सम्‍भवत: मुक्तिबोध की काव्‍यगत जटिलता का कारण भी उनकी गहन-चिन्‍तन शक्ति ही है। इसलिए कलात्‍मक परिष्‍कार के लिए भी उन्‍हें सबसे पहले अपनी चिन्‍तन-पद्धति को ही परिष्‍कृत करना पड़ेगा। मुझे ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध की चिन्‍तन-पद्धति में जितनी संश्लिष्‍टता है, इतनी विश्‍लेषण क्षमता नहीं है। सम्‍भवत: अपने परिवेश में अत्‍यधिक बँधे रहने और परिवेशजनित बौद्धिक विकारों से मुक्‍त न हो पाने के कारण ही उनकी चिन्‍तन शक्ति एक हद के बाद कुंठित हो जाती है। 15

 

मैं कहॅूंगा यह नामवरीय कला है, जो आपको अचानक कहीं से उठाकर कहीं और खड़ा कर देती है। नामवर सिंह कला पर असंतोष प्रकट कर रुकते नहीं, वे चिन्‍तन शक्ति के कुंठित हो जाने तक चले जाते हैं। रामविलास शर्मा के मुक्तिबोध विरोध को याद करें तो यह एक आधार उनके पास भी मिलेगा, जो अब कवि की सीमाओं का तयशुदा उल्‍लेख करने की आलोचकीय परम्‍परा का निर्वाह करते हुए नामवर सिंह के पास है। यहॉं पाठक संशय में आ जाता है। क्‍या कविता में विश्‍लेषण करना इतना अनिवार्य है? विचारों में संश्लिष्‍ट होना काव्‍य-कला का हनन है? फिर उस मुक्तिबोध की लोकोन्‍मुखता का क्‍या, जिसे नामवर सिंह ने लगातार इस लेख में पुष्‍ट किया है? काव्‍यगत जटिलता क्‍या है?  अगर यह जटिलता है तो फिर मुक्तिबोध और उनका आत्‍म-संघर्ष लोकोन्‍मुख कैसे बताया गया?  यदि मुक्तिबोध की चिन्‍तन शक्ति कुंठित हो जाती है, तो फिर रामविलास शर्मा के इसी निष्‍कर्ष को मान लीजिए। जिस परिवेश और उसके सन्‍दर्भों में ख़ुद को जानने-समझने- खोजने और पाने की यह लेख अपने आरम्‍भ में दुहाई देता है, उससे अत्‍यधिक बँध जाने को कवि की सीमा भी मानता है और वो भी चिन्‍तन शक्ति के कुंठित होने की हद तक। किसी कवि पर लिखते हुए उसको कस्‍टमाइज़ करने की कोशिश –  अपने तमाम सामर्थ्‍य और सीमाओं में आलोचना यही कर सकती है और यही उसने किया है। नामवर सिंह इसके अपवाद नहीं हैं और न वे हो सकते हैं। देखना यह होगा कि ऐसा करने के अलावा उन्‍होंने और क्‍या किया है। इस लेख में उन्‍होंने जो बुनियादी सवाल उठाए हैं, उनका मोल है और सदा रहेगा।

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मुक्तिबोध वाले लेख के ठीक बाद इस किताब में शमशेर पर लेख है, बल्कि दो लेख हैं – पहला 1958 का ही और दूसरा 1990 में छपा। मुक्तिबोध के प्रसंग में आयी काव्‍य-जटिलता की बात करें तो नामवर सिंह को शमशेर से कोई शिकायत नहीं है। न चिन्‍तन शक्ति से, न कला शक्ति से। मैं एक समकालीन यथार्थ की बात करूँ तो अपने विश्‍वविद्यालय के बी.ए. पाठ्यक्रम के लिए यू.जी.सी. के निर्देशों के अनुरूप मैंने छायावादोत्‍तर हिन्‍दी कविता पर एक पाठ्यपुस्‍तक सम्‍पादित की है, जिसमें मुक्तिबोध की कविता भूल-ग़लती और शमशेर की सूना-सूना पथ है, उदास झरना शामिल हैं। अपनी समूची संश्लिष्‍टता और उर्दू के कठिन शब्‍दों के लगातार प्रयोगों के बावजूद भूल-ग़लती  का केन्‍द्रीय भाव विद्यार्थी समझ जाते हैं, दूसरी तरफ़ शमशेर की यह छोटी-सी कविता विद्यार्थियों भर नहीं, अध्‍यापकों को भी असहाय कर देती है। मुक्तिबोध उनकी समझ में आ जाते हैं, शमशेर नहीं। हम किस कलात्‍मक परिष्‍कार की बात करते हैं? कथित सहृदय कौन हैं, जिनका प्रिय हो जाना कवि की कलात्‍मक कसौटी हो सकता है? वे सहृदय कविता के सच्‍चे ग्राही हैं या वह लोक, जिसकी ओर कवि को उन्‍मुख होना है?  

 

सीधे पाठक-समूह को सम्‍बोधित करने का प्रलोभन कुछ इतना विकट है कि बड़ा-से-बड़ा अन्‍तर्मुखी कवि भी अपने को रोक नहीं पाता। अज्ञेय, भारती आदि भी स्‍वधर्म छोड़कर कभी-कभी कविता के नाम पर भाषण दे बैठेते हैं और शासक रेटारिकका उपयोग कर डालना चाहते हैं और यहॉं तक कि उनके स्‍वर का आवेग उनकी आरोपित नागरता को जहॉं-तहॉं मसका देता है। किन्‍तु शमशेर का आत्‍मसंयम उनकी कविता को स्‍वगत-संलाप के स्‍वर से कहीं भी ऊँचा नहीं उठने देता। अमन का रागऔर ग्‍वालियर गोली-कांड’, ‘वर्ली-किसान जैसी राजनीतिक कविताओं में भी उनका आवेश भाषण अथवा उद्बोधन की सीमा तक नहीं जाता। शमशेर का यह स्‍वगत-संलाप केवल शिल्‍प की साधना नहीं है। कवि के ही शब्‍दों में वह सच्‍चाई अपना ख़ास रूपहै। 16  

 

नामवर सिंह शमशेर के आत्‍म-संयम से प्रभावित हैं और उनके स्‍वगत-संलाप से भी। मुक्तिबोध पर लिखते हुए उनका केन्‍द्रीय पद आत्‍म-संघर्ष है, जो शमशेर पर लिखते हुए आत्‍म-संयम हो जाता है। हम खोजना चाहें तो कविता को लेकर नामवर सिंह आलोचना-दृष्टि संघर्ष और संयम के बीच कहीं खींची हुई मिलेगी।  अगर यही नामवर सिंह के काव्‍यमूल्‍य हैं, तो याद रखना होगा कि धूमिल को हिन्‍दी कविता के शिखर पर प्रतिष्ठित करने वाले पहले प्रशंसक -आलोचक भी नामवर सिंह ही है। प्रथम अंकुर मिश्र सम्‍मान समारोह में निर्णायक-प्रमुख के रूप में मुझ अकिंचन पर बोलते हुए भी उन्‍होंने कहा था – शिरीष कुमार मौर्य को खोजने का सुख संयोगवश मिला। मेरे लिए यह वैसी ही उपलब्धि है, जैसे चालीस बरस पहले धूमिल को देख सका। ज़ाहिर  है कि उनकी चेतना पर धूमिल का गहरा असर था और वे इस वक्‍तव्‍य में बिल्‍कुल नए एक कवि की पीठ पर हाथ रखते हुए उसे जीवन भर याद रहने वाला प्रोत्‍साहन दे रहे थे। बहस यहॉं नहीं है, बहस यहॉं है कि शमशेर से बिल्‍कुल उलट काव्‍य-संस्‍कार के कवि धूमिल नामवर सिंह के बहुत प्रिय कवि रहे। कविता की आलोचना में नामवर सिंह ने एक अजब लोकतंत्र क़ायम किया, जिसे लोग उनका विचलन और कभी-कभी तो फिसलन भी बताते रहे। इस लोकतंत्र का सरूप जानना हो तो कभी धूमिल के स्‍वगत-संलाप के सुरों को कभी शमशेर के स्‍वगत-संलाप के सुरों के बरअक्‍स सुनिए और फिर मुक्तिबोध का स्‍वगत-संलाप। लोकतंत्र राजनीति में भी ऐसी व्‍यवस्‍था है, जिस पर बहस हमेशा से चलती रही है। मेरी निजी राय में समाज, राजनीति और साहित्‍य – हर जगह लोकतंत्र सबसे सुन्‍दर व्‍यवस्‍था है। हमें इस पर बहस करते हुए भी, इसकी क़द्र करनी चाहिए।                    

 

इस किताब में नागार्जुन पर तीन लेख हैं। हिन्‍दी के ये बीहड़तम कवि भी नामवर सिंह के प्रिय कवि हैं। नागार्जुन की प्रतिनिधि कविताओं का सम्‍पादन भी उन्‍होंने किया है। इस किताब का शीर्षक भी यहॉं संकलित उन पर लिखे एक लेख के शीर्षक से ही आया है। 

 

नागार्जुन स्‍वाधीन भारत के प्रतिनिधि जनकवि हैं। तरल आवेगोंवाला, अति भावुक, हृदयधर्मी जनकवि

 

नागार्जुन में कड़वाहट का रसायनहै। कहते हैं : प्रतिहिंसा ही स्‍थायीभाव है मेरे कवि का। यह प्रतिहिंसा ही नागार्जुन की शक्ति है, क्‍योंकि यह प्रतिहिंसा जितनी अपनी है, उससे ज्‍़यादा उस जनता की है, जिसके वे प्रतिनिधि हैं। 17

 

यह नामवर सिंह की आलोचना का लोकतंत्र है। स्‍वाधीन भारत के इस जन‍कवि के जो गुण उन्‍होंने रेखांकित किए, वे शायद किसी और में उसकी सीमा बन जाते। फिर कड़वाहट का रसायन और प्रतिहिंसा। इस प्रतिहिंसा की दिशा यह प्रतिहिंसा जनता की है, इसलिए नागार्जुन जनकवि हैं। हिन्‍दी कविता में प्रतिहिंसा की दशा दयनीय रही है। कवि, कवियों पर टूट पड़ते हैं, आलोचक मित्रता धर्म निभाने के लिए दूसरे कवियों पर। सदियों की सताई जनता के मन को, वहॉं मौजूद प्रतिहिंसा को किसी भी तरह के कथित कलात्‍मक परिष्‍कार को धता बताते हुए कहने वाले कम हुए। नामवर सिंह ने इस प्रतिहिंसा को भी काव्‍यमूल्‍य की तरह पकड़ा और परखा। नागार्जुन की प्रतिहिंसा, जो अक्‍सर ही व्‍यंग्‍य में व्‍यक्‍त हुई, यही सबसे कलात्‍मक रूप हो सकता है प्रतिहिंसा का। जनता के पक्ष में सत्‍ता से कड़वी बातें कहने के लिए नागार्जुन ने हर बार व्‍यंग्‍य का सहारा नहीं लिया, कभी तो कविता और काव्‍य-कला की कोई भी परवाह किए बिना वे सीधे ही मुख़ातिब रहे। जहॉं तीखा व्‍यंग्‍य है, वहॉं अंतस को बेधती करुणा भी अनिवार्यत: होगी, यह देखना हो तो नागार्जुन इसके बहुत बड़े उदाहरण हैं। उनके व्‍यक्तित्‍व की दसियों सही-ग़लत बातें, बीसियों गुण-अवगुण कथित हिन्‍दी संसार में चर्चा का केन्‍द्र बने पर यह करुणा बहुधा अनदेखी रही आई। 1990 से 1995 तक पॉंच साल मैंने भी कई-कई दिनों तक उनकी निजी संगत पायी, कई कहीअनकही बातों-प्रसंगों का मैं साक्षी रहा। बहुत बार कहा-लिखा गया उनका मनमौजीपन-फक्‍कड़पन, कुछ सरल-सी चालाकियाँ बच्‍चों सरीखी, उनका क्रोध, उनका रूठना – इस सबके बीच हिन्‍दी की मूल शक्ति का साक्षात्‍कार मैंने किया, जो सदा जनप्रतिबद्धता से पोषित होती रही है। मैं ऐसे इलाक़े के वासी हूँ कि मैंने चट्टानों के भीतर भी ठंडा-मीठा जल देखा है। नागार्जुन जब मिले तो, मैंने उन्‍हें रोग और जरा में घुलती ऐसी ही सजल चट्टान जैसा पाया। इन बातों का उल्‍लेख सिर्फ़ इसलिए कि जो नागार्जुन हैं, ठीक वही उनकी कविता भी है।  नामवर सिंह के देखे तरल आवेगों वाले, अति भावुक, हृदयधर्मी जनकवि। जीवन भी कविता हो जाए तो वह जीवन और कविता, दोनों नागार्जुन के होंगे। उस जीवन और कविता पर बहस की कई गुंजाइशें मिलेंगी। मैंने भले कह दिया हो कि नागार्जुन कभी-कभी कविता और कला की परवाह किए बिना अपनी बात कह जाते हैं, पर हिन्‍दी के दो बड़े आलोचकों की राय कुछ यूँ है –

 

जनकवि के रूप में नागार्जुन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, कविता के कलात्‍मक सौन्‍दर्य की बलि चढ़ाए बिना कविता को सर्वजन सुलभ बना देना। जैसा कि डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा है : नागार्जुन ने लोकप्रियता और कलात्‍मक सौन्‍दर्य के सन्‍तुलन और सामंजस्‍य की समस्‍या को जितनी सफलता से हल किया है, उतनी सफलता से बहुत कम कवि – हिन्‍दी से भिन्‍न भाषाओं में भी – हल कर पाए हैं। 18              

 

मेरी समस्‍या यह है कि मुझे मूर्धन्‍य जनों की दी गई परिभाषाओं और स्‍थापनाओं के बावजूद मुक्तिबोध भी जनकवि ही लगते हैं, भले उनकी लोकप्रियता पर प्रश्‍न हों। जो जन में लोकप्रिय है, वही जनकवि है या जो जन की पीड़ा, संत्रास और संघर्षों का कवि है, वह भी जनकवि होगा? कविता का कौन-सा कलात्‍मक सौन्‍दर्य है, जो नागार्जुन में बचा रहा पर मुक्तिबोध में नहीं। क्‍या यह कलात्‍मक सौन्‍दर्य एक तय कर दिया रस्‍ता है, जिस पर चलना ही, इसे पा जाना है? इसमें कोई विविधता सम्‍भव नहीं? और फिर जन का जीवन, जो हमारी कविताओं में पुकारता है, इतना ही सरल है क्‍या, जितना बताया जाता है? विशिष्‍टता एकांगी होती है, असाधारणता एकमुखी। सामान्‍य और साधारण दशों दिशाओं में व्‍याप्‍त रहता है। सामान्‍य जन-जीवन से अधिक जटिल कुछ भी नहीं, उसके हज़ार सिरे कहॉं जुड़ते कहॉं खुलते हैं, कहना तो दूर इसे जान पाना भी आसान नहीं। नागार्जुन ने अपनी भाषा और लोक-संस्‍कारों में इसे जाना और लिखा, मुक्तिबोध ने अपनी भाषा और लोक-संस्‍कारों में। धार्मिक परम्‍पराओं से लिए गए प्रतीक दोनों में हैं, उनका व्‍यवहार भी बहुत अलग नहीं। कितना ज्‍योतिष, कितने लोक-प्रतीक, कितने तंत्र-मंत्र, कितना लोक-जीवन अपने में ही घुटा हुआ पुकारता-सा दोनों की कविता में है। कविता की संरचना अलग है, लोकोन्‍मुखता एक। कला अलग है, पर है, तो दोनों में है। शायद कोई बहस की जा सके साहित्‍य के इस लोकतंत्र में, जिसे नामवर सिंह की आलोचना स्‍थापित करती है।

 

1995 में नागार्जुन से मैं अंतिम बार मिल पाया। फिर वे पुत्र शोभाकान्‍त के साथ पटना चले गए और इस यात्री की यात्राऍं लगभग समाप्‍त हो गईं। जीवन के अंत की ओर जाते बाबा पर नामवर सिंह ने एक छोटा-सा आत्‍मीय लेख लिया बाबा की ऐसी-तैसी। यह आजकल में छपा और हमने पढ़ा। इसे पढ़ते हुए मेरी ऑंखें भीगने लगी थीं। यह लेख भी इस किताब में मौजूद है।

 

नागार्जुन जब कहते हैं कि वह उतने सीधे-सादे नहीं, जितना दिखते हैं तो इस उक्ति से सिर्फ़ उन्‍हीं लोगों के हृदय को ठेस लगेगी, जो फेनिल श्रद्धाका कलश लिए खड़े हैं। कभी सीधे-सादे कहीं हुए होंगे पर इस टेढ़े ज़माने से निपटने के लिए कवि या रचनाकार को टेढ़ा होना ही पड़ेगा। घी टेढ़ी अँगुली से ही निकलता है। फिर वक्र चन्‍द्रमा ग्रसै न राहु का कवच भी है।

 

नागार्जुन की घुंची-घुंची ऑंखों में जो शरारत भरी चमक है, वही उनकी ताक़त है और कविता का बिन्‍दु भी। यह देखकर अच्‍छा लगता है कि आज इस उम्र में भी वह चमक मद्धिम नहीं पड़ी है। ऑंखों की उस शरारती चमक को प्रणाम। 19    

 

कहना न होगा कि नामवर सिंह भी उतने सीधे-सादे नहीं, फ़र्क इतना है कि वे वैसे दिखते भी नहीं। आलोचना में उनके पास एक टेढ़ी अँगुली सदा से रही। 

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किताब के अंत तक आते-आते आपको त्रिलोचन पर दो लेख मिलेंगे। मेरे जानते नामवर सिंह ने दो कवियों के लिए नए काव्‍यशास्‍त्र की मॉंग की है पहली त्रिलोचन के लिए और दूसरी बार बोधिसत्‍व के लिए। यह मॉंग पहली नज़र में भरमाती और उकसाती है, लेकिन भीतर जाऍं तो पता लगता है यह काव्‍यदृष्टि और काव्‍यभाषा की बात है। त्रिलोचन स्‍वयं मानक काव्‍यभाषा पर बहस करते थे। उन्‍होंने इस बारे में जो लिखा है, उसे नामवर सिंह ने अपने लेख में उद्धृत भी किया है और आधार भी बनाया है।

 

जीवन्‍त शब्‍द की तलाश है कवि को। न काव्‍यात्‍मक शब्‍द की, न सुन्‍दर शब्‍द की।

 

इस प्रसंग में त्रिलोचन का जन-भाषा और काव्‍य-भाषाशीर्षक्‍ लेख (पूर्वग्रह -75, जुलाई-अगस्‍त, 1986) उल्‍लेखनीय है। उनकी स्‍पष्‍ट मान्‍यता है कि पुरानी भाषा जिसे काव्‍य-भाषा कहकर पढ़ाया जा रहा है, वर्तमान रचनाधर्मी के प्रयोजन की वस्‍तु कम ही है।  

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यह तलाश त्रिलोचन को उन जड़ों तक ले गई, जहॉं न तथाकथित आधुनिकताकी पहुँच है और न जिसे प्रगतिऔर प्रयोगके उस आधुनिकतावादीकर्मकांड का कोई सरोकार है। इसलिए त्रिलोचन गैर-आधुनिक ही नहीं, बल्कि प्राग्-आधुनिक प्रतीत होते हैं। 20   

 

मैं यहॉं त्रिलोचन ने क्‍या कहा यह नहीं सोच रहा हॅूं, नामवर सिंह द्वारा प्रयुक्‍त पद और इनवर्टेड कॉमा देख रहा हॅूं। यहॉं आधुनिकता है, जो तथाकथित है। प्रयोग ही नहीं, प्रगति के भी आधुनिकतावादी कर्मकांड हैं। नामवर सिंह सही कह रहे हैं। मैं अपना समय देखता हॅूं तो पाता हॅूं कि आधुनिकता की ठीकठीक समझ तक लोगों के बहुत बड़े वर्ग में नहीं है। आर्थिक-जगत हमारा भूमंडलीकरण के उत्‍तरआधुनिक संसार में चला गया है और समाज अब भी पुराने सामंती अवशेषों के बीच फंसा है, बल्कि उनमें ही धंसा है। अमरीका के ग्रीनकार्ड होल्‍डर डॉक्‍टरइंजीनियरमैनेजर भाई-बहन लोग सुन्‍दर सजातीय कुलीन वधू और वर की तलाश में भारत आ रहे हैं। धर्म और जाति आज भी भारतीय समाज के सबसे बड़े मुद्दे हैं। ध्‍यान रहे कि त्रिलोचन गैर-आधुनिक या प्राग्-आधुनिक प्रतीत होते हैं। हैं नहीं। वे भारतीय समाज और उसके संस्‍कार को जड़-मूल से जानने वाले कवि हैं। हॉं, अज्ञेय की तरह आधुनिक नहीं हैं। पर क्‍या अज्ञेय भारतीय समाज को कह सके?

 

किताब के अगले लेख में त्रिलोचन पर लिखते हुए नामवर सिंह कथित आधुनिकता के बरअक्‍स भारतीयता के सन्‍दर्भ उठाते हैं। मलयज ने त्रिलोचन को औसत भारतीयता का कवि कहा था। मलयज कम समय रहे और उनकी आलोचना नई कविता के गिर्द घूमती है। इस लेख में स्‍पष्‍ट हो जाता है नामवर सिंह नई कविता की आधुनिकता को ही कथित आधुनिकता कह रहे हैं। मलयज का लम्‍बा उद्धरण उन्‍होंने लेख में दिया है और इसी लिखत को दृश्‍य में रखते हुए वे कहते हैं –

 

मलयज अब नहीं हैं। इसलिए उनसे अब बहस भी सम्‍भव नहीं। लेकिन लगता है कि इस धारणा में कहीं बुनियादी ग़लतफ़हमी है। यदि आज हमारे देश के अन्‍दर पश्चिम का अर्थ शहर, शहर की सभ्‍यता, उद्योग और प्रौद्योगिकी, विज्ञान और बौद्धिकता आदि है तो यह कहना ग़लत होगा कि नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के साथ त्रिलोचन इन सबसे बेख़बर हैं। त्रिलोचन निरे लोककवि नहीं हैं, न गॉंवों की प्रकृति और समाज के स्थिर रूप के चितेरे मात्र। न त्रिलोचन की प्रकृति वैदिक युग की है, न उनका समाज मध्‍ययुगीन गॉंव। उनकी कविता का भारत रामचन्‍द्र शुक्‍ल, प्रेमचन्‍द और गॉंधी के बाद का भारत है और इस भारतीयता में उन पूर्व पुरुषों से कम बौद्धिक ऊर्जा नहीं है। यदि किसी का ख़याल है कि वास्‍तविक बौद्धिक ऊर्जा आधुनिकतावाद के रंग में रँगी नई कविता की छद्म भारतीयता में है, तो यह शुद्ध भ्रम है। 21    

      

त्रिलोचन की कविता में कहीं ऋग्‍वेद के सूक्‍त सरीखी अभिव्‍यक्ति है, तो कहीं गॉंव-घर के स्‍त्री-पुरुषों जैसा ठेठ गँवई-देसी किस्‍म का सीधा-सादा संवाद। भूलना नहीं होगा कि ये स्‍त्री-पुरुष भी उतने अनभिज्ञ और सीधे-सादे नहीं, जितना बताए जाते हैं, इनके सोचने-विचारने और कहने की धार उतनी भोथरी नहीं – उसे जीवन की दुर्धर्षता ने भरपूर पैना किया है। कह सकता हॅूं कि त्रिलोचन भारतीय आधुनिकता के कवि हैं, जो न तो पश्चिमी विचारों से आप्‍लावित अथवा आक्रान्‍त है, न उसकी प्रतिक्रिया है। वास्‍तविक समाज को जीते हुए, प्रगतिशील जीवन-मूल्‍यों को कहने की कविता त्रिलोचन के पास है।

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किताब के अंत में पॉंच लेख हैं, एक बर्टोल्‍ड ब्रेष्‍ट पर और चार पाब्‍लो नेरुदा पर। नेरुदा पर अंतिम लेख अरुण माहेश्‍वरी की किताब की भूमिका का अंश है। नामवर सिंह ने न केवल आलोचना, बल्कि कविता में दुनिया भर के साहित्‍य को ख़ूब पढ़ा है। उनके लिखे हुए में कई जगह ये प्रमाण बिखरे मिलेंगे कि ब्रेष्‍ट और नेरुदा उनके प्रिय कवि हैं। इन कवियों की वैचारिकी भर ने उन्‍हें इनका प्रशंसक बना दिया हो, ऐसा नहीं है। इस किताब की सामग्री को ही देखें तो वे इन दोनों कवियों का मूल्‍यांकन समाज और राजनीति के साथ-साथ मनुष्‍यता के दूसरी ज़रूरी सन्‍दर्भों में भी करते हैं। ब्रेष्‍ट ने हिटलर और स्‍तालिन का विरोध एक साथ किया, यह मूल्‍यवान तथ्‍य नामवर सिंह की दृष्टि से चूकता नहीं है और वे इसकी तार्किक वजाहत भी करते हैं–

 

एक ओर हिटलर के ख़िलाफ़ लड़ाई और दूसरी ओर स्‍तालिन की आलोचना – यह सिर्फ़ कवि ब्रेष्‍ट की निष्‍पक्षता नहीं है, बल्कि उनके द्वन्‍द्ववाद का अमली स्‍वरूप है। द्वन्‍द्ववादी दृष्टि के कारण ही ब्रेष्‍ट सिक्‍के के दोनों पहलुओं को देखने में समर्थ हो सके और एकान्‍तता और एकांगिता के दोष से बच गए ….. मार्क्‍सवाद से परिचय के बाद भी ब्रेष्‍ट ने ऑंखें खुली रखीं – हमेशा लेकिन अब उन खुली ऑंखों में एक सपना भी था और वह सपना मरते दम उनकी ऑंखों में बना रहा। 22      

 

मुझे ब्रेष्‍ट पर लिखे इस लेख में कविता के अनुवाद के सम्‍बन्‍ध में ब्रेष्‍ट का एक कथन उद्धृत मिलता है, जिसे कविता के अनुवादकों को अपने कक्ष में पोस्‍टर की तरह लगा लेना चाहिए, ताकि सदा ऑंखों के आगे रहे – कविताओं का अनुवाद जब किसी भाषा में किया जाता है तो सबसे ज्‍़यादा नुकसान उन लोगों के द्वारा होता है जो कुछ ज्‍़यादा ही अनुवाद करने की कोशिश करते हैं। कवि के विचारों और भंगिमाओं के अनुवाद तक ही वे अपने आपको सीमित रखें तो बेहतर। 23  हिन्‍दी में कितने ही अनुवाद अब उपलब्‍ध हैं, जिनमें अनुवाद दरअसल पुनर्रचना है का सहारा लेकर किए हुए अजब-से फेरबदल मिल जाते हैं। मैंने ख़ुद येहूदा आमीखाई, तोमास त्रांसत्रोमर, कू सेंग आदि की कविताओं के कुछ अनुवाद किए हैं, इस स्थिति से मेरा भी सामना रहा, लेकिन हर बार मैं ठिठक गया। 

 

ऐसा लगता है कि विश्‍व-कविता में नेरुदा नामवर सिंह के सबसे प्रिय कवि हैं। उन्‍हें नेरुदा में जो बात प्रिय है, वह समाजवादी विचार का हामी और लैटिन अमरीका में उसका कवि-प्रस्‍तोता होना भर नहीं है, प्रकृति के साथ नेरुदा का जुड़ाव है। मनुष्‍यता के पक्ष का दावा करने वाला कोई भी विचार प्रकृति का पक्षधर भी होगा और उसे होना चाहिए। मनुष्‍य-जीवन की दुर्धर्षता और जिजीविषा के सीधे और सच्‍चे रूपक प्रकृति में मिलते हैं। वहॉं जीव-निर्जीव सभी संरचनाओं में भरपूर संघर्ष और द्वन्‍द्व मिलता है। कविता के नए पथिकों के लिए नेरुदा पर नामवर सिंह का लेख वैश्विक जड़ों वाला लातीनी-अमेरिकी वट-वृक्ष एक अनिवार्य पढ़त है। ज़रा इस लेख में आयी नेरुदा की यह काव्‍यात्‍मक लिखत देखिए –

 

वहॉं विशाल वृक्ष हैं, जो अपनी सात सौ वर्षों की शानदार ज़िन्‍दगी से कभी-कभी कट जाते थे। कभी तूफ़ानों से उखड़े। कभी बर्फ़ से क्षत-विक्षत हुए या फिर आग से भस्‍मीभूत हुए। मैंने गहन वन में दैत्‍याकार वृक्षों को अरराकर गिरते हुए सुना है और सुनी है धराशायी होते ओक वृक्ष की प्रलयंकर चीख़, जैसे किसी दानवी हाथ ने धरती के दरवाज़ों पर दस्‍तक दी हो और दफ़्न करने की गुहार लगाई हो। लेकिन जड़ें तो खुले मैदान में पड़ी हैं : एकदम अनावृत्‍त अपने शत्रु-काल के सम्‍मुख, नमी के सम्‍मुख, काई के सम्‍मुख यानी एक के बाद एक विनाश के सम्‍मुख। 24       

 

मैं अधिक कुछ नहीं कहॅूंगा। इस ब्‍यौरे में धराशायी होती मनुष्‍यता का रूपक नहीं दिखता? उन जड़ों की तरह खुले में अनावृत्‍त पड़ा मनुष्‍य-जीवन नहीं दिखता? नामवर सिंह ने इसे देखा है। हिन्‍दी आलोचना के पास इस दृष्टि का होना कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। उन्‍हें जब नेरुदा के माच्‍चु पिच्‍चु के शिखर दिखते हैं, तो दिखता है कालिदास का हिमालय – पूर्वापरौ तोयनिधी बगाह्य स्थित: पृथिव्‍या इव मानदण्‍ड:।

 

और मुझे दिखता है कि पूर्व से पश्चिम तक धंसा खड़ा यह हिमालय पृथिवी की ही नहीं, आज मनुष्‍यता की, मानव-जीवन की भी गहराई नाप रहा है। मैं इसी के नीचे स्थित शिवालिक का वासी हॅूं।     

***

 

सिर्फ़ इस एक किताब में भी जाऍं तो पाऍंगे कि नामवर सिंह के रूप में हमारे पास आलोचना की ऐसी धुरी मौजूद है, जहॉं सहमति-असहमति के कई बिन्‍दुओं से हम अपनी विचार-यात्राऍं आरम्‍भ कर सकते हैं। निजी होकर कहॅूं तो नामवर सिंह का होना मेरे लिए बड़े-बुजु़र्ग की छॉंव सरीखा है। मैं उनसे सीखता और उन्‍हीं से बहस करता रहा। पहल में छपे एक लेख में लाल्‍टू पर लिखते हुए मुझसे एक तीखी टिप्‍पणी हो गई थी। कुछ दिन बाद नामवर जी का फोन आया। मेरे प्रणाम और अपने आशीर्वाद की औपचारिकता के बाद वे बोले – अच्‍छा लिखा है शिरीष। ख़ूब मेहनत करो। कवियों को भी मेहनत करनी होगी। पढ़ना होगा। मेरे लिए जो लिखा, वह भी पढ़ा। मेरा विरोध करने की ज़रूरत बची है, यानी मैं बचा हूँ। शुभकामनाऍं। बस इतना भर संवाद। इस संवाद में मैं कई दिन रहा, इसलिए नहीं कि उनके प्रति वीर-पूजा का कोई भाव मुझमें है, इसलिए कि इस संवाद के मूल्‍यवान आशय हैं। कवियों को भी मेहनत करनी होगी। हमारा कवि होना हमें आत्‍म-संघर्ष और आत्‍म-संयम के पुराने इलाक़े में खड़ा कर देता है। उस जगह खड़ा कर देता है, जहॉं हमारी बौद्धिक चेतना और वास्‍तविक समाज के रास्‍ते आपस में मिलते हैं।

 

और अंत में शिखर पर खड़े आलोचना-पुरुष की यह भंगिमा कि मेरा विरोध करने की ज़रूरत बची है, यानी मैं बचा हूँ। बच जाने की यह समूची एक परम्‍परा है। जैसे प्रेमचन्‍द बचे हैं, निराला, रामचन्‍द्र शुक्‍ल और रामविलास शर्मा बचे हैं। नामवर सिंह भी बचे हैं और उन पर बहस बची रही तो सदा बचे रहेंगे।       

 

कहना न होगा कि लेख का यों अचानक ख़त्‍म हो जाना भी दरअसल मेरी लिखत का शुरू हो जाना है। नामवर सिंह की उस स्‍मृति को प्रणाम, जो मुझमें विकल रहेगी, जो मुझे विकल रखेगी।

***

 

1.    रस : जस का तस या बस, पृष्‍ठ 11

2.   वही, पृष्‍ठ 18

3.   कबीर का दुख, पृष्‍ठ 35

4.   वही, पृष्‍ठ 36

5.   वही, पृष्‍ठ 41

6.   कबीर को अगवा,  पृष्‍ठ 65 

7.   भारत भारतीऔर राष्‍ट्रीय नवजागरण, पृष्‍ठ 73

8.   इतिहास की धारा और विद्युच्‍छटा, पृष्‍ठ 88

9.   पन्‍त जी और नई पीढ़ी, पष्‍ठ 97

10.  नई कविता की भाषा, पृष्‍ठ 103

11.  आत्‍म-संघर्ष के कवि : गजानन माधव मुक्तिबोध, पृष्‍ठ 145

12. वही, पृष्‍ठ 149

13. वही, पृष्‍ठ 154

14. वही, पृष्‍ठ वही  

15. वही, पृष्‍ठ 155

16. शमशेर की रचना-प्रकिया, पृष्‍ठ 156-157 

17. ज़मीन की कविता और कविता की ज़मीन, पृष्‍ठ 168

18. वही, पृष्‍ठ 173

19. बाबा की ऐसी-तैसी, पृष्‍ठ 182 

20.   एक नया काव्‍यशास्‍त्र त्रिलोचन के लिए, पृष्‍ठ 184

21. साधारण का असाधारण कवि : त्रिलोचन, पृष्‍ठ 200

22.   शताब्‍दी के अन्‍त में ब्रेष्‍ट, पृष्‍ठ 207  

23.    वही, पृष्‍ठ 208

24.  वैश्विक जड़ों वाला लातीनी-अमेरिकी वट-वृक्ष, पृष्‍ठ 213

 ***   

(बनास जन, वर्ष- जुलाई 2023, अंक – 63 से साभार)

        

1 thought on “ऐसा कहां से लाऊं कि तुझसा कहूं जिसे – शिरीष मौर्य”

  1. पृथ्वी

    आलोचना की रीत अब जैसे गायब ही हो गई है। व्यक्ति इसे अब पसंद नहीं करता राजनेता लेखक होना बड़ी बात हो गई

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