
। एक ।
कबसे किसे
जप रहा जल
कल कल कल कल ।।
। दो ।
पहाड़ पार जाते आते
आधी सी बातें तो वे कुहनियां छुलाते
आंखें नचाते कर लेते ,
वैसे भी उनके संबंधों में शब्द कम
चेष्टायें ही कमाल किया करतीं ।।
। तीन ।
तीन पात ही क्या
अजब हर बात तुम्हारी
झरे सूखकर हुए निहंग,
फिर आ डटे नये परिधान पहन
दहते सूरज की आँखे चौंधियाते ।।
। चार ।
खू़ब फूलो फलो फैलो
अथक चढ़ते जाओ
और
गगनचुंबी चोटियों के जूड़े में
चटख गेरूआ फूल खोंस आओ ।।
। पांच ।
बित्ता बित्ता दिन
इतनी लंबी रातें
एक जोड़ी कान
कित्ती सारी बातें
बातों बातों में ऊंघती नींद
बिछा पा गई सो गई
जागी तब तक भोर हो गई ।।
। छह ।
इन पहाड़ों में
मिला करते स्मृतियों के धुंधले पदचिन्ह
ढूँढ खोज करते भुलक्कड़ घुम्मकड़ों को
कभी-कभार सुनाई पड़तीं, उनकी पदचापें ।।
। सात ।
हममें से कोई नहीं
चर्चा भर जो थे उनमें
कुछ हमारी, कुछ मिला जुलाकर
खू़ब कहा छोंक बघार कर उन उनने
कह नहीं पाते किन्हीं कारणों से
सामने जो जो ।।
। आठ ।
पिठ्ठू टाँगे, टट्टू हाँकते
चढ़ते उतरते दिन पहाड़ हो गये
सीधी सधी चाल, फूंका की कान
झर झर झर रहे झरने उस पार
छल छल छल कल कल कल ।।
। नौ ।
आकाश का आधा हिस्सा
घेर रखा घने बादलों ने
छिटके बाकी में तारागण,
बीच बीच में बिजली बादलों का हौसला बढ़ाया करती ।
हुआ करा कुछ नहीं किसी से
और रात पार हो गई ।।
। दस ।
छरहरी डालों पर लटकते अनार
चिटकने फटने फूटने पर क्या आए
दमकते दांतों पर छिटकी रसीली हँसी,
लाल लाल हल्के चटख छुटपुट छींटे छिड़क
छापी सुनहरी धूप की चुनरी पर
छैल छबीले बेलबूटे ।।
। ग्यारह ।
फैल फटककर पांव पसारी हरियाली
खर्राटे भर दिए सुनाई दूर दूर तक,
पसीना बहाते पहाड़ थे कि झरने
साफ साफ दिखाई दिया ना समझ आया
सपना बहुत घना था ।।
। बारह ।
गदगद हैं परिचित अपरिचित
खलबल मचा रखे कंदराओं में,
गुदगुदी उफनी लचकती डालियों की रगों में
पींड़ पत्तियां सब कसकर हिलने लगीं
आज पेड़ों का कुछ चक्कर है ।।
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बेहतरीन कविताएं वीरेन्द्र भाई। आपको हार्दिक बधाई शुभकामनाएं 🙏🙏🌹🌹